Friday 10 April 2020

क्या आप नहीं चाहेंगे गंगा ऐसी ही बनी रहे ?और क्या मनुष्य तथा मशीन की तरह प्रकृति को भी अवकाश और विश्राम नहीं मिलना चाहिए ?



 मैं न तो पर्यावरण विशेषज्ञ हूँ और न ही इसके संरक्षण के लिए सक्रिय किसी संस्था या गतिविधि से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा ही हूँ | 

लेकिन प्रकृति के साथ हो रहे  अत्याचार से उत्पन्न स्थितियां मुझे सदैव  पीड़ा पहुंचाती हैं | मेरे जैसे अनगिनत लोग देश और दुनिया में और होंगे जिनके  मन  भी पर्यावरण की निरंतर बिगड़ती सेहत देखकर दर्द का अनुभव करते हैं | जल , जंगल , जमीन के अलावा जल स्रोतों के संरक्षण के लिए हमारे देश में भी दुनिया के बाकी देशों जैसी चिंता जताई जाती है | उसके लिए दिखावे भी खूब होते हैं और ईमानदार  प्रयास भी | करोड़ों - अरबों का खर्च होने एवं अनेक कानून बन जाने के बाद भी  पर्यावरण को हो रहे नुकसान को रोक पाने में अब तक विफलता ही हाथ लगी |

 इसका सबसे बड़ा उदाहरण है गंगा नदी को शुद्ध करने का अभियान | स्व. राजीव गांधी ने इसकी शुरुवात  की थी | तब से अब तक आई हर केंद्र सरकार ने गंगा शुद्धिकरण पर जी भरकर पैसा खर्च किया | 

2014 में वाराणसी से लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद नरेंद्र  मोदी ने भी नमामि गंगे नामक एक महत्वाकांक्षी योजना बनाई और उमाश्री भारती को उसका मंत्री बना दिया | लेकिन वे भी कुछ नहीं कर  पाईं | उसके बाद ये काम दिया गया मोदी सरकार के सफलतम मंत्री कहे जाने वाले नितिन गडकरी को | उनके दौर में गंगा की सफाई के साथ उसमें जल परिवहन की संभावनाएं भी आकार लेती दिखीं | लेकिन अविरल और निर्मल गंगा का सपना अधूरा ही है |

 गंगा क्यों गंदी है और उसकी सफाई के सारे प्रयास अपेक्षित सफलता तक क्यों नहीं पहुँच सके इस बात का प्रश्न गंगा को करीब से जानने वाला साधारण इंसान भी दे सकता है |

 स्व. राज कपूर की फिल्म का ये गीत बड़ा ही प्रसिद्ध हुआ था :- राम तेरी गंगा मैली हो गई , पापियों के पाप धोते - धोते | हालांकि उस फिल्म का गंगा  के मैले होने से दूर दराज तक सम्बन्ध न था | और भी  फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में गंगा को कथानक का हिस्सा बनाया लेकिन वह दर्शकों की भावनाओं को भुनाने की व्यवसायिक सोच से आगे कुछ भी नहीं था | 

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ऋषिकेश में ज्योंहीं वह मैदान में उतरती है वहां से लेकर गंगासागर तक उसके किनारे पर देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य और उनके बड़े शहर पड़ते हैं | ये नगर ज्यों - ज्यों विकास की सीढ़ियां चढ़ते गये त्यों - त्यों गंगा विनाश का शिकार होने मजबूर होती गई |

 अब ये बताने की जरूरत नहीं है कि नालों और सीवर के पानी के अलावा औद्योगिक इकाइयों का कचरा इसमें मिलकर इसके अमृत तुल्य जल की विलक्षण पवित्रता को लुप्त होने  के लिए मजबूर करता रहा है | सतह पर तैरती लाशें और उसे नोचते कुत्ते तो मैनें अपनी आँखों से देखे जिसके बाद उस दिन मैं बिना गंगा स्नान किये ही लौट आया | काफी बरस पहले वाराणसी में गंगा स्नान के समय डुबकी लगाते समय मेरे हाथ से कुछ टकराया और जब उसे पकड़कर निकाला तो वह एक मानव खोपड़ी थी | जिसके बाद मैं गंगा स्नान के प्रति उदासीन हो गया |

 यद्यपि गंगा के प्रति मेरी श्रद्धा जन्मजात संस्कार है | ऋषिकेश में कई बार  अनेक दिनों तक रहने के दौरान उससे निकट साक्षात्कार का भी अवसर मिला | गंगा के पृथ्वी  पर अवतरण की साक्षी  गंगोत्री तक भी मैं गया | पूरे मार्ग में गंगा घाटी की अलौकिक सुन्दरता ने मन को गहराई तक मोह भी लिया किन्तु उसके बाद गंगा  की जो दुर्दशा उसके भक्तों द्वारा की गई उसे देखकर  ये लगने लगा कि  अब अपने जीवन काल में हमें शुद्ध गंगा जल नसीब नहीं हो सकेगा | 

हालाँकि जैसा दावा होता है उसके अनुसार अलाहाबाद , वाराणसी और कानपुर में इस दिशा में काफी काम हुआ हुआ है  लेकिन उसके बाद भी गंगा की प्रकृति प्रदत्त निर्मलता धार्मिक ग्रंथों में दिए वर्णन तक ही सिमटकर रह गयी लगती है |

 लेकिन अचानक ऐसा कुछ हुआ जिसे किसी  चमत्कार से कम नहीं कहा जा सकता | वाराणसी में शहर के बीच बने घाटों पर गंगा जल इतना साफ़ हो  गया कि देखने वाले चौंक गए | यही नहीं तो मछलियां चहल कदमी करते हुए घाटों की सीढ़ियों तक आकर  जल में साफ़ नजर आने लगीं | गंगा की सफाई से जुड़े विभागों के  लोगों ने जब प्रदूषण का स्तर मापने वाले यंत्र डुबोये तो जल में आक्सीजन की मात्रा में आश्चर्यजनक वृद्धि पाई गयी | ये भी तब जबकि नालों का पानी बदस्तूर उसमें मिलता दिख रहा है | टीवी चैनलों पर ये समाचार देखकर मन को जो संतोष हुआ वह अवर्णनीय है | और मैं अकेला नहीं वरन दुनिया में कहीं भी बैठा हिन्दुस्तानी गंगा की निर्मलता के लौट आने पर उतना ही खुश हुआ होगा |

 और फिर दिल्ली से खबर आ गयी कि नाक पर रुमाल रखने के लिए मजबूर कर  देने वाली यमुना की दशा में भी आश्चर्यजनक सुधार हुआ है | राजधानी की आवोहवा भी आजादी के बाद पहली बार इतनी शुद्ध हुई | कोई आसमान की नीलिमा को देखकर मंत्रमुग्ध है तो किसी को लग रहा है कि रात के समय आसमान में इतने तारे उसने पहले कभी नहीं देखे |

 उधर जलंधर से 200 किमी दूर स्थित धौलाधार पर्वतमाला नंगी आँखोँ से दिखाई देने लगीं | अनेक बुजुर्गों ने ये स्वीकार किया कि ऐसा लगभग चार दशक बाद उन्होंने देखा | चंडीगढ़ से शिवालिक पर्वत माला की चोटियों पर जमी बर्फ साफ़ नजर आने से युवा पीढ़ी को रोमांचकारी अनुभव हुआ वहीं बुजुर्गों को लगा जैसे बरसों पहले खो गया उनका अजीज उन्हें फिर मिल गया हो |

 पूरे देश से ऐसी ही खबरें आने लगीं | बताने की जरूरत नहीं है ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि देश में बीते दो सप्ताह से इंसानी  ज़िन्दगी घरों की चहार दीवारी  में सिमटकर रह गई है और प्रकृति को अपनी मर्जी से जीने की आजादी दोबारा हासिल हो सकी | 

सवाल ये उठ रहा है कि लॉक डाउन  हटने  बाद भी क्या कुदरत को चैन से जीने का ऐसा अवसर दोबारा मिल सकेगा ? और उसका उत्तर सोचते ही मन एक बार फिर खिन्न हो जाता है |

