लॉक डाउन के दौरान सभी वर्गों को परेशानी हो रही है। उद्योगपति-व्यापारी, किसान, मजदूर सभी को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। हर कोई चाह रहा है कि लॉक डाउन के दौरान उसका काम बंद न हो। ऐसा सोचना अपनी जगह गलत भी नहीं है। पहले 21 दिन तो जैसे-तैसे लोगों ने काट लिए लेकिन उसके बाद ज्योंहीं 3 मई तक उसे बढ़ाने की घोषणा हुई और 20 अप्रैल से कुछ क्षेत्रों को छूट के संकेत मिले त्योंही और भी दबाव आने लगे। 14 अप्रैल की सुबह प्रधानमंत्री के संबोधन के बाद अगले दिन ही रियायतों का ऐलान भी हो गया। इनमें विशेष रूप से खेती किसानी, जरूरी वस्तुओं का परिवहन और उत्पादन, ऑर्डर पर भोजन घरों तक पहुँचाने वाली सेवाओं के अलावा दूरी बनाकर दफ्तरों में कार्य करने के बारे में 20 तारीख से अनेक छूटें दी गई। लेकिन कल दिल्ली में घर-घर पिज्जा की डिलीवरी करने वाले व्यक्ति के कोरोना संक्रमित होने की बात सामने आते ही अनेक प्रश्न खड़े हो गए। सरकार ने ऑन लाइन खरीदी की अनुमति देने का जो निर्णय किया उसमें भी डिलीवरी करने वाला घर के भीतर आयेगा। ऐसे में संक्रमण का खतरा बढऩे की आशंका बनी रहेगी। ये बात तो अपनी जगह सही है कि लॉक डाउन को असीमित समय तक जारी नहीं रखा जा सकता लेकिन भारतीय जनमानस पर समूह की मानसिकता ज्योंही हावी होती है त्योंही वह भीड़ का हिस्सा बनकर अपना आपा खो बैठता है। समाजशास्त्र तो पहले से ही कहता आ रहा है कि भीड़ विवेकशून्य होती है और यदि उसका कोई नेता न हो तब उसके अराजक और अव्यवस्थित होने का खतरा भी बढ़ जाता है। दो दिन पूर्व मुम्बई के बांद्रा स्टेशन के बाहर जो जनसमूह एकत्र हुआ वह भीड़ की विवेकहीनता का ही प्रमाण था। इससे भी बड़ा हुजूम दिल्ली में इसके पहले देखने मिल चुक था। ऐसे में लॉक डाउन में जरा सी भी ढील कोरोना के विरुद्ध अब तक की गयी मोर्चेबंदी को ध्वस्त कर सकती है। अर्थव्यवस्था, गरीबों और मजदूरों की भूख, प्रवासियों की खानाबदोशी, बेरोजगारी का संकट बेशक चिंता के बड़े कारण हैं किन्तु ये बात भी सच है कि कोरोना की श्रृंखला में रूकावट नहीं आई तो फिर लॉक डाउन से भी बदतर स्थिति में देश पहुँच जाएगा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने गत दिवस कहा कि लॉक डाउन केवल विराम है, निदान नहीं। उन्होंने जांच तेजी से करवाने पर जोर देते हुए उसे अपर्याप्त बतया। उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा भी हर दो चार दिन में ऐसा बयान देकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देती हैं। लेकिन भाई-बहिन दोनों जानते हैं कि हमारे देश में चिकित्सा सेवाओं का ढांचा इतना सक्षम नहीं है कि 135 लोगों की जाँच कर सके। लेकिन जहां भी कोरोना के हॉट स्पॉट चिन्हित किये गये वहां सघन जाँच की जा रही है और उसी कारण संक्रमित लोगों की संख्या में भी वृद्धि देखने में आ रही है। हाँ, जांच का काम सैम्पल आधार पर अवश्य सम्भव है और ये शुरू भी हो चुका है किन्तु ये बात किसी भी सूरत में नहीं फैलानी चाहिए कि लॉक डाउन कोरोना का इलाज नहीं है वरना सब्जी मंडियों में दिखने वाली अनुशासनहीनता सब जगह नजर आने लगेगी। और सच कहें तो लॉक डाउन का ये चरण पहले वाले से ज्यादा महत्वपूर्ण और आवश्यक है। पूरे देश में कोरोना का प्रभाव होने के कारण आवागमन पर रोक लगाये रखना मजबूरी ही सही किन्तु जरूरी है। जान और जहान को लेकर हो रही दार्शनिक बातें ऐसे समय अर्थहीन होकर रह जाती हैं। भारतीय परिवेश में रहकर सोचने से ये मालूम होगा कि हमारी संवेदनशीलता उन तमाम समृद्ध और सुशिक्षित देशों की तुलना में कहीं बेहतर और मानवीय है जहां बुजुर्गों को उपेक्षित करते हुए केवल जवानों की प्राणरक्षा पर जोर दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पिछले सम्बोधन में बुजुर्गों के स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखे जाने की अपील देशवसियों से की थी। कहने का आशय ये है कि लॉक डाउन बेशक इलाज न हो लेकिन यदि इसका पालन कर लिया गया तो ये करोड़ों लोगों को संक्रमित होने से बचाने में सहायक हो सकता है। अनेक विकसित देशों में जहां की चिकित्सा सुविधाएँ विश्वस्तरीय और आबादी भारत के कुछ राज्यों से भी कम है, वहाँ भी लॉक डाउन के प्रति बरती गयी ढील ने लाशों के ढेर लगवा दिए। भारतीय हालात न अमेरिका जैसे हैं और न ही चीन जैसे। यहाँ आर्थिक विषमता के कारण के सभी को एक जैसे डंडे से नहीं हांका जा सकता लेकिन इस अभूतपूर्व आपातकाल में बजाय समस्या की भयावहता के हमें सरल समाधान की बात कहनी चाहिए। समाज के अशिक्षित वर्ग के पास जानकारी भले न हो लेकिन समझदारी तो है। उसे परिस्थिति की गम्भीरता से अवगत करवाने पर वह भी सहयोग दिये बिना नहीं रहेगा। गरीब और मजदूर वर्ग जरूर अकल्पनीय मुश्किलों से गुजर रहा है लेकिन सरकार और समाज उसकी सहायता हेतु भरसक प्रयास कर रहे हैं। फिर भी कमियाँ हैं और रहेंगी क्योंकि हमारे देश में आपदा से लडऩे के लिए सरकारी अमला और जनता दोनों विधिवत प्रशिक्षित नहीं होते। चिकित्सा सुविधाओं का ढांचा भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। राशन की दुकानों से होने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार का पर्याय मानी जाती है। बावजूद उसके शासन और प्रशासन दोनों ने अपनी क्षमता से बाहर जाकर अब तक काम किया है। और डॉक्टरों की पूरी टीम के साथ ही पुलिस ने जिस कर्तव्यनिष्ठ का परिचय दिया वह एक सुखद अनुभव है। ये देखते हुए लॉक डाउन पर किसी भी तरह का सवाल उठाकर उसके महत्व को कमतर आंकना एक तरह से उसे विफल करने जैसा ही होगा। बेहतर तो यही रहेगा कि भले ही कितनी भी मुसीबत झेलनी पड़े लेकिन चाहे-अनचाहे लॉक डाउन को तो सफल बनाना ही पड़ेगा। क्योंकि इसके सिवाय कोरोना को महामारी बनने से रोकने का दूसरा रास्ता फिलहाल तो नजर नहीं आता।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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