Sunday 19 April 2020

पाप साबित होने पर भी प्रायश्चियत नहीं किया तो...अगली सजा इससे भी कड़ी होगी !



 

 जिन शहरों में नदियाँ हैं वहां के लोग आजकल बड़े ही प्रसन्न हैं | नदियों का जल अपने आप स्वच्छ हो गया | घाटों के किनारों पर मछलियां  मंडराती दिख रही हैं | जल का  वैज्ञानिक परीक्षण करने पर उसकी गुणवत्ता में आश्चर्यजनक सुधार पाया गया | अनेक शहरों में सरोवरों के करीब विदेशी पक्षियों का डेरा अभी तक जमा हुआ है | किसी को दूर से पहाड़ नजर आ रहे हैं तो कोई कह रहा है कि लगता है आसमान में नए तारामंडल चमकने लगे हैं | हवा की शुद्धता नापने वाले उपकरण भी अच्छी खबर दे रहे हैं | अनेक मित्रों ने स्वीकार किया कि दिन में पारा 40 डिग्री पहुंचने के बाद भी उन्होंने अब तक अपने घरों में एयर कंडीशनर चालू नहीं किये | भले ही रात उतनी ठंडी न हो लेकिन पंखे में काम चल जाता है | मैं भी उनमें से एक हूँ | यहाँ तक कि मैंने दोपहर अख़बार के दफ्तर जाने के समय भी कार का एसी नहीं चलाया | यद्यपि इसके पीछे सरकार द्वारा किया गया आग्रह भी है किन्तु मैं देख रहा हूँ कि आधे अप्रैल के बाद भी अभी गर्मी ने उतना हलाकान नहीं किया | चूँकि इलेक्ट्रिशियन उपलब्ध नहीं हैं इसलिए विंडो कूलर्स की फिटिंग भी नहीं हो सकी |

 
वाराणसी में गंगा और यमुना की स्वच्छता से पूरे देश में राहत भरी प्रसन्नता का अनुभव किया गया | बीते कुछ दिनों से हम जबलपुर वासियों को नर्मदा नदी के बारे में भी ऐसी ही उत्साहजनक जानकारी  मिल रही है | घाटों पर कचरे का नामोनिशान नहीं है | पूजा सामग्री बेचने वाली दुकानें बंद हैं | प्रातःकाल नर्मदा स्नान करने वाले 25 मार्च से नहीं आ रहे | और शाम को नर्मदा भक्तों की , जिनमें राजनेता भी बड़ी संख्या में होते हैं ,  धमाचौकड़ी बंद है | घाटों पर होने वाले दीपदान और बहाव के अभाव में सड़ांध मारती विसर्जित पूजन सामग्री की अनुपस्थिति ने भी न जाने कितने दशकों बाद पुण्य सलिला  कही  जाने वाली नर्मदा को चैन की साँस लेने का अवसर दिया है |

बीते कुछ दिनों से स्थानीय प्रेस फोटोग्राफर नर्मदा पर फोकस कर रहे हैं | धरती  पर खड़े रहकर खींचे जाने वाले चित्रों के अलावा ऊंचाई से ड्रोन कैमरों द्वारा  लिए जा रहे चित्र देखकर लगता नहीं कि ये वही नदी है | और विगत दिवस किसी ने अंडर वाटर चित्र भी लिए जिनमें तलहटी साफ़ नजर आ रही और उसमें पड़ी वे चीजें भी जो वजनदार होने से बह नहीं सकीं | इसी तरह का सुखद एहसास नर्मदा पर ही प्रकृति निर्मित विख्यात धुंआधार जलप्रपात भी दे रहा है जिसका जल पूर्वापेक्षा अधिक दूधिया हो गया है |

 जबलपुर शहर से डुमना हवाई अड्डे जाने वाले मार्ग पर खंदारी झील के किनारे विकसित किये गये नेचर पार्क में रहने वाले वन्य पशु - पक्षी तो मानो कोरोना महोत्सव मना रहे हैं | 

पहली बार उन्हें  अनुभव हो रहा है कि ये वाकई नेचर पार्क है  | कुछ चित्रों में हिरणों के विशाल झुण्ड दिखाई   दे रहे हैं जो इसके पहले इस संख्या में किसी को नहीं नजर आये | तेंदुआ जैसे पशु भी मनुष्य रूपी दो पैरों वाले प्राणी की अनुपस्थिति से ये अनुभव कर पा रहा है कि इस वन संपदा पर पहला अधिकार पशु - पक्षी समुदाय का है |

