Thursday 30 April 2020
अनिश्चितता के बाद भी उम्मीद की किरण
क्या आगे भी जनता की चप्पलें घिसती रहेंगीं ?या कोरोना काल जैसा सेवा और समर्पण बना रहेगा
Wednesday 29 April 2020
इस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए
Tuesday 28 April 2020
पर्यावरण और पुलिस : क्या कोरोना के बाद भी ऐसे ही रहेंगे ?या इस दौरान जागी सोच श्मसान वैराग्य है !
भरपूर पूंजी और सस्ते श्रम से बन सकती है बात
Monday 27 April 2020
क्योंकि हमारी पीड़ा देखकर उसकी आँखें नहीं छलछलायेंगींकृत्रिम बुद्धिमत्ता में आत्मीयता का अभाव
लॉक डाउन : नियंत्रण और संतुलन की नीति पर चलना होगा
Sunday 26 April 2020
दो वर्ष की लिए आयकर मुक्त हो भारत अर्थव्यवस्था को पंख लगाने का क्रान्तिकारी उपाय
Saturday 25 April 2020
गम की अँधेरी रात में दिल को न बेकरार कर ,सुबह जरूर आएगी सुबह का इंतजार कर |
कल दोपहर में किसी जानकारी के लिए यू ट्यूब खोला तो टीवी चैनल की पत्रकारिता छोड़ राजनेता बने और फिर लौटकर अपना यू ट्यूब चैनल शुरू करने वाले एक पत्रकार महोदय और अक्सर टीवी चर्चाओं में नजर आने वाले एक टिप्पणीकार जो प्रोफेसर भी रहे हैं , के बीच वार्ता सुनने मिली | प्रोफेसर साहब फिलहाल कोरोना की वजह से अमेरिका में रुके हुए हैं | बातचीत अमेरिका के वर्तमान हालात से शुरू हुई और घूम फिरकर भारत पर लौट आई | पत्रकार महोदय ने पूछा कि अमेरिका में भारत को लेकर क्या राय है ? और वहां से कहानी शुरू करते हुए प्रोफेसर साहब ने कहा कि यहाँ जो बुद्धिजीवी भारत के प्रति रूचि रखते हैं वे कोरोना को लेकर सरकार द्वारा किये जा रहे दावों पर संदेह व्यक्त कर रहे हैं । क्योंकि उनकी नजर में 130 करोड़ जनसंख्या में मात्र 5 लाख जांच करने के बाद अपनी सफलता का झंडा फहराने का कोई महत्व नहीं है | दूसरी बात उन्होंने ये बताई कि विवि के एक प्राध्यापक ने आशंका व्यक्त की है कि भारत अब नियंत्रित लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है , जैसा कभी पाकिस्तान में था | और तीसरी बात बताते हुए प्रोफेसर साहब ने कहा कि अमेरिका में इस बात को लेकर काफी चिंता है कि भारत की मौजूदा सरकार कोरोना को हथियार बनाकर अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही है | लगे हाथ वे ये बताने से भी नहीं चूके कि वहां लगाये जा रहे अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 40 करोड़ लोग और गरीब हो जायेंगे | आश्चर्य इस बात का था कि अमेरिका में उन्हें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसने न्यूनतम संसाधन और अत्यंत विषम परिस्थितियों में कोरोना से निपटने के बारे में भारत की तारीफ की हो | यहाँ तक कि बिल गेट्स द्वारा की गई प्रशंसा पर भी उन्होंने प्रश्न चिन्ह लगा दिये |
इन दिनों अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों में कुछ लोग निराशाजनक चित्र प्रस्तुत करने में जुटे हुए हैं | ऐसे समय जब जनता का मनोबल बढ़ाते हुए उसे हौसला देने की जरूरत है तब ये प्रचार करना किस तरह की बुद्धिमत्ता है कि आगे बेरोजगारी तथा गरीबी और बढ़ेगी , भुखमरी की नौबत तक आ सकती है जिसके बाद लोग सड़कों पर उतर आएंगे और अराजकता का बोलबाला हो जाएगा |
भारत के बारे में उन देशों के कथित विशेषज्ञों के आकलन को पत्थर की लकीर मान लेना बुद्धिमानी कदापि नहीं है जो अपने देश में हो रही दुर्गति का न अंदाज लगा सके और न ही उससे बचने का कोई उपाय उनके दिमाग में है | जरूरी नहीं कि झूठी तारीफ करते हुए जनता को अंधेरे में रखा जाये लेकिन किसी भी युद्ध में सैनिकों का मनोबल गिराने वाली बातें करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं होता |
उदाहरण के तौर पर एक मरीज किसी चिकित्सक के पास जाए जो उसकी जाँच करने के बाद उससे कहे कि तुम्हारी हालत बहुत खराब होने वाली है | हो सकता है तुम कुछ दिन में मर जाओ | इससे जाहिर तौर पर तुम्हारे परिवार वाले मुसीबत में फंस जायेंगे | ये सुनकर उस मरीज की क्या हालत होगी ये सोचने वाली बात है | वो मरने वाला न हो तो भी अधमरा हो जाएगा |
इसके विपरीत दूसरा डॉक्टर उसे देखकर बोले चिंता मत करो | तुम्हारी बीमारी लाइलाज नहीं है | समय लगेगा लेकिन ठीक होने की पूरी उम्मीद है , बस दवाइयां समय पर खाते रहना और जब भी तकलीफ हो तो तुरंत आ जाना | ये सुनकर मरीज का साहस बढ़ेगा जो बड़ा ही जरूरी होता है ।
अब बताइए उक्त दोनों में से किस डॉक्टर के तरीके को आप बेहतर और समझदारी भरा मानेंगे ?
जबलपुर नगर में विराट हॉस्पिस नामक एक संस्थान है | कैंसर के उन बेसहारा मरीजों को जिनकी मृत्यु को अवश्यंभावी मानकर चिकित्सक भी हाथ खड़े कर देते हैं , ये संस्थान अपने यहाँ रखते हुए उनकी आख़िरी साँस तक सेवा - सुश्रुषा करता है | मरीज अकेलापन महसूस न करे इसलिए उसके एक परिजन को भी साथ रहने की सुविधा दी जाती है | उसको कभी भी ये एहसास नहीं होने दिया जाता कि वह मृत्यु के सन्निकट है | हरसम्भव इच्छा पूरी करते हुए उसके अंत को जितना हो सके सुखांत बनाने की कोशिश होती है | पूरी तरह प्रशिक्षित और पेशवर नर्सिंग स्टाफ उनकी देखरेख में 24 घंटे रहता है | विराट हास्पिस का संचालन करने वाली एक साध्वी हैं जिनका नाम है Didi Gyaneshwari | इस संस्थान का ध्येय वाक्य है “ Though we can not add days to thier Life , but we can add Life to their Days .” ( यद्यपि हम उनकी ज़िन्दगी में और दिन तो नहीं जोड़ सकते लेकिन उनके शेष दिनों को थोड़ी ज़िन्दगी तो दे सकते हैं )|
विराट हास्पिस ये सेवा कार्य विगत 7 सालों से पूरी तरह निःशुल्क करता आ रहा है |
उक्त संस्थान के यहां उल्लेख का उद्देश्य मात्र इतना है कि विराट हास्पिस में आने वाले मरीजों के पास ज्यादा ज़िन्दगी नहीं होने के बाद भी उनकी सेवा मरणासन्न मानकर नहीं की जाती | अपितु उनका उत्साहवर्धन करते हुए उनमें जिजीविषा उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है | उस दृष्टि से आज के समय केवल ये बात होनी चाहिए कि कोरोना नामक इस संकट से ये देश मिलकर कैसे लड़ सकता है |
व्यवस्थाओं में कमी होने पर सुधार हेतु जिम्मेदार लोगों तक जानकारी एवं सुझाव पहुंचाना भी जरूरी है | लेकिन केवल आलोचना करने से प्रशासन का जो अमला आज अपनी जान पर खेलकर लोगों को बचाने में जुटा हुआ है , उसका मनोबल टूटता है |
इसीलिये यू ट्यूब पर पत्रकार और प्रोफेसर साहब की उक्त बातचीत सुनकर दुःख हुआ | मेरे भी अनेक मित्र और निकट संबंधी विदेशों में हैं | संचार सुविधाएँ सुलभ होने से उनमें से अनेक से हाल के दिनों में संवाद हुआ | शायद ही किसी ने भारत के बारे में नकारात्मक प्रतिक्रिया दी हो | उलटे जहां वे हैं उनकी तुलना में भारत में कोरोना को लेकर जो कार्ययोजना बनाई गई उसकी तारीफ ही हुई | ये सब वे लोग हैं जो बेहतर अवसर और सुरक्षित भविष्य के आकर्षण के कारण अपना देश छोड़कर वहां गए | जाते समय भारत के बारे में उनकी धारणा शायद उतनी अच्छी नहीं थी और वे सदैव उन देशों की प्रशंसा का कोई मौका नहीं छोड़ते थे | लेकिन कोरोना ने उन्हें अपनी सोच बदलने बाध्य कर दिया है |
बीती शाम ही इंग्लेंड में बसे भारतीय मूल के चिकित्सक डा.राजीव मिश्रा का एक वीडियो देखा | वे कोरोना संक्रमित होने के बाद ठीक हो चुके हैं | उन्होंने न सिर्फ इंग्लैण्ड अपितु समूचे यूरोप में कोरोना को लेकर अपनाई जा रही रणनीति की धज्जियां उड़ाते हुए जाँच बढ़ाने की मांग पर बताया कि वहां उन्हीं कोरोना संक्रमितों की जांच की जाती है जिनको अस्पताल में भर्ती करने की नौबत आ जाए | वरना घर में ही रहने कह दिया जाता है | उनका अपना अनुभव ये रहा कि संक्रमित होने पर उनकी तो जांच हुई लेकिन उनके परिजनों की जाँच करने की जरूरत नहीं समझी गई | जबकि भारत में ऐसा नहीं है ।
डा . मिश्रा ने साफ़ -- साफ कहा कि पश्चिमी जगत इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है कि भारत में अब तक लाशों के अम्बार नहीं लगे । यूरोपीय देश कोरोना से लड़ने में जिस तरह औंधे मुंह गिरे उससे उनकी साख को जबर्दस्त नुकसान हुआ जबकि भारत को वाहवाही मिल रही है |
वे अकेले नहीं हैं जो इस मुद्दे पर भारत की प्रशंसा कर रहे हों | दुनिया भर के अनेक नेताओं के अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन कह चुका है कि कोरोना विरोधी भारतीय रणनीति अब तक तो कामयाब रही है |
लेकिन इस आलेख का उद्देश्य सरकारी इंतजाम की तारीफ करना मात्र नहीं है | हर कोई उसे पसंद करे ये भी अनिवार्य नहीं | फिर भी नीति और रणनीति के क्रियान्वयन में कोई गलती नहीं है ये भले ही पूरी तरह से न मानें तो भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि अब तक के आंकड़े और कार्य के तरीके आधिकतर विकसित देशों की तुलना में कहीं बेहतर हैं |
