Thursday 30 April 2020

अनिश्चितता के बाद भी उम्मीद की किरण





चूंकि इस समय निजी तौर पर आंकड़ों का संग्रहण संभव नहीं है इसलिए जो सरकारी जानकारी मिल रही है उसे ही अधिकृत माना जा रहा है। और उस लिहाज से संक्रमित लोगों की संख्या दोगुनी होने में अब 11 दिन से भी ज्यादा लग रहे है वहीं ठीक होने वाले मरीजों का प्रतिशत भी निरंतर बढ़ता जा रहा है। लेकिन सरकारी आश्वासनों की बाद भी ये कहना गलत नहीं होगा कि नए मरीजों का मिलना भी न केवल जारी है अपितु उनकी संख्या भी प्रतिदिन पिछले से ज्यादा हो रही है। हॉट स्पॉट के रूप में चिन्हित इलाकों के अलावा अब फुटकर मरीज भी सामने आ रहे हैं जिनमें सरकारी स्टाफ  भी है। उदहारण के तौर पर जबलपुर में पुलिस महकमे के एक नाई के कोरोना संक्रमित होने की जानकारी मिलने के बाद अब उन अफसरों की भी जांच की जा रही है जो उसकी सेवाएं लॉक डाउन के दौरान लेते रहे। पुलिस और स्वास्थ्य विभाग के तमाम लोग भी चूंकि अपने कर्तव्य के निर्वहन के कारण विभिन्न लोगों के संपर्क में आते हैं इसलिए उनमें से भी अनेक संक्रमित हो रहे हैं। बहरहाल संतोष का विषय ये है कि महाराष्ट्र, गुजरात और मप्र के इंदौर शहर को छोड़कर शेष स्थानों पर कोरोना का संक्रमण उतना गम्भीर नहीं है। शुरुवात में वेंटीलेटर की कमी चिंता का विषय बनी रही लेकिन अब जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार उसकी जरूरत बहुत कम लोगों को पड़ती है। ऑक्सीजन लगने की नौबत भी कम लोगों को ही आई। हालांकि बंगाल को लेकर भ्रम की स्थिति है। वहां की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने केन्द्रीय टीम भेजे जाने पर ऐतराज जताते हुए उसके काम में अड़ंगा लगाया। ऐसा माना जाता है कि वहां कोरोना से हुई मौतों का आंकड़ा छिपाया जा रहा है। पहले लगा था कि केंद्र सरकार राजनीतिक आधार पर बंगाल को बदनाम कर रही है किन्तु गत दिवस लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने भी ममता सरकार पर आंकड़े छिपाने का आरोप लगा दिया। ऐसा कहा जा रहा है कि राज्य के अंदरूनी इलाकों में हालात चिंताजनक हैं और बड़ी बात नहीं यदि बंगाल आने वाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर हॉट स्पॉट बनकर उभरे। ये स्थिति और राज्यों के साथ भी हो सकती है। ये भी कहा जा रहा है कि अनेक जिलों के अधिकारी भी नये संक्रमणों की जानकारी देने में विलंब कर रहे हैं। हालांकि इस बीच कुछ अच्छी खबरें भी आईं हैं। जिनमें भारत में ही जांच किट का निर्माण और वैक्सीन विकसित करने में मिली सफलता है। फिर भी ये माना जा रहा है कि मई के दूसरे हफ्ते बाद ही ये पता चल सकेगा कि देश में कोरोना की सही स्थिति आखिर है क्या? क्योंकि तब तक लॉक डाउन खोलने को लेकर भी ठोस निर्णय करना पड़ेगा। आज जैसे हालात हैं उनमें कुछ राज्यों ने भले ही थोड़ी ढील दी है लेकिन कुछ ने लॉक डाउन को 3 मई के बाद भी बढ़ाने का फैसला कर लिया है। ऐसे में जब तक देश के अधिकांश राज्यों में स्थिति सामान्य नहीं हो जाती तब तक कुछ भी कह पाना कठिन है। शैक्षणिक सत्र तो आगे बढ़ ही चुका है लेकिन व्यापार जगत के लिए सामान्य परिस्थितियां जब तक नहीं बनती तब तक जनजीवन भी पटरी पर नहीं लौट सकेगा। दरअसल सरकार के लिये भी यही चिंता का दूसरा बड़ा कारण है। क्योंकि व्यापार-उद्योग शुरू हुए बिना उसे भी राजस्व नहीं मिलेगा। यद्यपि पूरी दुनिया की तरह भारत भी ये मान चुका है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष एक तरह से शून्य रहेगा। कोरोना का संक्रमण भले रुक जावे किन्तु उसका प्रभाव लम्बे समय तक बना रहने से  जनता और सरकार दोनों प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। इसलिए हमें आने वाले अनेक महीने एक तरह के आपातकाल में गुजरने की मानसिकता बना लेनी चाहिए। लॉक डाउन के समाप्त होते ही जनजीवन के सामान्य होने की आपाधापी खतरनाक होगी। बेहतर हो छूट मिलने के बाद भी अनुशासित जीवन हेतु हम सब तैयार रहें। विकास दर चूंकि शून्य से भी नीचे जाने का अंदेशा है इसलिए वही आने वाले समय में अपने पांव मजबूती से जमाये रख सकेगा जो बदले हुए हालातों से सामंजस्य बिठाकर चल सके। सबसे बड़ी बात होगी लोगों में कार्य संस्कृति का विकास। सरकारी अनुदानों पर जि़न्दगी बसर करने वाले करोड़ों लोगों को भी काम में लगाना जरूरी होगा। अब वो समय नहीं रहा जब आबादी का बड़ा हिस्सा निठल्ला बैठा रहे। आगामी कुछ महीने तो कोरोना से हुए नुकसान को समेटने में ही लग जायेंगे। इस दौरान देश की वही स्थिति होगी जो किसी इंसान के लम्बी बीमारी से उठने के बाद होती है। कमजोरी के बाद भी उसे काम शुरू करना होता है। लेकिन सक्रिय होने से उसकी शारीरिक शक्ति के अलावा मनोबल भी वापिस लौटता है। भारत भी इस समय लम्बी बीमारी से निकलने की तैयारी में है। शुरुवात में वह भी खुद को अशक्त महसूस करेगा किन्तु यदि 135 करोड़ लोगों का ठीक से उपयोग किया जा सके तब बड़ी बात नहीं, कुछ महीनों बाद ही विकास की गति तेज हो जाए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

क्या आगे भी जनता की चप्पलें घिसती रहेंगीं ?या कोरोना काल जैसा सेवा और समर्पण बना रहेगा



 

25 और 26 जून 1975 की दरम्यानी रात में स्व. इंदिरा गांधी की सरकार ने राष्ट्रपति स्व. फखरुद्दीन अली अहमद को जगाकर एक अध्यादेश पर हस्ताक्षर करवाते हुए देश में आपातकाल लगा दिया | इसमें क्या - क्या हुआ वह  एक अलग कहानी है लेकिन सुबह होते - होते तक दिल्ली में बाबू जयप्रकाश नारायण से लगाकर तहसील और कस्बों तक के अधिकतर विपक्षी नेता  मीसा  (राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम ) के तहत  गिरफ्तार हो  चुके थे |  जो उस समय नहीं मिले उन्हें बाद में पकड़कर  जेल भेज दिया गया | इनमें से अनेक ऐसे नेता भी रहे जिनके विरुद्ध  जनांदोलनों के अलावा अन्य कुछ मामलों में अदालती वारंट जारी हो चुके थे लेकिन पुलिस और प्रशासन उनकी तामीली नहीं करवा पाता था | 

लेकिन दिल्ली  में आधी रात को हुए एक फैसले के बाद पूरे देश के प्रशासन ने अभूतपूर्व मुस्तैदी दिखाते हुए जिस तरह विपक्ष के हजारों बड़े और छोटे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया वह प्रशासनिक दक्षता का ज्वलंत उदाहरण था | वह भी तब जबकि उस समय तक देश में बाबा आदम के ज़माने की संचार सुविधाएँ हुआ करती थीं | बाहर के शहरों में फोन से बात करने में ट्रंक काल लगाना पड़ता जिसमें कई बार घंटों इंतजार करना होता था | एसटीडी ( सीधी डायलिंग सेवा ) भी बाद  में शुरू हुई |

 ऐसे में आपातकाल को लागू करते हुए तकरीबन पूरे देश में एक साथ इतने बड़े पैमाने पर राजनीतिक नेताओं को ढूँढ़कर पकड़ना आसन काम नहीं था | लेकिन लेट - लतीफी के लिए बदनाम भारत की नौकरशाही ने उस रात जो कारनामा कर  दिखाया वह लोकतंत्र के लिहाज से भले ही घोर आपत्तिजनक रहा किन्तु प्रशासनिक कार्य क्षमता की कसौटी पर बड़ा काम था | अनेक ऐसे नेता जो अपने शहर में नहीं थे उन्हें ठिकाना पता करते हुए वहां पकड़ा गया |

वैसे प्रशासनिक कार्यक्षमता का सबसे बड़ा उदाहरण होता है भारत का आम चुनाव | जिस सरकारी मशीनरी को भ्रष्ट , कामचोर , लालफीताशाही का संरक्षक , काले अंग्रेज जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है वही भारत जैसे विविधता  भरे देश में इतनी बड़ी चुनावी प्रक्रिया को न्यूनतम त्रुटियों के साथ समय पर संपन्न करवाती है  |

 जब भी कहीं देश की प्रशासनिक मशीनरी  को लेकर चर्चा होती है तब मैं सदैव तीन उदाहरण देते हुए कहता हूँ कि हमारे देश की नौकरशाही को इन आधारों पर न तो कामचोर ठहराया जा सकता है और न ही अक्षम |  दो उदाहरण तो आपने ऊपर पढ़ लिए और तीसरा मेरी  नजर में है  कुम्भ मेले का आयोजन |

 भारत में प्रयागराज , हरिद्वार , नासिक और उज्जैन में प्रत्येक 12 वर्ष के अन्तराल पर कुम्भ मेला भरता है | इसका पौराणिक संदर्भ अलग विषय है इसलिए उसकी चर्चा न करते हुए इस बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि उक्त चारों में प्रयागराज का कुम्भ  सबसे विशाल होता है | एक महीने के इस  आयोजन में पूरी दुनिया से लोग आते हैं | विदेशी पर्यटक ही नहीं अपितु दुनिया के प्रसिद्ध प्रबन्धन  संस्थान भी इसका अध्ययन और अवलोकन करने लगे हैं | इसमें मुख्य स्नान के दिन कई करोड़ लोग गंगा  - यमुना  के पवित्र संगम  में स्नान करते हैं | सामान्य दिनों  में भी मेला स्थल पर लाखों लोगों की मौजूदगी रहती हैं |  सबसे बड़ी बात यातायात का नियन्त्रण जिस कुशलता से किया  जाता है वह देखकर  हर कोई आश्चर्य में डूब जाता है |

 विश्व के इस सबसे बड़े मानवीय सैलाब को सम्पूर्ण व्यवस्था के साथ नियंत्रित करने का काम भी हमारे देश की प्रशासनिक मशीनरी ही सफलतापूर्वक करती है | अपवादस्वरूप कोई दुर्घटना या कमी रह जाए तो बात अलग वरना प्रयागराज का कुम्भ मेला भारत की नौकरशाही के अद्वितीय प्रबन्धन कौशल और कार्यक्षमता का नायाब नमूना कहा जा सकता है |

 लेकिन बीते एक माह के अवलोकन के बाद मैं अपने तीन  उदाहरणों में एक और जोड़ने जा रहा हूँ और वह है कोरोना के कारण लागू किये गये देशव्यापी लॉक डाउन के दौरान पूरे देश को संभालना | किसी उपद्रव के कारण लगने वाले कर्फ्यू के दौरान भी प्रशासन को मैदानी काम  करना होता है | लेकिन  देश भर में बीते तकरीबन सवा माह से कोरोना नामक महामारी का जो भय व्याप्त है उसमें करोड़ों लोगों को घरों में रहने के लिए राजी कर लेने में प्रधानमंत्री की अपील का बड़ा योगदान रहा किन्तु जमीनी स्तर पर उसे सफल बनाने का जिम्मा जिस प्रशासनिक अमले के कन्धों पर है  उसने अविश्वसनीय तरीके से उसका निर्वहन कर दिखाया |

कोरोना से लड़ने का काम केवल हुकुम और डंडा चलाने से नहीं हो सकता था | उसके लिए शासन के सभी विभागों में समन्वय बनाकर हालात को संभालना आसान नहीं था | लेकिन देश के नौकरशाहों ने इस दौरान अब तक अपने दायित्वों का जिस कुशलता और समर्पण भाव से निर्वहन किया वह आने वाले समय में अध्ययन का विषय बनेगा | जिस दौर में हर व्यक्ति अपनी प्राण रक्षा के प्रति चिंतित  हो तब अपने नवजात शिशु को गोद में लेकर कार्यालय में उपस्थित युवा महिला जिलाधिकारी का चित्र पूरे देश में चर्चित हुआ |

 कोरोना के सन्दर्भ में प्रशासनिक मशीनरी से आशय आला नौकरशाहों से लेकर , मेडिकल स्टाफ , गली मोहल्लों में घुसकर सफाई और सैनिटाइजिंग करने वाले छोटे कर्मचारी तक से है | ये मान लेना तो कि रामराज भारत की धरती पर उतर आया है , अतिशयोक्ति होगी लेकिन कलियुग में चारों तरफ व्याप्त विसंगतियों को देखते हुए इसे उसका छोटा रूप तो माना ही जा सकता है |

कोरोना के पूर्व तक जनता की निगाहों में उक्त सभी लोगों की छवि बहुत ही नकारात्मक थी | लेकिन लॉक  डाउन ने उनके व्यवहार  में जो परिवर्तन देखा वह किसी सुखद आश्चर्य से कम  नहीं है |

इस आलेख का उद्देश्य नौकरशाही का महिमामंडन करना कदापि नहीं हैं अपितु इस बात को स्पष्ट करना है कि  जनता के प्रति उसका दायित्वबोध और कार्य संबंधी प्रतिबद्धता किसी भी विकसित  देश की तुलना में कम होने का तो सवाल ही नहीं बल्कि कहीं - कहीं तो बेहतर कही जायेगी |

 लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि हमारे देश के  प्रशासनिक अमले की ये विलक्षण क्षमता , दायित्व बोध और संवेदनशीलता कुछ चुनिन्दा अवसरों पर ही क्यों देखने मिलती है ? ये माना कि इस समय  सरकार का पूरा ध्यान केवल  और केवल कोरोना संबंधी आपात व्यवस्थाओं  पर केन्द्रित है लेकिन इसका आधा भी सामान्य समय में प्रशासन करे तो जनता के मन में उसकी छवि तो सुधरेगी ही देश के विकास में भी वह सहायक होगा |

कोरोना के विरुद्ध जारी जंग का क्या अंजाम होगा ये पूरी तरह अनिश्चित है | लॉक डाउन कितने दिन तक अभी और जारी रहेगा ये  भी कोई नहीं बता सकता | इन हालातों में जनता तो हलाकान है ही | विशेष रूप से वे गरीब मजदूर जो बेरोजगारी , बेघरबारी और भूख से बेहाल हैं | लेकिन दूसरी तरफ कोरोना से लड़ रही सरकारी मशीनरी का हर शख्स भी उतना ही परेशान है | उसका भी अपना परिवार और जीवन है | अनेक पुलिस कर्मी  , चिकित्सक और अन्य शासकीय कर्मी दूसरों  की जान बचाते हुए जान गँवा बैठे | जिन कोरोना मरीजों ने डाक्टरों के साथ हिंसा और निम्नस्तरीय व्यवहार किया , यहाँ तक कि महिलाओं के साथ भी अश्लील और अमानवीय हरकतें कीं , उनका भी इलाज करने से मना नहीं करना ये  दर्शाता है कि जब लक्ष्य बड़ा हो तब छोटी - छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए |

लेकिन भारतीय नौकरशाही को इस बात पर गम्भीर चिन्तन - मनन करना चाहिए कि वह विशिष्ट अवसरों पर ही  सेवा और समर्पण का ऐसा भाव क्यों व्यक्त करती है ? ऐसा नहीं है कि ऐसे समय  सभी कर्मठ हो जाते हों और सामान्य समय में सब कामचोर बन जाते हों | लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि सामान्य दिनों में प्रशासनिक अमले का दायित्व बोध लॉक डाउन होकर लुप्त हो जाता है |

 मेरे एक मित्र ने मुझे जापान का एक किस्सा सुनाया । तकरीबन दो दशक पूर्व वे सपत्नीक टोकियो में थे | वहां की रिवॉल्विंग रेस्टारेंट बड़ी प्रसिद्ध है | एक गगनचुम्बी इमारत की  सबसे ऊँची मंजिल पर घूमते हुए इस रेस्टारेंट से रात में टोकियो का नजारा  बड़ा खूबसूरत दिखाई देता है | वे दोनों शनिवार की शाम वहां डिनर हेतु गये | किन्तु भीतर जबरदस्त भीड़ के कारण उन्हें तकरीबन एक घंटा टेबिल प्राप्त करने हेतु इंतजार करना पड़ा | उस रात वे ज्यादा समय वहां नहीं बिता सके इसलिए दूसरे दिन आने का निर्णय किया और पिछले अनुभव से सबक लेकर शाम को जल्दी पहुँच गये | भीतर अधिकतर टेबिलें खाली थी | उन्होंने उस टेबिल को चुना जहां से रात को टोकियो की  भरपूर ख़ूबसूरती निहार सकें | काफी समय बीतने के बाद भी ज्यादा लोग नहीं आये तब उन्होंने वेटर से वजह पूछी तो उसने बताया कि शनिवार रात ज्यादा लोग  इसलिए  आते हैं क्योकि रविवार को उन्हें काम पर नहीं जाना होता अतः वे आराम से उठते हैं वहीं रविवार रात मौज - मस्ती छोड़ जल्दी सोते हैं जिससे सोमवार सुबह ठीक समय पर काम पर पहुँचें |

 हमारे देश में दफ्तर खुलने के थोड़ी देर बाद ही टेबिल पर बैठा व्यक्ति चाय पीने कैंटीन चला जाए तो आश्चर्य नहीं होता  | अधिकारियों की उपलब्धता भी भगवान भरोसे होती है | अब जबकि कोरोना उपरांत एक नए भारत के सपने हर आँख में हैं तब क्या हम अपेक्षा कर सकते हैं कि बीते सवा माह में हमने जिस सरकारी अमले को कर्तव्य पथ पर बढ़ते हुए देखा , वह भविष्य में  भी इतनी ही कर्मठता और समर्पण भाव से जनता के साथ पेश आयेगा ?

