Saturday 18 April 2020

संस्कृति रूपी धरोहर की रक्षा सरकार नहीं संस्कार करते हैं संयम ही इस युद्ध का सबसे अचूक अस्त्र है

संस्कृति रूपी धरोहर की रक्षा सरकार नहीं संस्कार करते हैं

 संयम ही इस युद्ध का सबसे  अचूक अस्त्र  है

 
परसों रात  जबलपुर के एक पत्रकार  मित्र का फोन आया और उन्होंने मुझसे विश्व विरासत दिवस (World Heritage Day) पर संदेश मांगा | मैंने  जबलपुर के  आसपास की धरोहरों के बारे में अपनी राय उन्हें बता दी | हालाँकि ये एक दिवसीय कर्मकांड मुझे रास नहीं आता | खास तौर पर इसलिए क्योंकि इसमें नैसर्गिकता कम और शुष्क औपचारिकता अधिक  होती है | हमारे देश में तो ऐसा कोई दिन नहीं होता जो किसी न किसी रूप में उत्सव न हो | घास के तिनके से वट वृक्ष और छोटे से पत्थर से हिमालय की चोटियों तक सब कुछ तो हमारी उत्सवधर्मिता के विषय हैं | कुआ , तालाब , झरना , नदी ,और समुद्र में हम देवत्व की उपस्थिति का एहसास करते हैं | चूहा जैसा छोटा सा जीव हो या हाथी जैसा विशालकाय प्राणी , सभी हमारी आध्यात्मिक  मान्यताओं से जुड़े हुए हैं | 

कहने का आशय यह है कि भारत जिस सनातन संस्कृति का अनुगामी है उसमें एकाकीपन न होकर एक समन्वयवादी दृष्टिकोण है | मानव शरीर की रचना में पंचतत्वों की उपस्थिति को भारतीय ज्ञान परम्परा ने सहस्त्रों वर्ष पहले तब समझ लिया था जब आधुनिक चिकित्सा पद्धतियाँ कल्पना के भी बाहर थीं | समूचे ब्रह्माण्ड से अपना नाता जोड़कर उसके साथ सहअस्तित्व के सिद्धांत  का पालन  करते हुए जीना  ही सही मायनों में भारतीय संस्कृति है और यही हमारी विरासत है जिसकी हमें रक्षा ही नहीं करना अपितु सुरक्षित रखते हुए अगली पीढ़ी को हस्तांतरित भी करना है |

 विश्व धरोहर दिवस पर सर्वत्र पुराने निर्माणों , किलों , महलों , धर्मस्थलों , ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी स्थानों सहित उन सभी को सुरक्षित रखने का संकल्प लिया गया जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर से मानव सभ्यता से जुड़े हैं | निश्चित रूप से ऐसी धरोहरों का संरक्षण और संवर्धन होना ही चाहिए | ये अतीत से जोड़ने का माध्यम होने के  साथ ही मानव जाति की संघर्षपूर्ण विकास यात्रा के जीवंत प्रमाण हैं | 

ये बात सही हैं कि पीढ़ियां  आती और जाती रहेंगीं किन्तु हमारे पूर्वजों द्वारा निर्मित  ये अवशेष हमारे मन  में उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव उत्पन्न करते हुए ऐसा  कुछ करने की प्रेरणा भी देते हैं जो हमारे बाद इस दौर की यादें उस दौर के लोगों को दिलाते रहें | दरअसल मानव जाति इसीलिये समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ मानी  जाती है क्योंकि वह अतीत को सहेजने का कठिनतम प्रयास करने के साथ ही  भविष्य का निर्धारण  करने के लिए भी अपनी पूरी प्रतिभा का उपयोग करती है जो उसके हाथ में नहीं है  | उसकी इसी प्रवृत्ति ने तो विज्ञान को जन्म दिया जो शोध के बाद तथ्यों के आधार पर प्रामाणिकता के साथ अपनी बात स्थापित करता है |

