Thursday 23 April 2020

गम्भीर प्रश्न : डाक्टरों पर पत्थर फेंकने वालों की पीठ पर किसका हाथ



आखिर केंद्र सरकार को कानून बनाकर स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले को गैर जमानती अपराध बनाना पड़ा। पांच लाख तक जुर्माना और सात साल तक के कारावास का प्रावधान करते हुए अध्यादेश को मंत्रीपरिषद ने स्वीकृति दे दी। और कोई समय इस तरह के क़ानून को सामान्य प्रक्रिया कहा जा सकता था किन्तु कोरोना संकट के बीच इस कानून की जरूरत समाज के एक तबके की असंवेदनशीलता को ही जाहिर नहीं कर रही, उसके दिमागी दिवालियापन के साथ ही नेतृत्व करने वालों की छिछली सोच भी इससे उजागर और प्रमाणित हुई है। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने और आपदा के दौरान राहत लेने में जो मुस्लिम तबका बेहद जागरूक रहता है वही सरकार पर अविश्वास व्यक्त करने का कोई अवसर नहीं गंवाना चाहता। कोरोना संकट में गरीबों के बैंक खाते में सीधे जो राशि मोदी सरकार ने दी उसे निकालने के लिए तो इस समुदाय ने बैंकों के सामने भीड़ लगा दी। इसी तरह जहाँ राशन या भोजन वितरित होता है वहां भी मुस्लिम पुरुष, महिलाये और बच्चे बिना बुलाये जा पहुंचते हैं। लेकिन उनकी बस्ती में चिकित्सक और उसके साथ के स्वास्थ्य कर्मी के किसी बीमार व्यक्ति की जांच अथवा सर्वेक्षण करने आने पर घर का दरवाजा न खोलते हुए उन्हें दुत्कार दिया जाता है। यही नहीं तो उनके साथ पशुवत व्यव्हार की शिकायतें भी आ रही हैं। चिकित्सा दल को दुश्मन समझकर बस्ती से खदेडऩे के दृश्य पूरे देश में देखे जा रहे हैं। अनेक स्थानों पर डाक्टरों और उनके सहयोगियों पर जानलेवा हमला भी हुआ। ये घटनाएँ किसी क्षणिक आवेश अथवा गलतफहमी की प्रतिक्रियास्वरूप होतीं तब तो उनको उपेक्षित भी किया जा सकता था किन्तु धीरे-धीरे ये बात पूरी तरह साबित हो चुकी है कि ये सब अनजाने में न होकर सोची-समझी साजिश के चलते हो रहा है। भले ही मुस्लिम समुदाय में शिक्षा का प्रसार ज्यादा न हो लेकिन सर्वे करवाया जाये तो ये बात सामने आ जायेगी कि राज्य अथवा केद्र की सरकर के अलावा स्थानीय स्तर पर चलने वाली किसी भी कल्याणकारी योजना का लाभ लेने में मुस्लिन समाज पूरी तरह आगे-आगे रहता है। शासकीय अस्पतालों में इलाज की जो मुफ्त सुविधा है उसका लाभ लेते मुस्लिम मरीज बहुतायत में मिलते हैं। लेकिन जब वही सरकारी डाक्टर अपनी टीम लेकर उनकी बस्तियों में लोगों की अग्रिम जाँच कर  जीवन रक्षा के लिए जाते हैं तब उनके साथ जो व्यवहार हो रहा है उसके कारण समूचा मुस्लिम समुदाय ही नजरों से उतरने लगा है। गत दिवस जबलपुर में भी ऐसा देखने मिला। हम कुछ नहीं बताएँगे और बीमारी होगी तो इलाज के लिए खुद आ जायेंगे जैसे बेहूदे जवाब किस खीझ का परिणाम है ? इस तरह की हरकतें गैर मुस्लिम तबके में भी देखने में आईं हैं किन्तु 90 फीसदी चूँकि मुसलमान ही इस तरह की घटनाओं में शामिल हैं इसलिए बदनामी उन्हीं के हिस्से में आ रही है। टीवी चैनलों में बैठकर तो कुछ मुस्लिम धर्मगुरु अच्छी बातें करते हैं। लेकिन या तो वे खुद भी कहे चोर से चोरी करले जग से बोले जागते रहना वाली शरारत पर उतारू हैं या फिर मुस्लिम समुदाय उनकी समझाइश पर ध्यान नहीं दे रहा। अभी तक किसी भी मुस्लिम मौलवी ने ये पहल नहीं की कि वह डाक्टरों की टीम के साथ मुस्लिम बस्तियों में जाकर जाँच करवाने में सहयोग करेगा। डाक्टरों की जिन टीमों पर खूनी हमले हुए उनमें महिलाएं भी शामिल थीं। बावजूद उसके अनेक ने दोहराया कि यदि भेजा जायेगा तो वे फिर से उन बस्तियों में जाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करने से पीछे नहीं हटेंगी। सीएए के विरुद्ध मुस्लिम समुदाय द्वारा जब तोडफ़ोड़ की गई तब उप्र की योगी सरकार ने उपद्रवियों से हर्जाना वसूलने का निर्णय लिया जिसको लेकर खूब सियासी तूफान उठा। बात सर्वोच्च न्यायालय तक भी गई। बाद में वहां इस बारे में कानून बना दिया गया। आखिरकार केंद्र सरकार को भी वैसा ही कदम उठाना पड़ा। अब जब डाक्टरों पर हमले के आरोपी पकड़े जायेंगे तब ये रोना रोया जाएगा कि मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। उनसे हर्जाना वसूले जाने को भी जोर जबरदस्ती कहकर सरकार पर मुस्लिम विरोधी होने जैसे तीर छोड़े जायेंगे। बहुत से मुसलमान इस बात को लेकर नाराज हैं कि पूरी कौम को हीं कठघरे में खड़ा किया जा रहा हैं तथा मुसलमानों के सामाजिक और व्यवसायिक बहिष्कार की बातें हो रही हैं। उनकी बात कुछ हद तक सही भी है लेकिन ऐसे मुसलमान अपनी बिरादरी के जाहिल लोगों के विरुद्ध बोलने से क्यों डरते हैं, ये भी विचारणीय प्रश्न है। उनकी खामोशी उन्हें भी कठघरे में खड़ा कर रही है। अब जबकि कानून बन गया है तब डाक्टरों और उनके दल के साथ किसी भी तरह की अमानवीय हरकत पर वह अपना काम करेगा लेकिन अपने घरों और बस्तियों से डाक्टरों को खून से लथपथ कर भगाने वाले लोगों में से कोई सरकारी अस्पताल जाये और डाक्टर बदले की भावना से इलाज करने से इनकार कर दे तब क्या मुस्लिम कानून के लिहाज से उससे ठीक माना जाएगा? लेकिन कानून अपनी जगह है और इंसानियत अपनी। मुसलमानों को ये समझना चाहिए कि उनकी बस्तियों के अलावा अस्पतालों में उनके लोग जैसा बेहूदा और अमानवीय व्यवहार कर रहे हैं और समाज के प्रभावशाली लोग उसे रोकने का प्रयास नहीं कर रहे उसकी वजह से कोरोना खत्म होने के बाद उनके प्रति सोशल डिस्टेन्सिंग नए रूप में आ सकती है। कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वालों को तो पाकिस्तान से पैसा और संरक्षण मिलता रहा। लेकिन कोरोना योद्धा बनकर मानवता की रक्षा करने वालों पर पत्थर फेंकने वालों की पीठ पर किसका हाथ है ये भी स्पष्ट होना ज़रूरी है क्योंकि इसकी आड़ में विघटनकारी ताकतें अपना जाल बिछाने में लगी हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment