Saturday 18 April 2020

जब वहां कुछ नहीं था तब वे ही हमारा सहारा थे हमारे पूर्वजों की स्मृतियों को आज भी सहेजे है वह परम्परा



 गत दिवस किसी टीवी चैनल पर पर्यटन व्यवसाय से जुड़े कुछ लोग चर्चा कर  रहे थे | अन्य व्यवसायों की तरह वे सब भी कोरोना के कारण नुकसान का ब्यौरा देते हुए बता रहे थे  कि इस गर्मियों का पर्यटन सीजन तो चौपट हुआ  ही लेकिन कोरोना के बाद भी कम से कम एक वर्ष तक इस व्यवसाय में रौनक लौटना असम्भव प्रतीत होता है | कुछ का तो यहाँ तक कहना था कि कोरोना का भय और लम्बे समय तक जारी रहेगा |

पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने में ट्रेवल एजेंटों का बहुत बड़ा योगदान है | रेल या हवाई जहाज की टिकिट का आरक्षण करवाने से लेकर होटल , टैक्सी , दर्शनीय स्थलों के  भ्रमण की व्यवस्था के साथ विदेशों में भारतीय भोजन का प्रबंध भी वे कर देते हैं ।

वैसे भारत में इसका चलन सैकड़ों वर्षों से है | आप सोचेंगे कि ऐसा कहीं पढ़ा या सुना तो नहीं किन्तु इसके लिए मैं आपको तकरीबन पांच दशक पीछे ले  चलूँगा | ग्वालियर मेरी जन्मस्थली के साथ ही ननिहाल भी है | मेरे स्वर्गीय नाना  जी बड़े समृद्ध किसान  थे | 1968 की गर्मियों में हमारा परिवार एक विवाह में शामिल होने वहां गया था | विवाह सम्पन्न होने के बाद नाना जी बोले बद्रीनाथ के दर्शन करने का मन है | हालंकि वे उसके पहले दो बार वहां हो भी आये  थे | तब ऋषिकेश के  आगे  देवप्रयाग से पैदल यात्रा होती थी | रास्ते में पड़ने वाली बस्तियों में लकड़ी के मकानों में ऊपरी मंजिल पर यात्रियों को रात गुजारने के लिए स्थान और बिस्तर तथा नीचे चाय और भोजन मिलता था | अपनी नानी से मैनें उन यात्राओं का रोमांचक वृत्तांत न जाने कितनी बार सुना और तब से ही मेरे मन में उस कठिन यात्रा पर जाने की इच्छा पनपी | अचानक नाना जी के प्रस्ताव ने मुझे बहुत ही उत्साहित किया | उस समय  तक पूरी यात्रा मोटर वाहनों से होने लगी थी |

 इसलिए नाना जी ने अपनी स्वयं की कार से जाना तय किया | मामा जी आये चालक  की भूमिका में | ग्वालियर से चलकर शाम हरिद्वार में काली कमली वाले की धर्मशाला में ठहरे |  अगली सुबह जल्दी ऋषिकेश रवाना हुए क्योंकि वहां से आगे की यात्रा की अनुमति लेने के साथ वाहनों के काफिले  में शामिल होना पड़ता था | हम लोग समय  पर पहुंच गये और पहले ही जत्थे में निकल पड़े | लगभग 15 से 20 वाहनों का काफिला था | तब एक तरफ से ही यातायात होता था |   थोड़ी - थोड़ी दूर पर चेक पोस्ट थे जिन्हें पीछे वाले चेक पोस्ट से रवाना हुई गाड़ियों की संख्या वायरलेस से बता दी जाती थी । फोन लाइन तब नहीं थी | जब पूरे वाहनों की गिनती कर ली जाती तब  दूसरी ओर से आये काफिले को इस तरफ और इस तरफ वाले को आगे जाने की अनुमति दी जाती |  शाम तक जोशीमठ पहुंचे और वहां भी हरिद्वार जैसा ही  प्रबंध हुआ | बद्रीनाथ पहुंचने की उत्कंठा हिलोरें मार रही थी | सुबह जल्दी उठकर आगे का सफर शुरू हुआ |  लेकिन बद्रीनाथ तक पूरा मार्ग वन वे था | डरा देने वाली चढ़ाई और ऊपर से यू टर्न |  कुछ घंटे की थका देने  वाली यात्रा के बाद अचानक मुझे दूर चोटी पर बर्फ दिखी | इसके पहले फिल्मों में ही बर्फ के पहाड़  देखे थे |

 कुछ देर बाद ही चढ़ाई खत्म होने लगी और सामने बड़ा सा खुला स्थान नजर आया | और वही था बद्रीनाथ |  एक मैदान में बहुत  से वाहन खड़े थे | वहीं  कार खड़ी कर सामान बाहर निकालने के बाद मैं सोच रहा था कि वहां रुकने का कोई स्थान तो है नहीं , तो कहां जायेंगे ? काफी  दूर एक रंग बिरंगा मन्दिर दिखा | जिसके पीछे ऊंचाई पर ही टीन शेड वाले अनेक मकानों के झुण्ड नजर आये |  

उस वाहन स्टैंड पर गाड़ियां ज्यों - ज्यों पहुंचती जा रही थीं मन्दिर की ओर से अनेक लोग जल्दी - जल्दी चले आ रहे थे | मैं कुछ समझ पाता इसके पहले ही उनमें से कुछ ने आकर पूछा महाराज कहाँ से पधारे हैं ? नाना जी ने ज्योंही ग्वालियर बताया त्योंही  गढ़वाली में संदेश उन लोगों के बीच घूमा और इसी बीच मेरी हम उम्र एक लड़का नाना  और नानी सहित बड़ों  के चरण छूकर  बोला महाराज  चलिए  | नाना जी ने उसे आशीर्वाद देते हुए पूछा तुम मोतीवाले पंडा जी के यहाँ से हो और उसने हामी भरते हुए बताया वे मेरे दादा जी हैं | पास खड़े दो मजदूरनुमा लोगों को उसने सामान उठाने कहा | जब उन्होंने मेहनताना पूछ तो वह बोला पैसे मैं दूंगा | और हम चल पड़े उनके साथ | रास्ता कहीं कच्चा तो कहीं पक्का था | मैं कौतुहलवश इधर - उधर देख रहा था | अचानक एक ढलान आई  | और हम एक लोहे के संकरे से पुल तक पहुँच गये जिसके नीचे से तेज आवाज करती अलकनंदा बह  रही थी | नदी के पार दूर से दिख रहा वही मन्दिर था और तब ज्ञात  हुआ कि वही बद्रीनाथ जी का मंदिर है | मैं हतप्रभ  था कि आखिर हम जा कहाँ  रहे थे ? मन्दिर के बाहर से होते हुए हम लोग कुछ ऊँचाई पर बने टीन शेड वाली बस्ती में आ गये जो दूर से झुग्गियों जैसी प्रतीत होती थी | मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि वह लड़का  दौडकर एक घर में घुस गया | और भीतर  से एक वृद्ध को साथ लेकर आया । जिन्होंने आते ही नाना - नानी का  बड़ी ही विनम्रता से अभिवादन करते हुए कहा बहुत बरसों बाद आये महाराज |

 और इसके बाद शुरू होता है वह सब कुछ जिसके लिए यह आलेख लिखा गया | 

वे वृद्ध हमें एक घर में ले गये और बोले ये आप जैसों के लिए रखा है | उस लड़के ने वहां रखे गद्दे  फटाफट बिछवाए और रजाइयों में पैर डालकर बैठने कहा | बगल वाले कमरे में महिलाओं के बिस्तर लग गये | चाय आने की प्रतीक्षा करने कहकर वे दोनों चले गये | कुछ देर बाद एक युवक और चेहरे तक पल्लू लिए एक महिला चाय लेकर आई | साथ में कुछ बिस्किट भी थे | दोनों ने आकर सभी बड़ों के पाँव छुए | महिला बगल वाले कमरे में चली गई | पता चला वे उस वृद्ध के बेटा - बहू  थे | चाय पिलाकर वे  बोले आप सभी स्नान हेतु तैयार हो जाएं | उसके बाद घर में भोजन भी बन रहा है उसे ग्रहण कर आप थकान उतार लें | दोपहर में मंदिर बंद हो जाता है तो शाम की आरती पर दर्शन करेंगे | आपके आगे बैठने की व्यवस्था हो जायेगी |

 तब तक  मुझे इतना  तो समझ में आ गया था कि वे  लोग नाना जी से पूर्व परिचित होंगे इसीलिये इतनी आवभगत की  जा रही है | जिज्ञासा शांत करने के लिए मामा जी का सहारा लिया जिन्होंने मुझे बताया वे जो वृद्ध सज्जन थे वे ही मोतीवाले पंडा हैं | ग्वालियर  के बड़े इलाके में इनकी यजमानी है | मूलतः गढ़वाल के हैं लेकिन दान में मिले घर की वजह से आधा परिवार में रहता है | आना - जाना लगा रहता है | इनके पास हमारे पूर्वजों तक का रिकार्ड है | ऐसे पण्डे यहाँ सैकड़ों हैं जो यात्रियों की व्यवस्था और सुख सुविधा का ध्यान रखते हैं |

 ट्रेवल एजेंसी नामक व्यवस्था से वह मेरा पहला परिचय था | स्नान हेतु जाते समय पता चला अलकनंदा के बर्फीले जल में कोई नहीं नहाता | गर्म पाने के प्रकृति प्रदत्त कुंड वहां  हैं जिनमें किसी अदृश्य स्रोत से गर्म पानी निरंतर आता रहता है | स्नान से निवृत्त होकर ठिकाने पर लौटे और फिर अपने उस मेजबान के घर हमें भोजन हेतु ले जाया गया | जब थाली सामने आई तो सब कुछ वैसा ही जैसा हम सब घर में बनाते खाते हैं | बड़ी ही आत्मीयता से आग्रहपूर्वक भोजन करवाया गया | वृद्ध सज्जन पास में बैठे - बैठे पूछते रहे महाराज भोजन तो ठीक हैं न , यहाँ पहाड़ पर जो मिल जाता है उसी से काम चलाना होता है | बाद में पता चला वे अपने यजमान की पारिवारिक परम्पराओं और जीवन शैली से काफी परिचित रहते हैं |

 भोजन के बाद विश्राम हेतु सभी लेट गये लेकिन मैं बाहर  आकर खड़ा हो गया और तभी वह  लड़का पास आकर  बोला आप आराम नहीं करोगे ? मेरे मना करने पर बोला तो आओ आपको घुमा लायें | मैंने भीतर जाकर मामा जी को सूचित किया और उस नये मित्र के संग चल पड़ा | वह मुझे उस बस्ती के  और पीछे ले गया जहां से एक पहाड़ी झरना बह रहा था | ऊपर एक बर्फ से ढंकी चोटी देखकर पूछा तो उसने बताया कि वह  नीलकंठ पर्वत है जिसके उस पार केदारनाथ है लेकिन वहां जाने के  लिए वापिस लौटकर दूसरे रास्ते से जाना पड़ता है | इसी दौरान उसने अपना नाम शशिकांत बताते हुए मेरा नाम भी पूछ लिया था |

शाम को मन्दिर में आरती के पूर्व पंडा जी के बेटे ने साथ जाकर हमें सबसे आगे बिठा दिया | अच्छे दर्शनों से सभी अभिभूत थे | बिजली आ - जा रही थे | ठण्ड भी बढ़ गई | हम लोग लौटकर कमरे पर आये  । फिर वृद्ध पंडा जी ने रात्रि भोजन करवाते हुए कहा कल दोपहर का भोजन मन्दिर का भोग होगा जिसके लिए मैने वहां नोट करवा दिया है |

 भोजनोपरान्त मैं और मामा जी वापिस मंदिर के पास वाले क्षेत्र में टहलने आये तो  देखा एक छोटी सी होटल की  भट्टी में तेज आग जल रही थी | ऊपर एक बड़े से बर्तन के ऊपर रखे ढक्कन पर पत्थर जमे थे | पास में कुछ मजदूर नुमा लोग आग तापते बैठे हुई थे | मैं खड़ा होकर वह देख रहा था कि उनमें से एक बोला , महाराज आलू उबल रहे हैं | मैंने ढक्कन के ऊपर  पत्थर का कारण पूछा तो बोला सुबह तक उबलेंगे | भाप से ढक्कन हट न जाए इसलिए पत्थर रखे हैं | तब जाकर समझ आया ये पहाड़ है और यहाँ ऑक्सीजन कम होने से चीज देर में पकती है |

 रात जमकर नींद आई | सुबह फिर उसी  गर्म कुंड में स्नान , मंदिर  में दर्शन के बाद पंडा जी के निवास पर मंदिर के भोग स्वरूप आया भोजन ग्रहण कर सब आराम करने लगे और मैंने शशिकांत को लेकर पहाड़ों में चहलकदमी करने की चिर प्रतीक्षित इच्छा पूरी की | 

शाम को मंदिर की आरती फिर देखी और दूसरे दिन जल्दी लौटने की तैयारी की वजह से रात्रि भोजन से निवृत्त होकर विश्राम हेतु कमरे में पहुंचे ही थे कि वृद्ध पंडा जी पूजा की थाली लेकर आ गए | नानाजी मानों उनका इन्तजार  कर रहे थे | साथ में उनका पुत्र और शशिकांत  भी था | उनके साथ एक पोथी जैसी चीज थी | नाना जी से पंडा जी ने हम सभी के नाम पूछ्कर अपने बेटे को बोलकर आने - जाने की तारीख लिखवाई | मेरा विवरण अलग से लिखवाया गया तो मुझ पर सवालों की बौछार होने लगी | परदादा से लेकर तब तक वंश के सभी  सदस्यों के  नाम बताने कहा गया | तब नाना जी ने मेरी तरफ से हरसम्भव जानकारी दे  दी और इस तरह मैं भी विधिवत  मोतीवाले पंडा जी का यजमान बन गया |

 उसके बाद पंडा जी ने बड़ी ही विनम्रता से निवेदन किया महाराज ये सब व्यवस्थाएं आप जैसों के सहयोग से ही होती हैं | आपका जो संकल्प हो बता दें | अभी आप यात्रा पर हैं | हम ग्वालियर आकर ले लेंगे | और बिना संकोच कह दें अगर कुछ रूपये पैसे की जरूरत हो तो ले जाइए | बाद में मिल जायेंगे | नाना जी ने उनका धन्यवाद देते हुए कहा कि उसकी जरूरत नहीं है और फिर कुछ रूपये निकालकर कहा संकल्प पढ़वाइये | पंडा जी ने  औपचारिताएँ पूर्ण करने के उपरान्त राशि ग्रहण कर आशीर्वाद देते हुए कहा महाराज जल्दी आना | और फिर मेरी तरफ देखकर  बोले बेटा तेरी मां तो आ गयी अबकी पिता जी को लेकर आना |

 दूसरे दिन सुबह जल्दी वापिसी की तैयारी की गयी जिससे पहली ही खेफ में नम्बर आ जाए | एक बार फिर शशिकांत दो सामान उठाने वालों के साथ वाहन अड्डे तक पहुँचाने आया | हम लौट पड़े , मुड़कर देखा तो वह हमारी कार को देर तक निहारता रहा | शाम तक हम लोग श्रीनगर ही आ सके । दूसरे दिन निकलकर  ऋषिकेश का भ्रमण करने के उपरान्त हरिद्वार आये | और अगले  दिन वापिस ग्वालियर चल पड़े | 

उसके बाद शशिकांत के एक दो पत्र भी जबलपुर आये जिनसे लगा कि वह बहुत शिक्षित नहीं था | लेकिन मैंने अपने उस पहले ट्रेवल गाइड के पत्र संभालकर रख लिए और उत्तर भी दिया।

 वह मेरे जीवन  की पहली पर्वतीय यात्रा तो थी ही किन्तु बद्रीनाथ जाने की वजह से तीर्थयात्रा भी बन गयी | समय गुजरता गया | इस दौरान जगह - जगह घूमना हुआ | जीवन स्तर में सुधार हुआ तो सुविधाओं की जरूरत भी बढ़ी | अचानक 1985 की गर्मियों में मैंने अपनी पत्नी नीरजा से कहा चलो उत्तराखंड के चारों धाम चलते हैं | पहले वह चौंकी | लेकिन बाद में राजी हो गयी | बच्चे छोटे थे लेकिन फिर ही हमने हिम्मत की | जबलपुर से दिल्ली , हरिद्वार होते हुए ऋषिकेश पहुंचकर पूर्व में एकत्र जानकारी के अनुसार एक ट्रेवल एजेंसी से चार धाम का पैकेज लक्जरी बस से लेकर चल पड़े | उस समय तक गढ़वाल विकास मंडल ने जगह - जगह यात्रियों के लिए  गेस्ट हॉउस खोल दिए थे | जिनमें भोजन भी मिलता था | मैंने ऋषिकेश में ही बद्रीनाथ और यमुनोत्री के गेस्ट हॉउस आरक्षित करवा लिए | गंगोत्री और केदारनाथ में खाली नहीं थे |

