Saturday 25 April 2020

गम की अँधेरी रात में दिल को न बेकरार कर ,सुबह जरूर आएगी सुबह का इंतजार कर |



कल दोपहर में किसी जानकारी के लिए यू ट्यूब खोला तो टीवी चैनल की पत्रकारिता छोड़ राजनेता बने और फिर लौटकर अपना  यू ट्यूब चैनल शुरू करने वाले एक पत्रकार महोदय और अक्सर टीवी चर्चाओं में नजर आने वाले एक टिप्पणीकार जो प्रोफेसर भी रहे हैं , के बीच वार्ता सुनने मिली | प्रोफेसर साहब फिलहाल कोरोना की वजह से अमेरिका में रुके हुए हैं | बातचीत अमेरिका के वर्तमान हालात से शुरू हुई और घूम फिरकर भारत पर लौट आई | पत्रकार महोदय ने पूछा कि अमेरिका में भारत को लेकर क्या राय है  ? और वहां से कहानी शुरू करते हुए प्रोफेसर साहब ने कहा कि यहाँ जो बुद्धिजीवी भारत के प्रति रूचि रखते हैं वे कोरोना को लेकर सरकार द्वारा किये जा रहे दावों पर संदेह व्यक्त कर रहे  हैं । क्योंकि उनकी नजर में  130 करोड़ जनसंख्या में मात्र 5 लाख जांच करने के बाद अपनी सफलता का झंडा फहराने  का कोई महत्व नहीं है | दूसरी बात उन्होंने ये बताई कि विवि के एक प्राध्यापक ने आशंका  व्यक्त की  है कि भारत अब नियंत्रित लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है , जैसा कभी पाकिस्तान में था | और तीसरी बात  बताते हुए प्रोफेसर साहब ने कहा कि अमेरिका में इस बात को लेकर काफी चिंता है कि भारत की मौजूदा सरकार कोरोना को हथियार बनाकर  अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही है | लगे हाथ वे ये बताने से भी  नहीं चूके कि वहां लगाये जा रहे अनुमान  के अनुसार भारत में लगभग 40 करोड़ लोग और गरीब हो जायेंगे  | आश्चर्य इस बात का था कि अमेरिका में उन्हें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसने न्यूनतम संसाधन और अत्यंत विषम परिस्थितियों में कोरोना से निपटने के बारे में भारत की तारीफ की हो | यहाँ तक कि बिल गेट्स द्वारा की गई प्रशंसा पर भी उन्होंने प्रश्न चिन्ह लगा दिये |

इन दिनों अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों में कुछ लोग निराशाजनक चित्र प्रस्तुत करने में जुटे हुए हैं | ऐसे समय जब जनता का मनोबल बढ़ाते  हुए उसे हौसला देने की जरूरत है तब ये प्रचार करना  किस तरह की बुद्धिमत्ता है कि आगे बेरोजगारी तथा गरीबी और बढ़ेगी , भुखमरी की नौबत तक आ सकती है जिसके बाद लोग सड़कों पर उतर आएंगे और अराजकता का बोलबाला हो जाएगा |

भारत के बारे में उन देशों के कथित विशेषज्ञों के आकलन को पत्थर की लकीर मान लेना बुद्धिमानी  कदापि नहीं है जो अपने देश में हो रही दुर्गति का न अंदाज लगा सके और न ही उससे बचने का कोई उपाय उनके दिमाग में है | जरूरी नहीं कि झूठी तारीफ करते हुए जनता को अंधेरे में रखा जाये लेकिन किसी भी युद्ध में सैनिकों का मनोबल गिराने  वाली बातें करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं होता |

उदाहरण के तौर पर एक मरीज किसी चिकित्सक के पास जाए जो उसकी जाँच करने के बाद उससे कहे कि तुम्हारी हालत बहुत खराब होने वाली है | हो सकता है तुम कुछ दिन में मर जाओ | इससे जाहिर तौर पर तुम्हारे परिवार वाले मुसीबत में फंस जायेंगे | ये सुनकर उस मरीज की क्या हालत होगी ये सोचने वाली बात है | वो मरने वाला न  हो तो भी अधमरा हो जाएगा |

इसके विपरीत दूसरा डॉक्टर उसे देखकर बोले चिंता मत करो | तुम्हारी बीमारी लाइलाज नहीं है | समय लगेगा लेकिन ठीक होने की पूरी उम्मीद है , बस दवाइयां समय पर खाते रहना और जब भी तकलीफ हो तो तुरंत आ जाना | ये सुनकर मरीज का साहस बढ़ेगा जो बड़ा ही जरूरी होता है ।

अब बताइए उक्त दोनों में से किस डॉक्टर के तरीके को आप बेहतर और समझदारी भरा मानेंगे ?

जबलपुर नगर में विराट हॉस्पिस नामक एक संस्थान है | कैंसर के उन बेसहारा मरीजों को जिनकी मृत्यु को अवश्यंभावी मानकर चिकित्सक भी हाथ खड़े कर देते हैं , ये संस्थान  अपने यहाँ रखते हुए उनकी आख़िरी साँस तक सेवा - सुश्रुषा करता है | मरीज अकेलापन महसूस न करे इसलिए उसके  एक परिजन को भी साथ रहने की सुविधा दी जाती है | उसको कभी भी ये  एहसास नहीं होने  दिया जाता कि वह मृत्यु के सन्निकट है | हरसम्भव  इच्छा पूरी करते हुए उसके अंत को जितना हो सके सुखांत बनाने  की कोशिश होती  है | पूरी तरह प्रशिक्षित और पेशवर नर्सिंग स्टाफ उनकी  देखरेख में 24 घंटे  रहता है | विराट हास्पिस  का संचालन करने वाली एक साध्वी हैं जिनका नाम है  Didi Gyaneshwari | इस संस्थान का ध्येय वाक्य है “ Though we can not add days to thier Life , but we can add Life to their Days .” ( यद्यपि हम उनकी ज़िन्दगी में और दिन तो नहीं जोड़ सकते लेकिन उनके शेष दिनों को थोड़ी ज़िन्दगी तो दे सकते हैं )|

विराट हास्पिस ये सेवा कार्य विगत 7 सालों से पूरी तरह निःशुल्क करता आ रहा है |

उक्त संस्थान के यहां उल्लेख का उद्देश्य मात्र इतना है कि विराट हास्पिस में आने वाले मरीजों के पास ज्यादा ज़िन्दगी नहीं होने  के बाद भी उनकी सेवा  मरणासन्न मानकर नहीं की जाती | अपितु उनका उत्साहवर्धन करते हुए उनमें जिजीविषा उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है | उस दृष्टि से आज के समय केवल ये बात होनी चाहिए कि कोरोना नामक इस संकट से ये देश मिलकर कैसे लड़ सकता है |

व्यवस्थाओं में कमी होने पर सुधार हेतु जिम्मेदार लोगों तक जानकारी एवं सुझाव पहुंचाना भी जरूरी है  | लेकिन केवल आलोचना करने से प्रशासन का जो अमला आज अपनी जान पर खेलकर लोगों को बचाने में जुटा  हुआ है , उसका मनोबल टूटता है |

इसीलिये  यू  ट्यूब पर पत्रकार और प्रोफेसर  साहब की उक्त बातचीत सुनकर दुःख हुआ | मेरे भी अनेक मित्र और निकट संबंधी विदेशों में हैं  | संचार सुविधाएँ सुलभ होने से उनमें से अनेक से हाल के दिनों में संवाद हुआ | शायद ही किसी ने भारत के बारे में नकारात्मक प्रतिक्रिया दी हो | उलटे जहां वे हैं उनकी तुलना में भारत में कोरोना  को लेकर जो कार्ययोजना बनाई गई उसकी  तारीफ ही हुई | ये सब वे लोग हैं जो बेहतर अवसर और सुरक्षित भविष्य के आकर्षण के कारण अपना देश छोड़कर वहां गए | जाते समय भारत के बारे में उनकी धारणा शायद उतनी अच्छी नहीं थी और वे सदैव उन देशों की प्रशंसा का कोई  मौका नहीं छोड़ते थे | लेकिन कोरोना ने उन्हें अपनी सोच  बदलने बाध्य कर दिया है |

बीती शाम ही इंग्लेंड में बसे भारतीय मूल के चिकित्सक डा.राजीव मिश्रा का एक वीडियो देखा | वे कोरोना संक्रमित होने के बाद ठीक हो चुके हैं | उन्होंने  न सिर्फ इंग्लैण्ड अपितु समूचे यूरोप में  कोरोना को लेकर अपनाई  जा रही रणनीति की धज्जियां उड़ाते हुए जाँच बढ़ाने की मांग पर  बताया कि वहां उन्हीं  कोरोना  संक्रमितों की जांच की जाती  है जिनको अस्पताल में भर्ती करने की नौबत आ जाए  | वरना घर में ही  रहने कह  दिया जाता है | उनका अपना अनुभव ये रहा कि संक्रमित होने पर उनकी तो  जांच हुई लेकिन उनके परिजनों की जाँच करने की जरूरत नहीं समझी गई | जबकि भारत में ऐसा नहीं है ।

डा . मिश्रा ने साफ़ -- साफ कहा कि पश्चिमी जगत इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है कि भारत में अब तक लाशों के अम्बार नहीं लगे । यूरोपीय देश कोरोना से लड़ने में जिस तरह औंधे मुंह गिरे उससे उनकी साख को जबर्दस्त नुकसान हुआ जबकि भारत को वाहवाही मिल रही है |

वे अकेले नहीं हैं जो इस मुद्दे पर भारत की प्रशंसा कर रहे हों | दुनिया भर के अनेक नेताओं के अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन कह  चुका है कि कोरोना विरोधी भारतीय रणनीति अब तक तो कामयाब रही है |

लेकिन इस आलेख का उद्देश्य सरकारी इंतजाम की तारीफ करना मात्र नहीं है | हर कोई  उसे  पसंद करे ये भी अनिवार्य नहीं | फिर भी  नीति और रणनीति के क्रियान्वयन में कोई गलती नहीं है ये भले ही पूरी तरह से न मानें तो भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि अब तक के आंकड़े  और कार्य के तरीके आधिकतर विकसित देशों की तुलना में कहीं बेहतर हैं |

जिन लोगों ने भारत द्वारा संक्रमित लोगों की जानकारी छिपाए जाने की बात कही वे इस इस वास्तविकता को नजरंदाज कर गए कि जाँच नहीं होने  से भले ही संक्रमित लोगों की अपेक्षाकृत कम संख्या अविश्वसनीय लग रही हो किन्तु कोरोना से ग्रसित होने वाले अगर ज्यादा होते  तब मृतकों  की संख्या  भी बढ़ती | सरकार किसी जानकारी को कितना भी छिपा ले लेकिन यदि बड़े पैमाने पर लोग मरे होते तब वह बात छिपाना असंभव था | क्योंकि भारत ,  चीन नहीं है |

बेहतर हो कोरोना के कारण उत्पन्न हालातों में सकारात्मक सोच को प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाए | भारत में नियंत्रित लोकतंत्र का खतरा बढ़ गया है , सरकार ने कोरोना को अल्पसंख्यकों के विरुद्ध औजार बना लिया है ,बेरोजगारी और भुखमरी आ जायेगी , लोग सड़कों पर उतर आयेंगे और अराजकता फैल जायेगी जैसी बातें प्रचारित करने से आज क्या हासिल होने वाला है , ये समझ से परे है |