 इस आधार पर देखें तो केवल पुराने भवनों या अन्य निर्माणों के अवशेष ही धरोहर नहीं होते बल्कि ज्ञान भी धरोहर है जिसको संरक्षित रखते हुए उसका संवर्धन करना जरूरी है | 

भारतीय संदर्भ में देखें तो श्रुतियों से स्मृतियों और फिर वेद - पुराण , उपनिषद से होते हुए रामायण और महाभारत के रूप में हमें जो अमूल्य धरोहरें प्राप्त हुईं वे हम पर हमारे पूर्वजों का बहुत  बड़ा उपकार है  | वरना बीते इतिहास के ऐसे अनेक मानव निर्मित अवशेष हैं जिनके दौर का इतिहास तो दुनिया जानती है लेकिन उस विरासत का कोई वारिस न होने से वे  लावारिस होकर रह गये  |

 सिन्धु घाटी  , मिस्र , ग्रीक सभ्यता जैसे अनेक नाम हैं जिनके भौतिक अवशेष  आज भी विद्यमान हैं और उन्हें विश्व धरोहर मानकर संरक्षित भी किया जाता है । लेकिन उनके प्रति न किसी का लगाव है और न ही रूचि | और यहीं संस्कृति जैसा शब्द महत्वूर्ण हो जाता है जो किसी भी विरासत के व्यवस्थित हस्तान्तरण की प्रणाली विकसित करते हुए उसे अमरत्व प्रदान कर  देती है । 

सभ्यता  जैसी  किसी बात का  तो अब जिक्र नहीं होता लेकिन संस्कृति की बात आते ही भारत विश्व मानचित्र में एकमात्र ऐसे देश के तौर पर विद्यमान है जिसकी संस्कृति का प्रारंभ कालगणना की सीमाओं से भी परे है | और यही वजह है कि सभ्यताओं के नाम पर उत्पन्न व्यवस्थाएं एक निश्चित कालखंड के बाद अपनी मौत मर गईं क्योंकि उनमें मानव मूल्यों का अभाव  होने के साथ ही सांसारिक व्यक्ति को ईश्वर मानकर उसकी सत्ता को  स्वीकार करने के लिये डाला जाने वाला दबाव था | उनके जल्दी अस्तित्वहीन होने का एक कारण ये भी रहा कि वे किसी सनातन परंपरा से अलग तात्कालिक रूप से गढ़ी  गई मान्यताओं को ही अंतिम सत्य मानती थीं | ऐसा नहीं था कि उन सभ्यताओं के काल में विचार शून्यता रही हो | अनेक दार्शनिक और वैज्ञानिक ऐसे हुए जिनका दर्शन और शोध आज तक अध्ययन का विषय है  | लेकिन उनके अपने दौर में ही उसे नकार भी दिया गया |

 इसके विपरीत  भारतीय संस्कृति  में जड़ता कभी नहीं रही | ज्ञान परम्परा के सभी साधकों को युग  प्रवर्तक के तौर पर मान्य किया गया | उनके निष्कर्षों को कसौटी पर कसा जाने के बाद भले  ही अस्वीकार किया गया लेकिन उसे भावी पीढ़ियों की जानकारी के लिए सुरक्षित रखकर विरासत का हिस्सा बनाया गया | इसी कारण ये माना जाता है कि सुधार और उससे जुड़े संशोधनों के कारण भारतीय संस्कृति ने समय - समय पर उत्पन्न हुए विरोधाभासों और अंतर्द्वंदों का सकारात्मक तरीके से  समाधान निकालकर अपने मूल स्वरुप को अक्षुण्ण बनाये रखा | और इसी वजह से उसे  सही मायनों में विरासत कहलाने का अधिकार है |

अक्सर विरासत पर कब्जे के लिए वारिसों में विवाद होते हैं | कभी - कभी तो वे इतने भयानक होते हैं कि विवाद खत्म होने तक विरासत ही नष्ट होकर रह जाती है | लेकिन भारतीय संस्कृति को एक या कुछ अवशेषों , पांडुलिपियों अथवा अवधारणाओं तक सीमित नहीं रखे जाने के कारण ही वह विरासत के लिए होने वाले किसी भी विवाद से परे रही |

