Thursday 31 October 2019

सोनाबंदी : असली खजाना तो नेताओं और अफसरों के पास



यद्यपि अभी तक इसकी पुष्टि नहीं हुई लेकिन छन-छनकर आ रही खबरों के अनुसार केंद्र सरकार सोने को लेकर किसी बड़े फैसले की तरफ  बढ़ रही है। आर्थिक विशेषज्ञ इसे नोटबंदी का दूसरा चरण मान रहे हैं।  जैसी कि जानकारी आ रही है उसके अनुसार एक निश्चित मात्रा के बाद उस सोने पर करारोपण करने की योजना लाई जाने वाली है जिसकी खरीदी बिना बिल के की गयी।  काले धन की तरह ही बिना बिल के खरीदे गये सोने पर टैक्स चुकाकर उसे वैध किया जा सकेगा।  इसके साथ ही घरों और न्यासों में स्वर्ण रखने की सीमा भी तय किये जाने की खबर है।  भारत को कभी सोने की चिडिय़ा कहा जाता था।  भले ही वह विशेषण छिन गया हो लेकिन अभी भी भारत दुनिया के उन देशों में है जहां सोने के प्रति जबरदस्त आकर्षण है।  गरीब से गरीब व्यक्ति तक अपनी मेहनत की कमाई में से स्वर्ण खरीदने की कोशिश करता है। शादी-ब्याह एवं अन्य मांगलिक अवसरों पर स्वर्ण आभूषण दहेज और उपहार में दिए जाते हैं। भारतीय महिलाओं में भी स्वर्ण आभूषणों का उपयोग करने की प्रवृत्ति बेहद आम है।  सम्पन्नता के प्रतीक के तौर पर सोना आज भी सबसे प्रामाणिक है। घर-परिवारों में रखे निजी सोने के अलावा देश के प्रसिद्ध मंदिरों एवं अन्य धार्मिक संस्थानों के पास अकूत स्वर्ण भण्डार है।  देश में व्यापार असंतुलन का एक बड़ा कारण पेट्रोल-डीजल के बाद स्वर्ण का आयात भी है।  पिछले केन्द्रीय बजट में सोने पर आयात शुल्क बढ़ा दिया गया जिससे उसके दाम बढ़ गये। उस वजह से बीते कुछ महीनों में सोने के आयात में कमी आई।  घरेलू बाजार में उसकी बिक्री भी कम हुई। हालाँकि उसके लिए आर्थिक मंदी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है किन्तु दूसरी तरफ ये भी जानकारी आ रही है कि आयात शुल्क में वृद्धि से सोने की तस्करी बढ़ गई।  इन सबसे अलग हटकर देखें तो सोने की आड़ में काला धन खपाने का जो खेल होता है वह भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत है। सबसे बड़ी बात ये है कि घर, परिवारों और धार्मिक संस्थानों के पास जो सोना है उसका देश के विकास में रत्ती भर भी योगदान नहीं है।  एक जमाना था जब स्वर्ण को निवेश और आर्थिक सुरक्षा का सबसे अच्छा साधन माना जाता था।  ये एक ऐसी धातु है जिसे दुनिया के किसी भी हिस्से में बेचा जा सकता है। और फिर इसकी कीमतों में लगातार वृद्धि भी होती रही है।  लेकिन ये भी सही है कि हमारे देश में लोगों के पास रखा सोना अर्थव्यवस्था के लिहाज से किसी काम का नहीं है।  काली कमाई से खरीदे गए सोने पर तो सरकार को किसी भी तरह का कर भी नहीं मिलता।  किसी भी देश की माली हैसियत उसके सरकारी खजाने में रखे स्वर्ण भण्डार से आंकी जाती है।  अमेरिका जैसे सबसे धनी देश के केन्द्रीय बैंक में रखे सोने से कम ही वहां की जनता के पास होगा।  और विकसित देशों में यही चलन है लेकिन भारत में रिजर्व बैंक के पास अधिकतम 600 टन सोने का ही भण्डार है जबकि देश की जनता और धार्मिक संस्थानों के पास मोटे अंदाज के मुताबिक 20 से 25 हजार टन सोना जमा है।  