जिन लोगों ने भारत द्वारा संक्रमित लोगों की जानकारी छिपाए जाने की बात कही वे इस इस वास्तविकता को नजरंदाज कर गए कि जाँच नहीं होने से भले ही संक्रमित लोगों की अपेक्षाकृत कम संख्या अविश्वसनीय लग रही हो किन्तु कोरोना से ग्रसित होने वाले अगर ज्यादा होते तब मृतकों की संख्या भी बढ़ती | सरकार किसी जानकारी को कितना भी छिपा ले लेकिन यदि बड़े पैमाने पर लोग मरे होते तब वह बात छिपाना असंभव था | क्योंकि भारत , चीन नहीं है |
बेहतर हो कोरोना के कारण उत्पन्न हालातों में सकारात्मक सोच को प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाए | भारत में नियंत्रित लोकतंत्र का खतरा बढ़ गया है , सरकार ने कोरोना को अल्पसंख्यकों के विरुद्ध औजार बना लिया है ,बेरोजगारी और भुखमरी आ जायेगी , लोग सड़कों पर उतर आयेंगे और अराजकता फैल जायेगी जैसी बातें प्रचारित करने से आज क्या हासिल होने वाला है , ये समझ से परे है |
पश्चिमी बुद्धिजीवी और समाचार माध्यमों में भारत की छवि मुस्लिम विरोधी बन रही है इसकी चिंता का भी ये समय नहीं है | ये वे देश हैं जिन्होंने बीते कुछ दशकों में समूचे इस्लामिक जगत को युद्ध की विभीषिका में झोंक रखा है | बेहतर हो आज के माहौल में उन संभावनाओं पर बात हो जो भारत की झोली में गिरने वाली हैं |
ऐसा लगता है हमारे देश में एक वर्ग ऐसा है जिसे सकारात्मक सोच से ही एलर्जी है | कोरोना के बाद बेशक भारत की अर्थव्यवस्था पर जबर्दस्त दबाव आएगा | बेरोजगारी , गरीबी और उस जैसी दूसरी समस्याएँ आने की भी आशंका है | लेकिन दूसरी तरफ ये भी सच है कि समाज का वह वर्ग जो अभी तक अपनी दुनिया में मगन रहता था वह अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक हुआ है | लोगों में जो डर शुरुवात में था वह भी धीरे - धीरे घट रहा है | हजारों कोरोना संक्रमित स्वस्थ होकर घर आ गये हैं | उन सभी ने स्वीकार किया कि उनका इलाज बेहतर तरीके से हुआ और डॉक्टर्स और सहयोगी स्टाफ की सेवाएँ बहुत ही अच्छी थीं | घर लौटने पर उनका जिस तरह स्वागत हुआ वह समाज की सौजन्यता और साहस का प्रमाण है |
भारत बेशक एक विकासशील देश है जो आर्थिक मंदी की चपेट से उबर पाता उसके पहले ही कोरोना आ धमका | लेकिन उसे महामारी बनने से रोके रहना भी कम उपलब्धि नहीं है | उल्लेखनीय है शुरुवात में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत पर ये विश्वास जताया था पूरी दुनिया उसकी तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है |
लड़ाई अभी जारी है और कब तक चलेगी ये कह पाना कठिन है | लेकिन उसके बाद का निराशाजनक चित्र खींचना किसी भी तरह की बुद्धिमत्ता नहीं होगी | बेहतर हो लोगों में इस बात का भरोसा पैदा किया जावे कि कोरोना के बाद का दौर भारत का ही होगा और ये गलत भी नहीं है |
प्रख्यात कवियत्री स्व. महादेवी वर्मा का एक प्रसिद्ध गीत है :-
‘मैं नीर भरी दुःख की बदली’
इसकी अंतिम पंक्ति है :- उमड़ी थी कल मिट आज चली |
दरअसल ये उस बदली का दर्द है जो बड़े ही जोर शोर से उमड़ती तो है लेकिन बरसने के बाद उसका वजूद मिट जाता है |
किसी साहित्य प्रेमी ने इस पंक्ति में निहित निराशा को उम्मीद में बदलते हुए इस तरह लिखा कि :-
मिट आज चले उमड़ेगे कल |
स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था कि व्यक्ति का सबसे बड़ा नुकसान उस उम्मीद का खो जाना है जिसके सहारे हम अपना जो कुछ भी खोया है उसे दोबारा हासिल कर सकते हैं |
कोरोना के बाद क्या होगा उसे लेकर निराश होना या दूसरों को करना भारत के पुरुषार्थ की अनदेखी होगी और ऐसा करने वाले इस देश की तासीर को यदि नहीं जानते तो ये उनकी समस्या है |
स्व.जाँ निसार अख्तर की इन पंक्तियों को जब भी वक़्त मिले गुनगुनाते रहिये :-
गम की अँधेरी रात में दिल को न बेकरार कर ,
सुबह जरूर आएगी सुबह का इंतजार कर |
ताकि लॉक डाउन बढ़ाने की नौबत न आये
जान है तभी भगवान है : नए भारत का नारा आपकी ज़िन्दगी केवल आपकी ही नहीं है इस साल नहीं पिघलेंगे आस्था के अमरनाथ
होली में लोग गले नहीं मिले , मिलन समारोह भी नहीं हुए , नवरात्रि , राम नवमी , महावीर जयन्ती , हनुमान जयन्ती , गुड फ्रायडे , ईस्टर , बैसाखी , आम्बेडकर जयन्ती आदि भी सांकेतिक तौर पर घरों के भीतर मना ली गई | और अब रमजान पर भी उसी तरह घर पर ही सभी धार्मिक रस्में निभाई जायेंगी | बद्रीनाथ और केदरनाथ के कपाट बजाय हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति के सीमित लोगों के साथ खोले जाने का निर्णय किया गया है |
