Tuesday 14 April 2020

सैकड़ों साल से मजदूर निर्यात करने मजबूर हैं उप्र और बिहार.! देश की सरकार तय करने वालों की तकदीर पर पलायन का साया कब तक ?


सैकड़ों साल से मजदूर निर्यात करने मजब

 बात तकरीबन 15 साल पुरानी है |  मैं मुम्बई के चर्चगेट इलाके में कहीं  जा रहा था | अचानक मेरी नजर फुटपाथ पर बिकते अख़बारों पर पड़ी | ये देखकर आश्चर्य हुआ कि उनमें एक हिन्दी का वह अख़बार भी था जिसका संस्करण मेरे शहर जबलपुर से भी प्रकाशित  होता था | मैंने प्राथमिकता के आधार पर वह अख़बार खरीद लिया | सोचा कि कुछ अपने क्षेत्र की खबरें मिल जायेंगीं | 

लेकिन होटल पहुंचकर उसे पढ़ना शुरू किया तब आश्चर्य हुआ कि मुखपृष्ठ को छोड़कर बाकी के पन्नों में उप्र और बिहार के छोटे - छोटे स्थानों के समाचार भरे पड़े हैं | 

बाद में मुम्बई के एक पत्रकार मित्र से चर्चा में पता चला कि उस अख़बार का यहाँ ज्यादा प्रसार नहीं था | तब  किसी मार्केटिंग विशेषज्ञ ने उसके प्रबन्धन को सलाह दी कि बजाय मुम्बई के स्थापित अखबारों से प्रतिस्पर्धा करने के क्यों न उप्र  और बिहार पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया जावे जिससे इस महानगर में रहने वाले उत्तर भारतीय समुदाय को उनके देस की खबरें मिलती रहें | सलाह पर अमल किया गया और जल्दी ही उस अखबार को मुम्बई में अच्छा खासा पाठक  वर्ग मिल गया | उस समय तक मोबाईल फ़ोन तो  आ गये थे लेकिन उनमें इंटरनेट सुविधा नहीं  होने से वह केवल बतियाने के  काम आता था | टीवी के प्रदेशिक चैनलों का चलन भी नहीं था | ऐसे में उस अख़बार ने जो तरकीब आजमाई उसका उसे भरपूर फायदा मिला |

 वैसे ये फार्मूला मुम्बई की राजनीति पहले ही आजमा चुकी थी | सभी प्रमुख पार्टियों ने उप्र और बिहार के एक दो चहरे सामने करते हुए इन राज्यों के लोगों के मतों को अपनी तरफ खींचने में भी सफलता प्राप्त की | स्व. बाल ठाकरे ने यूँ तो शिवसेना का गठन दक्षिण भारतीय लोगों के विरुद्ध किया था लेकिन बाद में वे उत्तर भारतीयों के मुम्बई में बसने की मुखालफत करने लगे किन्तु शिवसेना के मुखपत्र सामना में  उन्हीं के दौर में उप्र और बिहार के संपादक बनाये गये | कांग्रेस ने भी मुम्बई में कुछ उत्तर भारतीय नेताओं को अपने पाले में रखकर वोटों की फसल काटी | एक तो मुम्बई प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष तक रहे |

 उप्र और बिहार के लोगों की बड़ी संख्या देखते हुए मुम्बई के फिल्म उद्योग में भोजपुरी फिल्मों का निर्माण भी शुरू हुआ जिनने जबरदस्त सफलता हासिल की | ये फिल्में मुम्बई  में तो खूब पैसा बटोरती ही हैं पूर्वी उप्र और बिहार में  भी इनकी खूब मांग है | रवि किशन और मनोज तिवारी तो सुपर स्टार का दर्जा पा गये | हालाँकि आजकल दोनों राजनीति में हैं | मनोज को भाजपा ने दिल्ली में रहने वाले उप्र और बिहार के मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए दिल्ली प्रदेश  का अध्यक्ष तक बना दिया | वे दूसरी बार दिल्ली से लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं | पिछले चुनाव में तो उन्होनें वहां की दिग्गज नेत्री  और पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हरा दिया |

 फिल्मों की तरह से ही भोजपुरी लोकगीतों पर आधारित संगीत भी बड़ा उद्योग बन गया है | लेकिन इस सबके पीछे कहीं न कहीं मुम्बई ही है | जहां दूधवाले और टैक्सी चालकों से शुरू हुआ उत्तर भारतीय लोगों का आधिपत्य इस हद तक जा पहुंचा कि चौपाटी के समुद्र तट पर आयोजित होने वाली छठ पूजा रोकने की धमकी देने वाली शिवसेना भी अब उप्र और बिहार के लोगों की मिजाजपुर्सी करने लगी है | चौपाटी पर भेल के जितने खोमचे हैं उनमें अधिकतर भैया कहलाने वाले उक्त राज्यों से आये लोगों के ही हैं |

लेकिन गत दिवस शाम के समय मुम्बई के बांद्रा स्टेशन पर हजारों उत्तर भारतीयों की भीड़ एकत्र हों गई  | उनकी मांग थी कि उन्हें उनके गाँव देस जाने की व्यवस्था करवाई जावे | आज चूँकि लॉक डाउन का पहला चरण पूरा हो रहा था अतः इस उम्मीद में कि शायद अब उत्तर भारत के  लिये रेल चलेगी और बीते तीन हफ्ते से बिना रोजी रोटी के मुम्बई में रहने में जो तकलीफ उन्हें हुई उसका खात्मा हो सकेगा | 

कुछ खबरिया चैनलों के अनुसार  बांद्रा में स्थित किसी धर्मस्थल से उन्हें ऐसा करने के लिए भड़काया गया था | पुलिस के समझाने पर भी जब भीड़ नहीं हटी तब बल प्रयोग किया गया | अब पुलिस इस बात की तहकीकात कर रही है कि सुबह प्रधानमंत्री द्वारा लॉक डाउन बढ़ाये जाने के घंटों बाद ऐसा क्या हुआ जो हजारों उत्तर भारतीय बांद्रा  स्टेशन पर आकर जमा हो गये | चूँकि दिल्ली में इस तरह की घटना हो चुकी थी इसलिए प्रवासी मजदूरों पर हर जगह नजर रखते हुए उनके भोजन आदि की व्यवस्था की जा रही थी | हालांकि मुम्बई में जमा हुई भीड़ दिल्ली की तुलना में बहुत ही छोटी थी किन्तु इस घटना से उप्र और बिहार के करोड़ों लोगों की  अपना गाँव देस छोडकर  परदेस में बदहाली का जीवन जीने की मजबूरी सामने आ गई |

 पहले केवल मुम्बई में उत्तर  भारतीयों की मौजुदगी महसूस की जाती थी किन्तु आज की  स्थिति में दिल्ली , कोलकाता , सूरत , नागपुर , हैदराबाद या अन्य  किसी भी बड़े शहर जाने पर उप्र और बिहार के लोग बड़ी संख्या में मिल जायेंगे | उल्लेखनीय है कि ये दोनों ही क्रमशः देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य हैं | लोकसभा की लगभग 22 - 23 प्रतिशत सीटें इन्हीं दो राज्यों से आती हैं |

आजादी के बाद पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल  नेहरु उप्र और प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद बिहार के थे | हालंकि उनके बाद में बिहार को वैसा गौरव तो नहीं मिला लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में उसकी धमक सदैव महसूस की जाती रही | 1974 में बाबू जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए आन्दोलन की परिणिति तो  तो इंदिरा गांधी जैसी मजबूत मानी जानी वाली प्रधानमन्त्री की  पराजय की रूप में हुई | उसके बाद की भारतीय राजनीति जिस तरह जाति के इर्द गिर्द आकर सिमटी वह  बिहार प्रभाव ही कहा  जा सकता है |

 इसी तरह भारतीय राजनीति में सबसे ताकतवर और असरकारक प्रदेश के रूप में कोई प्रदेश है तो वह है उप्र | देश  में अब तक जितने भी प्रधानमन्त्री हुए उनमें मोरार जी देसाई , एचडी देवगौड़ा , इन्दर  कुमार गुजराल और डा. मनमोहन सिंह को छोड़ सभी उप्र से ही हैं | नरेंद्र मोदी को जब प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार उनकी पार्टी ने घोषित किया तब उन्होंने भी गुजरात को छोड़कर वाराणसी को अपना निर्वाचन क्षेत्र बनाया जिससे उप्र के साथ ही बिहार को भी प्रभावित किया जा सके | और वह प्रयोग लगातार दो बार सफल साबित हुआ |

 आज के संदर्भ में इन दोनों राज्यों की लम्बी चर्चा करने का  मकसद ये है कि राजनीतिक दृष्टि से  जागरूक और महत्वपूर्ण राज्य से इतने लंबे समय से करोड़ों लोग देश के महानगरों के अलावा उद्योग धंधों वाले दूसरे शहरों में जाकर मजदूरी करने क्यों मजबूर हुए ? 

आश्चर्य इस बात पर भी होता है  कि ये सिलसिला दशकों से लगातार जारी रहने  के बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रहा ? मुम्बई में  ऐसे हजारों उत्तर भारतीय परिवार मिल जायेंगे जो तीन - तीन पीढ़ी से वहां रहने के बाद भी  मुम्बई को  अपना स्थायी  ठिकाना नहीं बना सके | कहने को प्रवासी मजदूर उड़ीसा  और छत्तीसगढ़ से भी बाहर जाते हैं लेकिन उप्र और बिहार की तुलना में उनकी संख्या नगण्य है |

सवाल ये है कि मौजूदा हालात में तो इन दोनों राज्यों की सरकारें   इन प्रवासियों की खूब चिंता करती  दिख रहीं हैं लेकिन क्या कभी किसी ने इस बात की फ़िक्र की कि उनके राज्य की इतनी बड़ी श्रम शक्ति आखिर बाहर जाकर बदहाली की जिन्दगी जीने के साथ ही स्थानीय लोगों की ईर्ष्या और कई बार तो घृणा तक झेलने को क्यों   मजबूर होती है ?

 भारत एक संघीय गणराज्य है जहां किसी भी राज्य के नागरिक को किसी दूसरे  में जाकर आजीविका कमाने और स्थायी  रूप से बसने का अधिकार है | सरकारी नौकरी , उद्योग -- व्यवसाय या ऐसे ही किसी अन्य उद्देश्य के कारण यदि कोई व्यक्ति अपने मूल स्थान को छोड़कर अन्यत्र कहीं ठिकाना बनाता है तब तो बात समझ में आती है | मारवाड़ी और गुजराती समाज इसका सबसे अच्छा उदाहरण है , जो व्यवसायिक कारणों से ही देश भर में फ़ैल गया  और सफल भी रहा | हालंकि असम और उड़ीसा में कतिपय घटनाएँ  ऐसी हुईं जिनमें मारवाड़ी व्यवसायियों पर हिंसक हमले हुए लेकिन उसके दूसरे कारण थे  | ये वर्ग चूंकि बड़ी संख्या में रोजगार प्रदाता होता है इसलिए इसे सामाजिक प्रतिष्ठा भी सहज रूप से मिल जाती है  लेकिन मजदूरी या छोटा - मोटा काम करने वालों को वह सुख और सम्मान नसीब नहीं होता और यही हर प्रवासी के साथ जुड़ी विडंबना है |

 आज से कुछ बरस पहले मैं पारिवारिक काम से गुजरात के सूरत शहर गया | मैंने पाया कि सूरत में उत्तर भारतीय कामगार बहुत बड़ी संख्या में थे | उन दिनों मुम्बई में शिवसेना से अलग हुए राज ठाकरे की पार्टी मनसे ने उप्र और बिहार के लोगों के विरुद्ध उग्र आंदोलन चला रखा था | उसी परिप्रेक्ष्य में  मैने एक प्रबन्धन सलाहकार से जानना चाहा कि मुम्बई के  माहौल का असर यहाँ रह रहे  प्रवासी कामगारों पर तो नहीं होगा क्योंकि मुम्बई और सूरत एक दूसरे से काफ़ी जुड़े हुए हैं | लेकिन मुझे ये जानकर आश्चर्य हुआ हुआ कि उस समय सूरत के उद्योग - व्यवसाय में मानव संसाधन की कमी होने से 2 लाख की जरूरत और थी | उसके बरसों बाद जब गुजरात में  पाटीदार आन्दोलन हुआ तब ये पता लगा कि उसके पीछे भी कहीं न  कहीं उत्तर भारतीय प्रवासियों का विरोध भी था | हालांकि बाद में वह आन्दोलन शांत हो गया लेकिन उस समय भी उत्तर भारतीय प्रवासी मजदूरों को रातों - रात  भागना पड़ा था |

 ये सब देखते हुए ही इस सवाल का उत्तर मांगने  की जरूरत महसूस होती है कि जिन दो राज्यों की जनता देश  के हुक्मरानों की तकदीर तय करती है , वहां के करोड़ों लोग  रोजी - रोटी की तलाश में सैकड़ों मील दूर जाकर ऐसी जिन्दगी  जीने को मजबूर क्यों रहते हैं जिसमें न स्थायित्व है और न ही सम्मान | ऐसा नहीं है कि उप्र और बिहार से निकलकर दूसरी जगहों पर गये सभी मजदूरी ही करते हों | अनेक ऐसे भी हैं जिनने छोटे से काम शुरू किया और बाद में सम्पन्न बने | लेकिन ऐसे लोगों की तादात बेहद कम है |

 लॉक डाउन के दौरान पहले दिल्ली और आज मुम्बई के दृश्य देखकर वास्तव में दुःख हुआ | उप्र और बिहार की सरकारें अपने भूमिपुत्रों  की सलामती को लेकर जो संवेदनशीलता दिखा रही हैं वह प्रशंसनीय है | लेकिन कोरोना संकट ने उन्हें इस समस्या का हल तलाशने पर विचार करने का अवसर दिया है |

 सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि कृषि के साथ परंपरागत उद्योग - धन्धों से जुड़े  उप्र और बिहार के उद्यमियों से बात करें तो वे भी श्रमिकों की कमी का रोना रोते हैं | ऐसे में इन दोनों राज्यों में कोरोना संकट के बाद एक तरह की ऐसी क्रान्ति होनी चाहिए जो राजनीतिक नफे - नुकसान से ऊपर उठकर उन उपायों को लागू करने पर केन्द्रित  हो जो  उप्र और बिहार से कामगारों का पलायन रोक सकें  |

एक ज़माने में बिहार और पूर्वी उप्र के लोगों को अंगरेजी सत्ता पानी के जहाज़ों में भरकर मारीशस और कैरीबियन देशों तक ले गई थी | सैकड़ों वर्ष पहले उन अनजान जगहों पर जाने वाले उनमें से कोई जीवित नहीं लौट सका | कालांतर में उनकी संतानों में से अनेक उन्हीं देशों के राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री भी बने | अपने पूर्वजों की  धरती से उनका भावनात्मक लगाव आज भी है किन्तु सदियों पहले इन राज्यों से धोखे से सात समन्दर पार ले जाए गये मजदूरों को को जिस तरह जानवरों जैसे रखा गया वह दर्द भरी दास्तान एक तरफ जहां आँखों को नम कर देती है तो दूसरी ओर शर्म  से नजरें झुकाने को भी बाध्य करती है | ऐसा लगता है मजदूरों का निर्यात करना इन राज्यों की नियति बनकर रह गयी है |

 ये चिंता से भी बढ़कर चिंतन का विषय है कि जो राज्य देश की सत्ता का फैसला करने की ताकत रखते  हैं वे अपने ही लोगों की तकदीर संवारने के बारे में उदासीन या यूँ कहें कि असमर्थ  हैं | 

एक समय था जब रेल मंत्रालय पर बिहार का स्थायी कब्जा था | रेल बजट में बिहार को सबसे ज्यादा रेल  गाड़ियों की सौगात दिए  जाने पर जब तत्कालीन रेलमंत्री लालूप्रसाद यादव से सवाल किया गया तब उनने अपनी चिर परिचित शैली में जवाब देते हुए कहा कि बिहार से सबसे ज्यादा लोग बाहर जाते भी तो हैं |

 लेकिन आज तक कोई इस बात का जवाब नहीं दे सका कि आखिर बाहर जाते क्यों हैं ? 

No comments:

Post a Comment