यद्यपि मध्यम के साथ ही निम्न आय वर्ग में जीवन स्तर उठाने की जो ललक पैदा हुई है उसमें स्वर्ण की खरीदी का आकर्षण कम न होने के बाद भी प्राथमिकताएँ बदली हैं लेकिन अभी भी स्वर्ण आयात राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए घाटे का सौदा बना हुआ है।  ऐसे में सरकार सोना रखने की मात्रा तय करने के साथ ही काले धन के तौर पर जमा सोने को वैध करने के लिए उस पर कर देने की योजना लाती है तब वह देशहित में होने के बाद भी आम जनता को कितनी रास आयेगी कहना कठिन है।  कुछ समय पहले ये चर्चा चली थी कि सरकार तिरुपति, शिर्डी के साईँ मंदिर, तिरुवनन्तपुरम के पद्मनाभ मंदिर, अमृतसर के स्वर्ण मंदिर, वैष्णों देवी जैसे प्रसिद्ध धार्मिक संस्थानों के पास जमा सोने के भण्डार का अधिग्रहण कर उसका उपयोग राष्ट्रीय विकास हेतु करने वाली है। हालांकि खबर उड़ते ही उसका विरोध होने लगा।  लेकिन इस विषय में अब केवल भावनात्मक स्तर पर नहीं अपितु व्यवहारिक धरातल पर सोचने की जरूरत है। 2017-18 में रिजर्व बैंक ने तकरीबन 8 टन सोने की खरीद की थी।  लेकिन जनता और विभिन्न धार्मिक संस्थानों के पास रखा अनुपयोगी सोना यदि रिजर्व बैंक के पास आ सके और सोना रखने की सीमा तय होने से उसका आयात घट जाए तब भारतीय मुद्रा का विनिमय मूल्य भी बढ़ सकता है।  काले धन की निकासी के लिए भी घरों में दबाकर रखे गये सोने को मुख्यधारा में लाना जरूरी है।  जहां तक बात आम जनता की है तो काले धन से अर्जित सोने को जप्त करने या उस पर टैक्स लगाने में कोई बुराई नहीं है लेकिन इसके लिए सरकार को अपनी विश्वसनीयता साबित करनी होगी। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद सुरक्षा कोष में लोगों ने स्वर्ण आभूषण दान किये थे। लेकिन बाद में पता चला कि उसमें भी घोटाला हो गया। वहीं अनेक देश ऐसे हैं जिनकी अर्थव्यवस्था डगमगाने के बाद सरकार के आह्वान पर आम जनता ने अपना सोना सरकार को दान कर दिया। मोदी सरकार ने जो गोल्ड बांड निकाला उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो उसकी वजह लोगों के मन में सरकारी योजनाओं के प्रति अविश्वास ही है।  नोटबंदी को प्रारम्भ में जो जनसमर्थन मिला था वह उस योजना के अमल में हुई अव्यवस्था की वजह से रोष में बदल गया।  यदि सरकार लोगों को भरोसे में ले तो घरों में बेकार पड़ा सोना उसके पास जमा हो सकता है लेकिन कुछ बैंकों के डूबने से आम जनता के मन में जो भय और अविश्वास जागा है उसके मद्देनजर सोने को लेकर किये जाने किसी भी निर्णय के पहले केंद्र सरकार को आगा-पीछा सोचकर कदम बढ़ाना चाहिए।  हिन्दुस्तान का जनमानस सोने के मोहपाश में जिस बुरी तरह से जकड़ा हुआ है उसे देखते हुए उसकी सोच को आसानी से नहीं बदला जा सकता।  बेहतर हो सरकार शुरुवात उन धार्मिक न्यासों से करे जिनका नियन्त्रण और प्रबंधन उसके अपने हाथ में है।  जहां तक बात काली कमाई से अर्जित सोने का खुलासा कर उस पर टैक्स वसूलने की है तो भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों से किसी भी ईमानदारी की उम्मीद करना बेकार ही है। जबकि सबसे बड़े स्वर्णभंडार पर ये तबका ही कुंडली मारकर बैठा हुआ है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 30 October 2019

कश्मीर : अब तो कोई भी जा सकता है



कश्मीर घाटी में यूरोपीय यूनियन के सांसदों के दौरे को लेकर राजनीतिक बवाल मचना स्वाभाविक है। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों के साथ ही भाजपा के राज्यसभा सांसद डॉ.सुब्रमण्यम स्वामी ने भी इस पर सवाल उठाया है। मुख्य आपत्ति इस बात पर है कि भारतीय सांसदों को वहां जाने से रोकने के बाद विदेशी सांसदों को घाटी में ले जाए जाने से गलत सन्देश गया है। इसे भारतीय संसद का अपमान भी बताया जा रहा है। दूसरी तरफ  सरकार की ओर से अधिकृत तौर पर तो कुछ खास नहीं कहा गया लेकिन विदेश मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार इस यात्रा के जरिये भारत ने पश्चिमी ताकतों को विश्वास में लेकर पाकिस्तान को पूरी तरह अलग-थलग करने का दांव चला है। जिसके बाद इमरान खान पर भी ये दबाव बन गया है कि वे अपने कब्जे वाले कश्मीर में भी विदेशी सांसदों को हालात का जायजा लेने की सुविधा प्रदान करें। सरकार की तरफ  से ये भी कहा जा रहा है कि राहुल गांधी के साथ गए विपक्षी सांसदों को जब कश्मीर में जाने से रोका गया उस समय तक वहां हालात असमान्य थे और पर्यटकों तक पर प्रतिबंध लगा था। लेकिन मोबाइल सेवा बहाल किये जाने और पर्यटकों के लिए घाटी के दरवाजे खोले जाते ही वहां आवक-जावक शुरू हो गयी। उसके पहले भी कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद को घाटी में जाने की अनुमति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी थी। सीपीएम नेता सीताराम येचुरी भी वहां हो आये थे। केन्द्र सरकार इसे कूटनीतिक हितों की खातिर उठाया कदम बताकर उसकी सार्थकता साबित कर रही है। ध्यान देने योग्य बात ये है कि घाटी में संचार सुविधा बहाल हो जाने के बाद जनता की तरफ  से तो किसी भी प्रकार की उग्र प्रतिक्रिया तो सामने नहीं आई लेकिन दो महीने से भी ज्यादा से बिल में छिपे आतंकवादी जरुर बाहर निकलकर अपनी कारस्तानी दिखाने लगे। सुरक्षा बलों पर हमले के साथ ही सेब लाने के लिए गए ट्रक ड्रायवरों की हत्या जैसे कदमों से दहशत फैलाने का प्रयास भी किया जा रहा है। गत दिवस जब विदेशी सांसदों का दल श्रीनगर में ही था तभी घाटी के कुलगाम में बंगाल से आकर वहां कार्यरत 6 मजदूरों की हत्या कर दी गयी। घाटी के सेब उत्पादकों को आर्थिक सहायता देने के लिए सरकार ने उनकी खरीदी भी की। लेकिन सेब की पेटियों को देश के दूसरे हिस्सों में भेजने के लिए आये ट्रकों के ड्रायवरों की हत्या के बाद से ट्रक वाले घाटी के भीतरी हिस्सों में घुसने से डरने लगे। कुछ शिक्षण संस्थानों के निकट भी विस्फोट किये गये हैं जिसका उद्देश्य विद्यार्थियों को भयभीत करना है ताकि वे शाला न आ सकें। पाकिस्तान द्वारा सीमा पर भी आये दिन युद्धविराम का उल्लंघन भी किया जा रहा है। विदेशी सांसदों को घाटी में सैन्य और सिविल दोनों अधिकारियों ने स्थिति से अवगत कराते हुए बताया कि पाकिस्तान बौखलाहट में किस तरह से सीमा पर हमले कर रहा है। वहीं संचार सुविधाएँ बहाल होते ही आतंकवादी वारदातों में भी तेजी आने लगी। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि अनुच्छेद 370 हटाने और जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित राज्य बनाये जाने के विरोध में घाटी के भीतर जनता की ओर से किसी बड़े प्रतिरोध का समाचार नहीं मिला। हालात सामान्य हो चले हैं और वहां जाने वाले सुरक्षित हैं इस बात की गारंटी तो फिलहाल नहीं दी जा सकती लेकिन ये बात जरूर है कि यूरोपीय सांसदों के घाटी में दौरे के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान द्वारा किये जा रहे दुष्प्रचार की हवा जरूर निकलेगी और पाक अधिकृत कश्मीर के साथ बलूचिस्तान में भी विदेशी पर्यवेक्षकों के दौरों का दबाव बनेगा। जहां तक बात भारत के विपक्षी सांसदों को रोके जाने की थी तो जिस समय वे वहां जाने की जिद कर रहे थे, वह बेहद संवेदनशील था। चूँकि वे सभी अनुच्छेद 370 हटाने का विरोध कर रहे थे, उस वजह से उनके वहां जाने से अलगाववादी आवाजों को बल मिलता। श्री आजाद को घाटी में जाने की अनुमति दिए जाने के बाद भी सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक गतिविधयां नहीं करने की बंदिश इसीलिए लगाई। इसी तरह की हिदायत श्री येचुरी को भी दी गईं थी। और फिर जब से घाटी में पर्यटकों के जाने पर लगी रोक हटी है तबसे एक भी विपक्षी सांसद या विपक्षी प्रतिनिधिमंडल ने वहां जाने की पहल नहीं की। ये बात भी काबिले गौर है कि विपक्ष के नेताओं ने जम्मू और लद्दाख का दौरा कर वहां की जनता का मन टटोलने की कोशिश नहीं की। दो दिन बाद 1 नवम्बर से जम्मू-कश्मीर पूरी तरह से केंद्र शासित राज्य बन जाएगा। उसके बाद वहां का शासन और प्रशासन स्थायी तौर पर केंद्र के नियन्त्रण में आ जाएगा। निकट भविष्य में वहां विधानसभा चुनाव भी होना हैं। भले ही घाटी में हालात को पूरी तरह सामान्य नहीं कहा जा सके लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि वहां की जनता और अलगाववादी दोनों की समझ में आ चुका है कि अब वे चाहें जो कर लें लेकिन 5 अगस्त के पहले की स्थिति लौटना तो संभव नहीं है। जब केंद्र सरकार को भी ये भरोसा हो गया कि घाटी में हालात पूरी तरह से उसके नियन्त्रण में हैं तब उसने विदेशी सांसदों को घाटी में जाने की अनुमति और सहूलियत दी। वहां जाने से पहले उनका दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलना ये दर्शाता है कि इस दौरे के पीछे उच्चस्तरीय कूटनीतिक योजना है। इसे लेकर विपक्ष की आपत्ति अस्वाभाविक कतई नहीं है। डा. स्वामी ने भी जो कहा उस पर भी सरकार को जवाब देना होगा। लेकिन जहां तक कुछ लोगों द्वारा कश्मीर मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण किये जाने का आरोप है तो जैसी कि जानकारी मिल रही है उसके अनुसार पीवी नरसिम्हा राव और डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी विदेशी सांसदों के प्रतिनिधिमंडल कश्मीर का जायजा लेने आये थे। श्री मोदी के सऊदी अरब जाने लेकिन टर्की जाने का कार्यक्रम रद्द किये जाने के भी कूटनीतिक निहितार्थ हैं। बहरहाल एक खतरा जरुर है कि घाटी का दौरा करने के बाद एक भी विदेशी सांसद ने यदि केंद्र सरकार की कश्मीर नीति के विरोध में कुछ कह या लिख दिया तब जरुर विपक्ष को प्रधानमन्त्री पर चढ़ाई करने का मौका मिल जाएगा। लोकसभा के शीतकालीन सत्र में विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार को घेर सकता है लेकिन अनुच्छेद 370 हटाये जाने का विरोध करने की वजह से उसकी साख घटी है। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह विपक्षी सांसदों के दल को भी कश्मीर घाटी का अवलोकन करने का आमंत्रण दे जिससे उनके मन में व्याप्त असंतोष दूर हो सके।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Sunday 27 October 2019

अपने व्यवहार को बाजार से बचाएं


 

दीपावली का पर्व भारतीय पर्व परम्परा में धन - धन्य की  अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी जी को समर्पित है | वर्षा ऋतु के दौरान ठहरे हुए जीवन को गतिमान करते हुए नए सिरे से भविष्य की तैयारियां की जाती हैं | क्या गरीब क्या अमीर सभी इस पर्व पर उत्साहित और उल्लासित नजर आते हैं | सुख -  समृद्धि के साधन के रूप में अधिकाधिक धनोपार्जन करने की आशा संजोई जाती है | नई  फसल के साथ मांगलिक कार्यों की शुरुवात भी दीपावली के उपरांत ही होती है | यूँ तो देश भर में हर अंचल का अपना प्रमुख त्यौहार होता है लेकिन दीपावली ही एकमात्र ऐसा पर्व है जिसे  पूरा देश एक साथ हर्षोल्लास से मनाता है | इस आयोजन के पीछे अनेक पौराणिक प्रसंग हैं किन्तु मुख्य रूप से इस पर्व को व्यवसायियों से जोड़कर देखा जाता है | यही  वजह है कि दीपावली पर बाजारों में अभूतपूर्व रौनक रहती है | मिट्टी के छोटे से दिये से लेकर हीरे - जवाहरात तक की खरीदी होती है  बदलते समय के मुताबिक प्राथमिकतायें भले बदल गईं हों लेकिन दीपावली का मूल स्वरूप और उसके आधारभूत भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया | हालांकि बाजारवादी संस्कृति के उदय के बाद से अब एक अदृश्य बाजार भी अस्तित्व में आया है जिसमें क्रेता और विक्रेता के बीच प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं होता लेकिन तकनीक के  द्वारा संदेशों के आदान - प्रदान से अरबों का लेनदेन  हो जाता है | बीते कुछ समय से भारत में आर्थिक  मंदी के कारण कारोबारी सुस्ती का माहौल बना हुआ है | जिसे देखो वह मंदी का राग अलाप रहा है लेकिन दूसरी तरफ ऑनलाइन व्यापार का अकल्पनीय विस्तार हुआ | स्थानीय बाजारों में दूकानदार ग्राहकों के आने का इन्तजार करता रहता  है लेकिन दूसरी तरफ समानांतर बाजार खरीददार के दरवाजे पर जाकर अपनी सेवायें दे रहा है | इस नई व्यवस्था में शून्य प्रतिशत ब्याज और किस्तों में भुगतान की सुविधा ने भी परम्परागत बाजार के समक्ष जबरदस्त चुनौती खड़ी कर  दी है | जिसे लेकर व्यवसाय जगत में भय भी है और गुस्सा भी |  लेकिन सरकार नामक व्यवस्था पूरी तरह निर्लिप्त बनी हुई सब कुछ देख रही है क्योंकि ये  सब उसी का किया धरा है | उदारवादी आर्थिक नीतियाँ लागू किये जाते समय जिन लोगों ने उसके खतरे गिनाये उन्हें दकियानूसी बताकर उनका मजाक बनाया गया | हालांकि जब वह वर्ग खुद सत्ता में बैठा तब उसने भी उन्हीं आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया जिनकी वह आलोचना किया करता था | किसी राजनीतिक विश्लेषक ने काफी पहले लिखा था कि ज्योति बसु , अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों में फर्क करना मुश्किल हो गया है | बात है भी सही | भारत सैकड़ों साल तक विदेशी गुलामी झेलता रहा | विदेशी शासकों ने इस देश का जी भरकर दोहन और शोषण किया | आजादी के समय भारत एक पिछड़ा हुआ देश था | सात दशक बाद पीछे मुड़कर देखने पर