Monday 20 April 2020

श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करे नया भारत जड़ता के प्रतीक चित्रों पर माल्यार्पण बंद हो



 25 जून 1975 की रात को तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया था | वह विशुद्ध राजनीतिक निर्णय था जिसकी वजह से देश में लोकतंत्र के पर कतर दिए गये  | विपक्ष को जेल में ठूंसकर संसद में मनमाफिक फैसले करवाए गये | मौलिक अधिकार तक निलम्बित कर दिये गये | निजी टीवी चैनलों का तो उस दौर में अस्तित्व ही न था लेकिन समाचार पत्रों पर सेंसर लग जाने से अभिव्यक्ति की आजादी भी छिन चुकी थी | वहीं दूसरी ओर रेलगाड़ियाँ सही समय से चलने लगीं , लोग  समय के पाबंद होकर  दफ्तर पहुँचने लगे , जमाखोर , मुनाफाखोर , कालाबाजारिये  पकड़े गये और भी  बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसके आधार पर ये कहा जाने लगा कि आपातकाल देश के लिए अच्छा था | बाद में सर्वोदयी आचार्य  विनोबा भावे ने आपातकाल को अनुशासन पर्व कहकर उसे नैतिक आधार भी दे दिया | लेकिन 1977 में जब लोकसभा चुनाव हुए तब इन्दिरा जी की सत्ता सूखे हुए पत्ते की तरह उड़ गई | वे स्वयं भी रायबरेली से चुनाव हार गईं | किसी प्रधानमंत्री का पद पर रहते हुए संसद का चुनाव तक हारने का वह पहला उदाहरण था |

उसके बाद से देश में न जाने कितने सत्ता परिवर्तन हो चुके हैं लेकिन व्यवस्था में खास बदलाव नहीं होने के कारण आज भी अनेक लोग ये कहते मिल जाते हैं कि इस देश को सुधारने   के लिए आपातकाल जैसी  व्यवस्था ही कारगर होगी | कुछ का तो साफ़ कहना है कि सेना के हाथ में सत्ता दे दी जाए तो सब ठीक हो जायेगा | 

कोरोना के कारण लॉक डाउन लागू होने  पर अनेक जगहों पर लोग अनुशासन तोड़ते दिखे और भीड़ अनियंत्रित हुई तब भी तमाम लोगों का यही कहना था कि सेना बुलवाकर उसे जिम्मेदारी सौंप दी जाए तो लोग घर से बाहर निकलने की तो छोड़िये बाहर झाँकने तक की हिम्मत नहीं करेंगे |

 कोरोना चूँकि आपदा मानी गई है इसलिए इस दौरान कुछ नये दंडात्मक  प्रावधान भी किये गए |

आजकल सार्वजनिक स्थान पर थूकने की खूब चर्चा है | जुर्माने से लेकर सजा तक की बातें चल रही हैं | कोई न्यूजीलैंड का उदाहरण दे रहा है तो कोई सिंगापुर का | हाल ही में सऊदी अरब में किसी शॉपिंग मॉल में थूकने वाले को फांसी की सजा देने की तैयारी को भी नजीर बनाकर वैसी ही सख्त व्यवस्था अपने देश में भी किये जाने की मांग उठ रही है | सतही तौर पर देखें तो ये शुभ - संकेत  है कि लोग खुद होकर किसी बुरी आदत के विरुद्ध दंड की मांग कर  रहे हैं |

 लेकिन  मेरा हमेशा ये मानना रहा है कि ऐसे मामलों में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए जल्दबाजी से बचना चाहिए | देश में रेलगाड़ियां समय पर चलें , दफ्तरों में कर्मचारी और अधिकारी   समय से आयें , प्रशासन जनता  के प्रति संवेदनशील हो , व्यापारी मुनाफाखोरी , जमाखोरी और काला बाजारी से दूर रहे तथा भ्रष्टाचार करने वालों को कठोर दंड मिले , इसके लिए विपक्ष को जेल में डालने और लोगों को मौलिक अधिकारों से वंचित करना लंबे समय तक कारगर नहीं हो सकता । यदि हो भी जाए तब वह लोकतंत्र तो नहीं हो सकता और यदि हुआ भी तो चीन और पुराने सोवियत संघ जैसा ही होगा |

 यही वजह रही कि आपातकाल में सब कुछ सुधरा दिखने  के बाद भी ज्योंही जनता को अवसर मिला उसने उसको पूरी तरह से नकार  दिया | थूकने पर दंड या सजा की जहाँ तक बात है तो उससे कोई भी असहमति व्यक्त नहीं करेगा | हमारे देश में करोड़ों लोग पान , तम्बाखू और गुटका खाते हैं | उसका सेवन करने के  बाद थूकना भी सामान्य प्रक्रिया है | 

चलती हुई कार के दरवाजे को अचानक खोलकर सड़क पर पीक थूकने जैसा रोमांचक कारनामा हमारे देश में प्रतिष्ठा सूचक माना जाता हैं | सार्वजनिक स्थानों पर थूकने के विरुद्ध नारे और निवेदनों के बावजूद भी दीवारें रंगी मिल जायेंगीं | इन चीजों का शौक फरमाने वाले किसी भी वॉश बेसिन को गंदा कर आगे बढ़ जाते हैं | 

यही हाल लघुशंका निवारण का भी है | जिसके लिए हमारे देश में सड़क का किनारा और दीवार का सहारा सबसे उपयुक्त स्थान समझा जाता रहा | इसीलिए प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने जब शौचालय को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया तब उसका खूब मजाक भी उड़ा ।और जो डिब्बेनुमा शौचालय जगह - जगह रखवाए गये वे अव्वल तो अच्छी क्वालिटी के न थे और  न ही उनका रखरखाव ठीक से  हुआ | परिणाम स्वरूप उन पर खर्च हुआ अधिकांश धन बर्बाद हो गया | लेकिन खुले में शौच को अपराध बनाने के पहले शौचालय के महत्व और जरुरत को जनमानस में बिठा देने के कारण आज भारत उस समस्या से काफी हद तक मुक्त हुआ है | दुनिया के जिन देशों में भी  सार्वजनिक प्रसाधन की समुचित उपलब्धता है वहां खुले में शौच की प्रथा समाप्त हो गयी |

यही हाल पार्किंग का भी है | जगह - जगह नो पार्किंग  के बोर्ड तो लगे मिल जायंगे लेकिन पार्किंग की व्यवस्था नहीं होने से वाहन गलत जगह खड़े कर दिए जाते हैं | प्रशासन कभी कभार कार्रवाई करता भी है तो वह असरकारक नहीं  होती और लोग जुर्माना भरकर फुर्सत पा जाते हैं | दो पहिया वाहन चालकों को हैलमेट पहनना अनिवार्य है | सर्वोच्च न्यायाएलय तो इस बारे में सख्त निर्देश दे भी चुका है | उसके बाद भी महानगरों को छोड़कर  देश के अधिकतर हिस्सों में हैलमेट का उपयोग नहीं होता | पुलिस को जब मूड होता है तो दो चार  दिन तक चैकिंग अभियान चलता और फिर फुस्स हो जाता है |

कहने का आशय ये है कि सख्ती और कानून तब तक प्रभावशाली नहीं  होते जब तक उनके बारे में जनता के मन में विश्वास और सहमति न हो | आपातकाल की तरह ही आज भी अनेक लोग ब्रिटिश शासन की तारीफ़ करते नहीं थकते लेकिन शासन चलाने में हमारी कतिपय कमजोरियों के बाद  भी विदेशी दासता के विरुद्ध देश एकजुट था |

इस बारे में विचारणीय प्रश्न ये है कि यदि कोरोना न आता और उस पर भी तबलीगी जमात के अनुयायी थूका- थाकी न करते तब सार्वजनिक स्थल पर थूकने को दंडनीय अपराध बनाने के बारे में कौन सोचता ? 

इसी तरह क्या पान , तम्बाकू , गुटका की बिक्री होते तक थूकने की प्रवृत्ति को रोकना संभव होगा ? शौचालय एवं मूत्रालय बेशक अलग विषय हैं लेकिन जहाँ तक बात थूकने जैसी बुराई की है तो उसके लिए बड़े पैमाने पर व्यवस्था करना नामुमकिन है | उक्त चीजें खाने वाले जो थूकते हैं उससे  निश्चित रूप से गन्दगी होती है लेकिन विदेशों में च्युइंगम खाने का जो रिवाज है उसे थूकने पर तो वह बुरी तरह चिपक जाती है | इसी वजह से सिंगापुर के अलावा अनेक देशों ने उसे थूकने पर जुर्माने का प्रावधान किया |