 कोरोना नामक  महामारी से इंसानी जिन्दगी बचाने के लिए दुनिया भर का ज्ञान - विज्ञान  पूरी ताकत से लगा है । लेकिन जिस प्रकृति की कृपा से हम सांस लेते हैं उसका दम घोंटने में हमारे हाथ क्यों नहीं कांपते , इसका उत्तर कोई नहीं देता क्योंकि अपराधबोध ऐसा  करने से रोक जो देता है |

गंगा जल में आक्सीजन की मात्रा बढ़ने से उसकी गुणवत्ता में हुए सुधार ने मछलियों को नवजीवन दे दिया | बीते अनेक दिनों से श्रद्धालुओं के न आने से घाटों के किनारों पर गंदगी नहीं होने से मछलियां  बिना डरे वहां विचरण करती दिखने लगीं | ये भी कहा  जा सकता है कि मनुष्य की गैर मौजूदगी में गंगा को खुलकर सांस लेने का अवसर मिल गया |

 और अकेले गंगा को ही क्यों देश की सभी नदियों को एक तरह से अपनी मर्जी से जीने  का अवसर इस लॉक डाउन ने मानो दे दिया है | नदी के अलावा भी प्रकृति के तमाम प्रतिनिधि इस समय अभूतपूर्व राहत का अनुभव कर रहे हैं | आसमान में भरने वाला धुआं गायब  होने से पर्यावरण संबधी  मापदंड पहली मर्तबा पूरी तरह खरे साबित हुए हैं |

 लेकिन ये दौर अस्थायी है | कोरोना से जारी जंग जब भी खत्म होगी और मानव जीवन फिर से पहले जैसी स्थिति में लौटेगा तब प्रकृति और पर्यावरण के बुरे दिन लौट आयंगे |  न मीलों दूर की बर्फीली चोटियाँ नजर आएंगी और न ही नीले आसमान में चमकते तारों की कतारें | दिल्ली जैसे महानगरों  की हवा में जहर फिर लौट आयेगा और यमुना से  दुर्गन्ध आने लगेगी | गंगा तट  पर जल क्रीड़ा  कर रही मछलियों से उनकी मस्ती छीन ली जायेगी |

 इसका अर्थ तो यही हुआ न कि प्रकृति और पर्यावरण के साथ हुए अत्याचार के लिए मानव जाति ही अकेली कसूरवार है | दूसरी तरफ ये भी सही है कि आज की ज़िन्दगी में प्रकृति को पूरी तरह  बचाकर रखना असम्भव न सही लेकिन बेहद मुश्किल तो है ही |

 ऐसे में ये सवाल तो उठेगा ही कि क्या महामारी से मुक्ति  पाते ही सब कुछ पूर्ववत हो जायेगा या इस दौरान प्रकृति से मिले मित्रता संदेशों का सम्मान करने की सौजन्यता हम दिखायेंगे ? ज्यादा न सही केवल इतना ही कर दिया जावे कि कोरोना से उबरने के बाद गंगा सहित बाकी नदियों के शुद्धिकरण के  सरकारी कर्मकांड को यथावत रखते हुए उसमें स्नान को लेकर कुछ बंदिशें लगाई जाएं | 

लॉक डाउन के दौरान हिन्दू , जैन , मुस्लिम , इसाई और सिख सभी धर्मों के कुछ प्रमुख त्यौहार आये और कुछ जल्द आ रहे हैं | चूँकि इनके भव्य आयोजन से इंसानी जिंदगियों को खतरा था इसलिए बड़े से बड़े धार्मिक लोगों ने घरों के भीतर रहकर ही अपनी आस्था का निर्वहन किया |

 लेकिन और कोई वजह होती  तब धार्मिक आजादी छीने जाने का बवाल सड़क से संसद और सर्वोच्च न्यायालय तक मच गया होता | इससे ये बात तो साबित हो ही गई कि प्रकृति प्रदत्त धरोहरों को नुकसान पहुंचाए बिना भी हमारी धार्मिकता अक्षुण्ण रह सकती है |

 हम सबका  विश्वास है कि पूरी दुनिया ईश्वर ने बनाई है और प्रकृति भी उसी का अभिन्न हिस्सा है | ब्रह्माण्ड में केवल पृथ्वी ही ऐसा  गृह है जहां प्रकृति अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ  मौजूद है | और वह इसलिए क्योंकि उसके सान्निध्य के बिना मानव जाति का अस्तित्व असमभव है | ऐसे में सवाल है कि किस धर्म का भगवान अपने बनाये मानव की रक्षा तो चाहेगा लेकिन अपनी ही बनाई प्रकृति को धीमा जहर देकर मारने की अनुमति देगा ?

 कोरोना से जूझती हुई दुनिया में अब ये विचार - विमर्श चल पड़ा है कि इस महामारी के गुजर जाने के बाद भी क्या सब कुछ पहले जैसा चलता रहेगा या फिर ज़िन्दगी जीने के तौर - तरीके बदलने के लिए इंसानी सोच भी बदलेगी | यहाँ तक कि ईसा पूर्व और ईसा पश्चात जैसे ही कोरोना पूर्व और पश्चात दो कालखंड माने जायेंगे |

 लेकिन इस महामारी के दौरान घरों में सीमित रहकर मानव जाति ने प्रकृति को खुलकर जीने का जो अवसर दिया वह भले ही परिस्थितिजन्य मजबूरी हो किन्तु  भविष्य में भी ये इतनी ही जरुरी बने इसके लिए हमें कमर कसनी होगी | चाहे गंगा - यमुना हों या देश भर में प्रवाहित होने वाली अन्य सरिताएँ , चाहे हिमालय की बर्फीली चोटियां हों या विंध्याचल , सतपुड़ा या सह्याद्री  के पहाड़ , और बचे -खुचे जंगल | इन सभी को कुछ समय के लिए मानवीय हस्तक्षेप से क्या हम आजाद रख सकेंगे ?

यदि कोरोना संकट के दौरान हम अपनी धार्मिक क्रियाओं को संक्षिप्त और सीमित करते हुए प्रकृति और पर्यावरण को नवजीवन दे सकते हैं तो ये पुण्य कार्य आगे भी  जारी क्यों नहीं रह सकता ? 

और क्या प्रकृति की सेवा ईश्वर की आराधना नहीं बन सकती ?

 गंगा के किनारे बने तीर्थों पर जगह - जगह लिखा होता है “ गंगा तव दर्शनात मुक्तिः “ , इसका अर्थ है “ गंगा तेरे दर्शन मात्र से ही मुक्ति है “ तो फिर उस पर अनाचार किसलिए ?

 यहाँ गंगा को हम प्रकृति का जीवंत प्रतीक मानकर उसके बाकी प्रतिनिधियों के संरक्षण को भी अपनी चिंताओं में  शामिल करें तो कोरोना पश्चात् का भारत वाकई एक नया  भारत होगा | जिस तरह मनुष्य और मशीन दोनों को अवकाश और आराम की जरुरत होती है ठीक वैसे ही प्रकृति को भी कभी - कभार चैन  की सांस लेने के लिए मुक्त करने का संकल्प अत्यावश्यक है  | लेकिन ये कैसे होगा इस पर गहन विचार की जरूरत है |

 एक बात और याद रखनी चाहिए कि प्रकृति भले ही व्यक्त न करे कितु उसकी भी सहनशक्ति होती है | इसके पहले कि वह उसके साथ हुए  अत्याचारों का बदला लेने पर उतारू हो जाए , हमें उसके साथ सामंजस्य बनाकर अपनी भावी पीढ़ियों के लिए एक सुंदर और सुरक्षित संसार छोड़ने की प्रतिबद्धता लेनी चाहिए । 

वरना आज कोरोना आया कल को कुछ और आयेगा और हम अदृश्य कीटाणु के सामने अपने परमाणु जखीरे लिए बचते फिरेंगे | 

सोचकर खुद को ही जवाब दीजिये , क्या हम इसके लिये तैयार हैं ?

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