 चूँकि वैदिक संस्कृति का कोई ज्ञात संस्थापक नहीं है , इसलिए वह सहज स्वीकार्य हो जाती है | यदि उसके साथ उसके रचयिता या उपदेशक का नाम होता तब वह निर्विवाद शायद नहीं रहती | विश्व के सामने आज जो संकट खड़ा हुआ है उसमें यदि भारतीय समाज पूरी मुस्तैदी से और काफी हद तक बिना डरे  डटा हुआ है तो ये उसी सांस्कृतिक विरासत के कारण है | इसमें जीवन मूल्यों का महत्व है जो प्रत्येक जीव के कल्याण के  प्रति संवेदनशील है | 

गत दिवस भारत सरकार के संस्कृति एवं पर्यटन राज्यमंत्री ( स्वतंत्र प्रभार ) प्रह्लाद सिंह पटेल ने बड़ी ही अच्छी बात कही | कोरोना संकट का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि हम साधन से नहीं संयम से जीत हासिल कर रहे हैं | उल्लेखनीय है प्रह्लाद भाई की पहिचान उनकी सियासत नहीं अपितु शख्सियत है | वे नर्मदा नदी की  अनेक बार पैदल परिक्रमा कर चुके हैं | इस कारण उन्हें सहज रूप से नर्मदा भक्त कहा जाता है | लेकिन उससे बढ़कर वे उसके सेवक भी हैं | पूरे नरसिंहपुर जिले में नर्मदा तटों की सफाई जैसा महायज्ञ उनके सेवाभाव को दर्शाता है | मंत्री  बनने के बाद भी जबलपुर प्रवास के दौरान वे नर्मदा जी  के किनारों पर पड़ी गन्दगी खुद साफ़ करते देखे जा सकते हैं |

 इसीलिये जब उन्होंने कहा कि मौजूदा युद्ध साधनों से नहीं वरन  संयम से जीता जा रहा है , तब उनकी बात विश्व धरोहर दिवस से स्वाभाविक रूप से जुड़ गई ।  क्योंकि संयम हमारा संस्कार है और यह संस्कार हमें अपनी संस्कृत्ति रूपी विरासत से ही प्राप्त हुआ है | इस आधार पर कहा जा सकता है कि धरोहर किसी भी रूप में हो लेकिन उसका संरक्षण संस्कार द्वारा ही हो सकता है और होना भी चाहिए |

 भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज का जो वातावरण है उसमें संयम ही सबसे  बड़ा शस्त्र है | 130 करोड़ लोगों का ये देश न  तो चीन की तरह तानाशाही के अंतर्गत है और न ही अमेरिका जैसा सम्पन्न | इसके बाद भी यदि लॉक डाउन का दूसरा चरण शुरू करने का साहस सरकार कर सकी तो वह भारतीय जनमानस में  निहित संयम के संस्कार की वजह से ही है | रही बात पुरातात्विक महत्त्व के अवशेषों की तो वे भी अपनी जगह हैं तो विरासत किन्तु उनके साथ जुड़ी सभी बातों की प्रामाणिकता साबित करना कठिन होता है | लिखित इतिहास का अभाव होने से किंवदन्तियां अथवा लोककथाएं ही  उस विरासत का प्रमाण होती हैं | लेकिन संस्कृति  और उससे प्राप्त संस्कार ऐसी धरोहर है जिसकी निरन्तरता ही उसका महत्व और जरूरत साबित कर  देती है |

ऐसे में जिन लोगों को विरासत के संरक्षण में वाकई रूचि हो , उन्हें हमारी संस्कृति और संस्कारों को प्रश्रय देने के काम  में जुटना चाहिए | कोरोना  के बाद सामाजिक जीवन में नये  बदलाव की उम्मीदें की जा रही हैं | ऐसा मानने वालों में वे लोग भी हैं जो लोग अभी तक हम नहीं सुधरेंगे की जिद पकड़े हुए थे | अचानक ऐसा क्या हुआ कि सब अच्छी बातें करने लगे | बल्कि इससे भी आगे बढ़कर तो सकारात्मक सोचने भी लगे | और इसे ही सही मायने में परिवर्तन कहा  जा सकता है |