 यात्रा तय होते ही जबलपुर से शशिकांत को एक पत्र भेज दिया और आने की जानकारी तो दी लेकिन तारीख नहीं लिखी | सोचा था जाकर मिल लूंगा |  ऋषिकेश से चलकर जोशीमठ रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन बद्रीनाथ पहुंचना हुआ | सड़क काफी चौड़ी हो चुकी थी | हालाँकि खतरा उतना ही था | दोपहर के पहले ज्योंही वहां पहुंचा तो बस स्टैंड देखकर मैं चौंका | वहां की तो दुनिया  ही बदल गई थी |  मन्दिर के इस तरफ होटलों की कतारें नजर आईं | सामने ही हमारा गेस्ट हॉउस दिख गया |  

इतने में पंडों के लोगों ने यात्रियों से पूछना शुरू किया |  मेरे पास भी एक दो आये तो मैंने टरका दिया  | तभी एक लम्बा  सा व्यक्ति पास आकर बोला जबलपुर से हैं क्या ? मेरे मुंह से सहसा निकला हाँ , तो वह मुस्कराकर बोला पहिचाना मैं शाशिकांत हूँ | और जेब से मेरा पत्र निकालकर ये साबित करना चाहा कि वह सही बोल रहा था | मैंने उसके कंधे पर रखकर हालचाल पूछा | और फिर मेरी पत्नी को नमस्ते करते हुए बोला भाभी जी मैं इनका पुराना दोस्त हूँ , पंडा मत समझिये । और उसके बाद कहने लगा चिट्ठी आते ही मैनें कमरा तैयार करवा दिया | पहले से काफ़ी अच्छा है | दादा जी तो गुजर गये | पिता जी बीमार होने से ग्वालियर ही हैं | लेकिन जब उसे सूचित किया कि मैंने तो गेस्ट हॉउस में कमरा आरक्षित करवा रखा है तो वह उदास हो गया | और बोला आपका घर है तो ये क्यों लिया  ? मेरे पास जवाब नहीं था | और फिर मेरे साथ कुछ सामान उठाकर कमरे तक छोड़ने आया | चलते समय मैंने चाय के लिए पूछा तो बोला अभी गाड़ियों के आने का टाइम है जरा स्टैंड देख लूं | मैं उसकी निराशा भांप गया था | 

मैंने उसे रोककर कहा हम तुम्हारे भरोसे ही आये हैं | जल्दी से आओ , आगे का कार्यक्रम तय करना है | ये सुनकर वह खुश हुआ  और कुछ देर बाद  हम उसी के साथ गर्म कुंड में स्नान हेतु गये | आकर  भोजन कैंटीन में किया | शाम को उसने दर्शन करवाए और बोला घर तो देखते जाओ | उसका स्नेह टालने की स्थिति नहीं थी | सो गये और थोड़ा सा नाश्ता ग्रहण कर लौट आये | अपनी पत्नी से उसने मेरा परिचय ये  कहकर  करवाया कि ये वही हैं जिनका जिक्र मैं करता था | मुझे आश्चर्य हुआ कि 17 वर्ष पहले की वह मुलाकात इतनी यादगार हो गई | वह मुझे गेस्ट  हॉउस तक छोड़ने भी आया | बद्रीनाथ का मन्दिर तो वैसा ही था लेकिन आसपास काफी कुछ बदला लगा | बड़े - बड़े प्रेशर कुकर भी दिखे जिनसे आलू उबलना आसान था | परिवहन सुविधा ने यात्री बढ़ा दिये  | लेकिन श्रद्धा ,  सुविधा और शौक में बदलती भी दिखी |

 गेस्ट हॉउस के दरवाजे पर आकर वह बोला , अब की मर्तबा माता जी और पिता जी को लेकर आइये | मैंने उसे रोककर कहा कैसे पंडा हो ऐसे ही चले जाओगे और फिर कमरे में लाकर उसे कुछ राशि देकर कहा कभी जबलपुर आओ तो मैं भी तुम्हारा सत्कार कर सकूं | शशिकांत की आँखों में हर्षपूर्ण  कृतज्ञता दिखाई दे रही थी | उसके जाने की बाद मेरी पत्नी बोली मैं तुमसे कहने ही वाली थी । तुमने ठीक किया नहीं तो खाली हाथ लौटकर उसे दुःख होता।

बद्रीनाथ से लौटकर शेष तीन धाम भी हम घूमे | केदारनाथ में भी एक पंडा मिले जिनकी पोथी में हमारे कुटुम्बियों का विवरण था | वे थे ओंकारनाथ शुक्ल | उन्होंने भी घर ले जाकर बढ़िया भोजन करवाया |

बद्रीनाथ की अपनी दोनों यात्राओं में पिता जी को लेकर आने की बात हुई | 1992 में माता जी और पिता जी के साथ फिर सपरिवार चार धाम करने गया | दोनों पंडों को पत्र भेजकर बता दिया कि हमने ठहरने  की व्यवस्था कर ली है | इस बार की यात्रा टैक्सी से की | रास्ते भर गेस्ट हाउसों की भरमार | कारों की कतारें , बद्रीनाथ का नजारा और बदल गया था |

 शशिकांत फिर मिले | माता जी और पिता जी से बोले ये मेरे बचपन के दोस्त हैं | इस बार देखा तो वहां काफी हॉउस दिखा जिसने दक्षिण भारतीय यात्रियों की भोजन समस्या हल कर दी | हमने भी उसका सहारा लिया | शशिकांत हम सभी के लिए मन्दिर से भोग लेकर आ गये थे | वे भी  काफी बदल गये थे | बोले कुछ मदद करो तो यहाँ होटल बनाएं खूब कमाई है  | मैं हंस दिया | उन्हें यथाशक्ति देकर लौट  हम आये | बाद में शेष तीन  धाम भी गये |

केदारनाथ वाले पंडा जी तो एक बार जबलपुर  आये भी लेकिन शशिकांत कभी नहीं आया | उसका कार्यक्षेत्र ग्वालियर है शायद इसलिए । उसकी बेटी की शादी का निमंत्रण आया था और दामाद के लिए हाथ घड़ी का अनुरोध भी | मैंने उसके पैसे उसे भेज दिए थे | लेकिन उसके बाद से सम्पर्क टूट गया |

 इतनी लम्बी चर्चा का उद्देश्य केवल ये स्पष्ट करना था कि  भारतीय समाज प्राचीनकाल से ही  अत्यंत विकसित और व्यवस्थित रहा है | प्रबन्धन के मामले में हमारी संस्थाएं काफी मजबूत और विश्वसनीय थीं।

पंडा नामक व्यवस्था शायद दुनिया की पहली ट्रेवल एजेंसी थी | भले ही कालान्तर में उसमें कुछ विकृतियाँ आ गईं लेकिन ये आज भी हमारे इतिहास के दस्तावेजों को सहेजकर रखे हुए हैं | मेरे अग्रज तुल्य श्री नरेश ग्रोवर ने बताया था कि देश के बंटवारे के समय बिछड़े अपने अनेक कुटुम्बियों को उन्होंने तीर्थों के  पंडों के रिकार्ड की मदद से तलाश लिया | उत्तराखंड के चार धाम अब बेहतर सड़क मार्ग से जुड़े हुए हैं | हेलीकाप्टर सेवा भी है किन्तु जब कुछ नहीं था तब वे पंडे ही यात्रियों की समूची व्यवस्था करते थे |

बेशक ये उनका व्यवसाय था लेकिन उसमें जो परिवारिकता थी वह किसी पेशेवर ट्रेवल एजेन्सी में नहीं होती | अंतिम बार शशिकांत से जब मैंने बद्रीनाथ  की शक्ल बदलने की बात की तो उसने जो उत्तर दिया वह मुझे अक्सर याद आ जाता है | वह बोला पहले यात्री आते थे  तो निकट से दर्शन , आरती , भोग आदि की मांग करते थे लेकिन अब अटैच बाथरूम  वाले कमरे की मांग करते हैं   और वह भी कमोड वाला | हो सकता है उसका निशाना मैं ही रहा हूँ जिसे वह बचपन का मित्र मान बैठा था।

उसकी बात दिमाग में घूम ही रही थी कि बद्रीनाथ से कुछ दूर आते ही ठेका - देशी शराब का बोर्ड दिख गया | टैक्सी चालक से पूछा ये क्या है तो बोला सर गाड़ियां बहुत आने लगी हैं | ड्रायवरों को लगती है | उसकी बात सुनकर नानी की बात याद आ गयी कि पहले वहां प्याज भी वर्जित था |

 मौजूदा संदर्भ में देखें तो भारत को यदि अपनी जड़ों को सींचना है तो हम भले बैलगाड़ी में न चलने लगें लेकिन उन  परम्पराओं और संस्थाओं को  भी  मरने न दें जिनसे हमारा पुराना रिश्ता रहा है । 

और तो और अपने जिन पूर्वजों को हम भूल बैठे वे आज भी उन्हें सुरक्षित रखे हुए हैं |

 शशिकांत भी एक परम्परा है | 

जिसे मैं भूल गया था ,  अब फिर उसे पत्र लिखने वाला हूँ |

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