अक्षय तृतीया पर परशुराम जयन्ती के जुलूस रद्द कर दिए गये | गर्मियों में होने वाली शादियाँ तथा अन्य मांगलिक कार्यक्रम भी स्थगित किये जा चुके हैं | आगामी 1 मई को मजदूर दिवस पर होने वाली रैलियां भी नहीं होंगी.| क्रिकेट का कमाऊ आयोजन आईपीएल तो पहले ही रद्द किया जा चुका था | उसके बाद ये फैसला भी किया गया कि अमरनाथ यात्रा भी इस साल नहीं होगी | उल्लेखनीय है गत वर्ष भी अनुच्छेद 370 हटाये जाने से उत्पन्न हालात के कारण उसे बीच में रोकना पड़ा था | गार्मियों की छुट्टियों में होने वाला सैर सपाटा भी कोरोना की भेंट चढ़ गया | बच्चे दादा - दादी , नाना - नानी के यहाँ नहीं जायंगे | 3 मई के बाद लॉक डाउन हटा तो भी पूरे देश से नहीं हटेगा | पैसे की गर्मी वाले जिन लोगों को देश की गर्मी सहन नहीं , होती वे यूरोप चले जाते थे | लेकिन इस बार उनकी हसरत अधूरी रह गयी |
इस प्रकार देखें तो हम सभी ने अपनी आस्था , मनोरंजन , सामाजिक सम्बन्ध , आदि से बिना ऐतराज किये समझौता कर किया | क्या साधारण स्थितियों में इस तरह का धैर्य , संयम , अनुशासन और सहयोगात्मक रवैया संभव था ? और उत्तर है कदापि नहीं | किसी धार्मिक जुलूस का समय और रास्ता बदलने पर या तो बवाल मच जाता या फिर उच्च और सर्वोच्च न्यायालय तक मामला जा पहुंचता | चंद दिनों के फासले में हिन्दू , जैन , मुस्लिम , सिख और ईसाई धर्म के प्रमुख त्यौहार पड़े | संविधान निर्माता की जयंती भी आई | लेकिन न किसी ने जुलूस निकालने की जिद पकड़ी और न ही मूर्तियों पर माला पहिनाते किसी ने अपनी फोटू खिंचवाई |
संकेत साफ़ है कि अपनी और अपनों की जान सभी को प्यारी है |
धर्म , आस्था , सामाजिक परम्पराएं और आदर्श के प्रति विश्वास और सम्मान के लिए बात - बात में मरने - मारने पर आमादा लोग आराम से घर में बैठकर अनुशासित नागरिक होने का जो प्रमाण दे रहे हैं , उसी में छिपी हुई है नए भारत की तस्वीर |
देश केवल नदी , पहाड़ , जंगल , मिट्टी से नहीं बनता | उसका निर्माण होता है लोगों से और वही लोग चूँकि आज खतरे में हैं इसलिए समाज की सामूहिक चेतना में निजी और छोटे समूहों की भावनाओं का विलीनीकरण हो गया | भारत जैसे उत्सव प्रधान देश में इस तरह का आचरण कुछ समय पहले तक कल्पनातीत था | लेकिन एक महामारी ने वह सब कर दिखाया जिसे सरकार और सर्वोच्च न्यायालय तक नहीं करवा पाते थे |
इसके उदाहारण भी कम नहीं हैं | तमिलनाडु का जलीकुट्टी , दीपावली पर देर रात तक कानफोडू पटाके और ऐसे ही तमाम धार्मिक मामलों में देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले तक को लोगों ने नजरंदाज कर दिया |
लेकिन इस समय किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम के प्रति न कोई आग्रह कर रहा है और न ही दबाव डालने की कोशिश ही है | शत- प्रतिशत अनुशासन का पालन बेशक न हो रहा हो किन्तु जितना भी देखने में आ रहा है वह भारतीय समाज की बहुधर्मी विविधता और परम्पराओं के निर्वहन के प्रति कट्टर सोच के मद्देनजर एक बड़ा आश्चर्य है |
और इसका स्वागत होना चाहिए क्योंकि यही समझदारी भविष्य के भारत की बुनियाद होगी | आज जो लोग भी इसके विरुद्ध जाने की मूर्खता कर रहे हैं , वे कितने भी संगठित या दुस्साहसी हों , लेकिन समाज की सामूहिक रचनात्मक सोच के आगे नहीं टिक पाएंगे |
इस लॉक डाउन ने हमारे देश के बारे में स्थापित उस सोच को झुठला दिया है कि यहाँ कुछ नहीं हो सकता | एक माह से घरों में बैठे अनगिनत लोगों के मुंह से एक बात जो स्वप्रेरणा से बाहर निकलकर आई , वह है प्रदूषण में कमी से पर्यावरण में आये सुखद परिवर्तन की स्वीकारोक्ति | नदी , जंगल , पहाड़ की स्थिति में जो चमत्कारिक सुधार बीते एक माह में हुआ उसने देशवासियों के मन में ये भाव पैदा कर दिया है कि ये आगे भी जारी रहे |
एक समय था जब अमरनाथ की गुफा में बर्फ से बनने वाले स्वयंभू शिवलिंग के दर्शन सभी तीर्थयात्रियों को होते थे | लेकिन आस्था के अतिरेक ने ये नौबत ला दी कि यात्रा शुरू होने के कुछ दिनों बाद ही वे पिघलने लगे | यात्रियों की बेतहाशा भीड़ के बाद वहां हेलीकाप्टर सेवा भी शुरू हो गयी | उत्तराखंड के धामों में भी यही हाल था | लेकिन अभी तक के जो समाचार हैं उनके अनुसार समूचे हिमालय क्षेत्र में इस समय प्रकृति अपने असली सौदर्य के साथ उपस्थित है | अनेक वनस्पतियाँ और औषधियां जो पर्यटकों की उपस्थिति से बढ़े तापमान की वजह से लुप्तप्राय थीं , वे भी इस साल उत्पन्न होने की संभावना है |
कश्मीर से आ रही खबरों के अनुसार यदि इस साल अमरनाथ यात्रा रुकी रही तो बर्फ से बनने वाला प्राकृतिक शिवलिंग अपनी पूरी ऊँचाई तक पहुंचने के साथ ही लम्बे समय तक बना रहेगा |
रही बात धार्मिक आस्थाओं की तो हमें ये याद रखना चहिये कि उनके पीछे हमारी बनाई परम्पराएँ ही हैं | महाराष्ट्र में गणेश पूजा परिवारिक आयोजन होता था | लोकमान्य तिलक ने उसे सार्वजनिक रूप देकर स्वाधीनता आन्दोलन के लिए जनचेतना जगाने का अपना लक्ष्य पूरा किया था | अब ऐसे में किसी आपदा की वजह से वहां का गणेश महोत्सव आयोजित न हो सके तो इससे आसमान फट नहीं जाएगा |
इसी तरह इस वर्ष लाखों लोग मंदिर , मस्जिद , गुरूद्वारे , चर्च नहीं जा सके तो क्या उन सब पर गाज गिर जायेगी ? गंगोत्री , यमुनोत्री में इस साल यदि श्रद्धालु नहीं जाएं तो गंगा - यमुना उन्हें ज्यादा आशीर्वाद देंगीं | और भगवान अमरनाथ अपने उत्साही भक्तों की धमाचौकड़ी से मुक्ति पाकर उसी दिव्य शांत वातावरण का अनुभव करेंगे जिसमें बैठकर उन्होंने पार्वती जी को अमरत्व का रहस्य बताया था |
देश के मैदानी इलाकों में मई का महीना आने को है लेकिन अभी तक तापमान बढ़ने से होने वाली परेशानी महसूस नहीं हुई |
दो दिन पहले ही एक मित्र से फोन पर मौसम में आये आश्चर्यजनक बदलाव की बात चली तो वे बोले क्यों न कोरोना के बाद हम अपनी मंडली को लॉक डाउन क्लब का नाम देते हुए लोगों को इस बात के लिए प्रेरित करें कि कम से कम सप्ताह के एक दिन स्वस्फूर्त लॉक डाउन का पालन किया जाये | मैंने प्रस्ताव रखा कि सप्ताह में एक दिन कोई विशेष अनिवार्यता न हो तो पेट्रोल - डीजल चलित वाहन का उपयोग न किया जावे | इस पर भी सहमति के स्वर सुनाई दिए |
जबलपुर के मेरे साथी पत्रकार Manish Gupta ने सोशल मीडिया पर देशाटन नामक एक अभियान शुरू करते हुए लोगों को बजाय विदेश जाने के घरेलू पर्यटन को प्रोत्साहित करने हेतु आगे आने का आह्वान किया , जिसे उत्साहजनक समर्थन मिल रहा है |
ये रचनात्मक बदलाव भले ही अभी सतह पर नहीं आये क्योंकि लोग घरों में हैं लेकिन लॉक डाउन ने लोगों की मानसिकता को जिस गहराई से प्रभावित करते हुए उनकी विचारशीलता को जाग्रत किया वह छोटी बात नहीं है | जिसका दूरगामी परिणाम अवश्यंभावी है |
लॉक डाउन होते ही शहर के तकरीबन सभी निजी प्रैक्टिस वाले डाक्टर्स के दवाखाने बंद हैं | इस कारण उन मरीजों को परेशानी भी हो रही है जिन्हें चिकित्सकीय परामर्श की जरूरत निरंतर पड़ती थी | लेकिन उनमें कई हैं जिन्हें उसकी आवश्यकता नहीं पड़ी | मेरे निकट संपर्क में ब्लड प्रेशर और डायबिटीज के भी कुछ ऐसे मरीज हैं जो पिछले एक माह में खुद को स्वस्थ अनुभव करने लगे |
कल एक घनिष्ट मित्र को फोन करने पर उनके बेटे ने उठाया और मेरे कुछ पूछने से पहले ही बोला चाचाजी , पापा छत पर पतंग उड़ा रहे हैं | और मम्मी भी अपनी बहू और पोतियों के साथ वहीं हैं | बाद में मित्रवर का फोन आया और उन्होंने बचपन के उस शौक के सफलतापूर्वक नवीनीकरण को एक बड़ी कामयाबी की तरह बखान करते हुए बताया कि आज दो पेंच भी काटे | उनका कहना था कि अब वे इस शौक को छोड़ेगे नहीं क्योंकि इससे मिलने वाली खुशी भी शुद्ध पर्यावरण जैसी है |
अनेक परिवारों में बूढ़े और बच्चे साथ बैठकर वे खेल , खेल रहे हैं जो घर के किसी कोने में उपेक्षित पड़े हुए थे | उस दृष्टि से देखें तो ये संकट भारत में परिवार नमक संस्था के महत्व को पुनर्स्थापित करने का माध्यम बन गया है | लोगों को ये बात अच्छी तरह समझ में आने लगी कि तकलीफ में भी आनद कैसे तलाशा जा सकता है ? कोरोना कितना भी खिंचे लेकिन उसे जाना तो पड़ेगा ही और उसके बाद भारतीय समाज में एक अभूतपूर्व परिवर्तन नजर आयेगा | लोगों में संयम , मितव्ययता , धीरज , आपसी सहयोग , अनुशासन जैसे गुण तो दिखाई देंगे ही , जो सबसे बड़ा बदलाव आयेगा वह होगा समझदारी |
प्रकृति के साथ अब तक किये गए अत्याचार को लेकर जो स्वप्रेरित अपराधबोध इस दौरान जागा वह बहुत बड़ी उपलब्धि है | नदी का स्वच्छ जल , और हवा में आई अजीब सी खुशबू ने उस वर्ग को अंदर तक छुआ है जो अपनी सम्पन्नता के मद में प्रकृति को अपना गुलाम बनाने की मानसिकता में डूबा हुआ था |
सरकार या सर्वोच्च न्यायालय समझाकर हार गये | पर्यावरण को बचाने के लिए सक्रिय संस्थाएं भी लोगों को उतना प्रेरित नहीं कर पाईं जितना इस लॉक डाउन ने कर दिखाया | यद्यपि अनेक मित्र मेरी इस सोच को जल्दबाजी बताते हुए कहते हैं कि अव्वल तो कोरोना का असर पूरी तरह समाप्त होने में अभी लम्बा समय लगेगा , जिसकी वजह से आज जो लोग लॉक डाउन के प्रति आभार जता रहे हैं वे ही अधीर होकर विरोध में उतर आयंगे तथा जो आशावाद नजर आ रहा है वह स्थिति सामान्य होते ही फुर्र हो जाएगा | लेकिन मेरा दृढ़ विश्वास है कि समाज के शिक्षित वर्ग के साथ ही युवा पीढ़ी पर लॉक डाउन ने जो मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ा है उसके कारण वे पहले से अधिक जिम्मेदार , पारिवारिक और सामाजिक होकर निकलेंगे |
समूची दुनिया की खबर रखने वाले युवाओं के मन में भारत को लेकर बनी नकारात्मक छवि दूर होना बड़े बदलाव का कारण बनेगा | और तो और जिस पुलिस विभाग के बारे में अपवादस्वरूप ही कोई अच्छी धारणा रखता था उसमें जो सेवा भाव देखने मिल रहा है उसने भी नए भारत को लेकर उम्मीदें मजबूत की हैं | मान ही लें कि आपदा खत्म होने के बाद सब कुछ इतना अच्छा शायद न रहे लेकिन ये भी उतना ही सच है कि कर्तव्य पथ पर कुछ समय चलने के बाद व्यक्ति की मानसिकता पर सात्विकता का असर पड़ता ही है |
चर्चा जहाँ से शुरू की वहीं खत्म करें तो अच्छी बात है कि लोगों को ये समझ में आ गया है कि इन्सान की ज़िन्दगी से मूल्यवान दुनिया में और कुछ भी नहीं है | हमारे द्वारा धर्म और सामाजिकता के निर्वहन से चूंकि औरों की ज़िन्दगी भी खतरे में पड़ सकती है इसलिए आम भारतीय इस रहस्य को जान गया है कि हमारी ज़िन्दगी केवल हमारी नहीं अपितु दूसरों को जीवित रखने में भी सहायक बन सकती है | और इसी सोच की वजह से करोड़ों भारतवासी अनगिनत परेशानियों के बावजूद भी घरों में बने हुए हैं |
इस एक महीने में अधिकतर लोगों को ये समझ में आ चुका है कि जान है तो जहान है तथा जान भी और जहान भी जैसे नारे अब पुराने हो चुके हैं |
नये भारत का नारा होगा :-
जान है तभी भगवान है |
Friday 24 April 2020
घर सजाने का तसव्वर बाद में ......
कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं इंसान को कम पहिचानते हैं ,ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं .....इसीलिये अभाव में भी नहीं बदलता भारत का स्वभाव
मेरे एक निकटस्थ छह महीने के वीजा पर बेटे के पास रहने गये अमेरिका गये | पूर्व में भी चूंकि वे अनेक मर्तबा हो आये थे इसलिए वहां की व्यवस्थाओं से वाकिफ थे | नियमित सेवन वाली दवाइयां साथ लेते गये | स्वास्थ्य बीमा भी करवा लिया | तकरीबन दो माह बाद अचानक वापिस आ गये | जब वजह जानी तो पता चला पत्नी को गठिया ने परेशान कर दिया | बेटे - बहू सुबह जल्दी काम पर चले जाते | बीमा संबंधी औपचरिकताएं पूरी करने में जो व्यवहारिक परेशानियाँ आईं उसमें वे पस्त हो गये | भारत में अपने डॉक्टर मित्रों से फोन पर पूछकर पास रखी दवाओं से काम चलाते रहे क्योंकि नई दवाई बिना डॉक्टरी पर्चे के मिलती नहीं और डॉक्टर से पर्चा मिलना भी आसान नहीं था | अंततः वे जबलपुर लौट आये और हफ्ते भर में भाभी जी को आराम मिल गया |
दूसरा वाकया इससे भी रोचक था | यहाँ का एक युवा न्यूरो सर्जन आयरलैंड के एक मशहूर अस्पताल में सेवारत हो गया | दो चार दिन बाद उसे खुद के लिए किसी साधारण दवा की जरूरत पड़ी | अस्पताल में स्थित दवा दुकान पर दवाई मांगने पर उसे पर्चा दिखाने कहा गया | उसने बताया कि वह वहीं न्यूरो सर्जन है तब काउन्टर पर बैठे व्यक्ति ने कहा कहा लेकिन वह दवा तो न्यूरो चिकित्सा से संबंधित नहीं है | डाक्टर साहब हतप्रभ रह गये | उस मामूली दवा के लिए उन्हें लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता | चिकित्सा प्रणाली का जो मान्य शिष्टाचार है उसके मुताबिक उक्त बातें पूरी तरह सही हैं |
लेकिन गत रात्रि कैनेडा से एक करीबी का फोन आया | उसकी दास्ताँ सुनकर तो मैं व्यथित हो गया | कोरोना के कारण वह जिस प्रतिष्ठान में कार्यरत था उसने तालाबंदी करते हुए उसकी छुट्टी कर दी | उसके साथ कार्यरत एक भारतीय मित्र को संदेह है कि वह कोरोना संक्रमित हो गया है | उसकी पत्नी में भी कुछ लक्षण आ गये हैं |उसे सीधे अस्पताल में तब तक भर्ती नहीं किया जा सकता जब तक फैमिली डॉक्टर उस हेतु लिखित अनुशंसा न करे | और फैमिली डॉक्टर से फोन से बात होने पर वह कहता है कि कोरोना के सभी लक्षण अभी उनमें नहीं नजर आ रहे | इसलिए घर पर रहो।
जिस मित्र का कल फोन आया उसने भी अपने फैमिली डॉक्टर को ईमेल कर स्वास्थ्य विषयक कुछ सलाह लेने का प्रयास किया तो डॉक्टर ने भी ईमेल पर ही सम्वाद किया और जिस तरह की सलाह दी उससे बजाय आश्वस्त होने के वह और तनावग्रस्त हो गया |
कैनेडा में भी लॉक डाउन है | लोग घरों में हैं | बाहर निकलते समय अनुशासन का पालन करते हैं | लेकिन कोरोना को लेकर सरकारी इंतजाम अति साधारण हैं | किसी तरह की जाँच नहीं हो रही | जिसे संक्रमण होता है वह अपने निजी डॉक्टर के जरिये आगे की चिकित्सा हेतु भर्ती किया जाता है | लेकिन एक बात अच्छी है कि वीआईपी संस्कृति नहीं होने से किसी चीज की लाइन में छोटे बड़े सभी को अपनी बारी आने तक इन्तजार करना होता है |
अमेरिका से आ रही भयावह खबरें भी कैनेडा वासियों को आशंकित किये हुए हैं | अभी तो आवाजाही बंद है लेकिन जैसे ही खुलेगी और आवागमन शुरू होगा तब कैनेडा में क्या होगा इसकी कल्पना से लोगों में जो डर है वह उक्त मित्र की आवाज से झलक रहा था |
और फिर वह बोला अपने भारत के बारे में सुनकर बड़े ही गर्व की अनुभूति होती है | सरकार और समाज मिलकर जिस तरह इस संकट का सामना कर रहे हैं उसकी यहाँ कल्पना नहीं की जा सकती |
लगभग एक वर्ष पूर्व विदेश में रहने वाले एक परिचित के साथ जो हादसा हुआ उसने भी मुझे विचलित किया था | उनकी पत्नी की गर्भावस्था का अंतिम समय था किन्तु गर्भपात हो गया | मृत शिशु को दफनाने के लिए वहां के कब्रिस्तान में स्थान प्राप्त करने में उनको जो परेशानी हुई उसका वर्णन करना कठिन है |
मौजूदा हालात में अमेरिका , कैनेडा , ब्रिटेन , फ़्रांस , जर्मनी , रूस , स्विट्जरलैंड , इटली , स्पेन आदि में जो स्थितियां निर्मित हुईं और उसके बाद विकसित कहे जाने वाले उक्त देशों में जो भाव शून्यता देखने मिली उससे एक वितृष्णा सी होने लगी |
अनुशासन और व्यवस्था का अपना महत्व है जिसके अभाव में हमारा देश विकास की दौड़ में उक्त देशों के तुलना में बहुत पीछे है | लेकिन 135 करोड़ की विशाल आबादी सामान्य समय में भले ही उपेक्षा का दंश भोगने की मजबूरी सहती रही हो लेकिन कोरोना जैसी महामारी के आने के बाद सीमित संसाधनों के बावजूद जिस मुस्तैदी से चिकित्सा तन्त्र खड़ा किया गया वह अकल्पनीय था | बीमारी के बचाव और इलाज में किसी की उपेक्षा नहीं होना वाकई वह बात है जिसकी उम्मीद नहीं थी |
उक्त सभी देशों की कुल आबादी भारत की आधी से भी कम होगी | इसके अलावा चिकित्सा सुविधाओं और आर्थिक संसाधनों की दृष्टि से भी वे हमसे हजार गुने बेहतर और सक्षम हैं | भ्रष्टाचार और कामचोरी भी नहीं है | आबादी कम होने से अब तक वहां इंसानी जिन्दगी बड़ी ही मूल्यवान समझी जाती रही | व्यवस्थाएं चाक - चौबंद हैं और सामजिक समता भी भरपूर है | आपदा प्रबंधन के मामले में भी वे भारत से कहीं बेहतर हैं |
फिर भी बीते एक महीने में उन सभी देशों का जो प्रदर्शन रहा वह देखकर भारत पर गर्व किया जा सकता है | हालाँकि अचानक लॉक डाउन लागू किये जाने से जनसाधारण को काफ़ी परेशानियां झेलनी पड़ीं | विशेष रूप से प्रवासी दिहाड़ी मजदूरों की मुसीबतें तो अब तक चली आ रही हैं | सरकार ने गरीबों को अनाज और रसोई गैस तो दे दी लेकिन बैंकों में जो राशि सीधे खाते में भेजी वह ऊँट के मुंह में जीरा जैसी है |
लेकिन सरकार के समानांतर समाज की संवेदनशीलता जिस पारम्परिक और संस्कारित स्वरूप में सामने आई और उसके कारण जो कुछ भी हो रहा है वह किसी से छिपा नहीं है | कहने का आशय ये कि हमारा देश विकासशील तो है ही , भ्रष्टाचार , पक्षपात , कामचोरी भी यहाँ नस - नस में भरी है | व्यवस्था का पालन करने के प्रति अशिक्षित ही नहीं पढ़े - लिखे लोग भी लापरवाह हैं | ऊपर से वीआईपी संस्कृति का बोलबाला है | सरकारी अस्पताल अव्वल तो खुद ही बीमार पड़े हैं या फिर उनमें जबर्दस्त भीड़ है | और अधिकतर निजी चिकित्सा संस्थान हमेशा से ही पैसा बटोरने के अड्डे बने हुए थे | इसलिए उनसे इस समय में किसी भी तरह की अपेक्षा सामान्य जन तो नहीं करता था |