अभी तक का जो चलन है उसके अनुसार तो  यातायात सप्ताह में ही उसकी चिंता रहती है | उसी तरह राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षण के समय सफाई व्यवस्था चाक चौबंद हो जाती है | लेकिन शेष समय इनकी तरफ  से आँखें  फेर ली जाती हैं |

इस बारे में सोवियत संघ के तानाशाह स्टालिन से जुड़ा एक वाकया उल्लेखनीय है | हुआ यूँ कि उनके देश में डाक विभाग में इस बात की प्रातियोगिता हुई कि कौन कर्मचारी सबसे ज्यादा चिट्ठियाँ तय समय में छांटता है | जिस कर्मचारी ने सबसे ज्यादा  चिट्ठियाँ छांटीं उसे स्टालिन से पुरस्कार दिलवाया गया | और फिर उन्होंने अपने भाषण में कहा कि आगे से चिट्ठियाँ छांटने वाले हर कर्मचारी को इतनी ही छंटाई करनी होगी | क्योंकि ईनाम की लालच में जो कार्य किया गया वह असम्भव नहीं है |

विशिष्ट परिस्थितियों में हमारा सरकारी अमला जिस पराक्रम का प्रदर्शन करता है यदि उसका आधा भी सामान्य अवसरों पर करता रहे तो फिर देश दोगुनी गति से आगे बढ़ सकता है |

किसी चप्पल निर्माता का वह विज्ञापन हमारी व्यवस्था पर सबसे तीखा व्यंग्य था जिसमें एक साधारण व्यक्ति दफ्तर में बैठे बाबूनुमा कर्मचारी से शिकायत भरे लहजे में कहता है कि यहाँ के चक्कर लगाते - लगाते मेरी चप्पल घिस गयी  और बजाय उसकी समस्या दूर करने के वह बाबू तंज कसते हए कहता है कि तो आपने फलां कम्पनी की चप्पल क्यों नहीं खरीदी ?

Wednesday 29 April 2020

इस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए



इस समय पूरी दुनिया के आर्थिक विशेषज्ञ कोरोना के बाद के परिदृश्य की कल्पना में जुटे हुए हैं। चीन को लेकर कहीं खुलकर तो कहीं दबी जुबान नाराजगी व्यक्त की जा रही है। अमेरिका और उसके समर्थक विकसित देश तो उससे जुर्माना वसूलने तक की बात कर रहे हैं। हालाँकि चीन लगातार ये सफाई दे रहा है कि कोरोना के विश्वव्यापी फैलाव में उसका कोई षडयंत्र नहीं था लेकिन अपने वुहान  नामक शहर में स्थित प्रयोगशाला के निरीक्षण की अनुमति विश्व समुदाय को देने से वह जिस तरह पीछे हट रहा है उसे देखते हुए उसके चारों तरफ संदेह का घेरा और गहरा होता जा रहा है। इसका अंतिम परिणाम क्या होगा ये तो अभी कह पाना कठिन है लेकिन जो सबसे बड़ी बात इस दौरान निकलकर सामने आई वह है चीन का अकेला पड़ जाना। चूंकि रूस भी कोरोना की चपेट में आ चुका है और वहां के हालात भी बाकी यूरोपीय देशों जैसे ही हैं इसलिए वह भी मन ही मन  चीन पर भन्नाया हुआ है।हालांकि वह अमेरिका का  साथ नहीं दे रहा । आज की स्थिति में भले ही चीन अपने को कितना भी निर्दोष साबित करने का प्रयास करे लेकिन कोरोना एक गंभीर आरोप की तरह उससे चिपक गया है जिसे अलग करने में वह फिलहाल तो सफल नहीं हो पा रहा। चूंकि कोरोना ने पूरी दुनिया को भयंकर तबाही की खाई में धकेल दिया है इसलिए चीन को वैश्विक बिरादरी में जो संभावित विरोध झेलना पड़ेगा उसमें उसके साथ खड़े होने वाले देश कहीं नजर नहीं आ रहे। उत्तर कोरिया तो वैसे ही सबसे कटा हुआ है और उपर से उसके तानाशाह किम जोंग की सेहत को लेकर तरह-तरह की अफवाहें उड़ रही हैं जिनमें मृत्यु होने तक की बात कही जा रही है। क्यूबा भी बहुत ज्यादा सहायता करने की स्थिति में नहीं होगा, वहीं पाकिस्तान जैसा चीन का पिछ्लग्गू इस समय जिस विपन्नता की स्थिति में है उसमें अतर्राष्ट्रीय बिरादरी में उसकी हैसियत धेले भर की हो गई है। ईरान यद्यपि अमेरिका से जबरदस्त नाराज है लेकिन वह खुद कोरोना का दंश झेलने के बाद हलाकान है ।
 सबसे बड़ी बात ये है कि चीन के तकरीबन सभी नजदीकी पड़ोसी देशों तक में उसे लेकर भय का माहौल है। ऐसे में कोरोना के बाद की वैश्विक राजनीति में चीन पूरी तरह अलग थलग पड़ सकता है । कोरोना उसका पैदा किया हुआ संकट था या नहीं ये कभी स्पष्ट नहीं हो सकेगा लेकिन चीन की छवि पहले से और खराब होती जा रही है। हालांकि कोरोना के काफी पहले से ही अमेरिका और उसके बीच ट्रेड वार चल रहा था। दुनिया में अपना आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने के फेर में चीन जिस तेजी से आगे बढ़ रहा था उससे अमेरिका सहित दूसरे विकसित देशों में चिंता थी ही लेकिन वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। लेकिन कोरोना ने पूरी वैश्विक व्यवस्था को जिस तरह उलट-पुलट दिया उसके बाद चीन की घेराबंदी आसान हो गई। हालाँकि उसने कोरोना से लड़ने वाले उपकरण और सामग्री की आपूर्ति के जरिये अपनी छवि सुधारने की कोशिश तो की लेकिन उसमें भी वह धूर्तता करने से बाज नहीं आया। कहीं घटिया किस्म के वेंटीलेटर भेज दिए तो कहीं अंडर गारमेंट से बने मास्क। भारत में घटिया टेस्टिंग किट भेजने का मामला ताजा है। ये सब देखते हुए चीन की रही सही विश्वसनीयता भी घटती जा रही है। अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस , दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देश खुलकर उसके विरुद्ध आ गये है। कोई उससे आर्थिक क्षति वसूलने की बात कर रहा है तो कोई अपने देश की कंपनियों को चीन से कारोबार समेटने के लिए प्रोत्साहन राशि देने की पेशकश कर रहा है। अमेरिका इस अवसर का लाभ उठाकर चीन को संरासंघ की सुरक्षा परिषद से हटवाने तक की रणनीति बनाने में जुट गया है। क्या होगा ये कोई नहीं जानता लेकिन भारत के लिए ये स्थिति कूटनीतिक के साथ ही आर्थिक दृष्टि से भी बेहद अनुकूल है। वैश्विक स्तर पर हो रहे विश्लेषणों में चीन से निकलने वाले उद्योगों के जिन देशों में जाने की संभावना जताई जा रही हैं उनमें मुख्य रूप से ताईवान, वियतनाम, मलेशिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्री लंका और भारत हैं । विश्लेषण करने वाले इस बात का भी अध्ययन कर रहे हैं कि कौन सा उद्योग किस देश में जा सकता है। उनका आकलन है कि भारत में सम्भावनाएं सबसे बेहतर हैं क्योंकि कोरोना से लड़ने के मामले में अब तक का भारत का प्रदर्शन 135 करोड़ की विशाल आबादी को देखते हुए काफी बेहतर माना जा रहा है। लॉक डाउन को सफल बनाने में भारत सरकार की सफलता भी वैश्विक स्तर पर प्रशंसित हो रही है। लेकिन चीन से उठने वाली इकाइयों का भारत आना इतना आसान नहीं है क्योंकि ऊपर वर्णित सभी देश अपने-अपने तरीके से उनको आकर्षित करने में जुटे हुए हैं। भारत सरकार के वाणिज्य और विदेश विभाग ने इस बारे में जमीनी तैयारियां शुरू तो कर दी हैं किन्तु कोरोना के बाद की दुनिया में गलाकाट प्रतिस्पर्धा शुरू होगी और चीन से निकलने वाले उद्योग जहां ज्यादा सहूलियतें मिलेंगीं वहां अपना डेरा ले जायेंगे। हालात भारत के अनुकूल हैं। बस प्रयासों की पराकाष्ठा चाहिये। भारत के लिए कोरोना ने एक स्वर्णिम अवसर उत्पन्न किया है। भारत सरकार को चाहिए वह कोरोना संकट से जूझने के साथ ही इस दिशा में भी अपने प्रयास तेज करे क्योंकि ऐसे कामों में देर से हाथ आया अवसर लौट जाता है। कोरोना से अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई करने का यही एकमात्र उपाय है। यदि हम इस कार्य में सफल हो सके तभी 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का जो सपना नरेंद्र मोदी देख रहे हैं वह पूरा हो सकेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 28 April 2020

पर्यावरण और पुलिस : क्या कोरोना के बाद भी ऐसे ही रहेंगे ?या इस दौरान जागी सोच श्मसान वैराग्य है !





 बीते एक माह के भीतर भारत में दो ऐसे सुधार हुए जिनके लिए न तो किसी अदालत को आदेश पारित करना पड़ा और न ही सरकार को अध्यादेश जारी करने की ही जरूरत हुई | न ही उसके लिए कोई आंदोलन हुआ और न ही किसी ने मांग उठाई | इसमें आश्चर्य की बात ये है कि ऐसा करने की लिए बरसों से तरह - तरह की कोशिशें हुई , पैसा भी पानी की  तरह बहाया गया किन्तु परिणाम निराशाजनक ही रहा | 

सवाल ये है कि वे क्या और कौन हैं जिनमें अचानक आये बदलाव से पूरा देश सुखद एहसास का अनुभव कर रहा है | और जो बिना किसी दबाव और प्रयास के संभव हो सका  | और जवाब है पुलिस और पर्यावरण | आप सोचेंगे कि इन दोनों के बीच आपसी सम्बन्ध तो कुछ है नहीं , तब उनकी एक ही सन्दर्भ में चर्चा करने का अर्थ क्या है ?

 दरअसल कोरोना संकट के कारण लॉक डाउन लागू होने से देश की जनता घरों में रहने बाध्य हो गई | इसकी वजह से सड़कें सुनसान हो गईं | वाहन चलना बंद हो गये | रेल के पहिये रुक गए और हवाई जहाज धरती पर खड़े कर  दिए गये | कल - कारखाने बंद होने से उनसे होने वाला प्रदूषण बंद हो गया | तीर्थस्थानों में श्रद्धालुओं की भीड़ भी  गायब हो गयी | नदियों में नहाने और कपड़े धोने वाले दृश्य भी नजरों से ओझल हो गए | शुरुवात में तो किसी को कुछ समझ में  नहीं आया लेकिन कुछ दिनों बाद ही ऐसा लगा कि वातावरण खुशनुमा हुआ है | तापमान में गिरावट , पेड़ - पौधों की रंगत में सकारात्मक बदलाव , आसमान का साफ़ होना , नदियों के जल की शुद्धता में आश्चर्यजनक सुधार , धूल   और धुएं से मुक्ति आदि वे अनुभव हैं जो उसके पहले तक सपने में भी नहीं सोचे जा सकते थे | 

प्रकृति का छिपा हुआ सौंदर्य मानों अनावृत हो गया और वह सोलहों श्रृंगार के साथ प्रकट हो गई | ये ऐसा परिवर्तन था जो चाहते तो सब थे लेकिन उसके लिए कुछ करने में  असमर्थ से ज्यादा अनिच्छुक थे | लेकिन लॉक डाउन ने बिना उनके किये ही वह कर दिखाया जिसकी उम्मीद ही छोड़ी जा चुकी थी |

 दूसरा सुखद और बेहद चौंकाने वाला बदलाव देखने में आया भारत की पुलिस में | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि  देशभक्ति - जनसेवा जैसे ध्येय को लेकर कार्य करने वाली पुलिस की  छवि भी पर्यावरण जैसी खस्ता हाल ही थी | उसे भ्रष्ट , निकम्मी  , अत्याचारी और  निरंकुश मानने वाले 100 में 90 तो होते ही हैं | खाकी वर्दी वालों का काम समाज में  क़ानून व्यवस्था बनाये रखना , असामाजिक तत्वों से लोगों की हिफाजत करना तथा अपराधियों को पकड़कर दण्डित करवाना है | इसके अलावा भी शासन और प्रशासन से जुड़े अन्य  कार्य भी उसको संपन्न करवाने होते हैं | जिनमें किसी भी सार्वजनिक आयोजन की व्यवस्था में सहयोग और अति विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा भी शामिल है | 
इनके अतिरिक्त कई ऐसे काम भी उसके जिम्मे आते हैं जिन्हें विशुद्ध बेगारी कहा जा सकता है |  लेकिन उनका उल्लेख करना यहाँ उचित नहीं होगा | 

सच बात तो ये है कि बिना पुलिस के हम आधुनिक समाज की कल्पना तक नहीं कर सकते | जैसे  सेना सीमाओं की सुरक्षा करती है ठीक वैसे ही पुलिस समाज को सुरक्षा प्रदान करती हैं | लेकिन जिस तरह प्रदूषण के कारण पर्यावरण की स्थिति बुरी तरह खराब हो गई  वैसे ही हमारे देश की पुलिस की बारे में यह अवधारणा काफी प्रबल हो उठी थी कि वह पूरी तरह पथभ्रष्ट हो चुकी है और उसे जनता से कोई लेना नहीं है | नेताओं और अन्य  शाक्ति संपन्न लोगों की सुरक्षा से ही उसे फुर्सत नहीं है | और वे भी बदले में उसे संरक्षण प्रदान करते हैं।

 ये कहना भी गलत नहीं होगा कि जिस तराह प्रकृति और पर्यावरण को प्रदूषित करने में हमारा भी योगदान है उसी तरह पुलिस को बिगाड़ने में  समाज के उस वर्ग की ही भूमिका है जिसने  अपने निहित स्वार्थों की खातिर उसे भ्रष्ट होने प्रेरित , प्रोत्साहित और लालायित किया | इसका दुष्परिणाम ये हुआ प्रकृति और समाज दोनों प्रदूषण का शिकार हो गए |

 इन दोनों को सुधारने  के लिए न जाने कितने जतन हुए और धन भी लुटाया गया लेकिन लेश मात्र भी सुधार नहीं हुआ | इस प्रकार प्रदूषण  और पुलिस दोनों ही वातावारण को अपवित्र बनाने के दोषी माने जाने लगे |

लेकिन बीते एक महीने में इन दोनों में जो सकारात्मक बदलाव आया उसने पूरे देश को सुखद आश्चर्य में डाल दिया | जिस पुलिस के बारे में  आम नागरिक सदैव नकारात्मक सोच रखता था , वह भी प्रकृति की तरह अचानक ऐसे रूप में आ गई जो अकल्पनीय था | लॉक डाउन को सफल बनाने की जिम्मेदारी तो उसका स्वाभाविक दायित्व था ही लेकिन इस दौरान राहत के कार्यों में पुलिस कर्मियों की भूमिका ने उनकी स्थापित  छवि को सिरे से बदल दिया | गरीब और बेसहारा लोगों को भोजन और पानी की बोतल बांटते पुलिस कर्मियों के सैकड़ों वीडियो सार्वजनिक हो चुके हैं | एक में दो पुलिस वाले दोपहर में सड़क किनारे अपना भोजन शुरू करने वाले ही थे कि सामने एक फटेहाल व्यक्ति आकर खड़ा हो गया | उसकी भाव - भंगिमा बता रही थी कि वह बेहद भूखा है | उनमें से  से एक पुलिस वाले ने अपना भोजन उठाकर उसकी और  बढ़ा दिया और पानी  की बोतल भी सौंप दी | 

और कोई समय होता तो अपेक्षित यही था कि वह भिखारी सा दिखने वाला व्यक्ति चार छः गालियों के बाद क्या पता दो चार डंडे भी खा लेता किन्त्तु कोरोना से उत्पन्न स्थितियों में पुलिस के सार्वजनिक व्यवहार में जिस तरह की संवेदनशीलता और सेवाभाव जाग्रत हुआ वह वाकई चौंकाने वाला है |

 भले ही  जिस तरह पर्यावरण  अभी तक पूरी तरह प्रदूषण मुक्त नहीं हो सका उसी तरह से पुलिस  का भी  कायाकल्प हो चुका है ये मान लेना भी जल्दबाजी ही होगी किन्तु दोनों में जितना भी बदलाव और सुधार हुआ वह कोरोना के साथ जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद खुशबूभरी ठंडी हवा के झोके जैसा है |

ये कहा  जा सकता है कि चूंकि जनजीवन  पूरी तरह ठहरा हुआ है और अपराध का ग्राफ पूरी  तरह नीचे आ चुका है इसलिए पुलिस के पास करने  को कुछ ख़ास था नहीं | वीआईपी भी कम निकल रहे हैं और सड़कें यातायात विहीन हैं | ऐसे में यदि वह  थोड़े से अच्छे काम कर रही है तो उसकी छवि एकाएक शैतान से साधु की बना देना कोरा आशावाद होगा | लेकिन जो दिखाई दे रहा है वह अनेकानेक विरोधाभासों के बीच उम्मीद जगाने वाला तो है ही |

 लेकिन एक बड़ा सवाल भी साथ ही साथ उठ रहा है और वह है लॉक डाउन के बाद जब भी और ज्योंही सब कुछ सामान्य होगा और समाज जीवन से जुड़ी सभी गतिविधयां पूर्ववत हो जायेंगीं , तब भी क्या पर्यावरण और पुलिस इतनी ही सुखद स्थिति में रह सकेंगीं ? ये प्रश्न वाकई इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि देश का जनमानस चाह रहा है कि कोरोना बाद का  जीवन जैसा भी हो किन्तु पर्यावरण की शुद्धता और पुलिस की सम्वेदनशीलता ऐसी ही बनी रहे |

साधारण तौर पर सोचें तो  ऐसा होना  संभव नहीं लगता क्योंकि  लॉक आउट हटते या  शिथिल होते ही मानवीय गतिविधियाँ अपने पुराने ढर्रे पर लौट आयेगी | सड़कों पर धुंआ छोड़ते वाहनों की कतारें लग जायेंगी , कल - कारखाने से औद्योगिक प्रदूषण शुरू हो जाएगा और पवित्र नदियों में अपने  पाप धोने वाली धर्मप्राण जनता उनके जल को पहले जैसा ही बना देने में जुट जायेगी | इसी तरह से पुलिस भी ज्योंही अपनी असली भूमिका में वपिस लौटी त्योंही पीड़ित मानवता के प्रति उसका नजरिया आज जैसा शायद ही रह सकेगा |

और यहीं उठता है वह सवाल जिसके उत्तर में ही भविष्य का भारत छिपा हुआ है | आप पूछ सकते  हैं कि पर्यावरण और पुलिस में सुधार या बिगाड़ से इतने बड़े देश के  भविष्य का निर्धारण कैसे किया जा सकता है ? लेकिन ये हांडी के वे दो चावल होंगे जो ये बता देंगे कि हम वाकई सुधरना चाहते हैं या लॉक डाउन के दौरान मन में हिलोरें मार रही अच्छी - अच्छी भावनाएं श्मसान वैराग्य हैं जो स्थिति और स्थान बदलते ही पल भर में ही लुप्त हो जाता है |

ऐसे में सोचने वाली बात ये है कि कोरोना के बाद पूरे विश्व में जिन परिवर्तनों की उम्मीद की जा रही है वे भारत में किस सीमा तक लागू होंगे ?  बदलाव होना तो अवश्यंभावी है लेकिन क्या वह पर्यावरण  और पुलिस में भी होगा  या फिर ये सब जागती आंखों से ख्वाब देखने जैसा है | लेकिन अनेक  समाजशास्त्रियों का कहना है कि  कोरोना ने आम इंसान को भी सोचने बाध्य किया है |  भले ही वह पुराने ढर्रे की तरफ लौट जाये लेकिन लॉक डाउन के दौरान उसने जो देखा , जो किया और जो सोचा उसका प्रभाव उसकी मानसिकता पर कुछ न कुछ तो रहेगा ही | पुलिस भी चूँकि समाज के  लोगों द्वारा ही बनती है इसलिए उस पर भी बदलते सामाजिक  वातावारण का असर पड़ेगा,  ये उम्मीद पूरी तरह आधारहीन नहीं है |

 इस बारे में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जिस तरह शिक्षा के कारण युवा पीढ़ी में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ी है ठीक उसी तरह पुलिस में उच्च अधिकारियों के अलावा भी जो कर्मी भर्ती हो रहे हैं उनका शैक्षणिक स्तर पूर्वापेक्षा तुलनात्मक तौर पर कहीं बेहतर है । और इसीलिये उनके काम करने का तरीका लीक से हटकर प्रतीत है जो कोरोना के दौरान महसूस भी किया गया |

कुछ बरस पहले जबलपुर के पुलिस नियन्त्रण कक्ष में जनता - पुलिस संबंधों पर एक परिचर्चा हुई | उसमें मैंने उच्च पुलिस  अधिकारियों से कहा था कि जिस दिन किसी सज्जन , शरीफ और कानून पसंद साधारण व्यक्ति  को शाम ढलने के बाद थाने बुलाया जावे और वह बिना डरे आ जाए उस दिन समझा जायेगा कि जनता और पुलिस के बीच अच्छे सम्बन्ध हैं |

ठीक ऐसा ही पर्यावरण के बारे में भी कह सकते हैं कि जिस दिन भारत में किसी भी नदी का जल बिना हिचक आचमन योग्य हो जाएगा उसी दिन ये माना जाएगा कि प्रदूषण खत्म हो गया | हालांकि उक्त दोनों स्थितियां कायम रहना बेहद कठिन है लेकिन जिस बदलते समाज की कल्पना में सभी डूबे हुए हैं वह पर्यावरण के संरक्षण और पुलिस के ऐसे ही व्यवहार के बिना असम्भव होगा |

 आखिर में एक बार फिर प्रश्न ये है कि क्या ये सम्भव होगा या मेरा सुंदर सपना टूट गया वाली स्थिति बन जायेगी ? और जवाब है यदि हम कोरोना जैसी महामारी को हराने में कामयाब हो सके तब पर्यावरण और पुलिस में सुधार क्यों नहीं किया जा सकता ?