 आप सब भी अपने - अपने स्थान पर वातावरण में आये सुखद बदलाव से आनन्दित हो रहे होंगे | कभी - कभी ऐसा भी प्रतीत होने लगता है मानो अभी तक हम सभी किसी ऐसे कमरे में रह रहे थे जिसके दरवाजे और खिड़कियां इस बुरी तरह से बंद थे कि बाहर  की हवा अंदर प्रवेश ही नहीं कर  पा रही थी | लेकिन अचानक उन सबको खोल दिया गया जिसकी वजह से कमरा रोशनी और शुद्ध हवा के अकल्पनीय अनुभव से भर उठा हो |

 पहाड़ों और अन्य पर्यटन स्थलों पर सैलानियों का हुजूम नहीं होने से उनका नैसर्गिक सौन्दर्य और निखरकर सामने आया है | देश भर में बीते 25 दिनों से पेट्रोल और डीजल का धुंआ फेंकने वाले वाहन सड़कों से गायब हैं , रेल और हवाई यातायात ठहरा हुआ है , कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला प्रदूषण भी लुप्त है | बाकी कारोबारी गतिविधियाँ अवरुद्ध  होने से  कचरे की निकासी भी चूँकि घट गई है इसलिए प्रकृति से जुड़ी हर गतिविधि को लम्बे समय बाद जैसे आजादी मिली  |

गत दिवस  सुबह मैं घर की बालकनी में रखे गमलों में से पूजा के लिए फूल तोड़ने गया तो अर्से बाद दो तितलियां एक गमले पर सुस्ताती दिखीं | उनके आराम में खलल न पड़े इसलिए मेरे कदम ठिठक गए | कुछ देर बाद जब वे नजर नहीं आईं तब जाकर फूल प्राप्त किये | ये तो छोटा सा उदाहरण है जिससे मेरा साक्षात्कार हुआ | लेकिन जिस शहर में भी मित्रों और संबंधियों से बात होती है वे सभी ये मानते हैं कि लॉक डाउन की अन्तर्निहित परेशानियों के बाद भी माहौल में सुखद और  सकारात्मक बदलाव आया है |

 जरा पीछे चलें तो हमारे देश में पर्यावरण जिस खतरनाक स्थिति तक जा पहुंचा था उसके कारण आप  छोटे , मध्यम या महानगर कहीं भी रह रहे हों , धीमा ज़हर सांसों के जरिये शरीर में प्रविष्ट होता जा रहा था | किसी भी प्रकार का मास्क  उसे रोकने में सक्षम नहीं था | स्वस्थ जीवन के लिए केवल अच्छा रहन - सहन , पौष्टिक आहार ,आमोद - प्रामोद , सुख सुविधाएँ ही नहीं अपितु शुद्ध आबोहवा और प्रकृति के साथ अच्छा संतुलन भी जरूरी होता है |

 सम्पन्न वर्ग ने तो शुद्ध पर्यावरण के लिए अंग्रेजों की देखासीखी ब्रिटिश राज में  विकसित  हिल स्टेशनों में जाना शुरू कर दिया | लेकिन मानवीय अतिक्रमण के अतिरेक ने वहां का प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया | 

सत्तर - अस्सी  के दशक में मैंने कुमाऊं , हिमाचल , गढ़वाल और जम्मू कश्मीर में जगह - जगह रास्तों पर बहता पानी देखा था | जो ऊंचाई से झरने  की शक्ल में सड़कों  रूपी सीढ़ियों से उतरता हुआ नीचे बह  रही नदी या पहाड़ी नाले में मिलकर उसे प्रवाहमान करता था । वह जल शीतल  होने के साथ पूरी तरह साफ़ रहता जिसे वहां से गुजरने वाले लोग पीने के लिए भर लिया करते थे | पहाड़ी रास्तों में चढ़ाई  होने से वाहनों के एंजिन भी जल्दी गर्म हो जाते थे | उन झरनों का पानी उन्हें ठंडा करने में भी सहायक होता | उसके स्पर्श से थकान दूर हो जाती थी | आसपास रहने वाले वहीं से अपनी जल सम्बन्धी जरूरतें पूरी कर  लेते थे |

