रिजर्व बैंक ने गत दिवस जिस राहत पैकेज का ऐलान किया उससे दो बातें होंगी। पहली तो बैंकों के पास कर्ज बाँटने के लिए ज्यादा पैसा होगा और दूसरा ये कि एनपीए की सीमा 90 दिन से बढ़ाकर 180 दिन कर दी गयी। कोरोंना संकट के बाद ये दूसरा राहत पैकेज है। ये सब ठप्प पड़ीं हुई औद्योगिक-व्यापारिक गतिविधियों को गति देंने के लिए किया जा रहा है। निश्चित रूप से इस समय ऐसे उपायों की बहुत जरूरत है। उद्योग और व्यापार जगत पहले ही मुसीबत से गुजर रहा था। आर्थिक मंदी ने हालत खराब कर रखी थी। एनपीए बढ़ते जाने से बैंक वसूली का दबाव बनाते रहे लेकिन वसूली नहीं होने से नया कर्ज बाँटने में भी वे हिचकिचा रहे थे। कोरोंना ने दूबरे में दो आसाढ़ वाली हालत जरूर बना दी किन्तु वह नहीं आता तब भी उद्योग-व्यापार जगत को टेका लगाने के लिए राहत देना ही पडती। ताजा पैकेज कितना कारगर होगा ये कह पाना कठिन है। क्योंकि बैंकों के अलावा भी अनेक ऐसी देनदारियां हैं जिनका बोझ यथावत बना हुआ है। देश में निजी फायनेंसिंग कम्पनियां भी बड़े पैमाने पर कर्ज बाँटने का काम करती हैं। आज ही जबलपुर के ऑटो रिक्शा चालकों की समस्या सामने आई जिसमें उन्होंने फायनेंस कम्पनियों द्वारा कर्ज की अदायगी के लिए परेशान करने का आरोप लगाते हुए कहा कि उनकी कमाई तो बंद है फिर वे कर्ज की किश्त्त कहाँ से भरेंगे? इसी तरह औद्योगिक इकाइयाँ बिजली के बिलों में स्वीकृत भार पर लगने वाले फिक्स चार्ज को लेकर हलकान हैं। बैंकों द्वारा लम्बित ऋणों पर ब्याज दरों में किसी भी तरह की रियायत न दिया जाना भी परेशानी का कारण बन रहा है। कोरोना के बाद भारत की अर्थव्यवस्था के ऊंची छलांग लगाने की जो उम्मीदें व्यक्त की जा रही हैं वे भी उसी स्थिति में वास्तविकता में तब्दील हो सकेंगी जब उद्योग-व्यापार जगत पर पडऩे वाले चौतरफा दबावों का बोझ कम करते हुए उन्हें कुछ वर्षों के लिए बिना गति अवरोधक वाली सड़क पर दौडऩे दिया जाए। ऐसा किये बिना अर्थव्यवस्था को वापिस पटरी पर लाने की कोई भी योजना असर नहीं डाल सकेगी। कोरोंना संकट के रहते गरीब और मजदूर वर्ग को दी जा रही राहत अपनी जगह बिलकुल सही है लेकिन वह सदैव तो जारी नहीं रखी जा सकती। वरना देश में निठल्लापन और बढ़ेगा। इस आपदा के बाद देश को दोबारा मजबूती से खड़ा करना सभी का दायित्व है जिसमें श्रामिक वर्ग का योगदान भी जरूरी है। सरकार में बैठे लोगों को एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस संकट के खत्म होने के बाद देश में उत्पादन लागत घटाकर ही हम वैश्विक बाजारों में चीन को टक्कर दे सकेंगे। इसके लिए न्यूनतम मजदूरी वाला अडंगा दूर करना होगा। जब हर चीज के दाम गिर रहे हों तब केवल मजदूरी बढ़े ये राजनीति के लिये भले ही लाभप्रद हो किन्तु अर्थनीति के लिए नुकसानदेह है। भारत में सरकारी औपचारिकतायें इतनी ज्यादा हैं कि उद्योगपति का कीमती समय उनको पूरा क्र्रने में ही चला जाता है और भ्रष्टाचार पनपता है सो अलग। सरकार को ये समझना चाहिए कि मजदूरी कम होने पर उद्योगों में काम बढ़ेगा जिसके कारण नया रोजगार सृजन हो सकेगा। सांसदों का वेतन कम करने के बाद अब ये चर्चा भी होने लगी है कि सरकारी अमले के वेतन-भत्ते भी कम किये जाएं जो सरकारी खजाने के लिए बहुत बड़ा बोझ है। आर्थिक पैकेज चुनावी घोषणापत्र जैसा बनकर न रहे अपितु उसक असर धरातल पर उतरकर प्रभाव दिखाए तभी उसका मतलब है। बेहतर होगा सरकार भी आकलन करे कि इस रियायतों का असर हो रहा है या वह हवा में ल_ घुमा रही है। कोरोना के बाद भारत के लिए तरक्की के आसमान छूने का जो अवसर है उसके लिए तात्कालिक घोषणाएं पर्याप्त नहीं होंगीं। बेहतर हो एक दीर्घकालीन योजना बनाकर उसे लागू किया जाये। देश में औद्योगिक क्रांति की सख्त जरूरत है और ये समय उसके लिए सर्वाधिक अनुकूल है। कोरोना को लेकर भारत जिस तरह आगे बढ़ रहा है यदि ऐसे ही चला तब वह महामारी से न्युनतम नुकसान के साथ बाहर निकलने में सफल हो जाएगा। लेकिन उसके बाद के पांच साल उद्योग -व्यापार को जितनी हो उतनी रियायतें दी जानी चाहिए। इसका दूरगामी लाभ होगा। बेरोजगारी के भयावह आंकड़ों के बाद भी देश में काम करने वालों का जबरदस्त अभाव है। इसका प्रमुख कारण एक बहुत बड़े वर्ग को बिना कुछ किये दाल रोटी मिल जाना है। वामपन्थी प्रभाव वाला श्रमिक आन्दोलन अब दम तोड़ता जा रहां है। वेतन-भत्तों में निरंतर वृद्धि होने से सरकारी खजाना खाली होता जा रहा है। समय आ गया है जब उन विसंगतियों को दूर रकने का साहस दिखाया जाये जिनकी वजह से हमारे देश में व्यापारी और उद्योगपतियों में ये भावना घर करती जा रही है कि बेहतर है वे कारोबार से बाहर निकल आयें। कोरोंना के बाद बड़ी संख्या में छोटी और मध्यम औद्योगिक इकाइयाँ यदि खुद को दिवालिया घोषित कर दें तो आश्चर्य नहीं होगा। और वह स्थिति कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं हो सकती। गत दिवस रिजर्व बैंक द्वारा की गई घोषणाएं बुरी नहीं हैं लेकिन अपर्याप्त और अस्पष्ट हैं। केंद्र सरकार को फिलहाल राजनीतिक फायदे और नुकसान की बात सोचना तो छोड़ ही देना चाहिए। गरीबों को मुफ्त उपहार देकर अकर्मण्य बनाने की बजाय उनके लिए काम के अवसर पैदा किये जावें और ये काम व्यापार-उद्योग जगत ही कर सकता है। इसीलिये उसे अधिकतम सहायता और संरक्षण की सबसे ज्यादा जरूरत है।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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