Thursday 22 November 2018

कश्मीर में राष्ट्रीय राजनीति की मजबूती जरूरी

जम्मू कश्मीर विधानसभा को भंग किये जाने से एक तरफ जहां राज्य में व्याप्त राजनीतिक अनिश्चितता समाप्त हो गई वहीं विधायक रूपी घोड़ों की मंडी पर भी ताला लग गया । विगत जून माह में भाजपा के समर्थन वापिस ले लेने से महबूबा मुफ्ती सरकार गिर गई थी । भाजपा पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के निर्णय को अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं के गले कभी नहीं उतार सकी । यद्यपि पहली बार जम्मू कश्मीर राज्य में सरकार का हिस्सा बनने से भाजपा को ऐसे अनेक लाभ हुए जो कालांतर में सामने आएंगे । सबसे बड़ी बात ये रही कि आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई में तेजी आई । महबूबा से भाजपा का अलगाव होने के पीछे एक कारण ये समझा जा रहा था कि आतंकवाद के विरुद्ध सुरक्षा बलों की सख्ती में वे अड़ंगे लगाती थीं । उनकी सरकार गिरने के बाद नेशनल कांफे्रंस और कांग्रेस ने तत्काल नए चुनाव करवाने की मांग की लेकिन तब भाजपा ने विधानसभा निलंबित करने का निर्णय लिया । उसके पीछे मकसद ये था कि राज्यपाल शासन लगाकर घाटी के भीतर स्थिति को सामान्य बनाने के बाद नए चुनाव के लिए उतरा जाए । इस बीच घाटी में स्थानीय निकाय के चुनावों के जरिये राजनीतिक प्रक्रिया को पुनर्जीवित करने की जो कोशिश की गई उससे पार्टी को वहां अपनी जड़ें जमाने का अवसर मिला जिससे उत्साहित होकर भाजपा ने पीडीपी को तोड़कर सज्जाद लोन के नेतृत्व में नई सरकार बनाने की कोशिश की । दिसम्बर में राज्यपाल शासन की छह माह की म्याद समाप्त होने वाली है जिसके बाद नया चुनाव या फिर राष्ट्रपति शासन का विकल्प बचता। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व चाह रहा था कि घाटी के भीतर पीडीपी और नेशनल कांफे्रंस को दरकिनार करते हुए कोई नया राजनीतिक गठबंधन जीवित किया जाए जिससे वहां स्थापित दोनों क्षेत्रीय दलों का एकाधिकार  खत्म होकर राष्ट्रीय राजनीति के पैर जम सकें । उल्लेखनीय है कांग्रेस भी इस राज्य में कभी अब्दुल्ला परिवार की बपौती नेशनल कांफे्रंस तो कभी मुफ्ती खानदान की मिल्कियत पीडीपी की पिछलग्गू बनने मजबूर रही है। भाजपा का प्रभाव क्षेत्र जम्मू के हिन्दू बहुल अंचल तक ही सिमटा हुआ था । पिछले चुनाव में भाजपा ने काफी जोर लगाकर जम्मू की अधिकतर सीटें जीत लीं तथा पीडीपी और नेशनल कांफे्रंस के बीच बनी खाई का लाभ उठाकर एक प्रयोग करते हुए आतंकवाद के प्रति नर्म रहने वाले मुफ्ती मो.सईद के साथ सत्ता में भागीदारी हासिल कर ली। उसे उम्मीद थी कि पीडीपी की सोच को बदल लेगी किन्तु मशर्रत आलम जैसे खूंखार आतंकवादी को रिहा कर मुफ्ती ने कुत्ते की पूंछ के सीधे न होने की कहावत को सही साबित कर दिया । उसे लेकर भाजपा को बहुत नीचा देखना पड़ा । मुफ्ती की मौत के बाद कुछ दिन तक अनिश्चितता रही । बाद में उनकी बेटी महबूबा से भाजपा ने गठबन्धन कर लिया । लेकिन पत्थरबाजों पर पैलेट गन के प्रयोग के अलावा सघन तलाशी और एनकाउंटर को लेकर महबूबा का भाजपा से टकराव शुरू हो गया । सही मायनों में  पीडीपी प्रशासन में भाजपा के बढ़ते दखल से चौकन्नी