Thursday 16 April 2020

अब उदारवादी से अधिक राष्ट्रवादी अर्थनीति की जरूरत :स्वदेशी नहीं अपनाई तो तबाह हो जाएगा औद्योगिक ढांचा



 महात्मा गांधी अर्थशास्त्री तो कतई नहीं थे | लेकिन स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अंगरेजी सत्ता के विरुद्ध उन्होंने  जो तौर - तरीके अपनाए उनका उद्देश्य भारत को आर्थिक दृष्टि से स्वाबलंबी बनाने के साथ ही ये समझाना भी था कि हमारी अर्थव्यवस्था संसाधनों के दोहन पर आधारित होनी चाहिए न कि शोषण पर | दरअसल पश्चिमी आर्थिक नियोजन चूंकि  भोगवादी सोच से प्रभावित रहता है इसलिए वहां के समाज में संयम को कोई महत्व नहीं दिया जाता | किसी भी कीमत पर अपनी इच्छाओं की पूर्ति का ही परिणाम है कि जब अपने देश से उनकी जरूरतें पूरी नहीं हुईं तब उपनिवेशवाद की शक्ल में आज जिसे तीसरी दुनिया कहा जाता है  वहां के अनेक देशों पर कहीं छल और कहीं बल से कब्जा जमाकर स्थानीय  लोगों  से गुलाम जैसा व्यवहार करते हुए प्राकृतिक और मानव संसाधनों का निर्दयता  और निर्ममता से शोषण किया |

 यूरोप के अधिकांश देश इस खेल  में शामिल थे | लेकिन सबसे बड़ा साम्राज्य ब्रिटेन का रहा जिसका विस्तार कैरिबियन द्वीप , अफ्रीका , अरब और एशिया होते हुए सुदूर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तक हुआ | उस दौर की ब्रिटिश महारानी की शान में  ये तक कहा जाने लगा कि उनके राज में कभी सूरज नहीं डूबता जिसका अभिप्राय ये था कि उनके आधिपत्य  वाले किसी न किसी देश में दिन रहता ही था |

 लेकिन ब्रिटिश  साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण देशों में अपना भारत था और यहीं के स्वाधीनता संग्राम से प्रेरित होकर अन्य गुलाम देशों में भी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आन्दोलन शुरू हुए ।  दुनिया ये मानती है कि उपनिवेशवाद के खात्मे की शुरुवात भारत से ही हुई थी | भले ही आज भी ब्रिटेन विश्व की महाशक्तियों में शामिल माना जाता हो लेकिन भारत जैसा देश  उसके हाथ से निकलते ही उसके साम्राज्य में अनेक जगहों पर सूरज डूबने लगा | 

महात्मा गांधी का आन्दोलन चूँकि अहिंसा का अनुगामी था इसलिए वह लंबा चला | और किसी भी लड़ाई को लम्बा खींचने में सेनापति और सेना दोनों की हिम्मत और हैसला जवाब दे जाता है | गांधीजी इस बात को समझते थे इसीलिये वे ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध बड़े आंदोलनों के बीच इस तरह के रचनात्मक आन्दोलन चलाते रहे जिनसे समाज में सक्रियता के साथ देशभक्ति का भाव तो बना ही रहे साथ ही अंगरेजी हुकुमत की बुनियाद भी कमजोर होती जाए |

 इसीलिए चरखा ,और तकली के उपयोग से सूत कातकर खादी बनाने जैसा अभिन्व प्रयोग किया गया और उसी के साथ ही ब्रिटिश वस्त्रों की होली जलाकर आर्थिक मोर्चे पर भी ब्रिटेन को शिकस्त देने की रणनीति बनाई | और यहीं से शुरू हुआ स्वदेशी आन्दोलन जिसे तात्कालिक दृष्टि से तो  स्वाधीनता आंदोलन को भावनात्मक स्वरूप  देने का तरीका कहा जाना गलत नहीं था लेकिन सही मायनों में बापू भारत  को  राजनीतिक तौर पर स्वतंत्र देखने के साथ ही आर्थिक दृष्टि से भी आत्मनिर्भर देखना चाहते थे | 