तो लगता है  हमने बहुत प्रगति की है | लेकिन सूक्ष्म विश्लेषण करने पर जो स्थिति सामने आती है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि शांति की कीमत पर आम आदमी समृद्धि की मृग - मरीचिका में फंसा हुआ है | बाजारवादी सोच ने आम भारतीय की मानसिकता को उधारवाद के प्रति आकर्षित कर दिया जिससे कि पूरे साल खरीदी का माहौल बना रहता है | उपभोक्तावाद ने समूचे समाज में एक मिथ्या माहौल बना दिया है जिसमें संपन्न होने से ज्यादा महत्त्व सम्पन्नता के दिखावे को दिया जाने लगा | इसी का दुष्परिणाम आज की मंदी के तौर पर सामने आया है | अपनी मेहनत की कमाई में की गई बचत से दीपावाली पर  कुछ खरीदकर आत्मसंतुष्टि का अनुभव अब पुराने दौर की बात हो चली है | बचत का संस्कार अपना अर्थ खोने लगा है | आवश्यकताओं को सीमित रखकर शांतिमय जीवन की बजाय इच्छाओं के अनंत विस्तार से उपजे तनाव ने समूचे समाज को हलाकान कर रखा है | इसके दुष्परिणाम किसी से छिपे नहीं हैं | लेकिन इस समस्या के समाधान हेतु किये जाने वाले उपायों से तो स्थिति और बिगड़ती जा रही है | आज दीपावली के हर्षोल्लास में ऐसे बातों  की चर्चा अप्रासंगिक कही जा सकती है लेकिन अमावश्या की अंधियारी रात में  दीपमालिकाओं से समूचे वातावरण को आलोकित करने के पीछे का उद्देश्य समस्याओं का प्रभावशाली समाधान पैदा करना ही है | और इसीलिये ये जरूरी लगता है कि आज के दिन हम समूचे देश को ध्यान में रखते हुए इस बात पर विचार करें कि क्या हमें अपनी उस परम्परागत सोच को पुनर्जीवित करने की जरुरत नहीं है जो मानसिक शांति को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है | प्रगति और विकास भारतीय संस्कृति के मूल मन्त्र हैं | लेकिन भौतिकता के मोहपाश में फंसकर केवल  और केवल पैसा कमाने को  ही जीवन का लक्ष्य बन लेना सम्वेदनहीनता को जन्म दे रहा है | आज का दिन चिंतन का अवसर भी है | पुरुषार्थ से अर्जित सम्पन्नता नैतिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करती है जबकि छल , बेईमानी और लालच उस संस्कारहीनता को प्रश्रय देते हैं जिसका कटु अनुभव हम सभी को आये दिन होता रहता है | धन को जीवनयापन का साधन बनाना गलत नहीं है लेकिन वह साध्य बन जाए तो विकृति का बन जाता है | इसीलिये हमारे  मनीषियों ने संतोष को सबसे बड़ा धन माना था | मौजूदा संदर्भ में यही उचित होगा कि हम अपने व्यवहार को बाजार से प्रभावित होने से बचाएं | दीपावली पर  केवल बाहरी ही नहीं अपितु अपने आन्तरिक अंधकार को दूर करने का प्रयास भी करना चाहिए ,  अन्यथा हम सदैव अशांत बने रहेंगे | दुनिया के अनेक देशों ने भारत के प्राचीन दर्शन से प्रेरित होकर अपने देश की प्रगति को आम नागरिक की प्रसन्नता के पैमाने ( Happiness Index ) से जोड़ दिया है | फिर हम क्यों  उस भोगवादी संस्कृति की पीछे दौड़ते फिरें जो पूरे विश्व में अशांति का कारण बनी हुई है |

दीपावली आप सभी के जीवन में सुख और समृद्धि के साथ शांति लेकर आये यही  मंगलकामना है |

 रवीन्द्र वाजपेयी

सम्पादक 


Saturday 26 October 2019

अपयश : अटल जी भले डरते थे पर आज की भाजपा नहीं



चुनाव परिणाम के दिन पूरी तरह से रक्षात्मक नजर आ रही भाजपा कल पूरे दिन अग्रिम मोर्चे पर डटी रही और रात होते तक हरियाणा की बाजी अपने पक्ष में कर ली। यद्यपि परसों रात में ही आधा दर्जन निर्दलियों का समर्थन मिलने से उसकी सरकार बनने के आसार बन गए थे लेकिन उस मुहिम की अगुआई गोपाल कांडा नामक जिस विधायक ने की उसका अपराधिक अतीत भाजपा के गले में फंस गया। कांग्रेस तो वैसे भी कांडा के विरोध में बोलने का नैतिक अधिकार नहीं रखती थी क्योंकि वह भूपिंदर सिंह हुड्डा की सरकार में गृह राज्य मंत्री रह चुका था। एक युवती का यौन शोषण करने का आरोप उस पर था जिसने आत्महत्या कर ली थी। तब भाजपा ने कांडा को मंत्री पद से हटाने के लिए जबरदस्त आन्दोलन किया था। बाद में उसे जेल भी जाना पड़ा। इस बार वह सिरसा से जीतकर आ गया। चुनाव नतीजे आने के बाद वही निर्दलीय विधायकों को बटोरकर निजी विमान से दिल्ली लाया और उनसे भाजपा को समर्थन देने का वायदा करवा दिया। अभी तक ये साफ नहीं हो सका है कि भाजपा ने इस उपकार के एवज में कांडा को मंत्री पद का प्रस्ताव दिया था या नहीं लेकिन इसके पहले कोई दूसरा विरोध करता पूर्व केन्द्रीय मंत्री साध्वी उमाश्री भारती ने ताबड़तोड़ ट्वीट करते हुए कांडा के समर्थन को नैतिक मापदंडों पर अनुचित करार दिया। उसके बाद सोशल मीडिया के साथ टीवी चैनलों ने भी कांडा के पुराने कांडों को उछालना शुरू कर दिया। उसके कारण भाजपा को वैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा जैसा कुछ बरस पहले उप्र के बाहुबली नेता डीपी यादव के भाजपा प्रवेश के समय उत्पन्न हुई थी। पार्टी विथ डिफरेंस के दावे की चौतरफा फजीहत के बाद भाजपा ने सुबह पार्टी में आये डीपी यादव को शाम तक बाहर का रास्ता दिखा दिया। कल भी ऐसा ही हुआ लेकिन उल्लेखनीय बात ये रही कि कांडा के विरोध में पहला मोर्चा उमाश्री ने खोलकर दूसरों को और तेज आवाज में बोलने का हौसला दे दिया। दूसरी तरफ कांडा अपने आपको दूध का धुला साबित करने के लिए रास्वसंघ से अपने परिवार के पुराने संबंधों का हवाला देने लगा। हो सकता था बदनामी से बचने के लिए भाजपा उसे पीछे रखकर शेष छह निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बनाने के लिए आगे बढ़ जाती लेकिन उसकी खुशकिस्मती रही जो वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने जननायक जनता पार्टी के नेता दुष्यंत चौटाला को पटा लिया। हालांकि इसमें अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा जिनके चौटाला परिवार से पुराना सम्बन्ध हंै। बादल साहब का इस परिवार के शीर्ष रहे स्व. देवीलाल के साथ भाई जैसा रिश्ता था। दुष्यंत को ये भी लगा होगा कि निर्दलियों के समर्थन से खट्टर सरकार बन जाने के बाद उनके पास विपक्ष में बैठने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं बचेगा। उस पर भी मुख्य विपक्षी दल का दर्जा तो कांग्रेस के पास ही होगा। इससे भी बढ़कर दुष्यंत को इस बात का डर भी सताने लगा कि सत्ता में आने के बाद भाजपा कहीं उनके विधायक ही न तोड़ ले। यूँ भी जेजेपी के विधायकों में दूसरी पार्टियों से आये असंतुष्ट भी हैं। इसलिए उनका टूटकर चला जाना बड़ी बात नहीं होती। रात तक ज्योंही अमित शाह की मौजूदगी में दुष्यंत और भाजपा के गठबंधन की घोषणा हुई त्योंही कांडा को लेकर चल रही चर्चा कुछ कमजोर पड़ गयी। ये भी खबर आ रही है कि बाकी निर्दलीय भी बजाय विपक्ष में बैठने के सत्ता के साथ चिपके रहने में ही अपनी भलाई समझेंगे। इस प्रकार खट्टर सरकार के पास भारी बहुमत का जुगाड़ हो गया। आज की भारतीय राजनीति में इस तरह का घटनाक्रम नई बात नहीं है। कांग्रेस भी यदि सरकार बनाने में कामयाब होती तब उसे भी दुष्यंत के अलावा कांडा सहित अन्य निर्दलियों का साथ लेना पड़ता। श्री हुड्डा ने तो अपनी सरकार में कांडा को गृह राज्य मंत्री जैसा महत्वपूर्ण पद दिया ही था। लेकिन भाजपा जब भी ऐसी कोशिश करती है तब न केवल उसके विरोधी अपितु समर्थक भी गुस्से से भर उठते हैं। संभवत: उमाश्री सामने नहीं आतीं तब बाकी लोग भी चुपचाप रहते। ये भी हो सकता है सत्ता से बाहर रहने के कारण उन्होंने ये दुस्साहस कर लिया। लेकिन कुल मिलाकर ये मान लेना गलत नहीं होगा कि भाजपा की छवि पहले जैसी नहीं रही। भले ही वह अब कांडा से अपना पिंड छुडा ले लेकिन उसके एक नेता का ये बयान पार्टी के चारित्रिक बदलाव का प्रमाण है कि हम किसी अपराधी से नहीं एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि से सहयोग ले रहे थे। उमाश्री ने अपने ट्वीट में भी इसी बात को उठाते हुए लिखा था कि चुनाव जीत जाने से अपराध समाप्त नहीं हो जाता। हरियाणा में दुष्यंत से समझौता कर भाजपा भले ही कांडा काण्ड से हुई बदनामी से तात्कालिक रूप से बच गयी लेकिन इससे ये उजागर हो गया कि गलत तरीके से सत्ता हासिल करने में उसे कोई परहेज नहीं रहा। 13 दिन की अपनी सरकार के विश्वास मत पर बोलते हुए स्व. अटल जी ने भगवान राम को उद्धृत करते हुए कहा था कि मैं मृत्यु से नहीं डरता किन्तु अपयश से डरता हूँ। अनैतिक तरीकों से मिली सत्ता को उन्होंने चिमटे से भी न छूने जैसी बात भी कही थी। लेकिन आज की भाजपा अपयश से नहीं डरती।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 25 October 2019