पश्चिमी बुद्धिजीवी और समाचार माध्यमों में भारत की छवि मुस्लिम विरोधी  बन रही है इसकी चिंता का भी ये समय नहीं है | ये वे देश हैं जिन्होंने बीते कुछ दशकों में  समूचे इस्लामिक जगत को युद्ध की विभीषिका में झोंक रखा है | बेहतर हो आज के माहौल में उन संभावनाओं पर  बात हो जो भारत की झोली में गिरने वाली हैं |

ऐसा लगता है हमारे देश में एक वर्ग ऐसा है जिसे  सकारात्मक सोच से ही एलर्जी है | कोरोना के बाद बेशक भारत की अर्थव्यवस्था पर जबर्दस्त दबाव आएगा | बेरोजगारी , गरीबी और उस जैसी दूसरी समस्याएँ आने की भी आशंका है | लेकिन दूसरी तरफ ये भी सच है कि समाज का वह वर्ग जो अभी तक अपनी दुनिया में मगन रहता था वह अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक हुआ है | लोगों में जो डर शुरुवात में था वह भी धीरे - धीरे घट रहा है | हजारों कोरोना संक्रमित स्वस्थ होकर घर आ गये हैं | उन सभी ने स्वीकार किया कि उनका इलाज  बेहतर तरीके से हुआ और डॉक्टर्स और  सहयोगी स्टाफ की सेवाएँ बहुत ही अच्छी थीं | घर लौटने पर उनका जिस तरह स्वागत हुआ वह समाज की  सौजन्यता और साहस का प्रमाण है |

भारत बेशक एक विकासशील देश है जो आर्थिक मंदी की चपेट से उबर पाता उसके पहले ही कोरोना आ धमका | लेकिन उसे महामारी बनने से रोके रहना भी कम उपलब्धि नहीं है | उल्लेखनीय है शुरुवात में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत पर ये विश्वास जताया  था पूरी दुनिया उसकी तरफ उम्मीद भरी निगाहों  से देख रही है |

लड़ाई अभी जारी है और कब तक चलेगी ये कह पाना कठिन है | लेकिन उसके बाद  का निराशाजनक चित्र खींचना किसी भी तरह  की बुद्धिमत्ता नहीं होगी |  बेहतर हो लोगों में इस बात का भरोसा पैदा किया जावे कि कोरोना के बाद का दौर भारत का ही होगा और ये गलत भी नहीं है |

प्रख्यात कवियत्री स्व. महादेवी वर्मा का एक प्रसिद्ध गीत है :-
‘मैं नीर भरी दुःख की बदली’

इसकी अंतिम पंक्ति है :- उमड़ी थी कल मिट आज चली |

दरअसल ये उस बदली का दर्द है जो बड़े ही जोर शोर से उमड़ती तो है लेकिन बरसने के बाद उसका वजूद मिट जाता है |

किसी साहित्य प्रेमी ने इस पंक्ति में निहित निराशा को उम्मीद में बदलते हुए इस तरह लिखा कि :-
मिट आज चले उमड़ेगे कल |

स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था कि व्यक्ति का सबसे बड़ा नुकसान उस उम्मीद का खो जाना है जिसके सहारे हम अपना जो कुछ भी खोया है उसे दोबारा  हासिल कर सकते हैं |

कोरोना के बाद क्या होगा उसे लेकर निराश होना या दूसरों को करना भारत के पुरुषार्थ की अनदेखी होगी और ऐसा करने वाले इस देश की तासीर को यदि नहीं जानते तो ये उनकी समस्या है | 

स्व.जाँ निसार अख्तर की इन पंक्तियों को जब भी वक़्त मिले  गुनगुनाते रहिये :-

गम की अँधेरी रात में दिल को न बेकरार कर ,
सुबह जरूर आएगी सुबह का इंतजार कर |

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