खादी , ग्रामोद्योग , संयम और इन सबका समन्वित रूप था स्वदेशी |

 गांधी जी के न रहने पर केवल खादी ही उनके आर्थिक चिंतन के अवशेष के तौर पर विद्यमान तो है लेकिन अब वह भारत के आम नहीं अपितु उस खास वर्ग की पहिचान बन गयी जो या तो नेतागिरी करता है या फिर जिसके पास उसका रखरखाव करने की हैसियत हो | बचपन में पाठ्यपुस्तक में एक गीत पढ़ा था :- माँ खादी की चादर दे दे  मैं गांधी बन  जाऊं | लेकिन आजकल ऐसे गीत नहीं पढ़ाये जाते | इसका आशय ये है कि गांधीजी अब संस्कार के रूप में अनुपयोगी करार दिए गये हैं | दूसरों की तो चलो छोड़ भी दें लेकिन उनके अपने मानसपुत्रों ने  ही बापू की वैचारिक विरासत को किसी कचराघर में फेंक दिया | खादी भी अब चरखा से नहीं बनती | इस तरह उनके समूचे आर्थिक चिन्तन को बेमौत मरने के लिए छोड़ दिया गया |

 वैसे राजनीति के खिलाड़ी गांधीजी को भुनाने में पीछे नहीं रहते | लेकिन जब बात स्वदेशी नामक उनके विचार को लागू करने की आती है तो उसे पुराने ग्रामोफोन प्लेयर की तरह बैठकखाने में सजाकर रखने जैसा सम्मान दे दिया जाता है |

 आज  के माहौल में  गांधी और स्वदेशी का जिक्र अप्रासांगिक और अनावश्यक  लग रहा होगा लेकिन देश जिस दौर से गुजर रहा है और अर्थव्यवस्था को लेकर जो बातें देश और उसके बाहर हो रही हैं उन्हें देखते हुए ये आवश्यक है कि कोरोना पश्चात जो वैश्विक परिदृश्य उभरेगा उसका पूर्वानुमान लगाते हुए हम अपनी प्राथमिकताओं और प्रतिद्वंदी को लेकर अपना मन मजबूत करें | बीते एक माह से पूरी दुनिया कोरोना के कारण हलाकान है | सामरिक महाशक्तियों के  अस्त्र - शस्त्र जहां बेकार पड़े हैं वहीं आर्थिक समृद्धि के शिखर पर बैठे मुल्कों की  अपार धन संपदा किसी काम नही आ रही |

 दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया का शक्ति संतुलन नए सिरे से कायम हुआ तो दो बड़े खेमे शीत युद्द्ध के हिस्से बन गये | लगभग साढ़े चार दशक  तक दुनिया ने वह नजारा देखा लेकिन 26 दिसम्बर 1991 को सोवियत संघ के विघटन के बाद दो शक्ति केंद्र  वाली दुनिया एकाएक बदल गयी | सोवियत संघ का सबसे बड़ा घटक रूस तक आर्थिक बदहाली और प्रशासनिक अराजकता में घिर  गया | ऐसा लगने लगा कि पलड़ा एक ही तरफ  यानि अमेरिका की तरफ झुक गया है | जब उसे लगा कि वह चुनौती विहीन है तब अपने समर्थक विकसित  देशों की मदद से उसने विश्व व्यापार संगठन बनाकर वैश्विक अर्थव्यवस्था की लगाम उन देशों के हाथ में देने का दांव चला जिन्हें अपने अतिरिक्त उत्पादन के लिए मुक्त बाजार चाहिए था | उस दौर तक औद्योगिक क्रांति की बदौलत उनका उत्पादन जरूरत से कहीं ज्यादा पहुंच चुका था | इसके अलावा वहां जनसँख्या वृद्धि दर  भी काफ़ी कम थी | और फिर वे सभी आत्मनिर्भर होने से एक दूसरे को बाजार उपलब्ध नहीं करवा सके |