फिल्म उमराव जान में एक  गजल की ये पंक्ति  इस सम्बन्ध में हौसला बढ़ाने वाली है :-

 मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये .......

भरपूर पूंजी और सस्ते श्रम से बन सकती है बात



रिज़र्व बैंक ने म्यूचल फंड के लिए 50 हजार करोड़ रु. जारी करते हुए उनकी तरलता बढ़ाये जाने का जो प्रयास किया वह अत्यंत सामयिक निर्णय है। इस समय यही सबसे बड़ी जरूरत है जिससे निजी और सरकारी दोनों क्षेत्र जूझ रहे हैं। लॉक डाउन के क्रमश: खत्म होते जाने की संभावनाएं गत दिवस प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्रियों की चर्चा के बाद बढ़ती दिख रही हैं। वैसे चिकित्सकीय दृष्टिकोण से से अभी तक कोरोना संक्रमण को रोकना चूँकि संभव नहीं है इसलिए लॉक डाउन को एक आवश्यक बुराई मानकर जारी रखा जाना चाहिए  लेकिन इसी के साथ दुनियादारी को भी देखा जाना जरूरी है और उस लिहाज से धीरे-धीरे उसमें ढील देते हुए जनजीवन को सामान्य किये जाने की भी जरूरत है। कुछ राज्यों को छोड़कर शेष ने लॉक डाउन को शिथिल बनाने की मंशा व्यक्त की और ऐसा लगता है प्रधानमंत्री इस बारे में नीति निश्चित करते हुए राज्यों पर ही फैसला छोड़ देंगे। कुछ राज्यों ने तो कारखाने वगैरह शुरू करवा भी दिए हैं। दरअसल जरूरी चीजों की आपूर्ति बनाये रखने के लिए व्यापार के साथ उद्योग भी शुरू होना जरूरी है। अन्यथा आने वाले दिनों में कालाबाजारी का खतरा पैदा हो जाएगा। उससे भी बड़ी बात ये है कि जनता का मनोबल बनाये रखना जरूरी है। अभी तक किसी भी जरूरी चीज का चूँकि अभाव नहीं हुआ इसलिए जन सामान्य में व्यवस्था के प्रति भरोसा कायम है। लॉक डाउन को और आगे बढ़ाने से सबसे ज्यादा दिक्कतें मजदूर वर्ग को होंगी। भले ही उनके पास खाने के लिए राशन हो लेकिन हाथ में नगदी नहीं होने से वे जीवनयापन में कठिनाई महसूस करने लगे हैं। लॉक डाउन में ढील मिलने से उनके लिए कुछ न कुछ रोजगार तो पैदा होगा ही। लेकिन अर्थव्यवस्था को चलायमान रखने के लिए उद्योगों और व्यापारियों के पास भी नगदी का अभाव है। बीते सवा महीने से बिना कारोबार के उनकी जमा पूंजी भी जवाब दे गयी। जिनके पास कर्मचारियों की बड़ी संख्या है उनने बीते माह की तनख्वाह तो बाँट दी लेकिन आगे उनके पास गुंजाईश नहीं है। अनेक प्रतिष्ठानों ने तो वेतन में कटौती भी कर दी। केंद्र सरकार ने अभी तो 30 जून तक जीएसटी जमा करने की मोहलत दी है लेकिन मई के पहले हफ्ते में चूँकि पूरे देश में कारोबार एक साथ शुरू नहीं हो सकेगा इसलिए जीएसटी चुकाना बेहद कठिन होगा। बेहतर हो इस अवधि को दो महीने और बढ़ा दिया जाए। इसके अलावा एक सुविधा ये भी दी जाए कि जीएसटी में भी आंशिक भुगतान की छूट मिले तथा रिटर्न के समय शेष राशि जमा करने की सुविधा रहे। रिजर्व बैंक ने हालांकि बाजार में छोटे और मध्यम श्रेणी के उद्यमियों के लिए सस्ता कर्ज उपलब्ध करवाने की पहल की है लेकिन व्यापार जगत के सामने कारोबार शुरू करते ही पिछली देनदारी चुकाने का भार आयेगा। चूँकि व्यवसाय भी एक दूसरे पर निर्भर है इसलिए पारस्परिक लेनदेन के साथ ही खरीददारों की क्रय शक्ति बढ़ाने की भी जरूरत है। और उसके लिए जरूरी है किसी भी कीमत पर रोजगार उपलब्ध करवाना। लेकिन सरकार के अपने बनाये श्रम कानून ही इसमें आड़े आ जाते हैं। कोरोना के कारण पैदा हुई परिस्थितियों में करोड़ों की संख्या में श्रमिक बेरोजगार हुए हैं। उन्हें निर्धारित मजदूरी देने की स्थिति नहीं होने से फिलहाल उन्हें भी वक्त की नजाकत को समझते हुए जो और जहां काम मिले करने को तैयार रहना चाहिए। आखिर सरकार भी उनकी कब तक सहायता कर सकेगी। जो श्रमिक शहरों से गाँव लौट गये हैं वे इतनी जल्दी नहीं लौटेंगे। ऐसी सूरत में उन्हें अपने गाँव या कस्बे में ही छोटा-मोटा जो भी काम मिले उसे करते हुए अपनी आय का कुछ स्रोत तो बनाना ही होगा, वरना वे भूखे सोने को मजबूर रहेंगे। ये आर्थिक आपातकाल है जिसमें कर्मचारी और नियोक्ता दोनों ही के सामने एक जैसा संकट है। सरकार गरीबों के खाते में जो नगदी जमा करवा रही है वह बेशक अपार्याप्त है, लेकिन इस समय सरकार का हाथ भी तंग है। कोरोना से अर्थव्यवस्था को जो धक्का लगा है उससे उबरने में समय लगेगा। साथ ही उद्योगों को जिन्दा रखने के लिए उत्पादन की लागत कम रखना होगी जो मौजूदा श्रम कानून के चलते संभव नहीं होगा। जिस तरह से भारत को चीन की तरह मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने की तैयारी चल रही है उसके लिए पूंजी और सस्ता श्रम उपलब्ध कारवाना बहुत जरूरी है। भारत में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो या तो कुछ करते नहीं या अपनी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं करते। बेहतर होगा इस निष्क्रिय श्रम शक्ति को काम पर लगाया जाए। विशाल संख्या में मानव संसाधन इस देश की बहुत बड़ी ताकत बन सकता है बशर्ते उसका उपयोग हो। कोरोना के बाद बहुत कुछ बदलने की बात हो रही है लेकिन उसके लिये हमें अपनी सोच बदलनी होगी। भारत के पास विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने का ये बेहद ही अनुकूल अवसर है। लेकिन इसके लिये हमको थोड़ा लचीला और व्यावहारिक होना पड़ेगा। अन्यथा इंकलाब जिंदाबाद के नारे तो खूब लगेंगे किन्तु वह आएगा नहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 27 April 2020

क्योंकि हमारी पीड़ा देखकर उसकी आँखें नहीं छलछलायेंगींकृत्रिम बुद्धिमत्ता में आत्मीयता का अभाव



 

गत रात्रि 7 वर्षीय मेरे नाती दिव्यांश से फोन पर बात हुई | घड़ी 11  बजा रही थी | अमूमन वह इस समय तक जागा करता है | लेकिन कल मैंने उससे पूछा क्या कर रहे हो तो बोला सोने जा रहा हूँ | जल्दी सोने का कारण पूछा तो बोला कल सुबह मेरी मैथ्स की क्लास है इसलिए माँ ने कहा जल्दी सो जाओ | मैंने कहा स्कूल तो बंद हैं तब बोला मैम कम्प्यूटर से पढ़ाएंगी | होम वर्क भी देती हैं | दूसरी मैम  भी क्लास लेती हैं | होम वर्क माँ चैक करती हैं  और मैम को रिपोर्ट दे देती हैं | उसकी बात से मुझे अचम्भा नहीं हुआ | पूरे देश में यही हो रहा है | अब तो कॉलेज और विश्वविद्यालयों में भी ऑन लाइन शिक्षा की व्यवस्था हो रही है | और तो और कोचिंग सेंटर्स ने भी ऑन लाइन क्लास लगाकर अपना व्यवसाय सुरक्षित रखने का प्रबंध कर लिया |

 कई दशक पहले तक हिंदी साहित्य सम्मेलन और भारतीय विद्या भवन नामक संस्थान दूर - दराज के उन छात्रों को डिग्री हासिल करने की  सुविधा देते थे जो किसी कारणवश नियमित पढ़ नहीं पाते थे | उनके अलावा हाई स्कूल और कालेज स्तर पर प्रायवेट छात्रों को घर बैठे पढ़कर परीक्षा देने की  सुविधा थी | कामकाजी छात्र   इसका लाभ उठाते थे | बाद में इग्नू नामक संस्था ने  भी पत्राचार पाठ्यक्रम के जरिये उच्च शिक्षा का प्रबंध किया | धीरे - धीरे स्मार्ट  क्लासेस  प्रणाली आई और अब ऑन लाइन पढ़ाई का नया तरीका |

हालाँकि विकसित देशों में ये सब काफी पहले से चल रहा है | लेकिन भारत में कोरोना संकट ने घर बैठे पढ़ाई करवाने का ये तरीका ईजाद किया | शुरू - शुरू में समझा गया कि ये निजी संस्थानों द्वारा फीस वसूलने के  लिए किया  जा रहा प्रपंच है , जो पूरी न सही लेकिन काफी हद तक सही भी है | लेकिन लॉक डाउन हटने के बाद भी कोरोना का खतरा बने रहने की आशंका से ये संभावना व्यक्त की जा रही है कि एक जुलाई से शुरू होने वाले शैक्षणिक सत्र को एक सितम्बर से प्रारंभ किया जावे | 

विवि अनुदान  आयोग ने तो उसकी सिफारिश भी कर  दी है | स्कूली शिक्षा के लिए भी पाठ्यक्रम में इस तरह का बदलाव किये जाने की खबर है जिससे  सत्र देर से शुरू होने पर भी नियत समय में वह पूरा हो सके | 

शासन , प्रशासन , व्यापार , प्रबन्धन , बैंकिंग आदि क्षेत्रों में ऑन लाइन , डिजिटल और वीडियो तकनीक का इस्तेमाल अचानक अपरिहार्य हो चला है | प्रधानमंत्री मुख्यमंत्रियों से , मुख्यमंत्री जिले में बैठे अधिकारियों  से और वे अधिकारी भी  अपने मातहतों से निरंतर संपर्क और संवाद कर रहे हैं । लेकिन कोई किसी से व्यक्तिगत नहीं मिल रहा | सामान्यजन भी संचार क्रांति के ज़रिये घर बैठे पूरी दुनिया से अपना जीवंत सम्पर्क कायम  रखे हुए हैं |

 हालांकि  होने तो ये पहले से लगा था लेकिन एक अदृश्य वायरस ने वह कर दिखाया जो सरकार तमाम प्रयासों के बावजूद नहीं करवा सकी  | इसे कोरोना क्रांति कहा  जाना  गलत नहीं होगा | इस संकट से निपटने के बाद भारत में आने वाले बदलाव में सबसे बड़ा यही होने जा  रहा है | सरकारी  विभागों के अलावा निजी क्षेत्र ने भी कोर्पोरेट मीटिंग वगैरह को बंद करते हुए वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये ही काम करने की तैयारी कर ली है |

काम  करते हुए दूर बैठे हुए किसी नामी संस्थान से व्यवसायिक योग्यता बढ़ाने वाले कोर्स करना अब और आसान हो जायेगा | सरकारी विभाग भी अपने अधिकारियों  को अध्ययन अवकाश देकर बाहर भेजने की बजाय ऑन लाइन कोर्स पर जोर देंगें |

कुल मिलाकर  एक बड़ा बदलाव सामने नजर आ रहा है | उच्च शैक्षणिक योग्यता प्राप्त व्यक्ति विशेष रूप से गृहस्थ महिलाओं के लिए वर्क फ्राम होम का नया क्षेत्र खुल सकता है | विशेषज्ञ के रूप में एक व्यक्ति घर बैठे अनेक संस्थानों को सेवाएं दे सकेगा | स्कूल कालेज में दाखिला लेकर पढ़ने की जगह घर में बैठे - बैठे शिक्षित होने से शिक्षा  का औपचारिक स्वरूप बदलकर अब आभासी हो जाएगा | जिसमें न गुरु शिष्य को पहिचानेगा और न ही शिष्य अपनी सफलता पर जाकर  गुरुदेव के चरण  स्पर्श कर सकेगा |

वैसे भी हम सभी  एक ऐसी दुनिया के हिस्से बन चुके हैं जहां हजारों लोग आपस में  निरंतर सम्पर्क में रहकर भी एक दूसरे को जानते पहिचानते नहीं हैं | किसी जगह अचानक पास आकर कोई अनजान अभिवादन के साथ पूछता है , आपने मुझे पहिचाना और हम सकुचाते हुए कहते हैं लगता तो है कहीं देखा है लेकिन याद नहीं आ रहा । तब सामने वाला मुस्कुराकर बताता है मैं आपका फेसबुकिया मित्र हूँ | 

इस आभासी दुनिया में मित्रता  का दायरा और परिभाषा दोनों बदल गए | पहले ज़िन्दगी में दस अच्छे मित्र भी बमुश्किल बनते थे लेकिन अब तो हजारों ऐसे लोगों से मित्रता हो रही है जिनसे जीवन में शायद ही कभी मुलाकात हो |

मुझे याद  है 1968 में पिता जी दो माह के लिए विदेश यात्रा पर गये थे | बीच - बीच में उनके पत्र आते रहे जिनसे  हालचाल  मिलता था | लेकिन उनके भेजे कई पत्र उनके लौटने के भी कुछ दिनों बाद आये | लेकिन अब विदेश पहुंचते ही व्हाट्स एप पर चित्र आना शुरू हो जाते हैं | यद्यपि हमारा देश परिवर्तन को आसानी से स्वीकार नहीं करता किन्तु कम्प्यूटर , मोबाइल और अब डिजिटल तकनीक को उसने जिस तरह अपनाया वह पहले तो आश्चर्य लगता था , लेकिन अब नहीं |

 और कोरोना आने के बाद जिस तरह करोड़ों भारतीय घरों में सिमटने मजबूर हुए उसने चाहे - अनचाहे हम सभी को तकनीक का सहारा लेने को मजबूर कर दिया है | लेकिन इससे ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि जिसे बचपन से ही तकनीक के सहारे जीने की आदत पड़ गयी, कहीं वह भी मशीन की तरह भावना शून्य न हो जाये |

कोरोना से उत्पन्न स्थितियों में तो ये मजबूरी हो सकती है लेकिन आने वाले समय में शिक्षण संस्थान  विद्यालय में आने के दिन घटाते  हुए कहीं घर बिठाकर  ऑन लाइन शिक्षा को ज्यादा  प्राथमिकता देने लगे तो सम्भवतः ये अभिभावकों के साथ ही बच्चों को भी सुविधाजनक महसूस हो  और इससे उनका शैक्षणिक विकास भले हो जाए लेकिन सामाजिकता के लिहाज से वे बहुत पीछे हो जायेंगे , जो आगे जाकर उनकी मानसिकता पर विपरीत असर डाले बिना नहीं रहेगा | भारतीय सन्दर्भ में देखें तो बिन गुरु ज्ञान कहां से आवे  वाली अवधारणा में शिक्षकों के प्रति जीवन भर कृतज्ञता का भाव संस्कार के रूप में विद्यमान रहता था | लेकिन विद्यार्थी और गुरु के बीच संपर्क और प्रत्यक्ष संवाद ही जब कम होता जायेगा तब गुरु - शिष्य परम्परा को जीवित रखना भी संभव नहीं रहेगा |

 इसीलिये जिस नई सामाजिक व्यवस्था के स्थापित होने की चर्चा हर जुबान पर है उसके नकारात्मक पहलुओं का पूर्व विश्लेषण  भी तत्काल होना चाहिए | विकसित देश  तकनीक के विकास में इतने पागल हुए जा रहे हैं कि बात कम्प्यूटर  से रोबोट तक पहुचने  के बाद अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता ( Artificial Intelligence ) तक आ गई है | जिसे  कम्प्यूटर विज्ञान  का चर्मोत्कर्ष कहा जा सकता है | इसके अंतर्गत ऐसे कम्प्यूटर विकसित किये जा रहे हैं जो इन्सान की तरह सोच सकते हैं , आवाज पहिचान सकते हैं , समस्या का समाधान सुझा सकते हैं और सीखने - सिखाने के साथ ही योजना बनाने का काम  भी कर सकते हैं |

 लेकिन कप्यूटर विज्ञान के धुरंधरों ने ही इस कृत्रिम बुद्धिमत्ता के खतरों से आगाह  करना भी शुरू कर  दिया है | यहाँ तक कि इसे मानव द्वारा ही मानव सभ्यता के विनाश की तैयारी बताया जा रहा है | भारत जैसे देश में कम्प्यूटर ने  ही एक तरफ तो वैश्विक स्तर के  विकास से तो हमको जोड़ा लेकिन करोड़ों लोगों से रोजगार भी छीन लिया | गूगल नामक विश्वकोष के सीईओ सुंदर पिचाई के अनुसार तो कृत्रिम बुद्धिमत्ता आग जैसी है जिस पर काबू पाना तो हमने सीख लिया लेकिन उसके खतरों को कम नहीं किया जा सका | चलती हुई किसी ऑटोमेटिक कार में इंजिन  के पास आग लगने से उसका इलेक्ट्रानिक सिस्टम खराब हो जाता है जिससे उसके दरवाजे और खिड़कियों को खोलने वाली प्रणाली भी काम नहीं  करती | अनेक ऐसे हादसों में कार में बैठे लोग जलकर मर गये | 

आजकल प्रयोगशालाओं में भी कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग हो रहा है | या यूँ कहें कि उन्हीं का उपयोग हो रहा है | यदि जरा सी चूक  हो गयी तब कोरोना जैसे एक - दो नहीं सैकड़ों विषाणु मानव जाति का  विनाश करने पर आमादा हो सकते हैं |  पौराणिक प्रसंगों से यदि उदाहरण लें तो शंकर जी द्वारा भस्मासुर को दिए गये  वरदान जैसी स्थिति बन सकती है | 

कृत्रिम  बुद्धिमत्ता के दो मॉडल्स के बीच का वार्तालाप इस बारे में काफ़ी चर्चित हुआ था | इनमें एक को पुरुष और एक को महिला के  तौर पर विकसित किया गया | बातचीत के दौरान पुरुष ने ईश्वर में विश्वास  से इंकार करते हुए महिला से कहा कितना अच्छा होता यदि दुनिया में कम लोग होते और ये सुनकर महिला बोली तो सबको नर्क पहुंचा देते हैं |

 भले ही सुनने में ये हालीवुड में काल्पनिक पटकथाओं पर बनने वाली फिल्म  का दृश्य लगे लेकिन  मजाक - मजाक  में ये विनाश की जमीन तैयार करने जैसा हो सकता है |

 पाठक सोच रहे होंगे  कि ये तो विषयान्तर हो गया लेकिन इस चर्चा  के माध्यम से मैं ये आगाह करना चाहता हूँ कि कोरोना से बचने के बाद कहीं हम ऐसे आभासी संसार में न भटक जाएं जहाँ विकास की असीम संभावनाएं  भावनाओं की लाशों पर खड़ी दिखाई देंगीं |  

क्या हम इसके लिए तैयार हैं ?

