Saturday 4 April 2020

कोरोना में छिपे संदेश और संकेत को समझना ज़रूरी



कोरोना वायरस से लगभग पूरी दुनिया पीडि़त हो गयी है। कुछ देशों तक इसका प्रकोप भले ही नहीं पहुंचा लेकिन कमोबेश अधिकतर में उसका पदार्पण हो चुका है। इसके परिणामस्वरूप सामान्य जनजीवन ठहर गया है। लोग घरों तक सीमित हैं। सड़कों पर यातायात न के बराबर है। वाहनों की कतारें नजर नहीं आती। न कहीं जाम है न ही पार्किंग की किल्लत। ट्रक, रेल, बस, हवाई जहाज सभी रुके पड़े हैं या उनका परिवहन बेहद सीमित हो गया है। कल-कारखानों में भी उत्पादन नहीं हो रहा। दुकानें, शॉपिंग माल, मल्टीप्लेक्स बंद पड़े हैं। लॉक डाउन ने लोगों को घरों की चहार दीवारी में सिमट जाने मजबूर कर दिया है। 21 वीं सदी की तेज गति से दौडऩे वाली दुनिया का इस तरह रुक जाना एक अकल्पनीय अनुभव है। क्या होगा इसका आभास कोई भी नहीं कर पा रहा। फिलहाल तो पूरा ध्यान कोरोना  से लडऩे पर केन्द्रित है। मानव जाति पर लगभग 100 वर्ष बाद इतना बड़ा खतरा आया है। कहते हैं पिछली महामारी में 5 करोड़ लोग जान से हाथ धो बैठे थे। लेकिन तब चिकित्सा विज्ञान और संचार माध्यम इतने विकसित नहीं होने से आपदा का मुकाबला करने की क्षमता भी नहीं थी। कोरोना के आने तक दुनिया काफी आगे बढ़ चुकी है। खबरों और जानकारियों का आदान-प्रदान पलक झपकते ही सम्भव है। यही वजह है कि महामारी से बचने और लडऩे के तौर-तरीके खोजने में तनिक भी समय खराब नहीं किया गया। ये भी कहा जा रहा है कि यदि चीन ने कोरोना के बारे में  शुरुवाती जानकारी देने में देर नहीं की होती तब शायद आपदा  इतनी गम्भीर नहीं हो पाती और उसका फैलाव भी रोका जा सकता था। लेकिन जैसे ही जानकारी बाहर आई वैसे ही पूरी दुनिया ने उसकी भयावहता को समझते हुए इस अदृश्य दुश्मन से मुकाबला  शुरू कर दिया। आये दिन इस आशय की  खबरें आती हैं कि कोरोना का टीका बना लिया गया है और जल्द ही उसकी आपूर्ति दुनिया भर में शुरू  हो सकेगी। कोरोना के इलाज की दवाइयां भी खोज ली गईं और उससे बचाव का सबसे कारगर तरीका मानव का एक दूसरे से शारीरिक दूरी बनाये रखना मान लिया गया। सोशल डिस्टेंसिंग नामक इस नये तरीके के साथ ही लॉक डाउन नामक व्यवस्था भी लागू कर दी गई। केवल अति आवश्यक कार्य से ही घर से बाहर आने के अनुमति इसके अंतर्गत है और वह  भी सीमित अवधि के लिए। ये एक अभूतपूर्व स्थिति है जिसकी कल्पना उन लोगों तक ने नहीं की थी जो समय-समय पर दुनिया के नष्ट होने की भविष्यवाणी किया करते थे। हालीवुड के वे फिल्म निर्माता जो स्टार वार जैसी काल्पनिक पटकथा पर भव्य फिल्में बना चुके हैं, उनके दिमाग में भी कोरोना जैसी महामारी की संभावना नहीं आई। लेकिन अब ये एक ऐसी  वास्तविकता है जिसने फिलहाल तो ज्ञान-विज्ञान और इंसान तीनों का घमंड तोड़कर रख दिया। एक अति सूक्ष्म अदृश्य वायरस के आगे पूरी दुनिया जिस तरह असहाय होकर रह गई उसने एक नई जीवन शैली की बुनियाद भी रख दी है। यद्यपि विकास की वासना के वशीभूत मनुष्य कोरोना से मुक्त होते ही फिर उसी ढर्रे पर लौट जाएगा, इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन ये भी सही है कि लॉक डाउन के दौरान हर व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों से परिचित और अभ्यस्त  हो गया जो उसके लिए एकदम नई थीं। भले ही अब संयुक्त परिवार गिने-चुने रह गये हों लेकिन हम दो हमारे दो वाले छोटे परिवारों में भी सहजीवन का जो नया अनुभव बीते कुछ दिनों में हुआ उसका प्रभाव दूरगामी हो सकता है  चूंकि आगे भी भीड़भाड़ से बचने की एहतियात बरतनी होगी इसलिए पारिवारिकता की भावना और जुड़ाव लोगों की मानसिकता का हिस्सा बन जाएगा। सबसे बड़ी बात ये देखने में आई कि इस दौरान न सिर्फ भारत अपितु पूरी दुनिया का पर्यावरण पूरी तरह से अपेक्षित मानदंडों के अनुरूप आ गया। आज की एक खबर ने वाकई बहुत उत्साहित किया और वह है जलंधर से  200 किमी दूर स्थित धौलाधार पर्वत का नंगी आँखों से दिखाई देना। ये इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि वातावारण में छाया धुंध पूरी तरह खत्म हो चुका है। इसी तरह दिल्ली जैसे सबसे प्रदूषित महानगर में स्वच्छ नीला आसमान देखना संभव हो सका। पूरी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी आने से जल , जंगल , जमीन सभी चैन की सांस ले रहे हैं। प्रकृति की खूबसूरती बयाँ करते पहाड़ भी सैलानियों की भीड़ और उनके वाहनों से निकलने वाले धुंए से मुक्ति के कारण अपने अस्तित्व को लेकर निश्चिन्त होने लगे हैं। ये एक आदर्श स्थिति है। लेकिन सवाल उठता है कि कोरोना से मुक्त होते ही  क्या मानव जाति दोबारा ऐसे ही आत्मसंयम का पारिचय देगी या फिर उसी आपाधापी भरी जि़न्दगी की तरफ  लौट जायेंगे जिसने प्रकृति और पर्यावरण को जबर्दस्त नुकसान पहुँचाया और हमारी साँसों को धीमा जहर खींचने को मजबूर किया। सवाल और भी हैं। कोरोना के बाद इससे भी खतरनाक आपदा आ सकती है क्योंकि मनुष्य अपनी सीमा का उल्लंघन करते हुए वह सब जानने और हासिल करने का दुस्साहस करने  पर आमादा है  जिसकी उसे कोई जरूरत नहीं थी। भारतीय संस्कृति में जिस जीवन शैली को प्रातिपादित किया गया वह प्रकृति के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं अपितु सामंजस्य पर जोर देती है। कोरोना के बाद की जि़न्दगी यदि उसी रास्ते पर चले तब इस आपदा से भी उपलब्धि हासिल की जा सकेगी। इस महामारी में छिपे सन्देश और  संकेत को उनके सही अर्थों में समझ लेना ही बुद्धिमत्ता होगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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