 उन देशों की बड़ी कम्पनियों के सामने संकट मंडराने लगा | और तब 1995 के पहले दिन ही विश्व व्यापार संगठन आस्तित्व में आया जिसे आम बोलचाल में WTO कहा जाता है | लेकिन सोवियत संघ के विघटन से जो खालीपन आया उसे दबे पाँव चीन ने भरा और अमेरिका विरोधी जो देश कभी सोवियत संघ की तरफ निहारते थे उन्हीं को चीन ने अपने प्रभाव में  खींच लिया | 1972 से विश्व बिरादरी में बैठने की हैसियत मिलने के बाद सुरक्षा परिषद की सदस्यता जैसी शक्ति भी चीन के पास आ गई | लेकिन दुनिया के व्यापार में उसकी उपस्थिति नहीं होने से उसकी आर्थिक प्रगति को गति नहीं मिल पाई  | काफी हाथ पाँव मारने के बाद आखिरकार दिसम्बर 1999 में उसे विश्व व्यापार संगठन की सदयता मिल गई लेकिन इसके लिए उसे अपनी कठोर माओवादी नीतियों से समझौता करते हुए अपने बाजार विदेशी पूंजी  के लिए खोलने पड़े | यही नहीं तो साम्यवादी शासन व्यवस्था के चेहरे कहे जाने वाले सार्वजनिक उद्यमों को भी भी संयुक्त क्षेत्र के तौर पर खोलना पड़ा | देखते ही देखते पूरी दुनिया की  पूंजी चीन में निवेश होने लगी | लगभग सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने वहां अपना कारोबार जमा लिया | इस अचानक आये बदलाव को दुनिया समझ पाती  तब तक यह साम्यवादी देश विश्व के सबसे बड़े पूंजीवादी देश अमेरिका का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बन चुका था | सस्ता श्रम और राजनीतिक स्थिरता के साथ ही सोवियत संघ की तरह ही विश्व की महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा के कारण मात्र 20 सालों में  चीन ने खुद को विश्व का आर्थिक सिरमौर बना लिया | देखने वाली बात ये है कि 1 जनवरी 1995 को स्थापना के साथ  ही भारत भी विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बन गया था | जिसके बाद उसके बाजार विदेशी पूंजी के लिए खोल दिए गये और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भी यहां रूचि लेनी शुरू कर दी | लेकिन तानाशाह चीन को भारत से ज्यादा पसंद किया गया | जिसकी वजह शायद वहां नौकरशाही द्वारा अड़ंगे लगाने की समस्या नहीं थी जबकि भारत इस मामले में कुख्यात है |

इस तरह हमसे बाद में विश्व की आर्थिक बिरादरी में शामिल होने का बाद भी साम्यवादी सत्ता के शिकंजे  में जकड़े चीन ने भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक मुल्क को पीछे छोड़ दिया | इस संगठन से विकसित पश्चिमी देशों को जबर्दस्त फायदा हुआ लेकिन बाद में चीन सब पर भारी पड़ गया | उसने अमेरिका विरोधी लॉबी में तो पकड़ बनाई ही , योजनाबद्ध तरीके से अमेरिका तक में अपनी जड़ें जमा लीं | आज वहां के अनेक बड़े वित्तीय संस्थानों का स्वामित्व चीनी उद्यमियों के पास है | अमेरिका के बाजार चीनी सामान  से भर उठे  |

 इसके विपरीत भारत में भी विदेशी पूंजी और कम्पनियां आई तो जरूर लेकिन उनकी वजह से भारत का व्यापारिक और औद्योगिक ढांचा चरमरा गया | सबसे ज्यादा दुखदायी बात ये हुई कि मुक्त व्यापार के समझौते के कारण चीनी  सामान का भारत एक तरह से डम्पिंग यार्ड बन गया | हालांकि बीते कुछ सालों में भारत की आर्थिक प्रगति ने भी  दुनिया का ध्यान आकर्षित किया और उसकी विकास दर चीन के टक्कर में आने लगी । लेकिन ज्योंही वैश्विक मंदी का दौर शुरू हुआ भारत की रफ्तार भी धीमी हुई | और इसी बीच आ गया कोरोना |

 2020 की शुरुवात होने के पहले ही चीन में कोरोना नामक  वायरस ने हड़कंप मचा दिया | औद्योगिक नगर वुहान से शुरू होकर ये संक्रमण न जाने कैसे पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले चुका है | लाखों लोग मारे जा चुके हैं | अमेरिका , ब्रिटेन , फ़्रांस , इटली , स्पेन , जर्मनी सभी में मौत के मंजर देखे जा सकते हैं | चीन के बारे में कहा जाता है कि उसने कोरोना के बारे में दुनिया को समय पर और सही जानकारी नहीं दी | उसके अनुसार कुछ हजार लोग ही वहां मारे गये जबकि अधिकतर देश मानते हैं कि मरने वाले चीनियों की संख्या कल्पना से बाहर है | उसका ये भी दावा है उसने कोरोना पर जीत हासिल कर ली और वहां सब सामान्य हो गया है | लेकिन उसकी बात पर किसी को भरोसा नहीं हो रहा |

 वैसे चीन कभी  भी विश्वसनीय नहीं रहा | धोखा उसके खून में है | बावजूद इसके बड़े  देशों ने ये  सोचकर वहां निवेश किया कि उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार मिल जाएगा | लेकिन वे उसके राष्ट्रवाद को नहीं  समझ पाए | उलटे चीन उनके बाजारों में घुस गया | विश्व व्यापार में उसके सामने हमारी हिस्सेदारी का अनुपात  हाथी और चींटी जैसा है |

