Thursday 16 April 2020

पढ़े - लिखे मुस्लिम आगे आकर विरोध क्यों नहीं करते



कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वालों के पास अपने तर्क थे। लेकिन कोरोना संकट में आपकी जान बचाने के लिए दिन रात जूझ रहे चिकित्सकों पर पत्थर मारने वालों के पास कौन सा तार्किक आधार है ये कोई नहीं बता पायेगा। गत दिवस उप्र के मुरादाबाद और बिहार के औरंगाबाद में डाक्टरों और उनके सहयोगियों को जिस तरह दौड़ाकर पीटा गया और उनके वाहनों को क्षति पहुंचाई गयी वह इंसानियत के लिहाज से बेहद गिरा हुआ काम है। महिला चिकित्सकों तक को नहीं बख्शा गया। इसके पहले भी इंदौर सहित अन्य जगहों पर चिकित्सा कर्मियों के साथ ही पुलिस वालों पर थूकने और पत्थर फेंकने की घटनाओं ने जनमानस को काफी उद्वेलित किया था। उल्लेखनीय ये है कि उक्त सभी घटनाओं में अधिकतर मुस्लिम समुदाय के लोग ही शामिल थे और स्थान भी उन्हीं की बस्तियां थी। दिल्ली में तबलीगी जमात के मरकज नामक मुख्यालय से निकले जमातियों ने पूरे देश में मुस्लिम समुदाय में कोरोना का संक्रमण फैलाया। मस्जिद में उनके छिपने के कारण अनेक मुल्ला-मौलवी भी चपेट में आ गये। पुलिस उनकी तलाश में जाती है तो ऐतराज किया जाता है। जो चिकित्सक कोरोना मरीजों की जांच आदि के लिए जाते हैं उनका स्वागत सत्कार करने की बजाय उनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाना कहां की अक्लमंदी है? जब इस तरह की वारदात होती है तब मुस्लिम धर्मगुरु और कुछ बुद्धिजीवी इसे इस्लाम विरोधी बताकर निंदा तो करते हैं लेकिन साथ ही ऐसे लोगों के अशिक्षित होने का बहाना बनाकर घटना की गम्भीरता को नष्ट करने का काम भी करते हैं। कल भी ऐसा हुआ। मरकज के मौलाना तो न जाने कहां गायब हो गए। लेकिन जमात के प्रवक्ता टीवी चैनलों पर बैठकर जिस तरह उसका बचाव करते हैं वह देखकर लगता ही नहीं है कि उन्हें अपने समुदाय के कुछ लोगों के जाहिलाना आचरण पर तनिक भी रंज है। ये भी देखने में आया है कि जमात के लोगों द्वारा ही इस तरह की गंदी हरकतों की शुरुवात हुई थी। यदि शुरुवात में ही मुस्लिम समाज के सभी धर्मगुरु इसके विरुद्ध मैदान में आ जाते और कसूरवारों को कड़े दंड का समर्थन करते तब शायद उनकी पुनरावृत्ति रुक सकती थी किन्तु ऐसा नहीं किये जाने से पूरे समुदाय पर छींटे पडऩे लगे। अभी भी रोजाना संक्रमित जमाती कहीं न कहीं पकड़े जा रहे हैं। उसके पहले वे उनके संपर्क में आये कितने लोगों को संक्रमित कर चुके होते हैं ये पता करना प्रशासन के लिए बड़ी समस्या बनती जा रही है। होना तो ये चाहिए था कि मुस्लिम समुदाय के धर्मगुरु और अन्य शिक्षित-समझदार लोग मुस्लिम बस्तियों में घूम-घूमकर लोगों को जाँच और इलाज के लिये प्रेरित करते हुए पुलिस और डाक्टरों के साथ सहयोगात्मक रवैया अख्तियार करने कहते। लेकिन ऐसा लगता है मानों उपद्रवी और धर्मांध तबके का विरोध करने का साहस उनमें नहीं है। इस समय यही मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी समस्या है जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है। कोरोना का साम्प्रदायीकरण करने का आरोप लगाने वाले इस वास्तविकता को भुला देते हैं कि इसका दोषी भी मरकज है। यदि वहां से निकले जमाती तमीज से पेश आते हुए अपनी जाँच और इलाज में सहयोग देते तब किसी को भी उंगली उठाने का अवसर नहीं मिला होता। मुस्लिम बस्तियों में सघन आबादी होने के वजह से सोशल डिस्टेसिंग का पालन करना भी बेहद कठिन है। शिक्षा की कमी जो है सो तो है ही। लेकिन जो लोग थोड़े बहुत पढ़ लिख भी गये हैं वे मुल्ला-मौलवियों के दबाववश जुबान पर ताला लगाये रखते हैं। ये भी बात देखी गयी है कि शिक्षा प्राप्त कर नौकरी या व्यवसाय में जाने के बाद जिन मुसलमानों का जीवन स्तर सुधर जाता है वे समाज से दूरी बनाकर चलने लगते हैं जबकि उन्हें चाहिए कि वे औरों को भी जागरूक बनाते हुए ये सिखाएं कि धर्म में अटूट विश्वास के बावजूद कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। कोरोना को लेकर आम मुसलमान के मन में भ्रम की बातें कुछ पढ़े लिखे मुस्लिम टीवी चैनलों करते हैं। लेकिन क्या ये उनका दायित्व नहीं है कि वे इसे दूर करने आगे आयें। पूरे के पूरे मुस्लिम समाज को जाहिल मान लेना गलत होगा। वकालत, पत्रकारिता, चिकित्सा, राजनीति, व्यापार- उद्योग जैसे अनेक क्षेत्रों में मुस्लिम समुदाय के लोग महत्वपूर्ण स्थिति में हैं। फिल्म निर्माण में भी अभिनेता-अभिनेत्रियां, गीतकार-संगीतकार, निर्माता-निर्देशक जैसी अनेक भूमिकाओं में इस समाज का प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है। इन सभी का फर्ज है कि वे अपनी अलग दुनिया बसाकर न बैठे रहें। मुस्लिम समुदाय की छवि खराब होने पर शाहरुख, सलमान और आमिर खान भी निशाने पर आ जाते हैं। अनेक पढ़े-लिखे मुसलमानों ने इस बात पर चिंता भी जाहिर की है कि तबलीगी जमात और उसकी देखासीखी मुस्लिम समुदाय के कुछ और लोगों द्वारा जिस तरह का उपद्रवी रवैया अख्तियार किया गया उससे सांप्रदायिक आधार पर नये तरह की सोशल डिस्टेंसिंग शुरू हो रही है। इसमें व्यवसायिक बहिष्कार भी शामिल है। निश्चित रूप से ये स्थिति देश के लिए अच्छी नहीं है लेकिन ऐसे में मुसलमानों की रहनुमाई यदि मुल्ला-मौलवी ही करते रहे तब समस्या और बढ़ेगी। मुसलमानों के वोटों के बल पर सत्ता में आते रहे मुलायम सिंह यादव जैसे नेता को भी ऐसे समय में आकर जाहिलपने के विरुद्ध आवाज उठानी चहिये। मुसलमानों को ये समझना चाहिए कि कोरोना के बाद की दुनिया सामाजिक तौर पर भी बहुत बड़े बदलाव से गुजरेगी। ऐसे में यदि वे सबके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की बजाय अपनी दुनिया से बाहर नहीं निकलते तो फिर उन्हें तरक्की की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment