Friday 24 April 2020

कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं इंसान को कम पहिचानते हैं ,ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं .....इसीलिये अभाव में भी नहीं बदलता भारत का स्वभाव


मेरे एक निकटस्थ छह महीने के वीजा पर बेटे के पास रहने गये अमेरिका गये | पूर्व में भी चूंकि वे अनेक मर्तबा हो आये थे इसलिए वहां की व्यवस्थाओं से वाकिफ थे | नियमित सेवन  वाली दवाइयां साथ लेते गये | स्वास्थ्य बीमा भी करवा लिया | तकरीबन दो माह बाद अचानक वापिस आ  गये | जब वजह जानी तो पता चला पत्नी को गठिया ने परेशान कर दिया | बेटे - बहू सुबह जल्दी काम पर चले जाते | बीमा संबंधी औपचरिकताएं  पूरी करने में जो व्यवहारिक परेशानियाँ आईं उसमें वे पस्त हो गये |  भारत में अपने डॉक्टर मित्रों से फोन पर पूछकर पास रखी दवाओं  से काम चलाते रहे  क्योंकि नई दवाई बिना डॉक्टरी पर्चे के मिलती नहीं  और  डॉक्टर  से पर्चा मिलना भी आसान नहीं था | अंततः वे जबलपुर लौट आये और हफ्ते भर में भाभी जी को आराम  मिल गया |

दूसरा वाकया इससे भी रोचक था | यहाँ का एक युवा न्यूरो सर्जन आयरलैंड के एक मशहूर अस्पताल में सेवारत हो गया | दो चार दिन बाद उसे खुद के लिए किसी साधारण दवा की जरूरत पड़ी | अस्पताल में स्थित दवा दुकान  पर दवाई मांगने पर उसे पर्चा दिखाने कहा गया | उसने बताया कि वह वहीं न्यूरो सर्जन है तब काउन्टर पर बैठे व्यक्ति ने कहा कहा लेकिन वह दवा तो न्यूरो चिकित्सा से संबंधित नहीं है | डाक्टर साहब हतप्रभ रह गये | उस मामूली दवा के लिए उन्हें लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता | चिकित्सा प्रणाली का जो मान्य शिष्टाचार है उसके मुताबिक उक्त बातें पूरी तरह सही हैं |

लेकिन गत रात्रि कैनेडा से एक करीबी का फोन आया | उसकी दास्ताँ सुनकर तो मैं व्यथित हो गया | कोरोना के कारण वह जिस प्रतिष्ठान में कार्यरत था उसने तालाबंदी करते हुए उसकी छुट्टी कर दी | उसके साथ कार्यरत एक भारतीय मित्र को संदेह  है कि वह कोरोना संक्रमित हो  गया है | उसकी पत्नी में भी कुछ लक्षण आ गये हैं |उसे सीधे अस्पताल में तब तक भर्ती नहीं किया जा सकता जब तक फैमिली डॉक्टर उस हेतु लिखित अनुशंसा न करे | और फैमिली डॉक्टर से फोन से बात होने पर वह कहता है कि कोरोना के सभी लक्षण अभी उनमें नहीं नजर आ रहे |  इसलिए घर पर रहो।

जिस मित्र का कल फोन आया उसने भी अपने फैमिली डॉक्टर को ईमेल कर स्वास्थ्य विषयक  कुछ सलाह लेने का प्रयास किया तो डॉक्टर ने भी ईमेल पर ही सम्वाद किया और जिस तरह की सलाह दी उससे बजाय आश्वस्त होने के वह और तनावग्रस्त हो गया |

कैनेडा में भी लॉक डाउन है | लोग घरों में हैं | बाहर निकलते समय अनुशासन का पालन करते हैं | लेकिन कोरोना को लेकर सरकारी इंतजाम अति साधारण हैं | किसी तरह की जाँच नहीं हो रही | जिसे संक्रमण होता है वह अपने निजी डॉक्टर के जरिये आगे की चिकित्सा हेतु भर्ती किया जाता है | लेकिन एक बात अच्छी है कि वीआईपी संस्कृति नहीं होने से किसी चीज की लाइन में छोटे बड़े सभी को अपनी बारी आने तक इन्तजार करना होता है |

अमेरिका से आ रही भयावह खबरें भी कैनेडा  वासियों को आशंकित किये हुए हैं | अभी तो आवाजाही  बंद है लेकिन जैसे ही खुलेगी  और आवागमन  शुरू  होगा तब कैनेडा में क्या होगा इसकी कल्पना से लोगों में जो डर है वह उक्त मित्र की आवाज से झलक रहा था |

और फिर वह बोला अपने भारत के बारे में सुनकर बड़े ही गर्व की  अनुभूति होती है | सरकार और समाज मिलकर जिस तरह इस संकट का सामना कर  रहे हैं उसकी यहाँ कल्पना नहीं की जा सकती |

लगभग एक वर्ष पूर्व विदेश में रहने वाले एक परिचित  के साथ जो हादसा हुआ उसने भी  मुझे विचलित किया था | उनकी पत्नी की गर्भावस्था का अंतिम समय था किन्तु गर्भपात हो गया | मृत शिशु को दफनाने के लिए वहां के कब्रिस्तान में स्थान प्राप्त करने  में उनको जो परेशानी हुई उसका वर्णन करना कठिन है |

मौजूदा हालात में अमेरिका , कैनेडा , ब्रिटेन , फ़्रांस , जर्मनी , रूस , स्विट्जरलैंड , इटली , स्पेन आदि में जो स्थितियां  निर्मित हुईं और उसके बाद विकसित कहे जाने वाले उक्त देशों में जो भाव शून्यता देखने मिली उससे एक वितृष्णा सी होने लगी |

अनुशासन और व्यवस्था का अपना महत्व है जिसके अभाव में हमारा देश विकास की दौड़ में उक्त देशों के तुलना में बहुत पीछे है | लेकिन 135 करोड़  की विशाल आबादी सामान्य समय में भले ही  उपेक्षा का दंश भोगने की मजबूरी सहती रही हो लेकिन कोरोना जैसी महामारी के आने के बाद सीमित संसाधनों के बावजूद जिस मुस्तैदी से चिकित्सा तन्त्र खड़ा किया गया  वह अकल्पनीय था | बीमारी के बचाव और इलाज में किसी की उपेक्षा नहीं होना वाकई वह बात है जिसकी उम्मीद नहीं थी |

उक्त सभी देशों की कुल आबादी भारत की आधी से भी कम होगी | इसके अलावा चिकित्सा सुविधाओं और आर्थिक संसाधनों की दृष्टि से भी वे हमसे हजार गुने बेहतर और सक्षम हैं | भ्रष्टाचार और कामचोरी भी नहीं है | आबादी कम होने से अब तक वहां  इंसानी जिन्दगी बड़ी ही मूल्यवान समझी जाती रही  | व्यवस्थाएं चाक - चौबंद हैं और सामजिक समता भी भरपूर है | आपदा प्रबंधन के मामले में भी वे भारत से कहीं बेहतर हैं |

फिर भी बीते एक महीने में उन सभी देशों  का जो प्रदर्शन रहा वह देखकर भारत पर गर्व  किया जा सकता है | हालाँकि अचानक लॉक डाउन लागू किये जाने से जनसाधारण को काफ़ी परेशानियां झेलनी पड़ीं | विशेष रूप से प्रवासी  दिहाड़ी मजदूरों की मुसीबतें तो अब तक चली आ रही हैं | सरकार ने गरीबों को अनाज और रसोई गैस तो दे दी लेकिन बैंकों में जो राशि सीधे खाते में भेजी वह ऊँट के मुंह में जीरा जैसी है |

लेकिन सरकार के समानांतर समाज की संवेदनशीलता जिस पारम्परिक और संस्कारित स्वरूप में सामने आई और  उसके कारण जो कुछ भी  हो रहा है वह किसी से छिपा नहीं है | कहने का आशय ये कि हमारा देश विकासशील तो है ही ,  भ्रष्टाचार , पक्षपात , कामचोरी भी यहाँ नस - नस में भरी है | व्यवस्था का पालन करने के प्रति अशिक्षित ही नहीं पढ़े - लिखे लोग भी लापरवाह हैं | ऊपर से वीआईपी संस्कृति का बोलबाला है | सरकारी अस्पताल अव्वल तो खुद ही बीमार पड़े हैं या फिर उनमें जबर्दस्त भीड़ है | और अधिकतर निजी चिकित्सा संस्थान हमेशा से ही पैसा बटोरने के अड्डे बने  हुए थे | इसलिए उनसे इस समय में किसी भी तरह की अपेक्षा सामान्य जन तो नहीं करता था |

लेकिन कोरोना संकट के दौर में जिस नये  भारत का उदय हुआ वह किसी दैवीय चामत्कार से कम नहीं है | अव्यवस्था कब व्यवस्था में बदल गई और समाज की रचनात्मक प्रवृत्ति बिना देर किये  जिस तरह अपनी भूमिका के निर्वहन में लग गई , ये उस देश के लिए बड़ी बात है जहाँ सरकारी अस्पतालों में कुत्ते के काटने  पर लगने वाला रैबीज का इंजेक्शन भी नहीं मिलता |

भारत में भावनाओं का जो स्वस्फूर्त प्रवाह इस दौर में नजर आ रहा है वह उक्त विकसित देशों के लिए एक सबक है जहां संसाधन , तकनीक, प्रबन्धन और व्यवस्था तो है लेकिन मशीनी सोच के चलते भावनाएं गहराई तक दबकर रह गईं हैं |

वरिष्ठ पत्रकार और आज तक चैनल के एग्जीक्युटिव एडीटर Sanjay Sinha अक्सर कहते हैं कि मनुष्य भावनाओं से संचालित होता है , कारणों से तो मशीनें चला करती हैं |

आज के हालात में विकसित देशों की जो स्थिति है उसमें भावनाएं पूरी तरह गायब दिखाई देती हैं और केवल मशीनी सोच ही समूची व्यवस्था पर हावी है | इसके ठीक विपरीत भारत में मानवीय सम्वेदनाएं और भावनाओं का जो सैलाब दिखाई दे  रहा है वह श्री सिन्हा के कथन को सत्य साबित करता है |

गौरतलब है अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को अर्थव्यवस्था की ज्यादा चिंता थी जिस कारण वहां लॉक डाउन लागू करने में विलम्ब किया गया और उसी वजह से देश की व्यवसायिक राजधानी न्यूयार्क में सामुदायिक संक्रमण की स्थिति पैदा हो गई |अमेरिकी राष्ट्रपति ने यहाँ तक कह दिया कि यदि उनका देश 1 लाख मौतों के बाद भी कोरोना मुक्त हो जाए तो सस्ता मानिये  | 

कमोबेश ऐसा ही यूरोप के अन्य देशों में भी देखने मिला | ये बात सही है कि सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के बारे में वहाँ के लोग ज्यादा सतर्क हैं | कम आबादी भी उसमें सहायक है । लेकिन बड़े पैमाने पर  हुई मौतों के बावजूद उन देशों की सरकारें जिस तरह असहाय नजर आ रही हैं वह निष्ठुरता की पराकाष्ठा है |

इसके ठीक उलट अव्यवस्था के पर्यायवाची भारत में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉक डाउन का पहला चरण घोषित करते समय हाथ जोड़कर कहा कि वे परिवार के सदस्य के रूप में निवेदन करते हैं कि घर में रहकर कोरोना  को रोकने में सहायक बनें | और फिर उन्होंने जान है तो जहान है जैसी बात  कही | उसके बाद 14 अप्रैल को लॉक डाउन बढ़ाते समय उन्होंने जान भी और जहान भी का नारा दिया |

अंतर साफ़ है | जो सम्पन्न देश हैं वहां संभावनाएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है लेकिन भारत में तमाम विसंगतियों के बावजूद मानवीय संवेदनाओं से भरपूर भावनाएं जीवित हैं | ये कहना गलत न होगा कि जरूरी चीजों और सुविधाओं के अभाव के बावजूद इस देश ने अपना परोपकारी स्वभाव नहीं बदला |

कोरोना के बाद की दुनिया में संभावनाओं और भावनाओं के बीच जो द्वन्द होगा उसमें निश्चित रूप से भारत विजेता बनकर उभरेगा क्योंकि यहाँ इंसानी लाशों की सीढ़ियों पर चढ़कर भौतिक प्रगति के झंडे नहीं फहराए जाते । उलटे मनुष्य की जान के लिए जहान को उपेक्षित किया जा सकता है |

मानवीय सम्वेदनाओं का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि जो तबलीगी जमाती देश भर में कोरोना संक्रमण को फैलाने का कारण बनने के बाद डाक्टरों और पुलिस कर्मियों पर थूकने जैसी बेहूदगी करते हैं तथा महिला  चिकित्सकों और नर्सों के सामने निर्वस्त्र होकर अश्लील हरकतें करने से बाज नहीं आते । बावजूद इसके उनको भी  मरने के लिए लावासिस नहीं छोड़ा जा रहा |

ऐसे में अपार सम्भावनाओं की चाहत में दुनिया भर में रह रहे भारतीय समुदाय के लोगों को इस नये भारत में भावनाओं के  ज्वार को  समझना चाहिए  क्योंकि जिस जगह सम्पन्नता की कीमत के सामने इंसानी ज़िन्दगी सस्ती समझ ली जाये वहां जाकर बसने में बाकी  सब तो मिल सकता है लेकिन सुकून नहीं |

स्व. राज कपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है के शीर्षक गीत में कविवर शैलेन्द्र ने लिखा था :-

“ कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं , इन्सान को कम पहिचानते हैं |
ये पूरब है पूरब वाले , हर जान की कीमत जानते हैं |

और जिस जहान में जान की कद्र न हो वहां भला क्या रहना ?

समझदारों के लिए इशारा काफी |

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