Wednesday 8 April 2020

कौन कहता है भारत गरीब देश है ?अनेक सम्पन्न देशों की अबादी से ज्यादा तो रोज यहाँ भंडारे और लंगर में भोजन करते हैं




 बात लगभग डेढ़ दशक पुरानी है | जबलपुर में एक व्याख्यान का आयोजन हम मित्रों ने किया | जिनमें कमल ग्रोवर और शरद अग्रवाल प्रमुख थे | उस समय विश्व व्यापार संगठन (WTO) को लेकर देश भर में बड़ा विरोध चल रहा था | वैश्वीकरण के नाम से आई उदारवादी अर्थव्यवस्था की शुरुवात पीवी नरसिम्हा राव के शासन काल में उनके वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह द्वारा की जा चुकी थी | 

उस सरकार के बाद आई तमाम सरकारों ने भी चाहे - अनचाहे उसी नीति को आगे बढाया | इनमें भाजपा की भी सरकार थी जिसका प्रेरक संगठन रास्वसंघ  और उसकी   अनुषांगिक संस्था स्वदेशी जागरण मंच भारत द्वारा उन नीतियों को अपनाये जाने के घोर विरोधी रहे | 

व्याख्यान का विषय था वैश्वीकरण का भारत पर प्रभाव | और वक्ता थे स्वदेशी के प्रखर प्रवक्ता के. एन. गोविन्दाचार्य , जो उस समय तक राजनीति से अध्ययन अवकाश लेकर वैश्वीकरण के  भारतीय अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय जीवन पर संभावित प्रभाव के शोधपरक विश्लेषण में पूरी तरह डूबे हुए थे |

 गोविन्दाचार्य जी से पुराना परिचय होने से जबलपुर में अपने एक कार्यक्रम के बाद वे हमारे आमंत्रण पर पधारे और एक बौद्धिक संगोष्ठी जैसा आयोजन सम्पन्न हुआ | अपने प्रभावशाली व्याख्यान में उनने  वैश्वीकरण के विभिन पहलुओं पर बहुत ही विस्तार से श्रोताओं को अवगत कराया | उस दौरान उनके द्वारा व्यक्त की गईं चिंताएं भले ही उदारीकरण के कारण आई मुक्त अर्थव्यवस्था के दीवानों को नागवार गुजरी हों किन्तु कालान्तर में उनकी कही प्रत्येक बात अक्षरशः सत्य साबित हुई |

 लेकिन उस व्याख्यान में भारत की मानवतावादी सामाजिक व्यवस्था के बारे में कही गई  उनकी ये बात मेरे स्मृति पटल पर  पत्थर की लकीर की तरह अंकित होकर रह गई कि यूरोप के अनेक सम्पन्न कहे जाने देशों की जितनी आबादी है उससे ज्यादा लोग तो हमारे देश में रोज भंडारों और लँगरों में निःशुल्क  भोजन करते हैं |

 
उनकी वह बात मुझे रह - रहकर सोचने को बाध्य करती रही | हालाँकि भंडारों की बाढ़ और उनके कारण होने वाली अव्यवस्था बड़ा सिरदर्द भी बन गई है | खासकर शहरों में उनके आयोजन के बाद जो गंदगी बिखर जाती है वह उनके  पीछे निहित पवित्र भावना पर पानी  फेर देती है | बावजूद इसके गोविन्द जी की उस बात से भारतीय समाज की समन्वयवादी सोच और परोपकारी प्रवृत्ति का परिचय तो मिलता ही है |

 पाठक सोच रहे होंगे कि ये कौन सा विषय निकालकर ले आये | लेकिन बीते एक पखवाड़े में पूरे देश में जो दिखाई  दे रहा है उसने भारत को गरीब या विकासशील मानने के मापदंड की वैज्ञानिकता पर सवाल उठा दिए हैं | 

कोरोना के आतंक से पूरे देश में कुछ घंटे की सूचना पर देशबंदी कर दी गई | आवागमन के सभी साधन एक झटके में बंद कर दिए गये| जो जहां था उसे वहीं ठहर जाने के लिए मजबूर हो जाना पड़ा |

 इस अप्रत्याशित कदम से करोड़ों गरीबों और दिहाड़ी श्रमिकों के अलावा छोटा - मोटा कारोबार करते हुए अपनी रोजी चलाने वालों के सामने अकल्पनीय संकट आ खड़ा हुआ | चाय - पान की दूकान से लगाकर तो आलीशान मॉल भी बंद करवा दिए गए | सभी प्रकार के कारखाने , दफ्तर सहित किसी भी प्रतिष्ठान को खोलने पर रोक लगा दी गयी | इसका सबसे ज्यादा असर हुआ उस तबके पर जिसके पास न पैसा था और न ही पेट भरने को दाना |

 समस्या बहुत बड़ी और विकट थी | मानव शास्त्र ये कहता है कि भूख इंसान का स्वभाव बदल सकती है | और फिर भारत जैसे देश में जहां एक साथ करोड़ों लोगों के सामने पेट भरने की समस्या खड़ी हो जाए ,  वहां अराजकता फैलने में भला कितनी देर लगती | और फिर बात एक - दो दिन की तो थी नहीं | लगातार 21 दिन तक ऐसे लोगों को भोजन प्रदान करना जिनसे आपका न कोई सम्बन्ध हो न ही किसी भी प्रकार का स्वार्थ , तब आज के भौतिकतावादी युग में भला ऐसे लोगों के पेट भरने का सिर दर्द कौन मोल लेगा ? लेकिन ज्योंहीं लोगों को समझ में आया कि स्थिति गंभीर है और हमारे चारों तरफ ऐसे अनगिनत लोग मौजूद हैं जिनके लिये सूखी रोटी तक बड़ी बात है उसके साथ दाल सब्जी तो छोड़िये।

 बस फिर क्या था समाज के भीतर दबे संस्कारों के बीज अंकुरित होने लगे और देखते ही  देखते परोपकार की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गयी | सरकार के अपने इंतजाम तो जो हैं सो हैं ही लेकिन समाजसेवी व्यक्तियों और संस्थाओं ने कुम्भ मेले की तर्ज पर मानो अन्नक्षेत्र ही खोल दिए | जिसकी जैसी  क्षमता उसने वैसा ही जिम्मा लिया | कोई दो को तो कोई सौ को खिलाने के काम में लीन  हो गया | घूम - घूमकर जो गरीब दिखा उसे भोजन दिया जाने लगा | झुग्गियों में जाकर राशन की आपूर्ति भी होने लगी | घुमंतू किस्म के लोगों ने जहां जगह मिली वहीं आपना डेरा जमा लिया तो उनके ठिकाने पर लोग भोजन लेकर पहुंचने लगे |

 जो खुद कुछ नहीं कर पा रहा वह शासन या किसी और द्वारा किये जा रहे परोपकार के काम में सहयोगी बनकर अपनी भूमिका का निर्वहन करने जुट गया | ये संवेदनशीलता केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं रही | सड़कों पर घूमते आवारा पशुओं से परेशान लोगों ने इस घड़ी में उन मूक प्राणियों की जरूरत को भी समझा और उनके लिए चारा , भोजन और पानी की व्यवस्था कर अपने मानव होने का प्रमाण दिया |

इस बारे में एक उल्लेखनीय वाकया ये रहा कि जबलपुर के कुछ प्रेस छायाकार नागपुर रोड पर मंडराने वाले बंदरों की खोज खबर लेने गये | आम दिनों में वहां से गुजरने वाले ट्रक चालक उनके लिए दाने वगैरह फेंकते जाते हैं लेकिन लॉक डाउन  के बाद वे बंदर भोजन देने वाले वाहनों की राह तकते रह गये |  

जब छायाकारों का दल पहुंचा तो बंदर उनकी तरफ उम्मीद से निहारने लगे | वे लोग अपने साथ अनाज के दाने सहित  जो कुछ ले गये थे वह  उन्होंने उन भूखे प्राणियों के तरफ बढ़ा दिया | लेकिन एक छोटा बन्दर राजेश मालवीय नामक छायाकार के हाथ में पानी की बोतल देख दो पैरों पर खड़ा हो गया । उसके उस अंदाज को भांपकर राजेश ने बोतल उसके   मुंह से लगा दी और उस बंदर ने उससे अपनी प्यास बुझा ली | 

प्रेस छायाकार अपने जीवन में बड़ी से बड़ी हस्तियों के चित्र उतारते हैं पर उनके चित्र कोई नहीं खींचता | लेकिन इन्सान के पूर्वज कहे जाने वाले बन्दर के बच्चे की प्यास बुझाते राजेश का चित्र साथ में गये छायाकार छोटू ने खींच लिया |

 इंसानों के साथ ही पशुओं और पक्षियों की भी चिंता करने  के ये दृश्य भारतीय समाज के उन मानवीय गुणों का ताजा प्रमाण है जिसमें समूचे प्राणी  जगत के  साथ सहअस्तित्व के  सिद्धांत के अनुसार व्यवहार करना चाहिए |

 जैसी की संभावना है लॉक डाउन अभी और बढ़ेगा | इस प्रकार समाज की सम्वेदनशीलता को अभी औरपरीक्षा देनी है | लेकिन ऐसे अवसरों पर भारत का सामूहिक सोच के साथ खड़े हो जाना ही इसकी विशेषता रही है | गरीब से गरीब आदमी भी अपना पेट भरने के साथ ही अपने पालतू कुत्ते - बिल्ली की भी फ़िक्र किये बिना नहीं रहता |

 इसी तरह भारत की परम्परागत व्यापार प्रणाली भी ऐसे संकट में समाज को एकजुट रखने में मददगार होती आई है  | किराना दुकानों पर आने वाले नियमित गरीब ग्राहक की मुसीबत को समझकर छोटा कहा जाने वाला व्यापारी सौ - पचास रु. का सामान उधार  दे देता है | हर , गली , नुक्कड़ पर चलने वाली ये छोटी - छोटी दुकानें न हों तो ऐसे मौके पर क्या मॉल और बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर उन्हें पांच रु. का भी सामान उधार दे सकते हैं ? सबसे बड़ी बात मोहल्ले पड़ोस के इन दुकानदारों और उनके ग्राहकों के बीच सहयोग और भरोसे की जो भावना है उसने भी हमारी सामाजिकता को कायम रखा है |

 लॉक डाउन के दो हफ्ते बीत जाने के बाद भी आम आदमी को यदि दैनिक जीवन की जरूरी चीजों की किल्लत नहीं हुई तो वह इन छोटे दुकानदारों के कारण | इसके ठीक उलट अमेरिका जैसे विकसित देश में लोगों को ऐसे ही काम के लिए मीलों दूर स्थित मॉल या स्टोर में लम्बी - लम्बी कतार लगानी पड़ रही है | क्योंकि वहां आर्थिक उदारीकरण ने छोटे  कारोबारी जैसी व्यवस्था को लगभग खत्म ही कर दिया |

 बात गोविन्दाचार्य जी द्वारा यूरोप के अनेक सम्पन्न देशों की जनसंख्या से ज्यादा भारत में नित्यप्रति भंडारों या लंगर में निःशुल्क भोजन करने से शुरू हुई थी | इन दिनों  देश भर के गुरुद्वारों में कुल मिलकर लाखों लोगों का भोजन रोजाना बनकर बंट रहा है | जरा , सोचिये यदि खुद मुसीबत में होने के बाद भी वैसी ही परेशानी से जूझ रहे लोगों की सहायता की ये भावना भारतीय जनमानस में न होती तब क्या देश और राज्यों की सरकारें लॉक डाउन बढ़ाने की बात सार्वजानिक विमर्श में लाने का साहस कर सकती थीं ?

 यदि कोई कोरोना संकट के दौरान अन्य देशों से भारत की तुलना करना चाहे तो भी उसे इस वास्तविकता को तो स्वीकार करना ही होगा कि हमारे देश में करोड़ों लोग गरीब ही नहीं उससे भी ज्यादा नीचे के हालात में बसर करने मजबूर हैं | और तो और चीन को अलग कर दें अमेरिका और समूचे यूरोप को मिलाने पर भी आबादी के लिहाज से भारत बहुत  बड़ा है | और इसीलिये इस विषम परिस्थिति में भूखे को भोजन और प्यासे को पानी के साथ प्राणी मात्र की चिंता करने का संस्कार ही भारत को मजबूती के साथ खड़ा रखने का आधार बन सका |

अभी भी  संकट के बादल केवल मंडरा ही नहीं अपितु गहरा भी रहे हैं | इस वजह से आगे की परीक्षा और कठिन होगी | लेकिन इसी के साथ ये बात भी गौरवान्वित करती है कि वैश्विक संकट के समय भारत दूसरे देशों की मदद करने की दरियादिली दिखाने में पीछे नहीं है |

 कोरोना का दायरा जिस तेजी से बढ़ रहा है उसी मात्रा में  समाज का दायित्व बोध भी परवान चढ़ रहा है | ये एक सकारात्मक और उम्मीद जगाने वाले संकेत है , जिनसे ये विश्वास और मजबूत हुआ है कि इस विपत्ति से निकलने के बाद का भारत और परिपक्व , और जिम्मेदार तथा और भी ज्यादा संवेदनशील होगा |

 महर्षि अरविन्द और स्वामी विवेकानंद ने 21 वीं सदी में भारत के पुनरुत्थान की जो भविष्यवाणी की थी उसकी लालिमा आकाश में महसूस की जाने लगी है | महापुरुष और योगी  त्रिकालदर्शी होते हैं और उक्त दोनों की आध्यात्मिक  साधना तो थी ही भारत के भविष्य पर केन्द्रित | 

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