 मेरे एक परिचित का बेटा कुछ वर्षों से अमेरिका में है | भारतीय मानकों के लिहाज से विवाह योग्य है | भारत आया तो माता - पिता ने कहा बेटा तेरी शादी करना है | कोई लड़की वहां पसंद कर ली हो तो बता दे , वरना हम यहाँ तलाशें । बेटा बोला अभी जल्दी क्या है ? माँ ने कहा  तू  ही  बताता है अमेरिका में घरेलू कर्मचारी नहीं होने से सब काम करना पड़ता है | शादी हो जायेगी तो दो लोग मिलकर सब कर लेंगे | ये सुनकर बेटे ने हंसकर कहा , मैं जाकर एक रोबोट खरीदने वाला हूँ | वह घर का सब काम करवा देता है | उसके लिए शादी की क्या जरूरत ? माँ - बाप सन्न रह गए | भारतीय संस्कारों से जुड़ी मर्यादाओं ने उन्हें आगे कुछ कहने से रोक दिया |

 तकनीक हमारे एहसासों पर इस हद तक हावी हो गई है कि सेलेब्रिटी कहलाने वाली अनेक महिलाओं और पुरुषों ने बिना विवाह किये ही किराये की कोख से उत्पन्न संतान के जरिये माँ और पिता बनकर अपने भावनात्मक होने का ढिंढोरा पीटा |

आज जब एक बड़े बदलाव की चर्चा हो रही तब ये देखना जरूरी है सोशल  डिस्टेंसिंग  कहीं अपने शाब्दिक अर्थ को ही हमारी मनोवृत्ति न बना दे | परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है लेकिन वह  हमारे समाज के लिए शुभ  हो तभी स्वीकार्य होना चाहिए | यदि  उससे हमारा सांस्कृतिक और वैचारिक आधार ही हिल जाए तो फिर उनको अस्वीकार करना ही हितकर होगा | पिछली सदी में परमाणु का विस्फोट करने के बाद बनाये अस्त्र आज अपनी निरर्थकता साबित करते हुए बैठे हैं | काश विनाश की जगह सुखद एहसास देने  वाला विकास हो पाता | 

आभासी दुनिया में मानवीय सम्वेदनाओं को कहीं कंप्यूटर का बटन डिलीट न कर दे ये चिंता करनी होगी ,  क्योंकि कृत्रिम बुद्धिमत्ता बाकी सब कुछ भले कर दे किन्तु  हमारी पीड़ा देखकर उसकी आँखें नहीं छलछलायेंगीं |

 जिन शिक्षकों ने बचपन में हमारे कान खींचे थे वे कहीं भी  मिल जाते हैं तो हाथ उनके चरणों तक चले जाते हैं क्योंकि उनकी बुद्धिमत्ता में कृत्रिमता  नहीं आत्मीयता थी |

लॉक डाउन : नियंत्रण और संतुलन की नीति पर चलना होगा



आज प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वीडियो चर्चा के उपरान्त कोरोना सम्बन्धी आगामी रणनीति बनाकर इस बात का निर्णय करेंगे कि 3 मई के बाद लॉक डाउन को लेकर क्या निर्णय किया जावे। चूँकि कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही है इसलिए लॉक डाउन को पूरी तरह खत्म कर देना मूर्खता होगी। लेकिन जिन क्षेत्रों में उसका प्रकोप नियन्त्रण में है वहां इस तरह की छूट देना जरूरी हो गया है जिससे कारोबार भी शुरू हो तथा जनजीवन भी पटरी पर वापिस लौट सके। यद्यपि जैसे कि संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने तो प्रधानमन्त्री से चर्चा के पूर्व ही लॉक डाउन बढ़ाने की मंशा व्यक्त कर दी है जिनमें मप्र के शिवराज सिंह चौहान भी हैं। जिन राज्यों में कोरोना का कहर पूरे जोर पर है वे भी लॉक डाउन खत्म करने का खतरा उठाने तैयार नहीं हैं। और ये सही भी है। लेकिन अनेक राज्यों में हालात तेजी से सामान्य होते जा रहे हैं। वहां सावधानी रखते हुए लॉक डाउन में शिथिलता दी जा सकती है। लेकिन इसके साथ ही ये भी देखना होगा कि सोशल डिस्टेंसिंग जिसे अब फिजिकल डिस्टेंसिंग कहा जाने लगा है को कोरोना से बचाव का सबसे कारगर तरीका माना जा रहा है, के पालन के प्रति लोगों में दायित्व बोध बरकरार रखा जाए। हमारे देश में जनसंख्या की अधिकता की वजह से शारीरिक दूरी बनाये रखना बेहद कठिन काम है। लॉक डाउन के दौरान सब्जी बाजारों में जिस तरह से भीड़ उमड़ती दिखी उससे ऐसा लगता है कि तमाम समझाइश के बावजूद एक तबका सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर लापरवाह है। ऐसे में थोड़ी सी ढील मिलते ही लोगों के स्वछन्द होने का खतरा है। जिन शहरों में कोरोना का फैलाव होता जा रहा है उनमें भी कुछ इलाके ही हॉट स्पॉट के तौर पर चिन्हित हुए हैं जो कि घनी बस्तियों में हैं। उन्हें पूरी तरह से सील करने के उपरांत शहर के बाकी हिस्सों में संक्रमण रोकने में सफलता मिली है। लेकिन अभी तक ये समझ में नहीं आ रहा कि आखिर कोरोना कब तक चलेगा और यही सरकार तथा जनता दोनों के लिये बड़ा सिरदर्द है। चिकित्सा जगत के अनेक लोगों ने इस बात के संकेत देने शुरू कर दिए हैं कि कोरोना भी मलेरिया, डेंगू, फ्लू, चिकिन गुनिया, स्वाइन फ्लू की तरह हमारे जीवन से स्थायी तौर पर जुड़ा रहेगा । यद्यपि उसकी तीव्रता पूर्ववत नहीं रहने वाली। इसी के साथ ही ये भी सही है कि जल्दी ही कोरोना के उपचार के लिए सही दवाई और बचाव के लिए टीके भी तैयार हो जाएंगे। भारत में भी चिकित्सा जगत इस बारे में शोध कर रहा है और जल्द ही परिणाम सामने आ सकते हैं । लेकिन तब तक पूरे देश में सावधानी बरतने पर जोर देना जरूरी होगा। अभी भी कोरोना को लेकर भ्रम की स्थिति है। जिन स्थानों पर उसके मरीज नहीं हैं या काफी कम हैं वहां लॉक डाउन को जारी रखे जाने पर बवाल मचाया जा रहा है। खास तौर पर व्यापारी वर्ग चाहता है कि बाजार खुले जिससे उसका कारोबार चल सके। जनता भी यही चाह रही है । गोवा और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में तो ऐसा किया जा सकता है किन्तु जिस राज्य और उसके विभिन्न शहरों में अभी भी कोरोना संक्रमित मौजूद हैं और उनकी संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है वहां किसी भी प्रकार की जल्दबाजी विस्फोटक हो सकती है। मप्र को ही लें तो इंदौर सबसे बड़ा व्यवसायिक नगर है लेकिन कोरोना का सबसे बड़ा केंद्र भी यही बन गया। जिस तरह वहां रोज नए मामले आ रहे हैं इसे देखते हुए न तो वहां किसी भी तरह की ढील संभव है  और न ही पड़ोसी जिलों में। प्रदेश की राजधानी भोपाल में तो स्वास्थ्य विभाग ही सबसे ज्यादा बीमार है और उसके साथ ही पुलिस कर्मी भी। प्रदेश के बाकी जिलों में जबलपुर में बीते एक सप्ताह के भीतर ही अचानक नए संक्रमित बड़ी संख्या में मिल गये। लेकिन तुलनात्मक दृष्टि से बाकी जिले और संभागों में हालात पूरी तरह सामान्य होने से लॉक डाउन में रियायत सम्भव है लेकिन एक जिले से दूसरे तक आवाजाही की अनुमति अभी भी नहीं दी जा सकती। ऐसा ही महाराष्ट्र में भी है जहाँ मुम्बई, पुणे और नागपुर आदि में हालात काफी खराब हैं। ये तीनों राज्य के सबसे बड़े नगर हैं। और व्यवसायिक तौर पर भी इनका महत्व है। ऐसे में सरकार के सामने विकट समस्या है। लॉक डाउन को लम्बे समय तक जारी रखना संभव नहीं है और उसे पूरी तरह से हटा लेना भी घातक होगा। इस उहापोह के बीच आज मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री की बैठक का क्या नतीजा निकलता है इस पर देश की नजर रहेगी। लॉक डाउन के कारण कोरोना अभी तक सामुदायिक संक्रमण में तो नहीं बदल सका किन्तु उसकी श्रृखला चूँकि टूटने का नाम नहीं ले रही है इसलिए ऐसा रास्ता निकालने की जरूरत है जिसमें नियन्त्रण और संतुलन बना रह सके। एक महीने से ज्यादा की बंदी के बाद हालात के मद्देनजर सरकार जो भी कदम उठायेगी वे तो अपनी जगह हैं लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए शारीरिक दूरी बनाये रखने वाली पुरानी संस्कृति को अपनाने की आदत हर किसी को डाल लेना चाहिए जो किसी भी प्रकार के संक्रमण को रोकने की पहली आवश्यकता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 26 April 2020

दो वर्ष की लिए आयकर मुक्त हो भारत अर्थव्यवस्था को पंख लगाने का क्रान्तिकारी उपाय




 
विगत दो दिनों में  मैंने कोरोना के बाद भारत के आर्थिक परिदृश्य पर अनेक लोगों के विचार जानने का प्रयास किया | कुछ को संचार  माध्यमों के जरिये सुनने और पढ़ने का अवसर मिला तो कुछ से फोन पर वार्तालाप हुआ | इस दौरान समस्याओं और संभावनाओं को लेकर विभिन्न विचार जानकारी में आये | आशा और निराशा दोनों पहलुओं से परिचय हुआ | विश्वास से भरे स्वर भी सुनने मिले और अनिश्चितता  का भाव भी सामने आया | कुछ लोगों का ये मानना है कि भारत के लिए ये एक स्वर्णिम अवसर है | लेकिन ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि मछली खुद आकर नहीं फंसेगी , हमें जाल फैलाना पड़ेगा | चीन के प्रति वैश्विक स्तर पर व्याप्त अविश्वास और नाराजगी का लाभ सीधे भारत को मिल जायेगा , इस आशावाद पर भी प्रश्नचिन्ह लगाने वाले हैं | ये मानने वाले  भी हैं कि चीन इतनी आसानी से बाजी  अपने हाथ से नहीं जाने देगा और कोरोना से सबसे पहले उबरकर उसने अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का चौधरी बनने की कार्ययोजना पर काम भी शुरू कर दिया है |

 जहां तक बात भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य की है तो उसे दुनिया की पांच प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में मानने वाली धारणा तो 2019 आते - आते ही कमजोर पड़ने  लगी थी , जिसे मंदी का असर माना गया | 2019 - 20 के केन्द्रीय बजट में ही उसकी  झलक साफ़ दिखी | केंद्र सरकार का राजस्व संग्रह अनुमान  से काफी पीछे रहना चिंता का माहौल पैदा कर ही रहा था कि कोरोना ने भारत में अपने पैर जमाने शुरू किये | 

प्रारंभ में ऐसा लगा मानो वह भारतीय हालातों में ज्यादा प्रभावशाली नहीं होगा लेकिन वह खुशफहमी गलत साबित हुई और आज की स्थिति में देश का बड़ा भाग उससे जूझ रहा है | बीती शाम तक संक्रमित लोगों का आंकड़ा तकरीबन 27 हजार जा पहुंचा है | बीते 24 घन्टों में ही लगभग 2000 नए मरीजों का मिलना दर्शाता है कि कोरोना की श्रृंखला टूटने का नाम नहीं ले रही | हालांकि 800 से ज्यादा मौतों के बावजूद 5000 से अधिक  संक्रमित ठीक भी हुए किन्तु जिस तरह संख्या रोज बढ़ती जा रही है उसके मद्देनजर अब ये सम्भावना भी बलवती है कि सोमवार  को मुख्यमंत्रियों के साथ वीडयो कान्फ्रेंसिंग के बाद प्रधानमन्त्री लॉक डाउन  को 3 मई से आगे बढ़ाने का निर्णय करेंगे | हालांकि जिन इलाकों में संक्रमण पर काबू पा लिया गया है वहां लॉक डाउन में ढील दिए जाने की बात भी कही जा रही है |

 और ऐसा होने पर अर्थव्यवस्था संबंधी अनुमान और आकलन एक बार फिर पुनर्निर्धारित करने पड़ सकते हैं |  जैसा कि जानकारों और उद्योग - व्यापार जगत का कहना है यदि 30 मई तक लॉक डाउन खिंचा तब तक  कारोबारी  जगत को 25 से 30 लाख करोड़ से ज्यादा का नुकसान हो चुका होगा | और इसका सीधा असर सरकार की राजस्व वसूली पर पड़ेगा | कोरोना आते ही केंद्र सरकार ने करदाताओं को राहत देते हुए करों का भुगतान 30 जून तक करने की  छूट भी दे दी | आयकर रिटर्न की तारीख भी बढ़ा दी | बिजली के देयकों का भुगतान करने हेतु भी समय दे दिया गया |  बैंकों के कर्ज न पटाने पर एनपीए की समय सीमा में वृद्धि के साथ ही कर्जे की किश्तें आगे बढ़ाने का फैसला भी हो गया |

 बीते कुछ दिनों में केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक दोनों ने तमाम ऐसे कदम उठाये जिनसे कोरोना से प्रभावित उद्योग व्यापार में फिर से चेतना लौट आये | बैंकों को सस्ती दरों  पर पूंजी उपलब्ध करवाने के निर्देश भी दिए | इनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था में संभावित गिरावट को जितना हो सके रोकना है | लेकिन जैसा सुझाव चारों तरफ से आ रहा है उसके अनुसार सरकार को कारोबारी जगत को सस्ते कर्ज के साथ ही ऐसा कुछ तोहफा देना पड़ेगा जो उसके नुकसान की पूरी न सही किन्तु कुछ भरपाई तो कर सके | ऐसा करना  इसलिये भी जरूरी है जिससे करोड़ों की संख्या में घर बैठ गये श्रामिकों को रोजगार वापिस मिल सके | बीते एक माह से उद्योगों के बंद रहने के बाद भी जरूरी चीजों की  आपूर्ति में रूकावट नहीं आई | लेकिन 3 मई के बाद भी यदि लॉक डाउन जारी रखने के स्थिति बनी तब अभाव को टालने के लिए उत्पादन इकाइयों में काम शुरू करवाना पड़ेगा | हालांकि उसके लिए कितनी छूट मिलेगी ये आगामी एक दो दिन में  पता चलेगा किन्तु बड़े शहरों से पलायन कर गये श्रामिक जल्दी लौटेंगे इसमें संदेह है | फिर भी उत्पादन शुरू करना प्राथमिक आवश्यकता बन गई है | इसी के साथ ये ध्यान रखना भी जरूरी है कि इससे कोरना के विरुद्ध जारी लड़ाई में व्यवधान न आ जाए | अभी तक भारत सरकार की नीति लोगों की ज़िन्दगी के नाम पर अर्थव्यवस्था को बचाने की नहीं रही | अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ये मूर्खता की जिसका खामियाजा अमेरिका जैसी महाशक्ति को भोगना  पड़ रहा है | लेकिन इस बारे में देखने वाली बात ये है कि हमारे देश में जरूरी चीजों का उत्पादन यूँ भी कम होता है और बीते दो दशक में छोटी - छोटी चीजों के लिए चीन पर हमारी निर्भरता चरम पर जा पहुँची | चूँकि फिलहाल व्यावसायिक  गतिविधियां पूरी तरह से अवरुद्ध हैं और निकट भविष्य में चीन से आयात होने की संभावना भी कम दिख रही है इसलिए यदि सरकारी संरक्षण और पूंजीगत सहयोग मिल जाए तो भारत के मृतप्राय छोटे और मध्यम श्रेणी के उद्योगों की साँसें लौट सकती हैं |

 सबसे  बड़ी बात ये है कि इस समय देश का जनमानस चीन से बेहद नाराज है | ऐसे में यदि उसमें  आर्थिक राष्ट्रवाद का भाव जगा दिया जावे तो भारतीय जनता सस्ता होने के बाद भी चीनी सामान से परहेज करने लगेगी | लेकिन इसके लिए सरकार को देशी उद्योगों की पीठ पर हाथ रखना होगा |  यद्यपि ये बात भी अपनी जगह सच है कि भारत सरकार के लिए  इस समय दरियादिली दिखाना आसान नहीं  है | उसकी राजस्व वसूली तो रुकी ही है,  नए वित्तीय वर्ष की पहली  तिमाही लॉक डाउन की बलि  चढ़ने जा रही है | चूँकि इस अवधि में कारोबार पूरी तरह बंद रहा इसलिए भी सरकार  के खजाने की हालत खस्ता है | जो था वह भी कोरोना के बचाव ,राहत और पुनर्वास में खर्च हुआ जा रहा है |

 अब सवाल ये है कि क्या अर्थव्यवस्था को लावारिस छोड़ दिया जावे या फिर उसे कैसे भी हो दोबारा खड़ा करते हुए भावी चुनौतियों के लिए तैयार किया जा सके | हालत काफी पेचीदा हैं लेकिन ऐसी स्थितियों में ही किसी देश की परीक्षा होती है | और फिर भारत अकेला नहीं होगा ऐसे हालात का सामना करने वाला | चीन भले कोरोना से उबरने का दावा कर रहा हो लेकिन आर्थिक मोर्चे पर वह भी तगड़ी चोट खा चुका है | अमेरिका जैसा सबसे बड़ा बाजार उसके हाथ से खिसकने को है | यही हाल यूरोप के अनेक देशों के साथ भी है | इस महामारी ने चीन नाम को ही संदिग्ध और डरावना बना दिया है | उसकी चालाकी से तो सभी वाकिफ थे लेकिन कोरोना के बाद से चीन की छवि ऐसे क्रूर देश की बन गई है जो अपने लाभ के लिए समूची मानव जाति के अस्तित्व को खतरे में डालने से भी हिचकता |

ऐसी वैश्विक स्थिति में भारत को थोड़ा दुस्साहसी बनना होगा | अर्थात आर्थिक नीतियों में  खतरा उठाने की पहल यदि की जाए तो उसके चमत्कारिक परिणाम आ सकते हैं | इसके लिए युद्धस्तरीय रणनीति बनाकर किसी भी स्थिति  में अधिकाधिक उत्पादन को ही एकमात्र लक्ष्य बनाते हुए मेक इन इण्डिया नारे को जमीनी हकीकत में बदलने की जरूरत है | कोरोना संकट से निपटने के बाद समूचे यूरोप ही नहीं अमेरिका तक में कारोबारी गतिविधियां जल्द रफ्तार नहीं पकड़ सकेंगी | चीन जैसा पूर्व में कहा जा चुका है खलनायक की छवि के साथ विश्वासनीयता के संकट में फंसा रहेगा | ऐसे में भारत को  एक बड़े शून्य को भरने का स्वर्णिम अवसर नियति ने दिया है |

 वैसे भारत सरकार के सामने भी बड़ा अर्थ संकट है | जमा पूंजी भी खत्म होती जा  रही है और बैंक पहले से ही एनपीए की  वजह से नगदी के संकट में हैं | ऐसी सूरत में किसी औद्योगिक क्रान्ति की कल्पना पर  सवाल उठना स्वाभाविक है | लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जिन पर गम्भीरता से विचार  करने के बाद यदि प्रभावी कदम उठा लिये जाएं तो भारत का पूंजी संकट दूर होते  देर नहीं लगेगी | इसका सबसे ताजा प्रमाण है फेसबुक और रिलायंस की जिओ में हुआ व्यापारिक समझौता  जिसके अंतर्गत फेसबुक ने जिओ में तकरीबन 43  हजार करोड़ का निवेश करते हुए मुकेश अम्बानी को फिर से एशिया का सबसे धनी व्यक्ति व्यक्ति बना दिया | इससे एक बात सिद्द्ध हो गयी कि भारतीय अर्थव्यवस्था में अभी  भी अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों का भरोसा बदस्तूर कायम है |

 उल्लेखनीय है कुछ बरस पहले  चीन में गैर लोकतान्त्रिक शासन के बावजूद भी विदेशी  पूंजी का जबर्दस्त प्रवाह था | चीन की आर्थिक सम्पन्न्त्ता का राज वही पूंजी थी | एक कट्टर साम्यवादी देश का पूंजीवादी देशों के साथ व्यावसायिक नज्दीकियां  बना लेना माओ त्से तुंग के वंशजों से  अनपेक्षित था  | परन्तु कोरोना नामक वायरस ने चीन की विश्वसनीयता को जबरदस्त धक्का पहुंचा दिया है | जो भारत के लिए वरदान बन सकता है |

 लेकिन इसके लिए भारत सरकार को अपना पूरा फोकस उत्पादन बढ़ाने पर केन्द्रित करना होगा । मेरे विचार से और जैसा विभिन्न लोगों से चर्चा उपरांत सुझाव आया कि केंद्र सरकार  1 अप्रैल 2020 से 31 मार्च 2022 तक अर्थात अगले दो वित्तीय वर्ष को आयकर मुक्त घोषित कर दे | इससे बेशक राजस्व हानि होगी लेकिन बहुत सारा ऐसा धन जो अर्थव्यवस्था से बाहर पड़ा हुआ है वह चलन में आने से बाजार में पूंजी का संकट काफी हद तक कम हो सकेगा तथा कारोबारी सुस्ती भी दूर होते देर नहीं लगेगी | नोट बन्दी के बाद लोगों के पास काफी ऐसा धन पड़ा हुआ है जिससे वे व्यापार में नहीं लगा पा रहे थे | सरकार के पास उस धन को मुख्य धारा में लाने का फिलहाल और कोई रास्ता भी नहीं है |

 वैसे सुनने में ये सुझाव अटपटा लगेगा किन्तु इस समय ऐसा ही कुछ करने की जरूरत है जिससे  अर्थव्यवस्था को पंख लगाये जा सकें | उल्लेखनीय है 31 जनवरी 2020 तक प्रत्यक्ष करों से केवल 7.52 लाख करोड़ ही एकत्र हुए थे | वहीं 31 मार्च तक का अनुमान 11.70 लाख करोड़ एकत्र करने का था |

इस सुझाव का उद्देश्य काले धन को प्रोत्साहित करना नहीं अपितु उसे अर्थव्यवस्था में शामिल कर पूंजी के संकट को दूर करना  है |  आयकर को दो वर्ष के लिए स्थगित करने से कारोबारी जगत में जो सक्रियता आयेगी और उत्पादन बढ़ेगा उसके परिणामस्वरूप जीएसटी की वसूली में आनुपातिक दृष्टि से जो वृद्धि होगी वह आयकर स्थगन से होने वाले घाटे की पूर्ति तो करेगी ही बेरोजगारी दूर करने में भी ये कदम सहायक बनेगा | निश्चित रूप से ये निर्णय बहुत ही चौंकाने वाला होगा लेकिन मौजूदा हालात में अर्थव्यवस्था को इसी तरह की क्रांतिकारी सोच की जरूरत है | यदि ऐसा नहीं किया जाता और कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था पुराने ढर्रे पर रेंगते हुए आगे बढ़ी ,तब तक ये अवसर हाथ से चला जाएगा |

 सामान्य समय होता तब इस मुद्दे पर बहस भी होती लेकिन युद्ध जैसी परिस्थिति में निर्णय भी उसी तरह के होते हैं | यद्यपि नोट बंदी भी आयकर समाप्त करने की दिशा में उठाया गया प्रायोगिक कदम था किन्तु बात आगे नहीं बढ़ सकी | आयकर से मुक्ति का सबसे बड़ा लाभ होगा भ्रष्टाचार पर लगाम | क्योंकि ये बात किसी से छिपी नहीं है कि काले धन को बढ़ावा देने में हमारे भ्रष्ट तंत्र का कितना बड़ा योगदान है |

Saturday 25 April 2020

गम की अँधेरी रात में दिल को न बेकरार कर ,सुबह जरूर आएगी सुबह का इंतजार कर |



कल दोपहर में किसी जानकारी के लिए यू ट्यूब खोला तो टीवी चैनल की पत्रकारिता छोड़ राजनेता बने और फिर लौटकर अपना  यू ट्यूब चैनल शुरू करने वाले एक पत्रकार महोदय और अक्सर टीवी चर्चाओं में नजर आने वाले एक टिप्पणीकार जो प्रोफेसर भी रहे हैं , के बीच वार्ता सुनने मिली | प्रोफेसर साहब फिलहाल कोरोना की वजह से अमेरिका में रुके हुए हैं | बातचीत अमेरिका के वर्तमान हालात से शुरू हुई और घूम फिरकर भारत पर लौट आई | पत्रकार महोदय ने पूछा कि अमेरिका में भारत को लेकर क्या राय है  ? और वहां से कहानी शुरू करते हुए प्रोफेसर साहब ने कहा कि यहाँ जो बुद्धिजीवी भारत के प्रति रूचि रखते हैं वे कोरोना को लेकर सरकार द्वारा किये जा रहे दावों पर संदेह व्यक्त कर रहे  हैं । क्योंकि उनकी नजर में  130 करोड़ जनसंख्या में मात्र 5 लाख जांच करने के बाद अपनी सफलता का झंडा फहराने  का कोई महत्व नहीं है | दूसरी बात उन्होंने ये बताई कि विवि के एक प्राध्यापक ने आशंका  व्यक्त की  है कि भारत अब नियंत्रित लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है , जैसा कभी पाकिस्तान में था | और तीसरी बात  बताते हुए प्रोफेसर साहब ने कहा कि अमेरिका में इस बात को लेकर काफी चिंता है कि भारत की मौजूदा सरकार कोरोना को हथियार बनाकर  अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही है | लगे हाथ वे ये बताने से भी  नहीं चूके कि वहां लगाये जा रहे अनुमान  के अनुसार भारत में लगभग 40 करोड़ लोग और गरीब हो जायेंगे  | आश्चर्य इस बात का था कि अमेरिका में उन्हें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसने न्यूनतम संसाधन और अत्यंत विषम परिस्थितियों में कोरोना से निपटने के बारे में भारत की तारीफ की हो | यहाँ तक कि बिल गेट्स द्वारा की गई प्रशंसा पर भी उन्होंने प्रश्न चिन्ह लगा दिये |

इन दिनों अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों में कुछ लोग निराशाजनक चित्र प्रस्तुत करने में जुटे हुए हैं | ऐसे समय जब जनता का मनोबल बढ़ाते  हुए उसे हौसला देने की जरूरत है तब ये प्रचार करना  किस तरह की बुद्धिमत्ता है कि आगे बेरोजगारी तथा गरीबी और बढ़ेगी , भुखमरी की नौबत तक आ सकती है जिसके बाद लोग सड़कों पर उतर आएंगे और अराजकता का बोलबाला हो जाएगा |

भारत के बारे में उन देशों के कथित विशेषज्ञों के आकलन को पत्थर की लकीर मान लेना बुद्धिमानी  कदापि नहीं है जो अपने देश में हो रही दुर्गति का न अंदाज लगा सके और न ही उससे बचने का कोई उपाय उनके दिमाग में है | जरूरी नहीं कि झूठी तारीफ करते हुए जनता को अंधेरे में रखा जाये लेकिन किसी भी युद्ध में सैनिकों का मनोबल गिराने  वाली बातें करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं होता |

उदाहरण के तौर पर एक मरीज किसी चिकित्सक के पास जाए जो उसकी जाँच करने के बाद उससे कहे कि तुम्हारी हालत बहुत खराब होने वाली है | हो सकता है तुम कुछ दिन में मर जाओ | इससे जाहिर तौर पर तुम्हारे परिवार वाले मुसीबत में फंस जायेंगे | ये सुनकर उस मरीज की क्या हालत होगी ये सोचने वाली बात है | वो मरने वाला न  हो तो भी अधमरा हो जाएगा |

इसके विपरीत दूसरा डॉक्टर उसे देखकर बोले चिंता मत करो | तुम्हारी बीमारी लाइलाज नहीं है | समय लगेगा लेकिन ठीक होने की पूरी उम्मीद है , बस दवाइयां समय पर खाते रहना और जब भी तकलीफ हो तो तुरंत आ जाना | ये सुनकर मरीज का साहस बढ़ेगा जो बड़ा ही जरूरी होता है ।

अब बताइए उक्त दोनों में से किस डॉक्टर के तरीके को आप बेहतर और समझदारी भरा मानेंगे ?

जबलपुर नगर में विराट हॉस्पिस नामक एक संस्थान है | कैंसर के उन बेसहारा मरीजों को जिनकी मृत्यु को अवश्यंभावी मानकर चिकित्सक भी हाथ खड़े कर देते हैं , ये संस्थान  अपने यहाँ रखते हुए उनकी आख़िरी साँस तक सेवा - सुश्रुषा करता है | मरीज अकेलापन महसूस न करे इसलिए उसके  एक परिजन को भी साथ रहने की सुविधा दी जाती है | उसको कभी भी ये  एहसास नहीं होने  दिया जाता कि वह मृत्यु के सन्निकट है | हरसम्भव  इच्छा पूरी करते हुए उसके अंत को जितना हो सके सुखांत बनाने  की कोशिश होती  है | पूरी तरह प्रशिक्षित और पेशवर नर्सिंग स्टाफ उनकी  देखरेख में 24 घंटे  रहता है | विराट हास्पिस  का संचालन करने वाली एक साध्वी हैं जिनका नाम है  Didi Gyaneshwari | इस संस्थान का ध्येय वाक्य है “ Though we can not add days to thier Life , but we can add Life to their Days .” ( यद्यपि हम उनकी ज़िन्दगी में और दिन तो नहीं जोड़ सकते लेकिन उनके शेष दिनों को थोड़ी ज़िन्दगी तो दे सकते हैं )|

विराट हास्पिस ये सेवा कार्य विगत 7 सालों से पूरी तरह निःशुल्क करता आ रहा है |

उक्त संस्थान के यहां उल्लेख का उद्देश्य मात्र इतना है कि विराट हास्पिस में आने वाले मरीजों के पास ज्यादा ज़िन्दगी नहीं होने  के बाद भी उनकी सेवा  मरणासन्न मानकर नहीं की जाती | अपितु उनका उत्साहवर्धन करते हुए उनमें जिजीविषा उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है | उस दृष्टि से आज के समय केवल ये बात होनी चाहिए कि कोरोना नामक इस संकट से ये देश मिलकर कैसे लड़ सकता है |

व्यवस्थाओं में कमी होने पर सुधार हेतु जिम्मेदार लोगों तक जानकारी एवं सुझाव पहुंचाना भी जरूरी है  | लेकिन केवल आलोचना करने से प्रशासन का जो अमला आज अपनी जान पर खेलकर लोगों को बचाने में जुटा  हुआ है , उसका मनोबल टूटता है |

इसीलिये  यू  ट्यूब पर पत्रकार और प्रोफेसर  साहब की उक्त बातचीत सुनकर दुःख हुआ | मेरे भी अनेक मित्र और निकट संबंधी विदेशों में हैं  | संचार सुविधाएँ सुलभ होने से उनमें से अनेक से हाल के दिनों में संवाद हुआ | शायद ही किसी ने भारत के बारे में नकारात्मक प्रतिक्रिया दी हो | उलटे जहां वे हैं उनकी तुलना में भारत में कोरोना  को लेकर जो कार्ययोजना बनाई गई उसकी  तारीफ ही हुई | ये सब वे लोग हैं जो बेहतर अवसर और सुरक्षित भविष्य के आकर्षण के कारण अपना देश छोड़कर वहां गए | जाते समय भारत के बारे में उनकी धारणा शायद उतनी अच्छी नहीं थी और वे सदैव उन देशों की प्रशंसा का कोई  मौका नहीं छोड़ते थे | लेकिन कोरोना ने उन्हें अपनी सोच  बदलने बाध्य कर दिया है |

बीती शाम ही इंग्लेंड में बसे भारतीय मूल के चिकित्सक डा.राजीव मिश्रा का एक वीडियो देखा | वे कोरोना संक्रमित होने के बाद ठीक हो चुके हैं | उन्होंने  न सिर्फ इंग्लैण्ड अपितु समूचे यूरोप में  कोरोना को लेकर अपनाई  जा रही रणनीति की धज्जियां उड़ाते हुए जाँच बढ़ाने की मांग पर  बताया कि वहां उन्हीं  कोरोना  संक्रमितों की जांच की जाती  है जिनको अस्पताल में भर्ती करने की नौबत आ जाए  | वरना घर में ही  रहने कह  दिया जाता है | उनका अपना अनुभव ये रहा कि संक्रमित होने पर उनकी तो  जांच हुई लेकिन उनके परिजनों की जाँच करने की जरूरत नहीं समझी गई | जबकि भारत में ऐसा नहीं है ।

डा . मिश्रा ने साफ़ -- साफ कहा कि पश्चिमी जगत इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है कि भारत में अब तक लाशों के अम्बार नहीं लगे । यूरोपीय देश कोरोना से लड़ने में जिस तरह औंधे मुंह गिरे उससे उनकी साख को जबर्दस्त नुकसान हुआ जबकि भारत को वाहवाही मिल रही है |

वे अकेले नहीं हैं जो इस मुद्दे पर भारत की प्रशंसा कर रहे हों | दुनिया भर के अनेक नेताओं के अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन कह  चुका है कि कोरोना विरोधी भारतीय रणनीति अब तक तो कामयाब रही है |

लेकिन इस आलेख का उद्देश्य सरकारी इंतजाम की तारीफ करना मात्र नहीं है | हर कोई  उसे  पसंद करे ये भी अनिवार्य नहीं | फिर भी  नीति और रणनीति के क्रियान्वयन में कोई गलती नहीं है ये भले ही पूरी तरह से न मानें तो भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि अब तक के आंकड़े  और कार्य के तरीके आधिकतर विकसित देशों की तुलना में कहीं बेहतर हैं |

जिन लोगों ने भारत द्वारा संक्रमित लोगों की जानकारी छिपाए जाने की बात कही वे इस इस वास्तविकता को नजरंदाज कर गए कि जाँच नहीं होने  से भले ही संक्रमित लोगों की अपेक्षाकृत कम संख्या अविश्वसनीय लग रही हो किन्तु कोरोना से ग्रसित होने वाले अगर ज्यादा होते  तब मृतकों  की संख्या  भी बढ़ती | सरकार किसी जानकारी को कितना भी छिपा ले लेकिन यदि बड़े पैमाने पर लोग मरे होते तब वह बात छिपाना असंभव था | क्योंकि भारत ,  चीन नहीं है |

बेहतर हो कोरोना के कारण उत्पन्न हालातों में सकारात्मक सोच को प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाए | भारत में नियंत्रित लोकतंत्र का खतरा बढ़ गया है , सरकार ने कोरोना को अल्पसंख्यकों के विरुद्ध औजार बना लिया है ,बेरोजगारी और भुखमरी आ जायेगी , लोग सड़कों पर उतर आयेंगे और अराजकता फैल जायेगी जैसी बातें प्रचारित करने से आज क्या हासिल होने वाला है , ये समझ से परे है |

पश्चिमी बुद्धिजीवी और समाचार माध्यमों में भारत की छवि मुस्लिम विरोधी  बन रही है इसकी चिंता का भी ये समय नहीं है | ये वे देश हैं जिन्होंने बीते कुछ दशकों में  समूचे इस्लामिक जगत को युद्ध की विभीषिका में झोंक रखा है | बेहतर हो आज के माहौल में उन संभावनाओं पर  बात हो जो भारत की झोली में गिरने वाली हैं |

ऐसा लगता है हमारे देश में एक वर्ग ऐसा है जिसे  सकारात्मक सोच से ही एलर्जी है | कोरोना के बाद बेशक भारत की अर्थव्यवस्था पर जबर्दस्त दबाव आएगा | बेरोजगारी , गरीबी और उस जैसी दूसरी समस्याएँ आने की भी आशंका है | लेकिन दूसरी तरफ ये भी सच है कि समाज का वह वर्ग जो अभी तक अपनी दुनिया में मगन रहता था वह अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक हुआ है | लोगों में जो डर शुरुवात में था वह भी धीरे - धीरे घट रहा है | हजारों कोरोना संक्रमित स्वस्थ होकर घर आ गये हैं | उन सभी ने स्वीकार किया कि उनका इलाज  बेहतर तरीके से हुआ और डॉक्टर्स और  सहयोगी स्टाफ की सेवाएँ बहुत ही अच्छी थीं | घर लौटने पर उनका जिस तरह स्वागत हुआ वह समाज की  सौजन्यता और साहस का प्रमाण है |

भारत बेशक एक विकासशील देश है जो आर्थिक मंदी की चपेट से उबर पाता उसके पहले ही कोरोना आ धमका | लेकिन उसे महामारी बनने से रोके रहना भी कम उपलब्धि नहीं है | उल्लेखनीय है शुरुवात में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत पर ये विश्वास जताया  था पूरी दुनिया उसकी तरफ उम्मीद भरी निगाहों  से देख रही है |

लड़ाई अभी जारी है और कब तक चलेगी ये कह पाना कठिन है | लेकिन उसके बाद  का निराशाजनक चित्र खींचना किसी भी तरह  की बुद्धिमत्ता नहीं होगी |  बेहतर हो लोगों में इस बात का भरोसा पैदा किया जावे कि कोरोना के बाद का दौर भारत का ही होगा और ये गलत भी नहीं है |

प्रख्यात कवियत्री स्व. महादेवी वर्मा का एक प्रसिद्ध गीत है :-
‘मैं नीर भरी दुःख की बदली’

इसकी अंतिम पंक्ति है :- उमड़ी थी कल मिट आज चली |

दरअसल ये उस बदली का दर्द है जो बड़े ही जोर शोर से उमड़ती तो है लेकिन बरसने के बाद उसका वजूद मिट जाता है |

किसी साहित्य प्रेमी ने इस पंक्ति में निहित निराशा को उम्मीद में बदलते हुए इस तरह लिखा कि :-
मिट आज चले उमड़ेगे कल |

स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था कि व्यक्ति का सबसे बड़ा नुकसान उस उम्मीद का खो जाना है जिसके सहारे हम अपना जो कुछ भी खोया है उसे दोबारा  हासिल कर सकते हैं |

कोरोना के बाद क्या होगा उसे लेकर निराश होना या दूसरों को करना भारत के पुरुषार्थ की अनदेखी होगी और ऐसा करने वाले इस देश की तासीर को यदि नहीं जानते तो ये उनकी समस्या है | 

स्व.जाँ निसार अख्तर की इन पंक्तियों को जब भी वक़्त मिले  गुनगुनाते रहिये :-

गम की अँधेरी रात में दिल को न बेकरार कर ,
सुबह जरूर आएगी सुबह का इंतजार कर |

ताकि लॉक डाउन बढ़ाने की नौबत न आये



दूसरे लॉक डाउन को भी दस दिन हो गए। जाँच का दायरा ज्यों-ज्यों फैलता जा रहा है त्यों-त्यों कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या निरंतर बढती जा रही है। मौतें भी हो रही है और लोग ठीक होकर भी घर जा रहे हैं। लेकिन अभी तक इस बात के कोई संकेत नहीं मिल रहे जिनसे ये अंदाज लगाया जा सके कि 3 मई के बाद लॉक डाउन हटाने का निर्णय किया जा सकेगा या नहीं। वैसे आज आई एक रिपोर्ट के अनुसार लॉक डाउन अपने उद्देश्य में सफल होता दिख रहा है क्योंकि संक्रमित मरीजों की संख्या अब 10 दिनों में दोगुनी हो रही है। लेकिन इस आँकड़े के साथ भी ये पेंच है कि इसे आनुपातिक आधार पर देखा जा रहा है जबकि होना ये चाहिए कि नये मामलों की अपनी संख्या में रोजाना कमी हो। हालाँकि विशेषज्ञों का मानना है कि संक्रमित लोगों की संख्या 50 हजार पहुंचने के बाद ही नए संक्रमणों का आंकड़ा क्रमश: नीचे आता जाएगा। यद्यपि एक वर्ग इस विश्लेषण से सहमत नहीं है। बावजूद इसके ये बात उम्मीद जगाने वाली है कि देश के अनेक जिले कोरोना संक्रमण से मुक्त भी हो चले हैं। लेकिन एक नया खतरा पैदा हो सकता है। विभिन्न राज्य सरकारें जनमत के दबाव और समाचार माध्यमों में हो रही आलोचना के कारण दूसरे राज्यों में फंसे अपने मजदूरों को वापिस लाने की व्यवस्था कर रही हैं। इनकी संख्या भी बड़ी है। पहले तो इतने लोगों का परिवहन बड़ी समस्या होगी और यात्रा के दौरान सोशल डिस्टेसिंग का पालन भी लगभग असंभव होगा। राज्य में आने वाले इन लोगों को आइसोलेशन में रखना छोटी बात नहीं होगी। चूँकि इस तबके में अशिक्षित लोग ही ज्यादा होते हैं अत: उनसे अनुशासन की ज्यादा अपेक्षा करना भी व्यर्थ है। लेकिन ये ऐसा मुद्दा है जिसकी ज्यादा समय तक उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। इसी तरह देश के अनेक शहरों में कोचिंग हेतु रह रहे विद्यार्थियों को भी वापिस लाने की व्यवस्था की जा रही है। हालांकि राज्य सरकारें अपने स्तर पर काफी प्रयासरत हैं लेकिन बड़ी संख्या में बाहर से लाये गये लोगों के कारण संक्रमण न फैल जाए ये देखना जरुरी है। इस दृष्टि से लॉक डाउन के बचे हुए दिनों में यदि नये संक्रमणों की संख्या में कमी नहीं आती तब उसे आगे बढ़ाना जरूरी हो जाएगा। और इसी बात का प्रचार जोरों से होना चाहिए। लॉक डाउन की उपयोगिता तो साबित हो चुकी है। पूरी दुनिया ये मान रही है कि भारत जैसे विशाल देश में इतनी बड़ी जनसंख्या को घरों में सीमित कर देना आसान नहीं था किन्तु तमाम विसंगतियों और अव्यवस्थाओं के बाद भी लॉक डाउन का पालन अधिकतर लोगों ने किया। हालाँकि घनी बस्तियों और झोपड़ पट्टी में सोशल डिस्टेंसिंग नहीं हो पा रही। इसी तरह मुस्लिम बस्तियों में भी घनी बसाहट की वजह से संक्रमित लोगों की संख्या में वृद्धि हुई। कोरोना संकट से भारत कब तक आजाद होगा ये अभी कोई नहीं बता सकेगा। सरकार की तरफ  से जो बन पड़ रहा है वह कर रही है लेकिन कहीं जलीकुट्टी के बैल की शवयात्रा में हजारों लोग शामिल होकर कोरोना के फैलाव को आमंत्रण देने पर आमादा हैं तो कहीं मस्जिदों में सामूहिक नमाज पढ़ने की जिद की जा रही है। कुछ पढ़े लिखे लोग भी अनावश्यक घूमकर सुनसान शहर का हाल देखने की मूर्खता से भी बाज नहीं आ रहे। एक बात सबको ध्यान रखना होगी कि जब तक कोरोना का एक भी संक्रमित मरीज रहेगा उसकी वापिसी नामुमकिन है और इसके लिए आगामी 3 मई तक के लॉक डाउन को पूरी तरह सफल बनाना जनता का फर्ज है। किसी जिले या राज्य से संक्रमण पूरी तरह खत्म होने का भी कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि न तो वहां के लोग बाहर जा सकेंगे और न ही बाहर से कोई वहां आ पाएगा। ये देखते हुए कोरोना से चल रही लड़ाई में हर किसी को योद्धा की भूमिका निभाना होगी। कोरोना एक जंजीर की तरह से है। उसमें नई कड़ियाँ न जुड़ें तभी उसे तोड़ पाना सम्भव होगा वरना वह और लम्बी होते हुए मजबूत होती जायेगी। उसका फैलाव रोकने का ये बड़ा ही नाजुक समय है वरना हमें एक और लॉक डाउन के लिए तैयार हो जाना चाहिए जो हो सकता है इससे भी लम्बा हो। इसलिए खुद भी सतर्क रहें और दूसरों को भी ये समझाएं  कि लॉक डाउन सजा न होकर बचाव का उपाय है। बेशक इसके कारण हमारा सामान्य जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है लेकिन यदि हम अपनी और अपने परिजनों की सुरक्षा चाहते हैं तो हमें ये तकलीफ सहनी ही होंगी क्योंकि जीत का यही एकमात्र रास्ता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

जान है तभी भगवान है : नए भारत का नारा आपकी ज़िन्दगी केवल आपकी ही नहीं है इस साल नहीं पिघलेंगे आस्था के अमरनाथ



होली में लोग गले नहीं मिले , मिलन समारोह भी नहीं हुए , नवरात्रि , राम नवमी , महावीर जयन्ती , हनुमान जयन्ती , गुड फ्रायडे , ईस्टर , बैसाखी , आम्बेडकर जयन्ती आदि भी सांकेतिक तौर पर घरों के भीतर मना ली गई |  और अब रमजान पर भी उसी तरह घर पर ही  सभी धार्मिक रस्में निभाई जायेंगी | बद्रीनाथ और केदरनाथ के कपाट बजाय हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति के सीमित  लोगों के साथ  खोले जाने का निर्णय किया गया है |

अक्षय  तृतीया पर परशुराम जयन्ती के जुलूस रद्द कर दिए गये | गर्मियों में होने वाली शादियाँ तथा अन्य मांगलिक कार्यक्रम भी स्थगित किये जा चुके हैं | आगामी 1 मई को मजदूर दिवस पर होने वाली रैलियां भी नहीं होंगी.| क्रिकेट का कमाऊ आयोजन आईपीएल तो पहले ही रद्द किया जा चुका था | उसके बाद ये फैसला भी किया गया कि अमरनाथ यात्रा भी इस साल नहीं होगी | उल्लेखनीय है गत वर्ष भी अनुच्छेद 370 हटाये जाने से उत्पन्न हालात के कारण उसे बीच में रोकना पड़ा था | गार्मियों की छुट्टियों में होने वाला सैर सपाटा भी कोरोना की भेंट चढ़ गया | बच्चे दादा - दादी , नाना - नानी के यहाँ नहीं जायंगे | 3 मई के बाद लॉक डाउन हटा तो भी पूरे देश से नहीं हटेगा | पैसे की गर्मी वाले जिन लोगों को देश की गर्मी सहन नहीं , होती वे यूरोप चले जाते थे | लेकिन इस बार उनकी हसरत अधूरी  रह गयी |

इस प्रकार देखें तो हम सभी ने अपनी आस्था , मनोरंजन , सामाजिक सम्बन्ध  , आदि से बिना ऐतराज किये समझौता कर किया |  क्या साधारण स्थितियों में इस तरह का धैर्य , संयम , अनुशासन  और सहयोगात्मक रवैया संभव था ? और उत्तर है कदापि नहीं | किसी  धार्मिक  जुलूस का समय और रास्ता बदलने पर या तो बवाल मच जाता या फिर उच्च और सर्वोच्च न्यायालय तक मामला जा पहुंचता | चंद दिनों के फासले में हिन्दू , जैन  , मुस्लिम , सिख और ईसाई धर्म के प्रमुख त्यौहार पड़े | संविधान निर्माता की जयंती भी आई | लेकिन न किसी ने जुलूस निकालने की  जिद पकड़ी और न ही मूर्तियों  पर माला पहिनाते किसी ने अपनी फोटू खिंचवाई |

संकेत साफ़ है कि अपनी और अपनों की जान सभी को प्यारी है |

धर्म , आस्था , सामाजिक परम्पराएं और आदर्श  के प्रति विश्वास और सम्मान के लिए बात - बात में मरने - मारने पर आमादा लोग आराम से घर में बैठकर अनुशासित नागरिक होने का जो प्रमाण दे रहे हैं , उसी में छिपी हुई  है नए भारत की तस्वीर |

देश केवल नदी , पहाड़ , जंगल , मिट्टी से नहीं बनता | उसका निर्माण  होता है लोगों से और वही लोग चूँकि आज खतरे में हैं इसलिए समाज की सामूहिक चेतना में  निजी और छोटे समूहों की भावनाओं का विलीनीकरण  हो गया | भारत जैसे उत्सव प्रधान देश में इस तरह का आचरण कुछ समय पहले तक कल्पनातीत था | लेकिन एक महामारी ने वह सब कर दिखाया जिसे सरकार और सर्वोच्च न्यायालय तक नहीं करवा पाते थे |

इसके उदाहारण भी कम नहीं हैं | तमिलनाडु का जलीकुट्टी , दीपावली पर देर रात  तक कानफोडू पटाके और ऐसे ही तमाम धार्मिक मामलों में देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले तक को लोगों ने नजरंदाज कर  दिया |

लेकिन इस समय किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम के प्रति न कोई आग्रह कर रहा है और न ही दबाव डालने की कोशिश ही  है | शत- प्रतिशत  अनुशासन का पालन बेशक न हो रहा हो किन्तु  जितना भी देखने में आ रहा है वह भारतीय समाज की बहुधर्मी विविधता और परम्पराओं के निर्वहन के प्रति कट्टर सोच के मद्देनजर एक बड़ा आश्चर्य है |

और इसका स्वागत होना चाहिए क्योंकि यही  समझदारी भविष्य के भारत की बुनियाद होगी | आज जो लोग भी इसके विरुद्ध जाने की मूर्खता कर  रहे हैं , वे कितने भी संगठित या दुस्साहसी हों  , लेकिन समाज की सामूहिक रचनात्मक  सोच के आगे नहीं टिक पाएंगे |

इस लॉक डाउन ने हमारे देश के बारे में  स्थापित उस सोच को झुठला दिया है कि यहाँ कुछ नहीं हो सकता | एक माह से घरों में बैठे अनगिनत लोगों के मुंह से एक बात जो स्वप्रेरणा से बाहर निकलकर आई , वह है प्रदूषण में कमी से पर्यावरण में आये सुखद परिवर्तन की स्वीकारोक्ति | नदी , जंगल ,  पहाड़ की स्थिति में जो चमत्कारिक सुधार बीते एक माह में हुआ उसने देशवासियों के मन में ये भाव पैदा कर दिया है कि ये आगे भी जारी रहे |

एक समय था जब अमरनाथ की गुफा में बर्फ से बनने  वाले   स्वयंभू शिवलिंग के दर्शन सभी तीर्थयात्रियों को होते थे | लेकिन आस्था के अतिरेक ने ये नौबत ला दी कि यात्रा शुरू होने के कुछ दिनों बाद ही  वे पिघलने लगे | यात्रियों की बेतहाशा भीड़ के बाद वहां हेलीकाप्टर सेवा भी शुरू हो गयी | उत्तराखंड के धामों में भी यही हाल था | लेकिन अभी तक के जो समाचार हैं उनके अनुसार समूचे हिमालय क्षेत्र में इस समय प्रकृति अपने असली सौदर्य के साथ उपस्थित है | अनेक वनस्पतियाँ और औषधियां जो पर्यटकों की उपस्थिति से बढ़े तापमान की वजह से लुप्तप्राय थीं , वे भी इस साल उत्पन्न होने की संभावना है |

कश्मीर से  आ रही खबरों के अनुसार यदि इस साल अमरनाथ यात्रा रुकी रही तो बर्फ से बनने वाला प्राकृतिक शिवलिंग अपनी पूरी ऊँचाई तक पहुंचने के साथ ही लम्बे समय तक बना रहेगा |

रही बात  धार्मिक आस्थाओं की तो हमें ये याद रखना चहिये कि उनके पीछे हमारी बनाई परम्पराएँ ही हैं | महाराष्ट्र में  गणेश पूजा परिवारिक आयोजन होता था | लोकमान्य तिलक ने उसे सार्वजनिक रूप देकर स्वाधीनता आन्दोलन के लिए जनचेतना जगाने का अपना लक्ष्य पूरा किया था | अब ऐसे में किसी आपदा की वजह से वहां का गणेश महोत्सव आयोजित न हो सके तो इससे आसमान फट नहीं जाएगा |

इसी तरह इस वर्ष लाखों  लोग मंदिर , मस्जिद , गुरूद्वारे , चर्च नहीं जा सके तो क्या उन सब पर गाज गिर जायेगी ? गंगोत्री , यमुनोत्री में इस साल यदि श्रद्धालु नहीं जाएं तो गंगा - यमुना उन्हें ज्यादा आशीर्वाद देंगीं | और भगवान अमरनाथ अपने उत्साही भक्तों  की धमाचौकड़ी से मुक्ति पाकर उसी दिव्य शांत वातावरण का अनुभव करेंगे जिसमें बैठकर उन्होंने पार्वती जी को अमरत्व का रहस्य बताया था |

देश के मैदानी इलाकों में मई का महीना आने को है लेकिन अभी तक तापमान बढ़ने से होने वाली परेशानी महसूस नहीं हुई |

दो दिन पहले ही एक मित्र से फोन पर मौसम में आये आश्चर्यजनक बदलाव की बात चली तो वे बोले क्यों न कोरोना के बाद हम अपनी मंडली को लॉक डाउन क्लब का नाम देते हुए लोगों को इस बात के लिए प्रेरित करें कि कम से कम सप्ताह के एक दिन स्वस्फूर्त लॉक  डाउन का पालन किया जाये | मैंने प्रस्ताव रखा कि सप्ताह में एक दिन कोई विशेष अनिवार्यता न हो तो पेट्रोल -  डीजल चलित वाहन का उपयोग न  किया जावे | इस पर भी सहमति के स्वर सुनाई दिए |

जबलपुर के मेरे साथी पत्रकार Manish Gupta ने सोशल मीडिया पर देशाटन नामक एक अभियान शुरू करते हुए लोगों को बजाय विदेश जाने के घरेलू पर्यटन को प्रोत्साहित करने हेतु आगे आने का आह्वान किया , जिसे उत्साहजनक समर्थन मिल रहा है |

ये रचनात्मक बदलाव भले ही अभी सतह पर नहीं आये क्योंकि लोग घरों में हैं लेकिन लॉक डाउन ने लोगों की मानसिकता को जिस गहराई से प्रभावित करते हुए उनकी विचारशीलता को जाग्रत किया वह छोटी बात  नहीं है | जिसका दूरगामी परिणाम अवश्यंभावी है |

लॉक डाउन होते ही शहर के तकरीबन सभी निजी प्रैक्टिस वाले डाक्टर्स के दवाखाने बंद हैं | इस कारण  उन मरीजों को परेशानी भी हो रही है जिन्हें चिकित्सकीय परामर्श की जरूरत निरंतर पड़ती थी  | लेकिन उनमें कई हैं जिन्हें उसकी आवश्यकता नहीं पड़ी | मेरे निकट संपर्क में ब्लड प्रेशर और डायबिटीज के भी कुछ ऐसे मरीज हैं जो पिछले एक माह में खुद को स्वस्थ अनुभव करने लगे |

कल एक घनिष्ट मित्र को फोन करने पर उनके बेटे ने उठाया और मेरे कुछ पूछने से पहले ही बोला चाचाजी , पापा छत पर पतंग उड़ा रहे हैं | और मम्मी भी अपनी बहू और पोतियों के साथ वहीं हैं | बाद में मित्रवर का फोन आया और उन्होंने बचपन के उस शौक के सफलतापूर्वक नवीनीकरण को एक बड़ी कामयाबी की तरह बखान करते हुए बताया कि आज दो पेंच भी काटे | उनका कहना था कि अब वे इस शौक को छोड़ेगे नहीं क्योंकि इससे मिलने वाली खुशी भी शुद्ध पर्यावरण जैसी है |

अनेक परिवारों में बूढ़े और बच्चे साथ बैठकर वे खेल , खेल रहे हैं जो घर के किसी कोने में उपेक्षित पड़े हुए थे | उस दृष्टि से देखें तो ये संकट भारत में परिवार नमक संस्था के महत्व को पुनर्स्थापित करने का माध्यम बन गया है | लोगों को ये बात अच्छी तरह समझ में आने लगी कि तकलीफ में भी आनद कैसे तलाशा जा सकता है ?  कोरोना कितना भी खिंचे लेकिन उसे जाना तो पड़ेगा ही और उसके बाद भारतीय समाज में एक अभूतपूर्व परिवर्तन नजर आयेगा | लोगों में संयम , मितव्ययता , धीरज , आपसी सहयोग , अनुशासन जैसे गुण तो दिखाई देंगे ही , जो सबसे बड़ा बदलाव आयेगा वह होगा समझदारी |

प्रकृति  के साथ अब तक किये गए अत्याचार को लेकर जो स्वप्रेरित अपराधबोध इस दौरान जागा वह बहुत बड़ी उपलब्धि है | नदी का स्वच्छ जल , और हवा में आई अजीब सी खुशबू ने उस वर्ग को अंदर तक छुआ है जो अपनी सम्पन्नता के मद में प्रकृति को अपना गुलाम बनाने की मानसिकता  में डूबा हुआ था |

सरकार या सर्वोच्च न्यायालय समझाकर हार गये | पर्यावरण को बचाने  के लिए सक्रिय संस्थाएं भी लोगों को उतना प्रेरित नहीं कर पाईं जितना इस लॉक डाउन ने कर दिखाया | यद्यपि अनेक मित्र मेरी इस सोच को जल्दबाजी बताते हुए कहते हैं कि अव्वल तो कोरोना का असर पूरी तरह समाप्त  होने में अभी लम्बा समय लगेगा , जिसकी वजह से आज जो लोग लॉक डाउन के प्रति आभार जता रहे हैं वे ही अधीर होकर विरोध में उतर आयंगे तथा जो आशावाद  नजर आ रहा है वह स्थिति सामान्य होते ही फुर्र हो जाएगा |  लेकिन मेरा दृढ़ विश्वास है कि समाज के शिक्षित  वर्ग के साथ ही युवा पीढ़ी पर लॉक डाउन ने जो  मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ा है उसके कारण वे पहले से अधिक जिम्मेदार , पारिवारिक और सामाजिक होकर निकलेंगे |

समूची दुनिया की खबर रखने वाले युवाओं के मन में भारत को लेकर बनी नकारात्मक छवि दूर होना बड़े बदलाव का कारण बनेगा | और तो और जिस पुलिस विभाग के बारे में अपवादस्वरूप ही कोई अच्छी धारणा रखता था उसमें जो  सेवा भाव देखने मिल रहा है उसने भी नए भारत को लेकर उम्मीदें मजबूत की हैं | मान ही लें कि आपदा खत्म होने के बाद सब कुछ इतना अच्छा शायद न रहे लेकिन ये भी उतना ही सच है कि कर्तव्य पथ पर कुछ समय चलने के बाद व्यक्ति की मानसिकता पर सात्विकता का असर पड़ता ही है |

चर्चा  जहाँ से शुरू की वहीं खत्म करें तो अच्छी बात है कि लोगों को ये समझ में आ गया है कि  इन्सान की ज़िन्दगी से मूल्यवान दुनिया में और कुछ भी नहीं है | हमारे द्वारा धर्म और सामाजिकता के निर्वहन से चूंकि औरों की ज़िन्दगी भी खतरे  में पड़ सकती है इसलिए आम भारतीय इस रहस्य को जान गया है कि हमारी ज़िन्दगी  केवल हमारी नहीं अपितु दूसरों को जीवित रखने में भी  सहायक बन सकती है | और इसी सोच की वजह से करोड़ों भारतवासी अनगिनत  परेशानियों के बावजूद भी  घरों में बने हुए हैं |

इस एक महीने  में अधिकतर लोगों को ये  समझ में आ चुका है कि जान है तो  जहान है  तथा   जान भी और जहान भी जैसे नारे अब पुराने हो चुके हैं |

नये भारत का नारा होगा :-

जान है तभी भगवान है |

Friday 24 April 2020

घर सजाने का तसव्वर बाद में ......



केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों का महंगाई भत्ता डेढ़ साल तक नहीं बढ़ाने का फैसला कर लिया। इस पर कर्मचारी संगठनों की प्रतिक्रिया अभी आनी बाकी है। रक्षा सौदे भी लंबित हो गए। सांसदों सहित संवैधानिक पदों पर बैठे महानुभावों के वेतन में तीस फीसदी की कटौती संभवतया इसीलिये पहले ही कर दी गई थी। जिससे किसी को उंगली उठाने का मौका न मिले। सांसदों की क्षेत्र विकास निधि भी दो साल के लिए बंद की जा चुकी है। सरकारी खर्च में बड़े पैमाने पर कमी किये जाने की खबर है। विकास कार्य भी इससे प्रभावित होना तय है। लॉक डाउन की वजह से पिछले वित्तीय वर्ष के अंत में राजस्व वसूली के लक्ष्य पूरे नहीं हो सके। ये स्थिति केंद्र सरकार से लेकर नगरपालिका तक की है। ऊपर से राहत और कोरोना से बचाव पर पानी की तरह पैसा खर्च हो रहा है। और कब तक होगा ये कहना कठिन है। लॉक डाउन कब तक हटेगा ये अंदाज लगाना मुश्किल है। लेकिन उसके हटने के बाद भी उत्पादन शुरू होने और बाजार में आने में लम्बा समय लगेगा जिससे जीएसटी संग्रहण भी विलम्बित होगा। आर्थिक मंदी चल ही रही थी कि कोरोंना आ धमका। ऐसे में सरकार के पास भारी करारोपण की गुंजाईश भी नहीं है। उलटे मौजूदा करों की दरों को और घटाने का दबाव है। ये भी सही हैं कि कोरोंना के बाद जनजीवन सामान्य होने में लम्बा समय तो लगेगा। साथ ही भावी खतरे की आशंका में हर व्यक्ति अपने खर्चों में कमी करने की मानसिकता से प्रेरित्त होगा जिससे बाजार में सुस्ती बनी रहेगी जो अंतत: सरकार की आय पर बुरा असर डालेगी। पर्यटन, मनोरंजन जैसे व्यय भी घटना तय है। विलासितापूर्ण जीवन शैली पर भी कुछ तो असर पड़ेगा ही। शादी - विवाह में धन के प्रदर्शन की बजाय सादगी पर जोर दिया जायेगा। आमंत्रित अतिथि गण भी बोजन करने से कतराने लगेंगे। सोशल डिस्टेंसिंग एक बड़े वर्ग का स्वभाव बन जाएगा। और भी ऐसा बहुत कुछ होगा जिससे आर्थिक गतिविधियां पुरानी रफ्तार से नहीं दौड़ सकेंगी। कुल मिलाकर निष्कर्ष ये है कि खजाने में करों का प्रवाह धीमा रहने से पहले से ही कड़की में चल रही सरकार का हाथ आगे भी तंग बना रहेगा। इसी के साथ ये बात भी है कि कल्याणकारी योजनाओं पर आवंटन और बढ़ाना होगा। बेरोजगारों की बड़ी संख्या के पुनर्वास के लिए भी सरकारी संसाधन जुटाने पड़ेंगे। ऐसे में ये जरूरी होगा कि सरकार फिजूलखर्ची पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाये। सांसदों-विधायकों, मंत्रियों पर होने वाला खर्च आधा हो। उन्हें मिलने वाली असीमित यात्रा सुविधा पर भी नकेल कसी जाए। शिलान्यास , उद्घाटन और लोकापर्ण जैसे आयोजनों पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए। वीडियो तकनीक से इन आयोजनों में अथितियों की उपस्थिति की प्रथा विकसित की जा सकती है। उदाहरण के लिए लॉक डाउन के कुछ दिन पहले राष्ट्रपति का जबलपुर आने का कार्यक्रम था। महीनों पहले उसकी तैयारियां शुरू कर दी गईं। जिस सभागार में मुख्य आयोजन होना था उसे कायाकल्प के लिए दो महीने पहले बंद करते हुए तकरीबन चालीस लाख रूपये फूंक दिए गये। आयोजन रद्द हो गया और सभागार से होने वाली आय से भी नगर निगम वंचित हुआ सो अलग। बेहतर हो इस तरह के आयोजन पूरी तरह प्रतिबंधित हों। किसी सार्वजनिक सुविधा का लोकार्पण वीआईपी का समय नहीं मिलने के नाम पर रोका न जाए। इसी के साथ सरकारी अधिकारियों से होटल में ठहरने की सुविधा छीनकर सरकारी विश्रामालयों की पात्रता अनिवार्य हो। सरकारी खर्च पर होने वाली मौज मस्ती का आलम ये है कि किसी ख़ास के यहाँ शादी विवाह होने पर पूरी सरकार और उसके बड़े नौकरशाह व्यवहार निभाने किसी शहर में जमा होते हैं। अपनी जेब से खर्च न करना पड़े इसलिए उस दिन वहां कोई सरकारी आयोजन या विभागीय बैठक रख दी जाती है। इस कारण मंत्रियों तथा अफसरों को सरकारी व्यवस्था का लाभ मुफ्त में मिल जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर भी कोर्पोरेट की नकल करने का जो भूत बीते दो तीन दशकों में सवार हुआ उसे भी उतारने का वक्त आ गया है। ऐसे समय में जब सरकार पूरी तरह से दबाव में है तब ये कर्मचरियों ही नहीं हर किसी का दायित्व है कि वह अपने जीवन में मितव्ययता को महत्व दे। जहां तक बात वेतन और महंगाई भत्ते में कटौती की है तो निजी क्षेत्र में तो उसकी शुरुवात हो ही चुकी है। देश पर जो अभूतपूर्व संकट आया है उससे निपटने के लिए जो लोग सुविधापूर्ण स्थिति में हैं उन्हें आगे बढकर त्याग करना चाहिए। सरकार को चाहिए वह गैस सब्सिडी की तरह ही उच्च आय वाले वेतन भोगी वर्ग से अपील करे कि वे स्वेछा से अपने वेतन का एक हिस्सा राहत कोष हेतु प्रदान किया करे.। इससे उनमें दायित्व बोध जागेगा और समाज में भी सकारात्मक संकेत प्रसारित होगा। लॉक डाउन के दौरान पुलिस और प्रशासन ने जिस सेवाभाव का उदाहरण पेश किया उससे उम्मीद बंधी है। सरकार की तरफ से आह्वान हो तो बड़ी संख्या में लोग अपने लाभ में से कुछ न कुछ इस महामारी से लडऩे के लिए अवश्य देंगे। अतीत गवाह है कि नेतृत्व की नीति और नीयत साफ हो तो देशवासी भी पीछे नहीं रहते। उस दृष्टि से सौभाग्यवश मौजूदा समीकरण काफी अनुकूल हैं।
किसी शायर की ये पंक्तियाँ आज बेहद सटीक हैं :-
घर सजाने का तसव्वर बाद में, 
पहले सोचें कि घर बचाएं कैसे ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं इंसान को कम पहिचानते हैं ,ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं .....इसीलिये अभाव में भी नहीं बदलता भारत का स्वभाव


मेरे एक निकटस्थ छह महीने के वीजा पर बेटे के पास रहने गये अमेरिका गये | पूर्व में भी चूंकि वे अनेक मर्तबा हो आये थे इसलिए वहां की व्यवस्थाओं से वाकिफ थे | नियमित सेवन  वाली दवाइयां साथ लेते गये | स्वास्थ्य बीमा भी करवा लिया | तकरीबन दो माह बाद अचानक वापिस आ  गये | जब वजह जानी तो पता चला पत्नी को गठिया ने परेशान कर दिया | बेटे - बहू सुबह जल्दी काम पर चले जाते | बीमा संबंधी औपचरिकताएं  पूरी करने में जो व्यवहारिक परेशानियाँ आईं उसमें वे पस्त हो गये |  भारत में अपने डॉक्टर मित्रों से फोन पर पूछकर पास रखी दवाओं  से काम चलाते रहे  क्योंकि नई दवाई बिना डॉक्टरी पर्चे के मिलती नहीं  और  डॉक्टर  से पर्चा मिलना भी आसान नहीं था | अंततः वे जबलपुर लौट आये और हफ्ते भर में भाभी जी को आराम  मिल गया |

दूसरा वाकया इससे भी रोचक था | यहाँ का एक युवा न्यूरो सर्जन आयरलैंड के एक मशहूर अस्पताल में सेवारत हो गया | दो चार दिन बाद उसे खुद के लिए किसी साधारण दवा की जरूरत पड़ी | अस्पताल में स्थित दवा दुकान  पर दवाई मांगने पर उसे पर्चा दिखाने कहा गया | उसने बताया कि वह वहीं न्यूरो सर्जन है तब काउन्टर पर बैठे व्यक्ति ने कहा कहा लेकिन वह दवा तो न्यूरो चिकित्सा से संबंधित नहीं है | डाक्टर साहब हतप्रभ रह गये | उस मामूली दवा के लिए उन्हें लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता | चिकित्सा प्रणाली का जो मान्य शिष्टाचार है उसके मुताबिक उक्त बातें पूरी तरह सही हैं |

लेकिन गत रात्रि कैनेडा से एक करीबी का फोन आया | उसकी दास्ताँ सुनकर तो मैं व्यथित हो गया | कोरोना के कारण वह जिस प्रतिष्ठान में कार्यरत था उसने तालाबंदी करते हुए उसकी छुट्टी कर दी | उसके साथ कार्यरत एक भारतीय मित्र को संदेह  है कि वह कोरोना संक्रमित हो  गया है | उसकी पत्नी में भी कुछ लक्षण आ गये हैं |उसे सीधे अस्पताल में तब तक भर्ती नहीं किया जा सकता जब तक फैमिली डॉक्टर उस हेतु लिखित अनुशंसा न करे | और फैमिली डॉक्टर से फोन से बात होने पर वह कहता है कि कोरोना के सभी लक्षण अभी उनमें नहीं नजर आ रहे |  इसलिए घर पर रहो।

जिस मित्र का कल फोन आया उसने भी अपने फैमिली डॉक्टर को ईमेल कर स्वास्थ्य विषयक  कुछ सलाह लेने का प्रयास किया तो डॉक्टर ने भी ईमेल पर ही सम्वाद किया और जिस तरह की सलाह दी उससे बजाय आश्वस्त होने के वह और तनावग्रस्त हो गया |

कैनेडा में भी लॉक डाउन है | लोग घरों में हैं | बाहर निकलते समय अनुशासन का पालन करते हैं | लेकिन कोरोना को लेकर सरकारी इंतजाम अति साधारण हैं | किसी तरह की जाँच नहीं हो रही | जिसे संक्रमण होता है वह अपने निजी डॉक्टर के जरिये आगे की चिकित्सा हेतु भर्ती किया जाता है | लेकिन एक बात अच्छी है कि वीआईपी संस्कृति नहीं होने से किसी चीज की लाइन में छोटे बड़े सभी को अपनी बारी आने तक इन्तजार करना होता है |

अमेरिका से आ रही भयावह खबरें भी कैनेडा  वासियों को आशंकित किये हुए हैं | अभी तो आवाजाही  बंद है लेकिन जैसे ही खुलेगी  और आवागमन  शुरू  होगा तब कैनेडा में क्या होगा इसकी कल्पना से लोगों में जो डर है वह उक्त मित्र की आवाज से झलक रहा था |

और फिर वह बोला अपने भारत के बारे में सुनकर बड़े ही गर्व की  अनुभूति होती है | सरकार और समाज मिलकर जिस तरह इस संकट का सामना कर  रहे हैं उसकी यहाँ कल्पना नहीं की जा सकती |

लगभग एक वर्ष पूर्व विदेश में रहने वाले एक परिचित  के साथ जो हादसा हुआ उसने भी  मुझे विचलित किया था | उनकी पत्नी की गर्भावस्था का अंतिम समय था किन्तु गर्भपात हो गया | मृत शिशु को दफनाने के लिए वहां के कब्रिस्तान में स्थान प्राप्त करने  में उनको जो परेशानी हुई उसका वर्णन करना कठिन है |

मौजूदा हालात में अमेरिका , कैनेडा , ब्रिटेन , फ़्रांस , जर्मनी , रूस , स्विट्जरलैंड , इटली , स्पेन आदि में जो स्थितियां  निर्मित हुईं और उसके बाद विकसित कहे जाने वाले उक्त देशों में जो भाव शून्यता देखने मिली उससे एक वितृष्णा सी होने लगी |

अनुशासन और व्यवस्था का अपना महत्व है जिसके अभाव में हमारा देश विकास की दौड़ में उक्त देशों के तुलना में बहुत पीछे है | लेकिन 135 करोड़  की विशाल आबादी सामान्य समय में भले ही  उपेक्षा का दंश भोगने की मजबूरी सहती रही हो लेकिन कोरोना जैसी महामारी के आने के बाद सीमित संसाधनों के बावजूद जिस मुस्तैदी से चिकित्सा तन्त्र खड़ा किया गया  वह अकल्पनीय था | बीमारी के बचाव और इलाज में किसी की उपेक्षा नहीं होना वाकई वह बात है जिसकी उम्मीद नहीं थी |

उक्त सभी देशों की कुल आबादी भारत की आधी से भी कम होगी | इसके अलावा चिकित्सा सुविधाओं और आर्थिक संसाधनों की दृष्टि से भी वे हमसे हजार गुने बेहतर और सक्षम हैं | भ्रष्टाचार और कामचोरी भी नहीं है | आबादी कम होने से अब तक वहां  इंसानी जिन्दगी बड़ी ही मूल्यवान समझी जाती रही  | व्यवस्थाएं चाक - चौबंद हैं और सामजिक समता भी भरपूर है | आपदा प्रबंधन के मामले में भी वे भारत से कहीं बेहतर हैं |

फिर भी बीते एक महीने में उन सभी देशों  का जो प्रदर्शन रहा वह देखकर भारत पर गर्व  किया जा सकता है | हालाँकि अचानक लॉक डाउन लागू किये जाने से जनसाधारण को काफ़ी परेशानियां झेलनी पड़ीं | विशेष रूप से प्रवासी  दिहाड़ी मजदूरों की मुसीबतें तो अब तक चली आ रही हैं | सरकार ने गरीबों को अनाज और रसोई गैस तो दे दी लेकिन बैंकों में जो राशि सीधे खाते में भेजी वह ऊँट के मुंह में जीरा जैसी है |

लेकिन सरकार के समानांतर समाज की संवेदनशीलता जिस पारम्परिक और संस्कारित स्वरूप में सामने आई और  उसके कारण जो कुछ भी  हो रहा है वह किसी से छिपा नहीं है | कहने का आशय ये कि हमारा देश विकासशील तो है ही ,  भ्रष्टाचार , पक्षपात , कामचोरी भी यहाँ नस - नस में भरी है | व्यवस्था का पालन करने के प्रति अशिक्षित ही नहीं पढ़े - लिखे लोग भी लापरवाह हैं | ऊपर से वीआईपी संस्कृति का बोलबाला है | सरकारी अस्पताल अव्वल तो खुद ही बीमार पड़े हैं या फिर उनमें जबर्दस्त भीड़ है | और अधिकतर निजी चिकित्सा संस्थान हमेशा से ही पैसा बटोरने के अड्डे बने  हुए थे | इसलिए उनसे इस समय में किसी भी तरह की अपेक्षा सामान्य जन तो नहीं करता था |

लेकिन कोरोना संकट के दौर में जिस नये  भारत का उदय हुआ वह किसी दैवीय चामत्कार से कम नहीं है | अव्यवस्था कब व्यवस्था में बदल गई और समाज की रचनात्मक प्रवृत्ति बिना देर किये  जिस तरह अपनी भूमिका के निर्वहन में लग गई , ये उस देश के लिए बड़ी बात है जहाँ सरकारी अस्पतालों में कुत्ते के काटने  पर लगने वाला रैबीज का इंजेक्शन भी नहीं मिलता |

भारत में भावनाओं का जो स्वस्फूर्त प्रवाह इस दौर में नजर आ रहा है वह उक्त विकसित देशों के लिए एक सबक है जहां संसाधन , तकनीक, प्रबन्धन और व्यवस्था तो है लेकिन मशीनी सोच के चलते भावनाएं गहराई तक दबकर रह गईं हैं |

वरिष्ठ पत्रकार और आज तक चैनल के एग्जीक्युटिव एडीटर Sanjay Sinha अक्सर कहते हैं कि मनुष्य भावनाओं से संचालित होता है , कारणों से तो मशीनें चला करती हैं |

आज के हालात में विकसित देशों की जो स्थिति है उसमें भावनाएं पूरी तरह गायब दिखाई देती हैं और केवल मशीनी सोच ही समूची व्यवस्था पर हावी है | इसके ठीक विपरीत भारत में मानवीय सम्वेदनाएं और भावनाओं का जो सैलाब दिखाई दे  रहा है वह श्री सिन्हा के कथन को सत्य साबित करता है |

गौरतलब है अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को अर्थव्यवस्था की ज्यादा चिंता थी जिस कारण वहां लॉक डाउन लागू करने में विलम्ब किया गया और उसी वजह से देश की व्यवसायिक राजधानी न्यूयार्क में सामुदायिक संक्रमण की स्थिति पैदा हो गई |अमेरिकी राष्ट्रपति ने यहाँ तक कह दिया कि यदि उनका देश 1 लाख मौतों के बाद भी कोरोना मुक्त हो जाए तो सस्ता मानिये  | 

कमोबेश ऐसा ही यूरोप के अन्य देशों में भी देखने मिला | ये बात सही है कि सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के बारे में वहाँ के लोग ज्यादा सतर्क हैं | कम आबादी भी उसमें सहायक है । लेकिन बड़े पैमाने पर  हुई मौतों के बावजूद उन देशों की सरकारें जिस तरह असहाय नजर आ रही हैं वह निष्ठुरता की पराकाष्ठा है |

इसके ठीक उलट अव्यवस्था के पर्यायवाची भारत में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉक डाउन का पहला चरण घोषित करते समय हाथ जोड़कर कहा कि वे परिवार के सदस्य के रूप में निवेदन करते हैं कि घर में रहकर कोरोना  को रोकने में सहायक बनें | और फिर उन्होंने जान है तो जहान है जैसी बात  कही | उसके बाद 14 अप्रैल को लॉक डाउन बढ़ाते समय उन्होंने जान भी और जहान भी का नारा दिया |

अंतर साफ़ है | जो सम्पन्न देश हैं वहां संभावनाएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है लेकिन भारत में तमाम विसंगतियों के बावजूद मानवीय संवेदनाओं से भरपूर भावनाएं जीवित हैं | ये कहना गलत न होगा कि जरूरी चीजों और सुविधाओं के अभाव के बावजूद इस देश ने अपना परोपकारी स्वभाव नहीं बदला |

कोरोना के बाद की दुनिया में संभावनाओं और भावनाओं के बीच जो द्वन्द होगा उसमें निश्चित रूप से भारत विजेता बनकर उभरेगा क्योंकि यहाँ इंसानी लाशों की सीढ़ियों पर चढ़कर भौतिक प्रगति के झंडे नहीं फहराए जाते । उलटे मनुष्य की जान के लिए जहान को उपेक्षित किया जा सकता है |

मानवीय सम्वेदनाओं का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि जो तबलीगी जमाती देश भर में कोरोना संक्रमण को फैलाने का कारण बनने के बाद डाक्टरों और पुलिस कर्मियों पर थूकने जैसी बेहूदगी करते हैं तथा महिला  चिकित्सकों और नर्सों के सामने निर्वस्त्र होकर अश्लील हरकतें करने से बाज नहीं आते । बावजूद इसके उनको भी  मरने के लिए लावासिस नहीं छोड़ा जा रहा |

ऐसे में अपार सम्भावनाओं की चाहत में दुनिया भर में रह रहे भारतीय समुदाय के लोगों को इस नये भारत में भावनाओं के  ज्वार को  समझना चाहिए  क्योंकि जिस जगह सम्पन्नता की कीमत के सामने इंसानी ज़िन्दगी सस्ती समझ ली जाये वहां जाकर बसने में बाकी  सब तो मिल सकता है लेकिन सुकून नहीं |

स्व. राज कपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है के शीर्षक गीत में कविवर शैलेन्द्र ने लिखा था :-

“ कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं , इन्सान को कम पहिचानते हैं |
ये पूरब है पूरब वाले , हर जान की कीमत जानते हैं |

और जिस जहान में जान की कद्र न हो वहां भला क्या रहना ?

समझदारों के लिए इशारा काफी |

Thursday 23 April 2020

गम्भीर प्रश्न : डाक्टरों पर पत्थर फेंकने वालों की पीठ पर किसका हाथ



आखिर केंद्र सरकार को कानून बनाकर स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले को गैर जमानती अपराध बनाना पड़ा। पांच लाख तक जुर्माना और सात साल तक के कारावास का प्रावधान करते हुए अध्यादेश को मंत्रीपरिषद ने स्वीकृति दे दी। और कोई समय इस तरह के क़ानून को सामान्य प्रक्रिया कहा जा सकता था किन्तु कोरोना संकट के बीच इस कानून की जरूरत समाज के एक तबके की असंवेदनशीलता को ही जाहिर नहीं कर रही, उसके दिमागी दिवालियापन के साथ ही नेतृत्व करने वालों की छिछली सोच भी इससे उजागर और प्रमाणित हुई है। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने और आपदा के दौरान राहत लेने में जो मुस्लिम तबका बेहद जागरूक रहता है वही सरकार पर अविश्वास व्यक्त करने का कोई अवसर नहीं गंवाना चाहता। कोरोना संकट में गरीबों के बैंक खाते में सीधे जो राशि मोदी सरकार ने दी उसे निकालने के लिए तो इस समुदाय ने बैंकों के सामने भीड़ लगा दी। इसी तरह जहाँ राशन या भोजन वितरित होता है वहां भी मुस्लिम पुरुष, महिलाये और बच्चे बिना बुलाये जा पहुंचते हैं। लेकिन उनकी बस्ती में चिकित्सक और उसके साथ के स्वास्थ्य कर्मी के किसी बीमार व्यक्ति की जांच अथवा सर्वेक्षण करने आने पर घर का दरवाजा न खोलते हुए उन्हें दुत्कार दिया जाता है। यही नहीं तो उनके साथ पशुवत व्यव्हार की शिकायतें भी आ रही हैं। चिकित्सा दल को दुश्मन समझकर बस्ती से खदेडऩे के दृश्य पूरे देश में देखे जा रहे हैं। अनेक स्थानों पर डाक्टरों और उनके सहयोगियों पर जानलेवा हमला भी हुआ। ये घटनाएँ किसी क्षणिक आवेश अथवा गलतफहमी की प्रतिक्रियास्वरूप होतीं तब तो उनको उपेक्षित भी किया जा सकता था किन्तु धीरे-धीरे ये बात पूरी तरह साबित हो चुकी है कि ये सब अनजाने में न होकर सोची-समझी साजिश के चलते हो रहा है। भले ही मुस्लिम समुदाय में शिक्षा का प्रसार ज्यादा न हो लेकिन सर्वे करवाया जाये तो ये बात सामने आ जायेगी कि राज्य अथवा केद्र की सरकर के अलावा स्थानीय स्तर पर चलने वाली किसी भी कल्याणकारी योजना का लाभ लेने में मुस्लिन समाज पूरी तरह आगे-आगे रहता है। शासकीय अस्पतालों में इलाज की जो मुफ्त सुविधा है उसका लाभ लेते मुस्लिम मरीज बहुतायत में मिलते हैं। लेकिन जब वही सरकारी डाक्टर अपनी टीम लेकर उनकी बस्तियों में लोगों की अग्रिम जाँच कर  जीवन रक्षा के लिए जाते हैं तब उनके साथ जो व्यवहार हो रहा है उसके कारण समूचा मुस्लिम समुदाय ही नजरों से उतरने लगा है। गत दिवस जबलपुर में भी ऐसा देखने मिला। हम कुछ नहीं बताएँगे और बीमारी होगी तो इलाज के लिए खुद आ जायेंगे जैसे बेहूदे जवाब किस खीझ का परिणाम है ? इस तरह की हरकतें गैर मुस्लिम तबके में भी देखने में आईं हैं किन्तु 90 फीसदी चूँकि मुसलमान ही इस तरह की घटनाओं में शामिल हैं इसलिए बदनामी उन्हीं के हिस्से में आ रही है। टीवी चैनलों में बैठकर तो कुछ मुस्लिम धर्मगुरु अच्छी बातें करते हैं। लेकिन या तो वे खुद भी कहे चोर से चोरी करले जग से बोले जागते रहना वाली शरारत पर उतारू हैं या फिर मुस्लिम समुदाय उनकी समझाइश पर ध्यान नहीं दे रहा। अभी तक किसी भी मुस्लिम मौलवी ने ये पहल नहीं की कि वह डाक्टरों की टीम के साथ मुस्लिम बस्तियों में जाकर जाँच करवाने में सहयोग करेगा। डाक्टरों की जिन टीमों पर खूनी हमले हुए उनमें महिलाएं भी शामिल थीं। बावजूद उसके अनेक ने दोहराया कि यदि भेजा जायेगा तो वे फिर से उन बस्तियों में जाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करने से पीछे नहीं हटेंगी। सीएए के विरुद्ध मुस्लिम समुदाय द्वारा जब तोडफ़ोड़ की गई तब उप्र की योगी सरकार ने उपद्रवियों से हर्जाना वसूलने का निर्णय लिया जिसको लेकर खूब सियासी तूफान उठा। बात सर्वोच्च न्यायालय तक भी गई। बाद में वहां इस बारे में कानून बना दिया गया। आखिरकार केंद्र सरकार को भी वैसा ही कदम उठाना पड़ा। अब जब डाक्टरों पर हमले के आरोपी पकड़े जायेंगे तब ये रोना रोया जाएगा कि मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। उनसे हर्जाना वसूले जाने को भी जोर जबरदस्ती कहकर सरकार पर मुस्लिम विरोधी होने जैसे तीर छोड़े जायेंगे। बहुत से मुसलमान इस बात को लेकर नाराज हैं कि पूरी कौम को हीं कठघरे में खड़ा किया जा रहा हैं तथा मुसलमानों के सामाजिक और व्यवसायिक बहिष्कार की बातें हो रही हैं। उनकी बात कुछ हद तक सही भी है लेकिन ऐसे मुसलमान अपनी बिरादरी के जाहिल लोगों के विरुद्ध बोलने से क्यों डरते हैं, ये भी विचारणीय प्रश्न है। उनकी खामोशी उन्हें भी कठघरे में खड़ा कर रही है। अब जबकि कानून बन गया है तब डाक्टरों और उनके दल के साथ किसी भी तरह की अमानवीय हरकत पर वह अपना काम करेगा लेकिन अपने घरों और बस्तियों से डाक्टरों को खून से लथपथ कर भगाने वाले लोगों में से कोई सरकारी अस्पताल जाये और डाक्टर बदले की भावना से इलाज करने से इनकार कर दे तब क्या मुस्लिम कानून के लिहाज से उससे ठीक माना जाएगा? लेकिन कानून अपनी जगह है और इंसानियत अपनी। मुसलमानों को ये समझना चाहिए कि उनकी बस्तियों के अलावा अस्पतालों में उनके लोग जैसा बेहूदा और अमानवीय व्यवहार कर रहे हैं और समाज के प्रभावशाली लोग उसे रोकने का प्रयास नहीं कर रहे उसकी वजह से कोरोना खत्म होने के बाद उनके प्रति सोशल डिस्टेन्सिंग नए रूप में आ सकती है। कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वालों को तो पाकिस्तान से पैसा और संरक्षण मिलता रहा। लेकिन कोरोना योद्धा बनकर मानवता की रक्षा करने वालों पर पत्थर फेंकने वालों की पीठ पर किसका हाथ है ये भी स्पष्ट होना ज़रूरी है क्योंकि इसकी आड़ में विघटनकारी ताकतें अपना जाल बिछाने में लगी हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 22 April 2020

सावधान : बिना लक्षणों के भी हो रहा कोरोना संक्रमण



कोरोना वायरस की जाँच प्रक्रिया में तेजी के कारण नए संक्रमित लोगों की संख्या में वृद्धि हो रही है, वहीं ठीक होकर घर लौट रहे मरीजों का आंकड़ा भी बढ़ रहा है। लेकिन भले ही वैश्विक अनुपात से कम ही हों लेकिन मरने वाले भी रोज बढ़ रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति कहीं खुशी, कहीं गम वाली है। संक्रमित मरीजों की संख्या भले ही चार की बजाय सात दिन से ज्यादा में दोगुनी हो रही हो जिसे चिकित्सा जगत शुभ संकेत मानता है, लेकिन ये भी सोचने वाली बात है कि नये संक्रमित मरीजों की संख्या घटते क्रम में नहीं आ रही। विशेषज्ञों का मानना है जब तक नये मरीज आते रहेंगे तब तक संक्रमण की श्रृंखला बनती रहेगी। गोवा जैसे राज्यों के साथ जिन शहरों में यह श्रृंखला टूटी वे ही अभी तक कोरोना मुक्त हुए हैं। जैसा कहा जा रहा है उसके अनुसार अभी भी भारत में जांच का दायरा पूरी तरह नहीं बढ़ सका, अत: नये मरीजों को लेकर संशय की स्थिति बरकरार है। इसीलिए अनेक राज्यों और दिल्ली जैसे महानगर में बड़े पैमाने पर जांच शुरू की गयी ताकि संक्रमित लोगों का पता करते हुए उनका इलाज किया जा सके। लेकिन एक नई समस्या आकर खड़ी हो गई है। पहली तो ये कि बड़ी संख्या में ऐसे लोग अस्पतालों में इलाज के लिए आ रहे हैं हैं जिनमें कोरोना का कोई लक्षण नजर नहीं आया लेकिन जाँच होने पर वे संक्रमित पाए गये। इनके द्वारा अनजाने में अपने परिजनों के अलावा और कितने लोगों को संक्रमित किया गया ये पता करना नई परेशानी का कारण बन रहा है। जबलपुर में विगत दिवस अस्पताल में इलाजरत एक मुस्लिम महिला की मृत्यु  के बाद जब उसका सैम्पल लिया गया तब वह कोरोना संक्रमित निकली और फिर उसके परिवारवालों सहित अड़ोस-पड़ोस को हॉट स्पॉट मानकर जरूरी इंतजाम किये गए। इस समस्या से बढ़ी चिंताओं के बीच दूसरी समस्या और आ गयी चीन से आयातित जाँच किट के दोषपूर्ण होने की। राजस्थान सहित कुछ और राज्यों में सरसरी तौर पर जो जाँच अभियान चला उसमें जाँच किट की रिपोर्ट में गड़बड़ी मिलने पर आईसीएमआर द्वारा सघन जांच का काम फिलहाल रोक दिया गया। लेकिन इनकी वजह से कोरोना के विरुद्ध बनाई गई गयी रणनीति और तदनुसार की गई मोर्चेबंदी का अपेक्षित असर नहीं हो पा रहा। संक्रमित लोगों की सही संख्या भी इसी कारण सामने नहीं आ पा रही और ऊपर से तबलीगी जमात के सदस्य कोढ़ में खाज बने हुए हैं। ये सब देखते हुए अब जनता को और सतर्क होना पड़ेगा। लॉक डाउन को एक महीना होने आया। इसकी वजह से अब तक कोरोना सामुदायिक संक्रमण वाली पायदान तक भले न पहुंच पाया हो लेकिन जिन शहरों या इलाकों में अब तक संक्र्मण नहीं पहुंचा वे ऊपर वाले को धन्यवाद भले दें लेकिन निश्चिन्त होकर भी न बैठें। अब तक कुछ नहीं हुआ इसलिए आगे भी नहीं होगा ये आशावाद निरी मूर्खता है। चूँकि जाँच किट की गुणवत्ता पर उँगलियाँ उठने लगी हैं और उससे भी बड़ी बात बिना लक्षणों के भी कोरोना के मरीज सामने आ रहे हैं, तब ये मानकर चलना चाहिए कि वायरस का चरित्र बदल रहा है। जहाँ तक जाँच किट की विश्वसनीयता का प्रश्न है तो चीन से आयातित किसी भी चीज की तरह वह भी घटिया किस्म की निकली इस पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। चूँकि यूरोप के देश खुद ही बुरी तरह कोरोना ग्रसित हैं इसलिए संक्रमण की जाँच और बचाव संबंधी सामान उनसे खरीदना संभव नहीं हो पा रहा। ऐसे में भारत में बनी जांच किट का उत्पादन बढ़ाना ज्यादा सही होगा। इस बारे में जो खबरें आ रही हैं वे आश्वस्त करने वाली हैं। हमारे वैज्ञनिक इस विषम परिस्थिति में भी जिस निष्ठा के साथ कोरोना से मानव जाति की रक्षा के लिए जरूरी सामान बनाने में जुटे हुए हैं उससे जरुर उम्मीदें बनी हुई हैं। फिर भी लॉक डाउन को लेकर किसी भी तरह की उपेक्षावृत्ति घातक हो सकती है। बीते दो दिनों में दी गई हल्की सी छूट के दौरान लोगों ने जिस तरह की भीड़ पैदा कर दी उसे देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि अभी तक सोशल डिस्टेंसिंग का मतलब ही ऐसे लोग नहीं समझ सके। आज चिकित्सा जगत की एक हस्ती का बयान पढ़ने मिला जिसमें उन्होंने आगाह किया है कि कोरोना स्थायी रूप से जाने वाला नहीं है। भले ही उसकी मारक क्षमता कम हो जाए लेकिन वह अपना असर दिखाता रहेगा और इसलिए हमें अन्य संक्रामक बीमारियों की तरह उससे बचकर रहने की जीवनशैली अपनाना होगी, जिसमें सोशल डिस्टेंसिंग एक अनिवार्य तत्व रहेगा। भारतीय परिवेश में ये कोई अनोखी चीज नहीं है। लेकिन आधुनिकता में ढली पीढ़ी तथा स्वास्थ्य को लेकर बेफिक्र रहने वालों को ये जरूर अटपटा लग रहा होगा। अभी लॉक डाउन के तकरीबन दो हफ्ते शेष हैं। इसका बढ़ना न बढ़ना अनुशासन के पालन संबंधी हमारी प्रतिबद्धता पर निर्भर करेगा। बेहतर हो कोरोना के बदलते दांव - पेंच को हम गंभीरता से लें। अन्यथा एक कदम आगे दो कदम पीछे की स्थिति बनती रहेगी। बिना लक्षणों के कोरोना मरीजों की बढ़ती संख्या और जांच किट के नतीजों पर संदेह के बादल मंडराने के बाद हमें ज्यादा जागरूक और जिम्मेदार बनना होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी