Sunday 12 April 2020

बिना स्वास्थ्य के समृद्धि किस काम की ? डाक्टरों की फ़ौज खड़ी करने के युद्धस्तरीय प्रयास जरूरी



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 कोरोना संकट के इस दौर में चिकित्सा सुविधाओं की कमी  का मामला बड़ी ही प्रमुखता से उठ खड़ा हुआ है | ज्योंही इस बीमारी का शोर मचा त्योंहीं मास्क और सेनेटाईजर की कमी हो गई | ऐसे हालात में भी मुनाफाखोर बाज नही आये | लोगों से ज्यादा दाम वसूलने की शिकायतें आम हो गई | खैर, जल्द ही उनकी कमी दूर हुई तो चिकित्सकों और उनके  सहयोगियों द्वारा संक्रमण से बचने के लिए पूरा शरीर ढंकने वाली ड्रेस की कमी का हल्ला उड़ा | फटाफट उसकी भी तैयारी हुई और अब दावा किया जा रहा है कि उसका उत्पादन तेज गति से किया जा रहा है | 

फिर समस्या आई अस्पतालों के साथ ही संदिग्ध मरीजों को आइसोलेशन वार्ड में रखने की | आनन फानन में उसकी व्यवस्था भी की गई | चूँकि अस्पतालों  में इस हेतु पर्याप्त  व्यवस्थाएं नहीं थीं इसलिए खाली पड़े सरकारी भवनों में इंतजाम  किये जाने के अलावा रेल के खाली डिब्बों को इस हेतु विशेष तौर पर तैयार किया गया | इसी बीच जब कोरोना का संक्रमण और फैला तब जांच हेतु लेबोरेटरीज  का अभाव सामने आया | सरकार ने तेजी दिखाते हुए निजी क्षेत्र की लैब को भी  अधिकृत करते हुए वह बाधा जैसे - तैसे  दूर की लेकिन तब तक जाँच में प्रयुक्त होने वाली किट की किल्लत महसूस की जाने लगी  | जितनी किट थीं वे तो जल्द ही खलास  हो गईं | विदेशों  से आयात किये जाने में काफी समय लगता  इसलिए हमारे वैज्ञानिकों ने अथक परिश्रम करते हुए सस्ती और जल्द परिणाम देने वाली किट तैयार कीं और उनकी आपूर्ति भी होने लगी |

 लेकिन कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या बीते कुछ दिनों से जिस गति से आगे बढ़ी और मुम्बई में स्थित धारावी नामक एशिया की सबसे बड़ी झोपड़ पट्टी में संक्रमण बढ़ने लगा उसके बाद से कोरोना की तीसरी पायदान अर्थात सामुदायिक संक्रमण का खतरा महसूस किया जाने लगा | इसी तरह देश  में जिन जगहों को कोरोना का हॉट स्पाट घोषित कर बेहद  संवेदनशील मानते हुए सील भले कर दिया गया किन्तु चिंता का विषय है कि अभी तक वहां के सभी निवासियों की जांच किये जाने की व्यवस्था नहीं हो सकी | इसकी एक मात्र वजह जाँच किट की कमी से भी बढकर जाँच करने वाली लेबोरेटरीज की अपर्याप्त क्षमता है | इसके चलते यदि किट उपलब्ध हो भी जाएं तब भी बड़े पैमाने पर जांच करना संभव नहीं होगा | कहते हैं दक्षिण कोरिया ने अपने सभी नागरिकों की जाँच तेजी से करते हुए संक्रमित लोगों का पता करते हुए स्थिति को अनियंत्रित  नहीं होने दिया |

 इस बारे में एक बात ये भी कही जा रही है कि जब तक प्रभावित इलाके के सभी निवासियों की जांच नहीं हो जाती तब तक वहां संक्रमण फैलने का खतरा बना रहता है | लेकिन आज की तारीख में भारत में ऐसा कर पाना फिलहाल तो बहुत ही कठिन लग रहा है और यही कारण है कि 14 अप्रैल से लॉक डाउन हटाये जाने की उम्मीद पूरी तरह खत्म हो गई |

 कुछ राज्यों ने तो प्रधान्मन्त्री द्वारा की जाने वाली अधिकृत घोषणा की प्रतीक्षा किये बिना ही लॉक डाउन को 30 अप्रैल तक के लिए बढ़ा ही दिया | लेकिन तमाम सकारात्मक आश्वासनों के बाद भी ये प्रश्न तो उठता ही है कि आखिर कब तक देश को घरों में बंद किया जा सकता है ? सवाल और भी होंगे लेकिन मुद्दे की बात ये हैं कि कोरोना के बहाने हमें अपने देश की चिकित्सा सुविधाओं की जमीनी हकीकत का पता चल गया | वैसे भी देश के बजट में चिकित्सा व्यय प्रति व्यक्ति तुलनात्मक दृष्टि से बहुत  ही कम है | इसी तरह प्रति एक हजार लोगों पर चिकित्सक और अस्पताल की व्यवस्था भी देश के आकार और विकास के आंकड़ों के लिहाज से शर्मनाक ही कही  जायेगी |

 संभागीय मुख्यालयों की बात छोड़ दें तो अन्य जिलों के सरकारी अस्पतालों में शायद ही कोई मानदंडों पे खरा उतरता हो | डाक्टरों की समुचित संख्या  , दवाइयां  , पैरा  मेडिकल स्टाफ , जरूरी उपकरण , जांच हेतु लैब , एक्सरे जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी वहां उपलब्ध नहीं हैं | सीटी स्कैनिंग  और एमआरआई मशीन तो कल्पना के बाहर की बात हैं | उस लिहाज से कोरोना तो एक अकल्पनीय स्थिति है लेकिन किसी  जिले में मौसमी संक्रामक रोग फैलने पर ही हाहाकार मच जाता है |

 
ऐसा नहीं  है कि देश में उच्च स्तरीय चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं लेकिन उनका दायरा बड़े शहरो  और बड़े लोगों तक ही सीमित है | केंद्र सरकार के कर्मचारियों को मिलने वाली चिकित्सा सुविधा के अलावा मोदी सरकार ने गरीबों के लिए 5 लाख रु. तक की निःशुल्क चिकित्सा प्रदान की है | इनकी वजह से इस वर्ग को काफी राहत मिल गयी लेकिन ये भी उतना ही सही है कि ये कर्मचारियों और जनता से ज्यादा निजी अस्पतालों की कमाई का बड़ा जरिया बन गया |

 जहां तक बात महानगरों और अन्य बड़े शहरों में बने निजी अस्पतालों की है तो इसमें अपने पैसे खर्च कर इलाज करवाने वाले धनकुबेर ही होते हैं या फिर वे नेता गण जिनके इलाज का खर्च सरकार वहन करती है | ये चलन देखते - देखते और शहरों में भी फैला जहां निजी अस्पतालों के रूप में चिकित्सा उद्योग ने अपने पैर पसारते हुए पैसा कमाने का  नया रास्ता खोल दिया |

 हालाँकि देश के शीर्षस्थ औद्योगिक घरानों के साथ ही अनेक न्यासों ने भी चिकित्सालय प्रारंभ किये जिनमें कुछ तो अपने सेवा भाव और परोपकारी सोच के  कारण बेहद सम्मानित हैं लेकिन अधिकतर ने पूरी तरह पैसे कमाने के उद्देश्य से काम किया |

जैसे - जैसे निजी क्षेत्र ने चिकित्सा जगत में सरकारी एकाधिकार को चुनौती देते हुए अपना प्रभुत्व जमाया वैसे - वैसे चिकित्सा भी लाभ कमाने का जरिया बन गई | अब अधिकतर अस्पताल की पहिचान उसमें कार्यरत चिकित्सकों से नहीं बल्कि उसके मालिक से होने लगी है | बड़ी संख्या में ऐसे लोगों ने अस्पताल खोले जिन्हें चिकित्सा के बारे में कोई ज्ञान या अनुभव नहीं था |

 व्यवसायिक सोच बढ़ी तो सरकारी अस्पतालों में अच्छे डाक्टरों का अभाव होने लगा | सरकारी मेडिकल कालेज से पढ़कर निकले कितने युवा अब सरकारी अस्पतालों में सेवा देना पसंद करते हैं ये महत्वपूर्ण प्रश्न है |

 कहने का आशय ये है कि 135 करोड़ लोगों को स्वस्थ रखने को लेकर  हमारे देश में किसी ठोस योजना पर न पहले कभी काम हुआ और न आज हो रहा है | कोरोना ने इस बारे में सोचने और कुछ करने का अवसर हमें बरबस प्रदान  किया है |

राजधानी दिल्ली में एम्स खुलने के अनेक  दशक बाद देश के विभिन्न हिस्सों में नए एम्स खोलने के बारे में सोचा गया । उनमें से अनेक अस्तित्व में आये भी हैं । लेकिन आज भी देश का ऐसा बड़ा हिस्सा है जहाँ  आम आदमी के लिए  संतोषजनक चिकित्सा सुविधा एक सपना है | इसका सबसे बड़ा कारण है चिकित्सकों की कमी और उसके पीछे है चिकित्सा शिक्षा की दयनीय स्थिति | 

बीते कुछ दशकों से देश के अनेक हिस्सों में निजी मेडिकल कालेजों की बाढ़ तो आई किन्तु वे भी अस्पतालों की तरह से ही पैसा कमाने की मशीन बनकर रह गये |।चूँकि उनमें प्रवेश के लिए मोटी रकम खर्च होती है इसलिए वहां से डिग्री  लेकर निकलने के बाद डाक्टर साहब पहले दिन से ही चौतरफा प्रहार शुरू कर देते हैं | आलोचना होने पर ये सुनने भी मिलता है कि लाखों - करोड़ों खर्च करने के बाद क्या महज जनसेवा करेंगे ? तार्किक आधार पर बात सही भी है | लेकिन वे अकेले नहीं हैं | चिकित्सा अब एक औद्योगिक समूह बन चुका है | कटु आलोचना करने वाले इसे माफिया भी कह देते हैं | डाक्टर फीस में जो कमाता है वह तो कहीं लगता ही नहीं | जैसी कि आम चर्चा है कि इस व्यवसाय में कमीशनखोरी का नंगा नाच होता है जिसे स्पष्ट  करना जरूरी नहीं है |

 ले देकर सवाल वही आता है कि हमारे देश में योजना बनाने वालों ने ये भी कभी सोचा कि बढ़ती आबादी के अनुपात में वैश्विक मानकों के अनुसार डाक्टर तैयार क्यों नहीं किये गये ? और तो और षड्यंत्र  पूर्वक भारत की परम्परागत चिकित्सा प्रणाली का मजाक बनाकर उसे उपेक्षित किया गया |

 बीते कुछ सालों में वोटों की राजनीति के कारण सत्ता में बैठे लोग छोटे - छोटे  जिलों में मेडीकल कालेज खोलने का ऐलान कर देते हैं | जैसे - तैसे वे आकार तो  ले लेते हैं लेकिन उनमें पढ़ाने वाले सुयोग्य शिक्षक उपलब्ध नहीं होने से शिक्षा  में  गुणवत्ता का अभाव साफ़ नजर आता है | 

मेडीकल कौंसिल के निरीक्षण के  दौरान मान्यता बचाने की खातिर दूसरे कालेजों से प्राध्यापक ट्रांसफर कर बुला तो लिए जाते हैं लेकिन ज्योंहीं निरीक्षण टीम वापिस लौटती है वे अपनी पुरानी जगह जाने हाथ पाँव मारने लगते हैं | और यदि उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई तो या तो लम्बे अवकाश पर निकल लेते हैं या फिर नौकरी छोड़कर किसी निजी अस्पताल से जुड जाते हैं |

 यदि छोटी - छोटी जगहों पर मेडीकल कालेज खोलने की बजाय पहले से चल रहे कालेजों में शिक्षकों की संख्या बढाकर ज्यादा से ज्यादा छात्रों को पढ़ाने की व्यवस्था की जाए तो नया मेडीकल कालेज खोलने से  बहुत कम खर्च में ज्यादा डाक्टर देश को दिए जा सकते हैं | लेकिन इतनी सी बात हमारे नीति निर्माताओं को समझ में नहीं आती ये आश्चर्यजनक है | कई बार ये लगता है कि इसमें भी निहित स्वार्थ काम करते हैं क्योंकि निजी क्षेत्र के मेडीकल कालेजों के मालिक देखने में भले  ही कोई और हों लेकिन परदे के पीछे इनमें राजनेताओं की प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सेदारी जगजाहिर  होती है |

 कोरोना संकट ने देश को जिन बातों के बारे में गम्भीरता  से सोचने की लिए बाध्य किया उनमें देश के भीतर  डाक्टरों  का अभाव भी है | इन दिनों सैकड़ों डाक्टर ऐसे हैं जो अनेक हफ्तों से अपने घर नहीं जा सके और गये भी तो कुछ देर में लौट आये क्योंकि कोरोना मरीजों को हर पल देखरेख की जरूरत है |

 डाक्टरी की शिक्षा के वर्तमान ढांचे में भी सिरे से बदलाव जरूरी हो गए हैं | लम्बी अवधि के अतिरिक्त कुछ अपेक्षाकृत  छोटे पाठ्यक्रम लागू कर ऐसे चिकित्सक भी तैयार किये  जा सकते हैं जो भले ही विशेषज्ञ न हों किन्तु उनके जरिये समाज के हर वर्ग  तक प्राथमिक चिकित्सा सुविधा तो कम से कम पहुंचाई ही जा सके |

 कहावत है बुद्धिमान चोट खाकर सम्भल जाता है  | कोरोना ने हमारे चिकित्सा तंत्र की कमियों और कमजोरियों को जिस तरह अनावृत्त किया है वह महज आलोचना का नहीं वरन आत्मचिंतन का गम्भीर विषय है | 

बावजूद इसके निराश होने की कोई जरूरत नहीं है | जो भी  और जैसा भी है उसी में हमारे चिकित्सक और उनके समर्पित सहयोगी जी जान से देशवासियों की जीवन रक्षा में लगे है और उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिल रही है | अमेरिका और उस जैसे अनेक विकसित और संपन्न देशों में कोरोना ने जो तांडव मचाया उसकी तुलना में भारत में हालत अभी तक तो फिर भी ठीक हैं | यद्यपि जांच की सुविधा बढ़ने से नए संक्रमित मरीज सामने आना  भी सुनिश्चित है | लेकिन अंततः भारत इस पर काबू कर  ले जाएगा ये संभावना मजबूत है |

 पर दुनिया यहीं पर ठहर जाने वाली नहीं है । कोरोना आख़िरी आपदा नहीं है | आशाओं के बीच आशंकाओं के बादल फिर छा सकते हैं | और उस स्थिति में न तो मजबूत  अर्थव्यवस्था काम आयेगी  और न ही विज्ञान | अंततः बीमारी से डाक्टर ही लड़ सकता है और लड़ता भी है |

 अच्छा होगा कोरोना के  बाद की स्थिति में भारत गुणवत्ता युक्त चिकित्सा शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए डाक्टरों की बड़ी फौज तैयार करे जिससे  भविष्य में ऐसी किसी परिस्थिति के उत्पन्न होने पर आग लगने के बाद कुआ खोदने की नौबत न आये |

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