लेकिन ये क्यों हो रहा है , इसकी तह  में जाने पर भारत की महान सांस्कृतिक  विरासत का शाश्वत स्वरूप सामने आ जाता है | सरकार ने  पुरातात्विक अवशेषों की सुरक्षा के लिए कानून भी बना रखा है | उनके रखरखाव पर करोड़ों रूपये हर साल खर्च होते हैं | लेकिन संस्कृति रूपी धरोहर को सहेजने में न कानून की जरूरत होती  है और न ही धन की | ये समाज की सामूहिक सहमति और इच्छा शक्ति पर आधारित होकर  आगे बढ़ती है |

 
उस लिहाज  से कोरोना संकट एक अवसर बन गया है अपनी धरोहर की सुरक्षा और रखरखाव के प्रति जागरूक होकर कर्तव्य के निर्वहन का | मानव जाति पर आई  इस आपदा ने  भारतीय समाज की  सम्वेदनशीलता को जिस तरह उजागर किया वह हमारी धरोहर का ही तो सांसारिक रूप है | वरना अनेक विकसित देशों में इस बीमारी ने सामाजिक विघटन और अमानवीय सोच को बढ़ावा देते हुए साबित कर दिया कि वहां की सरकारों ने भले ही खंडहर हो  चुके प्राचीन अवशेषों को बतौर धरोहर संरक्षित कर  रखा हो लेकिन वे मानवीय मूल्यों जैसी इन्सानियत रूपी विरासत को नष्ट करने का अपराध भी कर बैठे | संस्कृति राज्यमंत्री  श्री पटेल ने जिस संयम को कोरोना के विरुद्ध मुख्य हथियार बताया वह भारतीय जीवन शैली का आधारभूत गुण है  |

 ऐसा नहीं है कि लोग परेशान  नहीं हैं | घरों में सीमित रह जाना किसी सजा से कम नहीं है | जरूरी चीजों की उपलब्धता में भी कठिनाई तो है ही | गरीबों को हो रही परेशानियां सुनकर हर किसी को दुःख होता है | विलासिता का जीवन जीने वाले लोगों ने भी इस दौरान जिस  सहजता से बदले हुए हालातों से सामंजस्य कायम  किया वह दरअसल सरकारी दबाव से ज्यादा संयम नामक संस्कार का असर है जो भारत की उस प्राचीनतम सांस्कृतिक धरोहर की देन है जिसे हमारे पूर्वजों ने बड़ी ही कुशलता से सुरक्षित रखते हुए और परिष्कृत तथा समृद्ध बनाकर अगली पीढ़ी को हस्तांतरित किया |

अब ये जिम्मेदारी हमारे कंधों पर आ गयी है | कोरोना न आता तब इस विषय की चर्चा का संदर्भ ही नहीं मिलता | अब अवसर मिला है तो उसका उपयोग करना चाहिए | लॉक डाउन के अंतर्गत शारीरिक रूप से घर में रहकर संक्रमण को रोकना जरूरी है | लेकिन मानसिक तौर पर तो हम सभी सक्रिय रह सकते हैं | सरकार , केंद्र की हो अथवा राज्य की , वह इस समय केवल एक समस्या से ही जूझने में व्यस्त है | ऐसी स्थिति में देश के नागरिकों का फर्ज है कि वे अपनी प्राचीन  विरासत को सुरक्षित रखने हेतु विचार प्रक्रिया जारी रखें |

 पुराने खंडहर तो बेशक सरकार के जिम्मे छोड़े जा सकते हैं लेकिन संस्कृति रूपी धरोहर की रक्षा सरकार नहीं संस्कार ही कर सकते हैं |

 क्या हम इसके लिए तैयार हैं ?

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