 लेकिन ऐसी समस्याएँ केवल कानून बनाकर हल नहीं हो सकतीं | क्योंकि ये अपराध दूसरे  किस्म के हैं जिनके बारे में लोकशिक्षण के साथ ही लोगों की संकल्पशक्ति विकसित करना जरूरी है | 

नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय  स्वच्छता मिशन चलाकर देश को पूरी तरह चकाचक भले नहीं कर पाए हों लेकिन लोगों में सफाई के बारे में जागरूकता बढ़ी और गन्दगी देखकर  अब वे विचलित भी होते हैं | घर - घर  आकर कचरा ले जाने की व्यवस्था ने काफी बड़ा सुधार किया है । वरना लोग घर के भीतर का कूड़ा - कचरा अपने घर के सामने फेंकने में कोई संकोच नहीं करते थे |

 कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली में एक पारिवारिक आयोजन के दौरान मुझे मोदी जी से मुलाकात और बात का अवसर मिला | मुझे लगा कि प्रधानमन्त्री के पास आने का मौका तो मिल गया लेकिन बात करें तो करें भी क्या ? और तभी मैंने स्वच्छता मिशन की बात छेड़ दी | ये देखकर संतोष हुआ कि उन्होंने बिना संकोच कहा कि मैं जानता हूँ कि शायद अपने जीवनकाल में  भारत को पूरी तरह स्वच्छ न देख सकूंगा किन्तु फिर पास में खड़े युवाओं की तरफ देखते हुए बोले कि ये पीढ़ी जरुर स्वच्छ भारत के सपने को साकार होते देखेगी | उनकी दूरदर्शिता और जमीनी सच्चाई को स्वीकार करने के  साहस ने मुझे प्रभावित किया | 

ये बात पूरी तरह सही है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत के युवाओं में ही नहीं अपितु छोटे बच्चों तक में स्वच्छ्ता के प्रति जागरूकता बढ़ी हैं | इस तरह के अभियान जब सामाजिक स्तर पर स्वीकार्य हो जाते हैं तब वे बिना कानून के भी व्यवस्था का हिस्सा  बने बिना नहीं रहते | 

कहते हैं 1965 में मलेशिया से अलग होते समय सिंगापुर भी साधारण एशियाई देशों जैसा था लेकिन देखते ही देखते वह किसी भी यूरोपीय महानगर से ज्यादा विकसित और खूबसूरत बन गया तो उसके पीछे वहां के लोगों की मानसिकता को उस बदलाव के पक्ष में तैयार करना प्रमुख वजह बनी |

 तकरीबन 9 वर्ष पहले  श्रीलंका जाने का मौका मिला | यात्रा का मुख्य उद्देश्य अशोक वाटिका नामक उस स्थान को देखना था जहां लंकापति रावण द्वारा सीता जी को रखा गया था | मेरे साथ मित्रद्वय कमल ग्रोवर और सुभाष भाटिया भी थे | राजधानी कोलम्बो पहुंचने के बाद हमने कैंडी नामक एक खूबसूरत शहर में रात बिताई और अगली सुबह वहां से नुवराएलिया नामक स्थान रवाना हुए जहां अशोक वाटिका स्थित है |

 रास्ता बेहद खूबसूरत था | एक तरफ चाय की हरी भरी बागानें और दूसरी तरफ नदी और पहाड़ के मनमोहक दृश्य थे | कुछ दूर चलने के बाद टैक्सी चालक से रुकने के लिए इशारा किया | चूंकि वह  सिंहली भाषा जानता था इसलिए संकेतों में उसे बताया कि लघुशंका निवारण करना है | उसने कुछ देर रुकने जैसा इशारा करते हुए गाड़ी चलाना जारी रखा | हमने अनेक बार उससे कहना चाहा कि वह वाहन रोक दे ताकि हम सड़क के किनारे निवृत्त हो सकें | उस मार्ग पर यातायात भी ज्यादा न था | लेकिन उसने हमारी बात अनसुनी कर दी और फिर अचानक सड़क किनारे एक जूस पार्लर पर रुक गया | 

गाड़ी रोककर उसने हम लोगों को इशारे से बाहर बुलाया और फिर पार्लर के  भीतर बने प्रसाधन तक ले गया | वह बहुत अच्छा तो नहीं था लेकिन उस टैक्सी चालक ने अपने देश का एक परिचय बिना कुछ कहे हमें दे दिया | हालांकि हमें  बिना किसी परिचय के उस प्रसाधन का उपयोग करना शिष्टाचार के विरुद्ध लगा किन्तु टैक्सी चालक ने काउन्टर पर बैठे व्यक्ति से उसके  लिए स्वीकृति ले ली थी | बाद में सौजन्यता के विनिमय स्वरूप हमने भी वहां जूस खरीदकर पिया |

 आप कहेंगे कि इसमें ऐसा क्या  था जिसका उल्लेख किया जाए | लेकिन उस टैक्सी चालक ने हम विदेशियों को एक संदेश तो दे ही दिया कि भले ही श्रीलंका भारत की तुलना में आकार , शक्ति और सम्पन्नता में कहीं ठहरता न हो लेकिन लिट्टे समस्या से उबरने के बाद सिंगापुर जैसा बनने की महत्वाकांक्षा वहां जोर पकड़ती दिखाई दी और जैसी कि जानकारी है बीते एक दशक में भारत का ये पड़ोसी टापूनुमा देश पर्यटकों के लिए प्रमुख आकर्षण बन गया |

 लौटकर भारत पर आयें तो कोरोना के प्रकोप के बाद हमें लगा कि सार्वजनिक स्थान पर थूकना भी अपराध होना चाहिये | लेकिन  पान , तम्बाखू , गुटका खाने वाले देश में इस तरह का प्रतिबन्ध कानून से लगा पाना कैसे सम्भव होगा जबकि हर जगह उनकी बिक्री धड़ल्ले से चल रही हो | 

स्व. माधवराव सिंधिया ने रेलमंत्री के  रूप में स्टेशनों पर पान , सिगरेट वगैरह की बिक्री रोकी थी | लेकिन बाहर जब भी ऐसी कोशिश हुई तो राजनीति आड़े आ गई और लाखों  लोगों के  बेरोजगार होने का हवाला देते हुए विरोध किया गया | इसीलिए जहाँ - जहाँ गुटका प्रतिबंधित है वहां भी उसकी बिक्री धड़ल्ले से होती है |

 विगत दिवस मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी गुटका पर रोक की बात कही है | लेकिन ये सब श्मसान वैराग्य जैसा है |  कोरोना और थूक का निकट संबंध होने की वजह से थूक का राष्ट्रीय संज्ञान लिया जा रहा है | वरना तो पूरा देश ही पीकदान बना हुआ है | 

चूंकि आजकल भारत में कोरोना के बाद के समाज को लेकर विमर्श चल पड़ा है इसलिए लगे हाथ अब ये भी तय होना चाहिए कि क्या हम अपने आचरण में बदलाव के लिए तैयार हैं ? और यदि हाँ तो वह भय का परिणाम  होगा अथवा चारित्रिक बदलाव का प्रतीक बनेगा ?

क्योंकि भय से उपजा परिवर्तन परिस्थितिजन्य होता है | आपातकाल के बाद  बिना देर किये देश पुराने ढर्रे पर लौट आया और उसके पहले आजादी मिलते ही हमारी राष्ट्रभक्ति निजी स्वार्थों के लिए बलि चढ़ गयी | क्या कोरोना पर जीत मिलते ही हम फिर से वही सब करने लगेंगे जो एक महीने पहले तक खुलकर करते थे या कोरोना के चरण हमारा आचरण सुधारने का कारण बनेंगे ?

कोरोना का अंत होते तक हम बहुत  कुछ खो चुके होंगे | आर्थिक ही नहीं सामाजिक स्तर पर भी हमें नवसृजन के लिए कमर कसनी होगी | लेकिन उसके लिए हमें उन्हें आदर्श बनाना होगा जिन्होंने भारत को मौत के जबड़े से बचा लिया |  

निराशा और विघटन की भावना फैलाने वालों को आईना दिखाने का वक्त आ गया है | वैचारिक बंधुआ बने रहकर चरण चुम्बन की प्रवृत्ति त्यागकर श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण ही नये भारत का ध्येय वाक्य होना चाहिए | जड़ता के प्रतीक बन चुके चित्रों पर माल्यार्पण करने की बजाय उन लोगों का चरित्र चित्रण होना जरूरी है जो भारत को भय , भूख और भ्रष्टाचार से आजादी दिला सकें  |
--------------
(चित्र श्रीलंका स्थित अशोक वाटिका में सीता जी के मंदिर का है।)

No comments:

Post a Comment