लेकिन कोरोना संकट के दौर में जिस नये भारत का उदय हुआ वह किसी दैवीय चामत्कार से कम नहीं है | अव्यवस्था कब व्यवस्था में बदल गई और समाज की रचनात्मक प्रवृत्ति बिना देर किये जिस तरह अपनी भूमिका के निर्वहन में लग गई , ये उस देश के लिए बड़ी बात है जहाँ सरकारी अस्पतालों में कुत्ते के काटने पर लगने वाला रैबीज का इंजेक्शन भी नहीं मिलता |
भारत में भावनाओं का जो स्वस्फूर्त प्रवाह इस दौर में नजर आ रहा है वह उक्त विकसित देशों के लिए एक सबक है जहां संसाधन , तकनीक, प्रबन्धन और व्यवस्था तो है लेकिन मशीनी सोच के चलते भावनाएं गहराई तक दबकर रह गईं हैं |
वरिष्ठ पत्रकार और आज तक चैनल के एग्जीक्युटिव एडीटर Sanjay Sinha अक्सर कहते हैं कि मनुष्य भावनाओं से संचालित होता है , कारणों से तो मशीनें चला करती हैं |
आज के हालात में विकसित देशों की जो स्थिति है उसमें भावनाएं पूरी तरह गायब दिखाई देती हैं और केवल मशीनी सोच ही समूची व्यवस्था पर हावी है | इसके ठीक विपरीत भारत में मानवीय सम्वेदनाएं और भावनाओं का जो सैलाब दिखाई दे रहा है वह श्री सिन्हा के कथन को सत्य साबित करता है |
गौरतलब है अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को अर्थव्यवस्था की ज्यादा चिंता थी जिस कारण वहां लॉक डाउन लागू करने में विलम्ब किया गया और उसी वजह से देश की व्यवसायिक राजधानी न्यूयार्क में सामुदायिक संक्रमण की स्थिति पैदा हो गई |अमेरिकी राष्ट्रपति ने यहाँ तक कह दिया कि यदि उनका देश 1 लाख मौतों के बाद भी कोरोना मुक्त हो जाए तो सस्ता मानिये |
कमोबेश ऐसा ही यूरोप के अन्य देशों में भी देखने मिला | ये बात सही है कि सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के बारे में वहाँ के लोग ज्यादा सतर्क हैं | कम आबादी भी उसमें सहायक है । लेकिन बड़े पैमाने पर हुई मौतों के बावजूद उन देशों की सरकारें जिस तरह असहाय नजर आ रही हैं वह निष्ठुरता की पराकाष्ठा है |
इसके ठीक उलट अव्यवस्था के पर्यायवाची भारत में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉक डाउन का पहला चरण घोषित करते समय हाथ जोड़कर कहा कि वे परिवार के सदस्य के रूप में निवेदन करते हैं कि घर में रहकर कोरोना को रोकने में सहायक बनें | और फिर उन्होंने जान है तो जहान है जैसी बात कही | उसके बाद 14 अप्रैल को लॉक डाउन बढ़ाते समय उन्होंने जान भी और जहान भी का नारा दिया |
अंतर साफ़ है | जो सम्पन्न देश हैं वहां संभावनाएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है लेकिन भारत में तमाम विसंगतियों के बावजूद मानवीय संवेदनाओं से भरपूर भावनाएं जीवित हैं | ये कहना गलत न होगा कि जरूरी चीजों और सुविधाओं के अभाव के बावजूद इस देश ने अपना परोपकारी स्वभाव नहीं बदला |
कोरोना के बाद की दुनिया में संभावनाओं और भावनाओं के बीच जो द्वन्द होगा उसमें निश्चित रूप से भारत विजेता बनकर उभरेगा क्योंकि यहाँ इंसानी लाशों की सीढ़ियों पर चढ़कर भौतिक प्रगति के झंडे नहीं फहराए जाते । उलटे मनुष्य की जान के लिए जहान को उपेक्षित किया जा सकता है |
मानवीय सम्वेदनाओं का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि जो तबलीगी जमाती देश भर में कोरोना संक्रमण को फैलाने का कारण बनने के बाद डाक्टरों और पुलिस कर्मियों पर थूकने जैसी बेहूदगी करते हैं तथा महिला चिकित्सकों और नर्सों के सामने निर्वस्त्र होकर अश्लील हरकतें करने से बाज नहीं आते । बावजूद इसके उनको भी मरने के लिए लावासिस नहीं छोड़ा जा रहा |
ऐसे में अपार सम्भावनाओं की चाहत में दुनिया भर में रह रहे भारतीय समुदाय के लोगों को इस नये भारत में भावनाओं के ज्वार को समझना चाहिए क्योंकि जिस जगह सम्पन्नता की कीमत के सामने इंसानी ज़िन्दगी सस्ती समझ ली जाये वहां जाकर बसने में बाकी सब तो मिल सकता है लेकिन सुकून नहीं |
स्व. राज कपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है के शीर्षक गीत में कविवर शैलेन्द्र ने लिखा था :-
“ कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं , इन्सान को कम पहिचानते हैं |
ये पूरब है पूरब वाले , हर जान की कीमत जानते हैं |
और जिस जहान में जान की कद्र न हो वहां भला क्या रहना ?
समझदारों के लिए इशारा काफी |