Tuesday 7 April 2020

देश को समझने जन के मन को पढ़ना जरुरी तकलीफें देकर भी दिल जीत ले वही सफल नेता



 किसी देश को समझने के लिए वहां के लोगों का मनोवज्ञानिक अध्ययन करना आवश्यक होता है | दक्षिण अफ्रीका में गोरों की सत्ता से अपमानित होकर लौटे बैरिस्टर एम . के गांधी ने जब स्वाधीनता संग्राम की प्रारम्भिक तैयारी के सिलसिले में समाज  के विभिन्न वर्गों से मुलाकातें शुरू कीं तब कुछ समय के भीतर ही वे जान गए थे कि  बैरिस्टर वाला रूप उन्हें जनता से नहीं जोड़ सकेगा और यही सोचकर उन्होंने घुटनों से ऊपर चढ़ी धोती ज्योंही पहनी और बदन को चादर से ढंककर लोगों के बीच  गये तो उन्हें देखते ही देखते महात्मा जैसी जनता द्वारा दी गई उपाधि मिल गयी और ये प्रक्रिया कालांतर में उनके  राष्ट्रपिता कहलाने पर जाकर पूरी हुई |

 कहने का आशय ये है कि जनता के बीच  वही नेता असर छोड़ सकता है जो उनके मनोभावों को समझ सके और उनसे उन्हीं की शैली में संवाद स्थापित कर सके | 

आजादी मिलने की बाद बापू तो जल्दी ही चले गए और उनकी वैचारिक धरोहर के वारिस राज्याश्रय  देकर किसी आश्रम में बिठा दिए गये | जिस गांधी ने ब्रिटिश सत्ता से टकराने में कभी डर महसूस नहीं किया उनके उत्तराधिकारी ने तानशाही को अनुशासन पर्व कहने में कोई हिचक नहीं दिखाई |

 लेकिन कुछ ऐसे भी हुए जिनका इस देश की मिट्टी और मानुष दोनों से सीधा सम्पर्क और सामंजस्य तो  रहा लेकिन या तो वे गैर महत्वाकांक्षी बनकर अपनी ही बनी दुनिया में खोकर रह गये या फिर राजनीति की जुएबाजी में जीतने के लिए जरूरी शकुनी ब्रांड पांसे उनके पास  नहीं होने से  बिना खेले ही पराजित करार दिए गए |  जो थोड़े बहुत हुए भी वे अपनी सोच को अपने और अपनों से बाहर नहीं निकाल सके या फिर बड़े मैदान में खेलने की क्षमता न होने से क्षेत्रीय बनकर रह गए |

 बीच - बीच में ऐसे अवसर आये जब राष्ट्रीय नेतृत्व के पीछे जनता आँख मूंदकर खड़ी हो गयी लेकिन कुछ समय बाद ज्योंही उसे एहसास हुआ कि निजी या क्षुद्र स्वार्थों के लिए उसका भावनात्मक शोषण किया गया त्योंही उसने  मोहभंग का संकेत देकर उस दौर की इतिश्री कर दी |

 लेकिन मौजूदा संकट के समय एक बार फिर ये देखने में आ रहा है कि नेतृत्व और जनता के बीच विश्वास की डोर काफी मजबूत हुई है | कहने वाले कह  सकते हैं कि इसका प्रमाण तो लोकसभा के पिछले  दो चुनाव दे चुके हैं लेकिन चुनाव और राष्ट्रीय आपदा दो अलग विषय हैं | 

कोरोना संकट के समय देश के 135 करोड़ लोगों में हिम्मत और हौसला बनाये रखना बहुत बड़ी चुनौती थी | मुसीबत जितनी गम्भीर और खतरनाक थी  उसे  देखते हुए तमाम जिम्मेदार लोगों ने आपातकाल लगाने का सुझाव दिया | वे अपनी जगह पूरी तरह सही थे | हालात इसके औचित्य को साबित भी कर  रहे थे | चीन तो अपनी जगह था लेकिन इटली और ईरान में कोरोना की शक्ल में  जिस तरह मौत का तांडव हुआ उसके बाद भारत को भी कड़े कदम उठाना जरूरी हो गया था | और उसके लिए यदि आपातकाल लगाकर सरकार और ज्यादा अधिकार संपन्न होकर  परिस्थितियों का हवाला देते हुए जनता के अधिकारों पर कैंची  चला देती तो उसे समयोचित मजबूरी मानकर स्वीकार किया जाता | कोरोना की पदचाप सुनाई देने के बाद तो यहाँ तक कहा गया कि महज आपातकाल ही कारगर नहीं होगा | उसके साथ ही सेना को तैनात किया जाना भी जरूरी है जिससे कि लोगों को बेकाबू होने से रोका जा सके |

