Saturday 11 April 2020

वीआईपी संस्कृति भी खतरनाक वायरस आधुनिक सामंतों के पर कतरे बिना लोकतंत्र महज दिखावा



 

 बीते दिनों केंद्र सरकार ने कुछ महत्वपूर्ण फैसले लेते हुए शीर्षस्थ संवैधानिक पदों के साथ ही सांसदों का वेतन आगामी दो वर्ष के लिए 30 फीसदी कम कर दिया | कोरोना संकट की वजह से किसी भी सांसद की हिम्मत नहीं हुई इसका विरोध करने की | यदि वे ऐसा करते तब उन्हें जनता के गुस्से का सामना करना पड़ता | लेकिन इससे भी बड़ा निर्णय हुआ उतनी ही अवधि के लिए सांसदों को उनके निर्वाचन  क्षेत्र के विकास के लिए मिलने वाली विकास निधि को रोकने का | इस निर्णय पर बाकी तो चुप रहे लेकिन कांग्रेस ने जरुर  असहमति दिखाई और दबी जुबान ही सही  इसे लोकतंत्र के विरुद्ध बताया | सांसदों को अपने क्षेत्र के विकास हेतु 1993 में इस निधि की व्यवस्था की गयी थी | प्रारंभ में ये राशि कम थी लेकिन धीरे - धीरे  इसे 5 करोड़ तक बढ़ा दिया गया | सांसदों की देखा सीखी राज्यों में विधायकों के लिए  भी इसी तरह की विकास निधि स्वीकृत की गयी | 

सैद्धांतिक दृष्टि से  देखें तो ये एक अच्छी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र में किसी विकास कार्य या सामुदायिक आवश्यकता के किसी प्रकल्प  के लिए अपने विवेक से धनराशि उपलब्ध करवा सकता है | इस व्यवस्था से लाभ भी हुआ | अनेक सांसदों और विधायकों ने इसका उपयोग योजनाबद्ध तरीके से करते हुए अच्छा काम किया जिसकी प्रशंसा भी हुई लेकिन पूरे देश पर नजर डालें तो बड़ी संख्या ऐसे सांसदों - विधायकों की रही जो इसे खर्च करने के बारे में बेहद उदासीन रहे |

 समय - समय पर इसके आंकड़े आते भी रहे जिनके बाद इसे बंद करने की मांग भी उठी | कुछ  लोगों ने अदालत का दरवाजा भी खटखटाया लेकिन  रोचक बात ये रही कि कुछ सांसदों ने  ही इसे रोक देने का सुझाव दे डाला | 

केंद्र सरकार सांसदों  को मिलने वाली सुविधाओं में कटौती करने का मन काफी पहले से बना चुकी थी | सबसे पहले पूर्व सांसदों एवं मंत्रियों द्वारा सरकारी बंगलों में कब्जा किये रहने पर रोक लगाई गयी |  यदि निश्चित अवधि में वे उसे  खाली करके नहीं गये तो उनसे बाजार दर से किराया वसूलने की व्यवस्था लागू कर दी गयी | इसी तरह सांसदों द्वारा संसद में प्रस्ताव पारित करते हुए अपने वेतन और भत्ते बढ़ाने की प्रथा बंद की गयी | लालबत्ती का उपयोग तो पहले ही बंद किया जा चुका था |

कोरोना संकट ने केंन्द्र सरकार को ये अवसर दे दिया कि सांसदों का वेतन कम करते हुए क्षेत्र विकास निधि के अंतर्गत मिलने वाली राशि दो वर्ष के लिए निलम्बित रखते हुए कोरोना राहत के काम पर लगाई जाए | एक मोटे अनुमान के अंतर्गत ये रकम तकरीबन 7900 करोड़ होगी | वेतन में 30 फीसदी की कटौती से होने वाली बचत इसके अतिरिक्त रहेगी | 

किसी और समय केंद्र के इस फैसले का जबरदस्त विरोध हुआ होता लेकिन वक़्त की नजाकत को देखते हुए कांग्रेस ने ज्यादा कुछ नहीं कहा | ये  भी हो सकता है कि शुरुवाती विरोध के बाद उसे अपनी भूल का एहसास हुआ हो |

 लेकिन इसके बाद पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को एक पत्र भेजकर अनेक सुझाव दे डाले | इनमें कोरोना सबंधी छोड़कर शेष सभी तरह के सरकारी और सार्वजनिक उपक्रमों के विज्ञापनों पर 2 वर्ष  तक पूरी तरह रोक  , के साथ ही राष्ट्रपति से लेकर नौकरशाहों तक की विदेश  यात्राओं , सौन्दर्यीकरण प्रकल्पों , नये संसद भवन के निर्माण जैसे खर्चो पर प्रतिबन्ध लगाकर बचने  वाले पैसे को कोरोना से उत्पन्न जरूरतों विशेष रूप से चिकित्सा नेटवर्क को मजबूत बनाने पर खर्च करना मुख्य था | श्रीमती गांधी ने ये मांग भी कि पीएम केयर्स नाम से शुरू राहत कोष की राशि पहले से चल रहे प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष में समायोजित कर इस नये फंड को बंद कर दिया जाए | उन्होंने सांसदों के वेतन में 30 प्रतिशत की कमी किये जाने का स्वागत किया लेकिन क्षेत्र विकास निधि निलम्बित किये जाने का जिक्र तक नहीं किया |

 श्रीमती गांधी के उक्त सुझावों को लेकर छुटपुट बहस भी शुरू हुई | विशेष रूप से सरकारी विज्ञापनों पर रोक को लेकर पक्ष विपक्ष में काफी लिखा गया | लेकिन चौंकाने वाली बात रही कि श्रीमती गांधी ने अपनी पार्टी के शासन वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस आशय  का पत्र नहीं लिखा | सरकारी खर्चों में  कटौती करने विषयक निर्देश भी कांग्रेस सरकारों को दिए जाने की जानकारी अब तक तो नहीं आई |  

विदेश यात्राओं के अलावा शेष  मदों पर खर्च  रोककर कोरोना से लड़ने हेतु संसाधन जुटाने पर भी किसी को आपत्ति नहीं होगी | लेकिन पीएम केयर्स को बंद करने का उनका सुझाव जरूर विवाद का विषय है और इसका चूंकि खर्चों में कमी से कोई सम्बन्ध नहीं है इसलिये इसे ज्यादा तवज्जो नहीं मिली |

 लेकिन केंद्र द्वारा सांसदों के वेतन और विकास निधि के बारे में जो भी फैसले लिए गए और उनके बाद श्रीमती गांधी ने पत्र द्वारा जो सुझाव दिए उनसे आम जनता के बीच निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर होने वाले शाही खर्च के अलावा सरकारी धन की बेरहमी से बर्बादी को लेकर एक विमर्श तो शुरू हो ही गया | यद्यपि इस समय सर्वोच्च प्राथमिकता किसी तरह के राजनीतिक या अन्य विवाद से बचते हुए केवल इस आपदा से देश को निकालना है लेकिन जब बात निकल ही चुकी है तब इस बारे में बौद्धिक स्तर पर वैचारिक मंथन शुरू होना बुरा नहीं , बल्कि अच्छा है |

 और फिर सवाल जनप्रतिनिधियों का ही क्यों , अंग्रेजी राज की  अवशेष बनी हुई नौकरशाही पर  जनता के पैसे की बर्बादी पर भी उठना चाहिए | इसे और भी सरल शब्दों में व्यक्त करें तो वीआईपी संस्कृति नामक  सामंतशाही की विदाई के बारे में कोई ठोस निर्णय लेकर उसे अमल में लाने का इससे बेहतर समय नहीं मिलेगा |

 आजादी के बाद गोरी चमड़ी वाले अंग्रेज चले गए | 500 से अधिक रियासतों का भारतीय संघ में विलय किये जाने से राजा - महाराजा भी सत्ता विहीन हो गये | 1969 में उनके प्रिवीपर्स छीनकर उनकी बची खुची राजसी हैसियत भी समाप्त कर दी गई | लेकिन उसके बाद देश में नव सामंतों की बड़ी संख्या सामने  आने लगी | ये कहने को तो आम जनता के सेवक होते हैं लेकिन इनकी मानसिकता में राजशाही का अंश मौजूद है | साधारण स्थितियों से उठकर एक व्यक्ति ज्योंही सत्ता के गलियारों में पहुँचता है वह खुद को किसी रियासत के नवाब से कम नहीं मानता | हालाँकि इनमें अपवाद भी होते हैं लेकिन ऐसे लोगों की  संख्या इतनी कम है कि उनकी आवाज कोई सुनता ही नहीं |

 

राष्ट्रीय राजनीति के जिन तीन विचारकों की वसीयत पर आधारित होने का दावा किया जाता है  वे हैं महात्मा गांधी , राम मनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय | ये तीनों भारतीय संस्कृति और सामजिक ढांचे के  अनुरूप सत्ता प्रतिष्ठान का स्वरूप चाहते थे | सादगी , ईमानदारी , भारतीय  जीवन  मूल्यों के अनुरूप सत्ताधीशों  का आचरण और आम जनता के कल्याण के लिए समर्पित प्रशासनिक व्यवस्था उक्त  विभूतियों के सपनों के भारत में अनिवार्य रूप से होनी थीं |

 लेकिन अंगेजी राज भले चला गया पर अपनी उस मानसिकता के बीज यहाँ की धरती में  बिखेर गया जो  सत्ता संचालन से जुड़े लोगों को राजा और जनता को गुलाम समझती है | आजादी  के  कुछ बरस बाद तक तो ऐसा लगा कि स्वाधीनता की लड़ाई  के दौरान दिखाए गये सपनों को साकार करने की प्रतिबद्धता नये भारत भाग्य विधाताओं में है | लेकिन संविधान सभा के बाद ज्योंही पहला आम चुनाव हुआ त्योंही नव सामंतशाही ने अपने पाँव जमाना शुरू किया जिससे  गरीब तो गरीबी रेखा से नीचे धकेला जाता रहा और वीआईपी में भी एक नया श्रेष्ठि वर्ग जन्मा जिसे वीवीआईपी कहा जाने लगा |

 सुरक्षा के नाम पर शासक और शासित के बीच एक दीवार खडी कर दी गई  जो समय के साथ और  मजबूत होती जा रही है | उनकी शह पाकर नौकरशाह भी बीरबल वाली भूमिका में आते गये जो अपने बादशाह की हर इच्छा पूरी करने के लिए आम जनता का भयादोहन और शोषण करने की कला में पारंगत है |

 ऐसा नहीं है कि देश में योग्यता और क्षमता केवल नेता और नौकरशाहों के पास ही है लेकिन इन्होंने उसे प्रमाणित करने के सर्वाधिकार अपने कब्जे में ले लिए हैं | यही वजह है कि आज उनका गठजोड़ समूची व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठ गया है |

 कोरोना संकट ने भारतीय समाज को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां से समाज की सोच में आमूल परिवर्तन होना तय है | पारिवारिक  से लेकर व्यवसायिक व्यवहार तक में बदलाव की चर्चा चल पड़ी है | ये एक ऐसे मौन क्रांति कही जा सकती है  जिसका नेतृत्व न तो कोई व्यक्ति कर  रहा है और न ही कोई विचारधारा | इस पर किसी तरह का ठप्पा नहीं है  , क्योंकि ये स्वस्फूर्त बदलाव जो है | यह  किसी के समर्थन  और संरक्षण का भी मोहताज नहीं है और इसके पीछे किसी का  निहित स्वार्थ नहीं है |

 केंद्र सरकार द्वारा सांसदों के वेतन घटाना और विकास निधि को निलम्बित करना एक आधार बन सकता है उस वीआईपी संस्कृति की विदाई का जिसके चलते देश का हर जिम्मेदार व्यक्ति देशभक्त होते हुए भी ये कहने से नहीं चूकता कि अंग्रेज कई मामलों में इनसे बेहतर थे |

 समय आ गया है जब भारत की जनता को नेता और नौकरशाहों के मकड़जाल से मुक्त करवाकर ऐसी व्यवस्था का जन्म हो जिसमें शासक और शासित के बीच चौड़ी खाई न रहे  | एक तरफ तो देश के आम नागरिक के लिए सरकारी अस्पताल में कुत्ते के काटने पर लगाया जाने वाला  रैबीज का इन्जेक्शन तक नहीं रहता वहीं दूसरी तरफ नेताओं को विदेश जाकर सरकारी खर्च पर करोड़ों का इलाज करवाने की सुविधा है | उनके अधीनस्थ नौकरशाह भी किसी राज दरबार के कृपापात्र से कम नहीं रहते |

 जिस देश में किसी गरीब के परिजन की लाश अस्पताल से घर तक पहुँचाने के  लिए शववाहन  नसीब नहीं होता वहां किसी चुने हुए जनप्रतिनिधि के लिए एयर एम्बुलेंस बुलाने में देर नहीं लगती | दिल्ली में नए संसद भवन के निर्माण पर खर्च होने वाली भारी -  भरकम  राशि के औचित्य पर सवाल उठानना गलत नहीं है लेकिन पिछड़ों , दलितों और आदिवासियों की नुमाईन्दगी  करने वाले लुटियंस की दिल्ली  में जिस शाही अंदाज में रहते हैं वह गांधी , लोहिया और दीनदयाल की आशा और  आकांक्षाओं के अनुरूप तो नहीं है |

कोरोना ने देश को जिस हालत में लाकर खड़ा कर दिया है उसमें आगे का रास्ता तय करना आसान नहीं है | आजादी के बाद देश में राजनीतिक परिवर्तन तो काफी हुए जिससे नीतियों में भी सिरे से बदलाव देखने मिले | वैचारिक प्रतिबद्धता को सरे बाजार नीलाम होते देखना नई  बात नहीं रही |  सत्ता की खातिर सिद्धांतों की होली तो आये दिन जला करती है |

 सवाल ये है कि सत्ता का आकर्षण आखिर क्या है ? इसी तरह अधिकतर युवाओं की महत्वाकांक्षा घूम - फिरकर उसी नौकरी पर जाकर क्यों केन्द्रित हो जाती है जिसके साथ अंगरेजी राज का रुतबा जुड़ा हुआ है | अब जबकि बात एक नए भारत और बदले हुए सामजिक व्यवहार की हो रही है तब क्या राजतंत्र की याद ताजा करती वीआईपी संस्कृति की विदाई नहीं होना चाहिए ?  

कुछ साल पहले अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सरकारी अफसरों के बच्चों को सरकारी शालाओं में पढ़ाने का निर्देश दिया | देश के अनेक हिस्सों से ऐसी खबरें भी आईं जिनमें किसी जिलाधिकारी ने अपनी सन्तान को सरकारी विद्यालय में दाखिला दिलवाया | ऐसी ही अपेक्षा इलाज को लेकर होती है | नेता और आला अधिकारियों को महंगे निजी और कार्पोर्रेट शैली के अस्पतालों में इलाज की सहूलियत  मिलती है और आम आदमी सरकारी अस्पताल में धक्के खाता है | यहाँ तक कि रोजाना उपदेश झाड़ने वाले परम सम्मानीय न्यायाधीश तक निजी अस्पतालों की सेवाएँ लेते हैं |

 इस देश में जबर्दस्त विरोधाभास देखने मिलता है | पब्लिक स्कूल कहलाने वाले विद्यालय आम पब्लिक की हैसियत के बाहर हैं | अंग्रजों द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था में बदलाव के नाम पर चेहरे और नाम ही बदले हैं  , बाकी अधिकतर तो वही है जो आजादी से पहले था | नरेंद्र मोदी ने जिस तरह सांसदों के वेतन और विकास निधि में कटौती की उससे आम जनता बहुत  प्रसन्न है | सोनिया जी ने जो सुझाव दिए वे भी इसी दिशा में कदम है | लेकिन जब तक राजधानियों में सत्ता से जुड़ी शाही सुविधाएँ बंद नहीं होतीं तब तक लोकतंत्र मजाक बना रहेगा | दशकों तक दैनिक वेतन भोगी रहने के बाद रिटायर होने वाले कर्मचारी का बुढ़ापा कैसे कटता होगा ये  सोचने वाली बात है | लेकिन एक बार संसद और विधानसभा के भीतर कदम रख लेने वाले जनसेवक को भूतपूर्व होते ही जीवन भर पेंशन  , मुफ्त इलाज और यात्रा जैसी सुविधा कहां का प्रजातंत्र है ? आज विश्वविद्यालयों तक में संविदा नियुक्ति पर प्राध्यापक रखे  जा रहे हैं | लेकिन एक बार चुनाव जीतने के बाद ज़िन्दगी भर के लिए वीआईपी बन जाना क्या सामंतशाही का प्रमाण नहीं है ?

बेहतर हो परिस्थितियों के मद्देनजर वीआईपी संस्कृति नामक इस वायरस के विरुद्ध भी अभियान शुरू किया जावे | इसे मिलने वाले  जनसमर्थन का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता | कोरोना संकट ने हमें जबर्दस्त तनाव और परेशानी में डाल दिया है किन्तु इस विपदा में भी देश  के दूरगामी हितों  के निर्णय लिए जा सकते हैं |

 कोरोना के बाद का हिन्दुस्तान यदि वीआईपी संस्कृत्ति से मुक्त हो सका तो भले ही ये उनके अनुयायियों को जरा भी रास ना आये लेकिन गांधी , लोहिया और दीनदयाल की आत्मा को इससे सच्ची शान्ति मिलेगी |

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