 लेकिन उसके बाद के दशकों में मैंने  झरनों की संख्या में उत्तरोत्तर कमी के बाद उनको लुप्त होते भी देखा | हिमालय की विशाल पर्वत श्रृंखला के आंचल में छिपे मीठे पानी के हजारों साल पुराने स्रोत के रूप में विद्यमान हिमनदों ( ग्लेशियरों ) के पिघलकर सिकुड़ जाने की जानकारी हमारी प्रमुख नदियों के अस्तित्वहीन होने के भविषयवाणी कर रही हैं |

 देश में सबसे ऊँचाई पर स्थित हिल स्टेशन है शिमला | यहाँ जाकर सैलानी गर्मी में भी ठंड का एहसास करता था| लेकिन अब हिमाचल की राजधानी में गर्मियों में भी पंखे और एसी चलने लगे हैं | पेय जल के लिए वैसी ही मारामारी होती है जैसी मैदानी शहरों में | मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है लेकिन लगभग 25 वर्ष पूर्व जून के महीने में वहां जाने पर मुझे ये नहीं लगा कि मैं किसी ऊँचे स्थान पर हूँ |

 सत्तर के दशक में ऋषिकेश के शिवानन्द आश्रम में कुछ दिन ठहरा था | गंगा जी में सैकड़ों लकड़ी के बड़े - बड़े लट्ठे बहते हुए देखने के बाद कौतुहलवश पता करने पर ज्ञात हुआ कि जंगल के ठेकदारों द्वारा ऊँचाई  वाले स्थानों पर वृक्ष काटने के बाद उसके टुकड़े कर बहा दिए जाते हैं | सब पर ठेकेदार अपनी पहिचान वाला ठप्पा लगा देता था और उसके लोग मैदानी इलाका आते ही उनको उठा लेते थे  | बहुत बाद में जब चिपको आन्दोलन शुरू हुआ तब मालूम चला कि पहाड़ों का वातावरण खराब करने में वृक्षों की अविवेकपूर्ण कटाई बड़ा कारण बनी | ये दंश तो मैदानी इलाकों को  भी  वन संपदा की लूटमार के कारण सहना पड़ा | यहाँ तक कि समुद्र तट तक के सौन्दर्य तक को मानवीय वासना ने नष्ट कर दिया | मुम्बई इसका सबसे अच्छा उदाहरण है |

 समूची चर्चा का सार ये है कि लॉक डाउन के तीन सप्ताहों ने हम सबका गुनाह साबित कर दिया | कोरोना से बचाव के लिये पूरी दुनिया ज्यादा से ज्यादा वेंटीलेटर नामक उपकरण हासिल करने के लिए प्रयासरत है , जो फेफड़े का मशीनी विकल्प है | लेकिन जब कोरोना नामक वायरस के भय से समूची मानव जाति की साँसें ऊपर नीचे हो रही हैं तब प्रकृति को  लम्बे इंतजार के बाद खुली हवा में सांस लेने और अपनी मर्जी से जीने का अधिकार और अवसर मिला | लेकिन ये सब तब सम्भव हुआ जब वह मनुष्य के बेजा हस्तक्षेप से मुक्त हुई |

 ये भी कहना गलत नहीं होगा कि बीते कुछ सप्ताह प्रकृति और पर्यावरण के लिए पराधीनता से मुक्ति की अनुभूति जैसे रहे | अब जबकि ये प्रमाणित हो चुका है कि प्रकृति के साथ अमानुषिक अत्याचार के लिए हम सभी सामूहिक रूप से दोषी है तब क्या इसका दंड हमें नहीं मिलना चाहिए ? 