 लेकिन इस सुझावों से अलग हटकर 22 मार्च को जनता को  उसी के नाम वाले कर्फ्यू  में रहने के लिए प्रेरित करते हुए शाम 5 बजे कोरोना के विरुद्ध लड़ रहे डाक्टर्स ,उनके सहयोगी  स्वास्थ्यकर्मी , पुलिस और  प्रशासन आदि के लिए बतौर आभार थाली , ताली , घंटी आदि बजाने की अपील की गयी | बताने की जरूरत नहीं है कि उसका किस तरह सुनियोजित तरीके से  मजाक उड़ाया  गया |

 लेकिन मजाक उड़ाने वाले भूल गये कि वह एक अभिनव प्रयास था  जनता के मन को पढ़ने और समझने का | पहले तो लोगों ने दिन भर घर में रहकर अभूतपूर्व आत्मानुशासन का परिचय दिया और फिर शाम के पांच बजते ही पूरे देश में थाली , ताली , घंटे - घंटी की जो ध्वनि गुंजायमान हुई उसने न केवल इतिहास ही रच  डाला अपितु भविष्य का रास्ता भी खोल दिया | 

इस तरीके को ईजाद करने वाले प्रधानमन्त्री ने सुबह  से शाम के बीच ही देशवासियों के स्वस्फूर्त सह्योगत्मक रवैये से ये निष्कर्ष निकाल लिया कि वे उनकी बात की कद्र करते हैं और बिना आपातकाल लगाये तथा  सेना तैनात किये भी कोरोना के विरुद्ध लड़ाई में बड़ा कदम उठाया जा सकता है |

 और इसी के बाद  उन्होंने 24 मार्च की रात 8 बजे राष्ट्र के नाम सन्देश  देते हुए उसी रात 12 बजे से पूरे देश में 21 दिन की लॉक डाउन नामक व्यवस्था लागू कर दी और साफ़ कर  दिया  कि उस दौरान दैनिक जरूरतें पूरी करने के लिए छूट और सुविधाएँ दी जायेंगी लेकिन लॉक डाउन भी कर्फ्यू ही होगा | प्रधानमन्त्री ने दो टूक कह  दिया कि जान है तो जहान है और इन 21 दिनों में किसी भी तरह की लापरवाही आपके और परिजनों के साथ ही देश को 21 बरस पीछे ले जायेगी |

 उसके बाद से जो हुआ वह सर्वविदित ही है | बीच में दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित तबलीगी जमात के मुख्यालय मरकज में दो हजार से ज्यादा लोगों के जमा होने वाला मामला सामने आ गया | चूँकि वहां से एक मरीज अस्पताल लाने पर मर गया तो बाकी की खोज खबर हुई और पता चला कि मरकज के मौलाना की मूर्खता से मरकज़ कोरोना की शरणस्थली बन गया था | 

हालांकि उसे खाली करवा लिया गया किन्तु इसके बाद सरकार पर भी आरोपों की बौछार होने लगी | गुप्तचर एजेंसियों और मरकज की दीवार से सटे थाने की अनभिज्ञता पर भी सवाल उठे | मरकज से निकले जमातियों ने जिस तरह से देश भर में कोरोना फैलाया  उससे सरकार के समूचे परिश्रम पर पानी फिरता लगा लेकिन तेज गति से कड़े निर्णय लेते हुए जिस तरह देशव्यापी आपरेशन चलाया गया उससे कोरोना  के फैलाव को रोकने का काम तो हो ही रहा है वहीं दूसरी तरफ   देश और समाज विरोधी मानसिकता का पर्दाफाश  भी हो  गया |

 इस बारे में एक तथ्य जो जिसका संज्ञान नहीं लिया गया वह था दिल्ली की स्थिति | मरकज को पहले ही  खाली करवा लिया जाता किन्तु उसके पहले ही दिल्ली में लाखों प्रवासी मजदूरों के पलायन से उत्पन्न हालातों ने पुलिस और प्रशासन को उलझा दिया | उसी  समय यदि मरकज का मोर्चा खोला जाता और आपरेशन ब्लू स्टार की पुनरावृत्ति करते हुए मरकज में भी कमांडो कार्रवाई की जाती तो दिल्ली के दंगों की राख में  दबी चिंगारी फूटने का खतरा बढ़ जाता और तब जो होता वह अकल्पनीय था |

 उस विषम स्थिति में से सुरक्षित निकल आना सामान्य नहीं था | मरकज की गलती  हालंकि देश को बहुत  महंगी पड़ी लेकिन दिल्ली की तत्कालीन परिस्थितियों  में थोड़ी सी भी जल्दबाजी या अपरिपक्वता पूरे देश को आग में झोंक सकती थी और मरकज का मौलाना साद भी यही चाहता हो तो आश्चर्य नहीं है  |