 लेकिन कोरोना ने दुनिया का आर्थिक संतुलन जिस तेजी से बिगाड़कर रख दिया उसके बाद चीन कितनी भी भलमनसाहत दिखाने का स्वांग रचे लेकिन उसकी विश्वसनीयता को जो नुकसान हो गया उसकी भरपाई नहीं हो सकती | 

हालाँकि इसका सबूत हासिल करना बहुत कठिन होगा लेकिन वैश्विक स्तर पर ये संदेह बना हुआ है कि कोरोना मानव निर्मित आपदा है जिसके  लिए चीन पूरी तरह कसूरवार है | और यही वजह है कि अब लोग चीन के साथ फायनेंशियल डिस्टेंसिंग की राह पर चल सकते हैं | वहां कार्यरत बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना डेरा समेटने की सोचने लगी हैं | विश्व बिरादरी में एक बार फिर चीन को  अछूत बनाने की बातें  हो रही हैं | आर्थिक नाकेबंदी और सुरक्षा परिषद की सदस्यता खत्म करने जैसी  चर्चा भी जोर पकड़ रही है | लेकिन ये सब इतना आसान भी नहीं है | बावजूद इसके भारत के लिए एक सुनहरा मौका है छलांग लगाने का |

 लेकिन हमें अपने आर्थिक व्यवहार को बदलते हुए उदारवाद को राष्ट्रवाद के साथ जोड़ना होगा | देशी उद्योग कच्चे माल से लेकर कल पुर्जों तक के लिए भी चीन पर निर्भर हैं | दवाएं हमारे  यहाँ भले बन रही हों  लेकिन उसमें लगने वाला अधिकाँश जरूरी माल चीन से आयात होता है | ऐसे में पूरी तरह उसका निषेध तो असंभव है | लेकिन ये तय  है कि वैश्विक माहौल में चीन का निर्यात भी बुरी तरह प्रभावित होगा क्योंकि पश्चिमी ताकतें अपने आर्थिक वर्चस्व को सरलता से तबाह नहीं होने देंगीं | ये सब देखते हुए भारत में भी एक बार फिर स्वदेशी की भावना को राष्ट्रीय जरूरत बनाना होगा | भले ही ये कठिन हो लेकिन इसके सिवाय भारत की अर्थव्यवस्था के उत्थान का दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है | भारत का विशाल बाजार चीन ने गंवा दिया तो उसकी कमर टूटे बिना नहीं रहेगी | दुनिया का समर्थन  हमें मिल सकता है लेकिन उसके साथ हमें अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का ईमानदारी से प्रदर्शन करना होगा |

 तकरीबन दो दशक पहले मेरे एक मित्र जापान गये | वहां एक मॉल में किसी इलेक्ट्रानिक उपकरण को खरीदने के लिए उन्होंने उसकी कीमत पढ़ी | लेकिन बगल में रखे उसी कम्पनी  के समान उपकरण की कीमत कम लिखी हुई थी | वहां मौजूद एक कर्मचारी से जब कीमत में अंतर का कारण पूछा गया तब उसने स्पष्ट किया कि कम्पनी एक ही है और गुणवत्ता भी समान है । लेकिन जापान में निर्मित उपकरण महंगा है जबकि दूसरा सिंगापुर में बना होने  के कारण सस्ता है | जब उससे जानना चाहा कि इससे फायदा क्या तो उसने बताया कि जापानी ग्राहक  महंगा वाला ही खरीदते हैं | विदेशियों के लिए सिंगापुर से सस्ता वाला बनवाकर बेचा जाता है | और फिर इसका राज बताते हुए वह  कर्मचारी बोला कि जापान में श्रमिक महंगा है इसलिए यहाँ बनी चीजों  के दाम ज्यादा होने के बावजूद जापानी ग्राहक अपने श्रमिक की मदद करने के लिए ज्यादा पैसे देते हैं |

 आप कह सकते हैं कि जापान में लोगों की आय ज्यादा है लेकिन भारत के सम्पन्न वर्ग से तो अपेक्षा की ही जा सकती है कि वह भारतीय श्रमिक और निर्माता को सम्बल देने की प्रतिबद्धता दिखाएगा | कोरोना के बाद काफी कुछ बदलने की चर्चा हो रही है | लेकिन आर्थिक मोर्चे पर भारत के पुनरुत्थान का ये मौका चूक गये तो हमारे  उद्योग - व्यवसाय को तिल - तिलकर मरने से कोई नहीं बचा सकता |

 आने वाला समय हमारे देशप्रेम की एक नहीं अनेक परीक्षाएं लेगा | युद्ध में विजय के बाद शुरू  होने वाली पुनर्निर्माण की प्रक्रिया भी उतनी ही मुश्किल होती है , जिसके लिए हमें तैयार रहना होगा |

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