वर्तमान स्थिति यदि हमने स्वेच्छा से बनाई होती तब इसे सदाशयता मानकर हम दंड में रियायत के हकदार हो सकते थे लेकिन ये तो फिसल पड़े तो हर गंगे वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली  है |

 इस सबंध में हमें ये बात बिना लाग - लपेट के स्वीकार कर लेनी चाहिए कि यदि पाप हमने किये तो उसका प्रायाश्चियत भी खुद होकर हमें ही  करना चाहिए | यदि हम इसके बाद भी सीनाजोरी करते रहेंगे तो फिर ये मानकर चलना होगा कि अभी तो प्रकृति की निचली अदालत ने हमें कुछ दिन  की नजरबंदी के साथ  एक तरह से सुधर जाने की नसीहत दी है | इसे न समझ पाने की स्थिति में दंड और कड़ा होते - होते उस स्थिति से भी आगे तक जा सकता है जिसका दर्दनाक अनुभव अमेरिका , इटली , फ़्रांस , स्पेन जैसे उन देशों को करना पड़ रहा है जो खुद को पर्यावरण का सबसे बड़ा संरक्षक होने का ढोंग तो करते हैं लेकिन धरती , समुद्र और आकाश तक में उसके साथ अत्याचार करने में कभी पीछे नहीं रहे | साथ ही गरीब और विकाशील देशों पर रौब जमाते हुई  उन्हें संधियों  और समझौतों की जंजीरों में जकड़कर अपनी चौधराहट जमाये रहे | वहीं चीन ने विकास की हवस में एक तरह  से व्यभिचारी जैसा आचरण करते हुए पूरी मानवजाति को मौत के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया |

 लेकिन उक्त देशों की अपेक्षा भारत का दोष कहीं ज्यादा कहा जाएगा क्योंकि उन देशों की तो सोच ही भोगवादी है जबकि हमारा समूचा जीवन दर्शन और शैली प्रकृति के साथ मित्रता बनाये रखते हुए उसकी सुरक्षा के प्रति सदैव समर्पित रहने पर आधारित है |

 पृथ्वी को माता का दर्जा देना , सूर्य को जल अर्पित करना , तुलसी के पौधे से आध्यात्मिक चेतना प्राप्त करना जैसे संस्कारों को दकियानूसी बताने वाले दरअसल बौद्धिकता के अजीर्ण का शिकार हैं |

 मौजूदा संकट ने हमें हल्की सी सजा के साथ कुछ महत्वपूर्ण संकेत और सन्देश भी दिए हैं | उन सबका निचोड़ ये है कि लॉक डाउन समाप्त होने के बाद जब ज़िन्दगी दुबारा व्यवस्थित तरीके से शुरू हो तब हमें इस दौरान महसूस किये सुखद एहसासों को स्थायी बनाने के प्रति संकल्पबद्ध होना पड़ेगा | 

इस दौर का सबसे गंभीर और यक्ष प्रश्न ये है कि क्या हम कोरोना उपरांत आने वाने वाले दौर में अपनी पुरानी गलतियों को दोहराने से बचेंगे ? क्या गंगा , यमुना , नर्मदा के जल की शुद्धता आज जैसी ही रहेगी , क्या वायु प्रदूषण के स्तर में हुआ सुधार कायम रहेगा और क्या हिमालय में स्थित ग्लेशियरों को नष्ट होने से रोका जा सकेगा ?  

 ऐसे ही अनेक प्रश्न समूची मानव जाति के सामने प्रकृति ने रख दिए हैं | कोरोना संकट की वजह से भले ही निचली क्लास के छात्रों को बिना परीक्षा दिये ही पास किया जा रहा है लेकिन हमें प्रकृति की परीक्षा में उत्तीर्ण होना ही पड़ेगा | अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि अगली बार हम परीक्षा देने की पात्रता तक खो दें |

 मेरे एक मित्र हमेशा कहते हैं कि इन्सान को अपना वजन और पाप स्वयं ढोना पड़ते हैं | शरीर का वजन तो  जिम में जाकर कम किया भी जा सकता है लेकिन इसके पहले कि पापों की गठरी के बोझ  से कंधे जवाब दे जाएं हमें उनके प्रायश्चियत  की प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए |

 दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे महाभारत के एक गीत की पंक्ति है :--

सीख हम बीते युगों से , नये युग का करें स्वागत ....

क्या नये युग का स्वागत करने के पहले अतीत से हम कुछ सीखेंगे या  अपने विनाश की पटकथा लिखने पर आमादा बने रहेंगे ?

ध्यान रहे ये सवाल किसी एक से नहीं सभी से है क्योंकि धरती पर अवतरित  होने के बाद तो भगवान को भी उनकी गलतियों के लिए शापित  होकर उनका दंड यहीं भोगना पड़ा था फिर हम इंसानों की क्या औकात ?

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