थी। महबूबा उससे पिंड छुड़ाकर कांग्रेस से गठजोड़ करने के लिए गोटियां बिठाने में लग गईं। विधानसभा भंग करवाने की भी उन्होंने सोची थी किन्तु भनक लगते ही भाजपा ने समर्थन वापिस लेकर फटाफट राज्यपाल शासन लगवा दिया। बीते पांच माह में राज्य एक तरह से भाजपा के निर्देशन पर चल रहा था। नेशनल कांफे्रंस, पीडीपी और कांग्रेस इसे लेकर चिंतित थे कि भाजपा विधायकों में तोडफ़ोड़ कर सज्जाद लोन को चेहरा बनाकर कठपुतली सरकार बना सकती है। इसके तुरंत बाद तीनों ने  भाजपा की कार्ययोजना को ध्वस्त करने के लिए मतभेद भूलकर एक साथ आने की मुहिम चलाई किन्तु भाजपा को ज्योंही इसका पता चला उसने विधानसभा भंग करने जैसा तुरुप का पत्ता चल दिया और इस तरह अब राष्ट्रपति शासन लगाकर वहां के प्रशासन पर अपनी लगाम कसने का मौका उसके हाथ में आ गया। लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव करवाने की तैयारी भी इस तरह कर ली गई। वैसे कल विधानसभा भंग करने पर हैरानी व्यक्त करने वाली पीडीपी, नेशनल कांफे्रंस और कांग्रेस महबूबा सरकार गिरने के बाद से ही  विधानसभा भंग करने का दबाव बना रही थीं । ऐसा लगता है सतपाल मलिक को राज्यपाल बनाने के पीछे भाजपा की कोई दूरगामी सोच है क्योंकि लम्बे समय बाद इस समस्याग्रस्त राज्य में नौकरशाह की बजाय राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले राज्यपाल की नियुक्ति की गई थी । भाजपा अपनी योजना में कितनी सफल होगी ये तो भविष्य बताएगा लेकिन सरकार बनाने के लिए शुरू हुई जोड़तोड़ पर पूर्णविराम लग जाने से घाटी के भीतर सख्ती दिख रहे सुरक्षा बलों को खुलकर काम करने का  मौक़ा मिल गया वरना अब्दुल्ला , मुफ्ती और गुलाम नबी की तिकड़ी मानवाधिकारों के नाम पर  अलगाववादियों के प्रति नर्म रवैया अपनाने की नीति वापिस ले आती। जम्मू कश्मीर में सरकार बनना केवल किसी राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा न होकर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा विषय भी है । इसलिए उसके बारे में कोई भी फैसला दलगत हितों से ऊपर उठकर होना चाहिए । बेहतर तो ये होता कि राष्ट्रवादी राजनीति के प्रतिनिधि बनकर कांग्रेस और भाजपा इस राज्य में अलगाववादियों को प्रश्रय देने वाली ताकतों को हराने के लिए एक साथ खड़े हो जाते किन्तु कांग्रेस इसके लिए शायद ही कभी राजी होगी । भाजपा और पीडीपी के गठबंधन को कोसने वाली कांग्रेस भी अतीत में  मुफ्ती सरकार का हिस्सा रही और बाद में नेशनल कांफे्रंस के साथ  सत्ता सुख लूटती रही। ताजा हालात में बेहतर यही होगा कि भाजपा और कांग्रेस मिलकर जम्मू कश्मीर में राष्ट्रीय राजनीति को मजबूत बनाने के लिए रणनीतिक साझेदारी करें । राष्ट्रीय सन्दर्भ में ये अपेक्षा बेमानी लग सकती है किंतु जम्मू कश्मीर में जहां राष्ट्रीय हित दांव पर लगे हों वहां राजनीतिक हितों को पीछे रखकर सोचना जरूरी है । कांग्रेस को कश्मीर समस्या के लिए जिम्मेदार माना जाता है । राजनीतिक समझदारी दिखाकर वह इस धारणा को बदल सकती है लेकिन एक कदम भाजपा को भी बढ़ाना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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