 अचानक देश में कोरोना का ग्राफ ऊपर उठने से जनमानस में भय का भाव घर करने के कारण कोरोना अपराजेय लगने लगा | इटली और ईरान के बाद स्पेन , ब्रिटेन , फ़्रांस और सबसे बढकर तो अमेरिका से आ रही खबरों ने यहाँ भी हताशा के बीज बिखेर दिए | 

ये बहुत ही निर्णायक मोड़ था तब तक की लड़ाई का और ऐसे में प्रधानमंत्री ने एक बार फिर जनता के विश्वास को मापने का जोखिम उठाया | पहले तो टीवी पर आकर लॉक  डाउन से  हो रही परेशानियों की लिये माफी माँगी और फिर उसके बाद एक नया प्रयोग किया 5 अप्रैल को रात 9 बजे 9 मिनिट के लिए दिए जलाने के अनुरोध के रूप में |

 तब तक लॉक डाउन के 12 दिन बीत चुके थे | मरकज कांड से  पूरे देश में ये धारणा जोर पकड़ने लगी कि कोरोना को रोक पाने के प्रयासों पर पानी फिर गया है | एक बार फिर सेना तैनात करने की मांग उठने लगी । ऐसे में नरेंद्र मोदी ने जनता को भावनात्मक एकता में बांधते हुए जो आह्वान  किया उसे भी पहले  जैसी बल्कि और भी तीखी आलोचना झेलनी पड़ी | लेकिन 5 अप्रैल  की रात 9 बजे से अगले 9 मिनिट जो हुआ उसने प्रधानमन्त्री को तो हौसला दिया ही लेकिन  आम जनता के मन को भी हर प्रकार के भय से मुक्त कर दिया |

 उसके बाद से  लॉक डाउन  को आगे बढ़ाने की संभावनाओं पर विचार करने में सरकार दबाव मुक्त हो गई | ये सन्देश पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि प्रधानमन्त्री में  लोगों की श्रद्धा और उनकी कोशिशों की सफलता के प्रति विश्वास बदस्तूर कायम है और यदि वे 14 अप्रैल के बाद भी बंदिशें जारी रखंगे तब जनसमर्थन उनके साथ रहेगा |

 मौजूदा हालात में जबकि विरोध के लिए अनेक स्वतंत्र माध्यम उपलब्ध हैं तब किसी भी नेता के लिए अपनी लोकप्रियता और विश्वसनीयता बनाये रखना बहुत ही कठिन होता है | साधारण स्थितियों में तो जनता को अपने  साथ रखना आसान है लेकिन मुसीबत के समय उसका धैर्य बनाये रखना ही नेतृत्व की असली परीक्षा होती है |

 ये सौभाग्य का विषय है  कि देश के मौजूदा नेतृत्व ने पूरी तरह विपरीत हालातों में पूरे देश को इस लड़ाई में अपना यथासंभव योगदान देने के लिये तैयार कर  लिया | किसी भी नेता की अग्निपरीक्षा ऐसे ही समय  होती है  जब वह लोगों को तकलीफ देकर भी उनका अजीज बना रहे |

 प्रधानमन्त्री ने इस पूरे घटनाक्रम के दौरान देश की जनता को घरों में रहने के लिए मजबूर करने  के बाद भी जिस तरह अपने साथ बनाये रखा उसे देखकर 1962 के चीनी हमले में भारत की शर्मनाक पराजय की वास्तविकता को  परदे पर उतारने वाली स्व. चेतन आनन्द की क्लासिक फिल्म “हकीकत” का वह दृश्य याद आ जाता है जब  युद्ध में बुरी तरह हारने के बाद शारीरिक और मानसिक रूप से टूट चुके सैनिकों  की टुकड़ी को ब्रिगेडियर ( अभिनेता स्व. जयंत ) दीपावली पर वायरलेस से संबोधित करते हुए अपना संदेश इन शब्दों से शुरू करते  हैं :-

“ जवानों , दिवाली मुबारक , घाव , तकलीफें और सदमे मुबारक |

आज तुम्हारे मुल्क ने तुम्हें हमदर्दी का तोहफा भेजा है |”

 उक्त संदेश देने वाले ब्रिगेडियर का बेटा ( धर्मेन्द्र ) युद्ध में मारा जा चुका था | लेकिन उन्होंने जवानों की हौसला अफजाई करने में जरा सी भी हिचक नहीं दिखाई |

 आज के संदर्भ में उस संदेश के एक - एक शब्द को मानों वास्तविकता में दोहराया जा रहा है | देश तकलीफ में है | रोजाना मौतें हो रही हैं | मुसीबत बढ़ती दिख रही है लेकिन नेता अपनी जनता से सम्वाद बनाये हुए उससे और तकलीफ सहने की अपील करता है और जनता खुशी - खुशी  राजी हो जाती  है | जो लोग इसमें भी राजनीति देखते हैं उनके  बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि वे जनमानस को पढने में पहले की तरह इस बार भी विफल साबित हो रहे हैं |

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