किसी विचारक ने कहा था कि ईश्वर हम सबकी आवश्यकताएं तो पूरी कर देते हैं किन्तु इच्छाएं अनंत होने से मनुष्य उनकी मृगमारीचिका का शिकार होकर दौड़ता फिरता है और विफल होने पर तनावग्रस्त होकर कुंठा का शिकार हो जाता है | आज की दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें नींद की गोलियां खाने के बाद भी नींद नहीं आती क्योंकि ख्वाहिशों की लम्बी फेहरिस्त उनके अचेतन मन में भी मंडराया करती है |
भारतीय चिंतन परम्परा में संयम और अपरिग्रह पर आधारित जिस जीवनशैली की प्रेरणा दी जाती है दरअसल वह हमारी आवश्यकताओं और इच्छाओं के बीच संतुलन स्थापित करते हुए सुखी और संतुष्ट जीवन जीने की कला है |
भौतिकतावादी इस युग में कुछ भी प्राप्त करने की लिए क्रय शक्ति की जरूरत खत्म हो गयी है | आपके पर्स में रखा एक प्लास्टिक का कार्ड पूरी दुनिया में आपको उधारी दिलवाने में सक्षम है | ये देखकर लगता है उधार लेकर घी पीने जैसी नसीहत देने वाले ऋषिवर चार्वाक ने भविष्य को जान लिया होगा और उनकी दिव्य दृष्टि में क्रेडिट कार्ड जैसी व्यवस्था जरुर आई होगी |
उदारवाद के नाम पर आये उधारवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था की उंगली थाम कर आया उन्मुक्त उपभोक्तावाद हमारे जीवन पर इस हद तक हावी हो गया कि अब कर्जदार होना शर्म का विषय नहीं रहा | इसका दुष्परिणाम हमारे सामाजिक और पारिवारिक जीवन पर किस तरह हुआ ये काफी कुछ सामने है | पारिवारिक कलह , मानसिक तनाव , तलाक , आत्महत्याएँ , बाल अपराध ,, युवाओं में बढ़ती उच्छश्रंखलता और सांस्कृतिक प्रदूषण में वृद्धि के पीछे भी कहीं न कहीं उपभोक्तावाद और उदारवाद की महत्वपूर्ण भूमिका है |
आज के माहौल में जब सब कुछ कोरोना नामक संकट पर आकर केन्द्रित हो गया है और हम सभी का पारिवारिक और सामाजिक जीवन इससे प्रभावित हो रहा है तब इस तरह की चर्चा अनावश्यक और अप्रासंगिक लग सकती है किन्तु सही मायनों में तो नियति द्वारा प्रदत्त ये समय केवल लॉक डाउन खुलने का इंतजार करते हुए बैठे रहने का नहीं अपितु वर्तमान के साथ भविष्य की चुनौतियों के अनुरूप अपनी जीवन शैली में जरूरी सुधार या बदलाव करने के बारे में विचार करने का है |
बीते करीब 20 दिनों से हम सभी पूरी तरह से नई परिस्थितियों में जीने के लिए मजबूर हैं | घरों में सीमित रहने से पूरी दिनचर्या परिवार के बीच सिमटकर रह गई है | भागदौड़ भरी आज की ज़िन्दगी में इंसान जितना सम्पन्न होता जाता है उसके पास समय और सुकून दोनों का अभाव इस कदर होने लगता है कि अवसर मिलते ही वह कहीं दूर जाकर कुछ पल शांति से जीना चाहता है |
कई लोगों में तो ये इच्छा इतनी प्रबल हो जाती है कि होली जैसे मेल - मिलाप के त्यौहार तक पर वे शहर से बाहर किसी रिसॉर्ट में वक्त गुजारना पसंद करते हैं | शहर में रहते हुए रेस्टारेंट में डिनर , शापिंग माल में खरीददारी , मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखना , पार्टियां करना या उनमें शामिल होना जैसी बातें प्रतिष्ठासूचक मानी जाने लगीं | अधिक पैसा अर्जित करना और उसके वीभत्स प्रदर्शन की प्रतिस्पर्धा आम हो गयी |
उच्च आय वर्ग के रहन - सहन और चाल - चलन को अपनाने की लालसा ने मध्यम और उच्च मध्यमवर्गीय समाज की मानसिकता ही बदलकर रख दी | जिसके कारण उधार की संस्कृति अपानाकर उन्मुक्त जीवनशैली का वायरस इस तबके में भी दबे पाँव प्रविष्ट होता गया |
लेकिन अचानक सब उलट - पुलट हो गया | क्या रईस , क्या गरीब और क्या मध्यम वर्ग सभी को कोरोना ने एक ही श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया | इसका आशय ये नहीं है कि धन सम्पत्ति का बराबरी से बंटवारा करते हुए समाजवाद लागू हो गया | बल्कि ये कि सभी के सामने एक अनिश्चित और काफी हद तक असुरक्षित भविष्य आ खड़ा हुआ है | जो जितना बड़ा है उसके सामने उतना ही बड़ा संकट है | जो धन संपदा है उसकी कीमत धड़ाम से नीचे आ गई | वैभव और विलासिता बोझ न बन जाए ये भय भी सताने लगा है | यदि एक दिहाड़ी मजदूर , हाथ ठेला - खोमचा लगाने वाला , छोटा दुकानदार , धोबी , नाई , ऑटो रिक्शा तथा टैक्सी चालक और घरेलू कर्मचारी के सामने रोजी का संकट है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बड़े - बड़े पैकेज लेकर सुविधापूर्ण जीवन जी रहे युवाओं को भी नौकरी जाने अथवा वेतन भत्ते कम होने की आशंका परेशान किये है | सरकारी कर्मी भी ये सुन - सुनकर तनाव में है कि कोरोना संकट के कारण आधा वेतन मिलने की बात चल रही है | लेकिन इस सबसे बड़े कहे जाने लोग परेशान नहीं हैं ये मान लेना गलत है | क्योंकि उद्योग - व्यापार में गिरावट आने के बाद वे भी कितने दिनों तक अपनी सम्पन्नता बचाए रख सकेंगे ये बड़ा प्रश्न है |
कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं है कि महज तीन हफ्ते के संकट ने हर इंसान की ज़िन्दगी में ऐसी उथल - पुथल मचा दी है जिससे उसका भावी जीवन प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा और यहीं आकर इस आलेख की शुरुवात में कही गईं उन बातों का उल्लेख सार्थक हो जाता है जो हमें अभावों में भी सुख के साथ जीने का महामंत्र सिखाती हैं |
भारतीय जीवन शैली में धन संपदा का अर्जन पौरुष का प्रतीक भी है | लेकिन उसका केवल निजी हितों के लिए उपयोग शास्त्र विरुद्ध है | इसीलिये सम्पन्नता के साथ ही सादगी और निरभिमानी होने का उपदेश भी दिया जाता है | बहुत ही सटीक कहा गया है कि:-
“ साईं इतना दीजिये जा मे कुटुम समाय ,
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाए |”
इसका आशय ये है कि हमारी आय केवल हमारे परिवार के लिए ही नहीं अपितु किसी अन्य जरूरतमंद का पेट भरने लायक भी हो |
आज के हालात में जब सब कुछ ठहर सा गया है और एक अदृश्य भय ने भविष्य पर धुंध की चादर चढ़ा दी है तब उम्मीद की किरण लौट फिरकर उसी भारतीय चिंतन पर आधारित जीवन शैली में ही नजर आती है जिसमें हमारी प्राथमिकता मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है न कि इच्छाओं रूपी स्वर्णमृग के पीछे भागकर अपना सुख चैन गंवा देने में |
फोन पर कुशल क्षेम पूछने के दौरान बहुत से अति संपन्न मित्रों और परिचितों से हो रही चर्चाओं में एक जो अच्छी बात निकलकर आ रही है वह ये कि सभी जीवन में अचानक आये इस बदलाव से हँसते - हँसते गुजर रहे हैं | कोई इस बात से परम प्रसन्न है कि लॉक डाउन के चलते घरेलू नौकर - चाकर नहीं आ पाने से जीवन में आत्मनिर्भरता वापिस लौटी है | अपने बहुमंजिला आवासीय घर की सबसे ऊपरी मंजिल की छत पर बरसों से नहीं गए तमाम लोगों को अब जाकर ये पता चल रहा है कि एयर कंडीशनर से निकली कृत्रिम ठंडक के मुकाबले प्रकृति प्रदत्त शीतल बयार कितनी सुखदायी है | यही नहीं घर बनवाते समय बड़े से बड़ा बनवाने की इच्छा अब जाकर एक भार महसूस हुई जब उसकी साफ़ - सफाई की जिम्मेदारी अपने कंधों पर आई |
किसी माली के भरोसे घर के प्रांगण में हरियाली बिखेरते पौधों की जीवन रक्षा करने की संवेदनशीलता भी बीते कुछ दिनों में उन लोगों के मन पर असर करती दिखाई दी जिन्हें धूल के एक कण तक से एलर्जी थी |
अनेक घरों में दैनिक आवश्यकता की कमी होने के बाद भी कोई शिकायत नहीं सुनाई देती | ऐसा लग रहा है मानों घड़ी की सुइयां उल्टी चल पड़ी हों और किसी फिल्म का फलैश बैक देखने मिल रहा हो | शाम होते ही जाम टकराने वाले भी बिना गला तर किये जी रहे हैं तो दिन भर गुटखा से मुंह भरे हुए लोग भी बिना उसके |
ये सब देखकर लगता है कि हम सभी कुछ समय पहले तक जो जीवन जी रहे थे वह कृत्रिमता और झूठे प्रदर्शन से भरा था | आज एक मित्र ने बतया कि उनकी सोसायटी के प्रांगण में लगे अशोक के वृक्ष की पत्तियां बरसात में धुली हुई प्रतीत होने लगी हैं | ये इस बात का प्रमाण है कि कोरोना नामक नियति ने वह सब निहारने का समय दे दिया जो हमारे करीब होते हुए भी हम देख नहीं पाते थे |
अनेक परिवार तो ऐसे हैं जहां बरसों बाद सभी ने भोजन की मेज पर एक साथ बैठकर सहभोज का आनन्द लेते हुए अनुभव किया कि बाहर जाकर डिनर करने से ये कहीं बेहतर था | और यही सब तो भारतीयता है जिसमें आनंदित होने के लिए धन संपदा की नहीं मन संपदा की जरूरत होती है |
किसी ने बहुत ही सही कहा कि कोई धनकुबेर भले ही स्वर्ण या रजत पात्र में भोजन करता हो किन्तु रोटी वह भी अन्न से ही बनी खाता है , जिस पर हीरे जवाहरात नहीं जड़े होते | जिसके जीवन में संतोष , शांति और बेफिक्री हो वह जमीन पर चटाई बिछाकर भी खर्राटे मारकर सो जाता है जबकि मखमल के गद्दों पर सोने वाले अनगिनत लोग नींद के इन्तजार में करवटें बदला करते हैं |
एक खालिस देसी उक्ति है :-
“ भूख न देखे बासी भात , नींद न देखे टूटी खाट |”
कुछ लोग सोच रहे होंगे कि इस आलेख का उद्देश्य आखिर है क्या और उसका उत्तर है जीवन में संतुष्टि को हासिल करना जो भौतिक संसाधनों से खरीदी नहीं जा सकती किन्तु बिना दाम दिए आसानी से हासिल हो जाती है |
कोरोना एपिसोड खत्म होने के बाद हम सबकी ज़िन्दगी में बड़े बदलाव आने वाले हैं | कुछ लोग इन्हें लेकर भय का वातावरण बनाने में लगे हुए हैं जो सर्वथा गलत और देश विरोधी कृत्य है | लेकिन मेरे विचार से ये संभावित परिवर्तन एक नई जीवन शैली से हम सबका परिचय करवाने वाले होंगे | एक ऐसी जीवन शैली जो हमारी अपनी थी लेकिन चकाचौंध के कारण हम उसे देख नहीं पाते थे | उस ज़िंदगी में ताजगी और पाकीजगी दोनों हैं , रिश्ते बनाये ही नहीं निभाए जाते हैं | ये वह जिंदगी है जिसमें सिल बट्टे पर पीसी गई कच्चे आम और पुदीना की चटनी का स्वाद है जो किसी बोतल बंद रसायन संरक्षित , जैम , जैली और सॉस में दूर - दूर तक नहीं | ये वो ज़िन्दगी है जिसमें घर में बने अचार के मसाले को गरमा गरम रोटी पर लगा उसकी रोली - पोली बनाकर खाने का वह सुख है जो आपको बचपन की निश्छलता पल भर में लौटा देगा |
ये वो ज़िन्दगी होगी जिसमें मिट्टी के घड़े के ठंडे पानी में हिन्दुस्तान की उस मिट्टी का स्वाद आयेगा जिसमें खेलकर हम बड़े हुए और जिसकी बनवाई से लाखों कुम्हारों के जीवन चलते है | किसी ने क्या खूब लिखा है :-
“ उन घरों में जहां मिट्टी के घड़े रहते हैं , कद में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं |”
भारतीय जीवन शैली में सादगी , मितव्ययता , परोपकार , अपरिग्रह और उससे मिलने वाला जो संतोष है उसे मनीषियों ने सबसे मूल्यवान बताया है | इसका सीधा सपाट कारण ये है कि ये शैली प्रकृति से प्रतिस्पर्धा नहीं बल्कि प्रेम करती है |
आधुनिकता के इस दौर में भले ही गाय पालने का रिवाज नहीं रहा हो लेकिन आज भी अधिकतर घरों में पहली रोटी गाय की ही बनती है | आइये इस अवसर का लाभ लेते हुए लौटें उस जिंदगी की तरफ जहां तकलीफों में भी आनंदित रहने का गुण घुटी में पिला दिया जाता था | बीते कुछ दिनों में प्रकृति ने एक बार फिर हमें मित्रता सन्देश भेजे हैं | गर्मियाँ दस्तक दे रही हैं लेकिन हजारों मील दूर विदेशों से उड़कर आने वाले प्रवासी पक्षी वापिस होने का नाम ही नहीं ले रहे क्योंकि अचानक आये सुखद बदलाव ने उन्हें उनके घर की याद भुला दी है | अनेक लोगों को अचानक छतों की मुंडेर पर चिड़ियों का पुनरागमन देखकर अकल्पनीय अनुभव हो रहा है |
कोरोना जब भी जाएगा और हम नए सिरे से जीवन शुरू करें तो हमें ये याद रखना चाहिए कि बची हुई ज़िन्दगी केवल आवश्यकता पूर्ति के लिए ही खर्च करें , इच्छाओं की अतृप्त वासना के लिए नहीं |
स्व. कैफ़ी आजमी का ये शेर मुझे बेहद पसंद है :-
'इंसां की ख्वाहिशों की कोई इन्तेहाँ नहीं ,
दो गज जमीं भी चाहिए दो गज कफन के बाद '
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