जनादेश : प्रयोग बहुत हुए अब परिणाम चाहिए



महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद राजनीतिक विश्लेषक असमंजस में पड़ गए  क्योंकि मतदाताओं ने जो निर्णय दिया उसमें जीत-हार का निष्कर्ष निकालना कठिन है। कल सुबह से बनी अनिश्चितता शाम आते तक काफी हद तक खत्म हो गयी। महाराष्ट्र में तो खैर, भाजपा और शिवसेना के गठबंधन को तकरीबन 25 सीटों के नुकसान के बाद भी सुविधाजनक बहुमत सरकार बनाने हेतु मिल ही गया जबकि दूसरी तरफ हरियाणा में भाजपा अंतत: 40 सीटें लेकर बहुमत के बेहद करीब पहुंच गयी और शाम को पार्टी मुख्यालय में आयोजित जलसे में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने देवेन्द्र फडनवीस और मनोहर लाल खट्टर की तारीफ  करते हुए उन्हें दूसरी पारी दिए जाने का ऐलान जिस अंदाज में किया उसके बाद से ये मान लिया गया कि शिवसेना के दबाव के बावजूद भी भाजपा महाराष्ट्र में अपना वर्चस्व बनाये रखेगी। वहीं हरियाणा में दुष्यंत चौटाला को कर्नाटक की तर्ज पर कुमारस्वामी बनने से भी उसने रोक दिया है। आधा दर्जन निर्दलीय विधायक भाजपा के बागी ही हैं। उनसे पार्टी ने संवाद कायम कर लिया ऐसी खबरों के बीच खट्टर सरकार बनने के आसार मजबूत हो गए। वैसे भी कांग्रेस के 31 पर अटक जाने और दुष्यंत के अति महत्वाकांक्षी होने से भाजपा का बिगड़ता खेल बनता दिख रहा है। भूपिंदर सिंह हुड्डा इस चुनाव के सबसे बड़े नायक बनकर उभरे जिन्हें मात्र डेढ़ महीने पहले कांग्रेस ने सेनापति बनाया। यदि ये निर्णय पहले हो जाता तब बड़ी बात नहीं कांग्रेस भाजपा की जगह होती। दो राज्यों के चुनाव में बहस का मुद्दा मुख्य रूप से भाजपा की ताकत घटने का बन गया है जो स्वाभाविक है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद राष्ट्रवाद की भावना को तुरुप का इक्का मान बैठी भाजपा ने दोनों राज्यों में काफी बड़े-बड़े दावे किये थे। यद्यपि ऐसा पहली बार नहीं हुआ। पिछले लगभग सभी चुनावों में वह एक लक्ष्य प्रचारित करती रही है। लोकसभा चुनाव में 300 पार का नारा था जो सफलीभूत हो गया। लेकिन उसके पहले गुजरात के अलावा अनेक राज्यों के चुनाव में भाजपा अपने घोषित लक्ष्य से पीछे रह चुकी थी। ऐसे में यदि वह हरियाणा में 75 और महाराष्ट्र में 200 पार का नारा नहीं लगाती तब शायद उसका इतना मखौल नहीं उड़ा होता जितना कल सुबह से देर रात तक हुआ। चुनाव नतीजों का जो मोटा - मोटा विश्लेषण हो रहा है उसका सार ये है कि राज्य के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे उतने कारगर नहीं होते। चूँकि भाजपा का पूरा दारोमदार श्री मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर आकर टिक गया है इसलिए हर चुनाव में वे ही अग्रिम मोर्चा सँभालते हुए अपनी हैसियत के मुताबिक राष्ट्रीय मुद्दों की चर्चा करते हैं। इन चुनावों में उन दोनों ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने को प्रमुख हथियार बनाया। विपक्ष के पास इसका कोई जवाब नहीं था इसलिए उसने आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, किसानों की बदहाली जैसे मुद्दे उठाकर भाजपा का विजय रथ रोकने का दांव चला जो चुनाव परिणाम देखने के बाद कामयाब प्रमाणित हो गया। भले ही भाजपा इसे स्वीकार नहीं करे लेकिन ये बात सही है कि प्रखर राष्ट्रवाद की लहर चलाने के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो ये इसके पीछे स्थानीय नेतृत्व का जनता से कट जाना ही है। पार्टी ने चुनावी जीत को ही अपना मुख्य उद्देश्य बना लिया जिसकी वजह से दूसरी पार्टी से आने वाले लोगों को मैदान में उतार दिया जाता है। महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों में भाजपा ने नवागंतुकों को टिकिट देकर अपने प्रतिबद्ध समर्थकों को नाराज किया जिसका खामियाजा उसे भोगना पडा। हरियाणा में उसके 16 बागी खड़े हुए जिनमें से 7 जीते और वह भी लम्बे अंतर से। भाजपा के प्रादेशिक और राष्ट्रीय नेतृत्व के बारे में अब ये चर्चा आम हो चली है कि उसमें अहंकार आ गया है और असहमति के लिए कोई स्थान नहीं है। इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि श्री मोदी पर अभी भी जनता का भरोसा है जबकि प्रादेशिक नेताओं की छवि अपेक्षाकृत उतनी अच्छी नहीं है। ये भी कहा जाता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व ने सुनियोजित ढंग से प्रादेशिक नेताओं को बौना बनाकर रख दिया है। देवेन्द्र फडनवीस को उनके विरोधी भी भविष्य का नेता मानकर चल रहे थे। महाराष्ट्र की राजनीति में मराठाओं के प्रभुत्व के बावजूद एक ब्राह्मण मुख्यमंत्री का प्रयोग काफी चर्चित हुआ। बीते पांच साल में उन्होंने सरकार भी अच्छी तरह चलाई। इसी तरह हरियाणा में गैर जाट पंजाबी को मुख्यमंत्री बनाए जाने को भी भाजपा की नई रणनीति के तौर पर प्रचारित किया गया। इस प्रयोग में कुछ भी बुराई नहीं थी लेकिन उसका ढोल जिस तरह पीटा गया उसका विपरीत असर हुआ। महाराष्ट्र में मराठा और हरियाणा में जाट मतदाताओं का भाजपा के विरोध में गोलबंद होना इसका सबूत है। उक्त दोनों मुख्यमंत्रियों की अच्छी छवि के बावजूद मंत्रियों की छवि खराब रही। हरियाणा में तो एक को छोड़कर सभी औंधे मुंह गिरे। महाराष्ट्र में पंकजा मुंडे की हार स्थानीय समस्या का निदान नहीं हो पाने से हुई। इन परिणामों के बारे में ये भी निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि विपक्ष विशेष रूप से कांग्रेस यदि पराजयबोध से ग्रसित नहीं होती तब शायद भाजपा की वापिसी संभव नहीं थी। लेकिन ये बात भी विचारणीय है कि जिस तरह से भाजपा को राष्ट्रीय मुद्दों से हुआ लाभ स्थानीय कमियों के कारण बेअसर होकर रह गया ठीक वैसे ही कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व खास तौर पर गांधी परिवार को दूर रखने के कारण ही पार्टी दोबारा खड़े होने लायक बन सकी। हरियाणा में श्री हुड्डा ने पार्टी छोडऩे की धमकी दी तब जाकर उन्हें कमान दी गई। वहीं महाराष्ट्र में कांग्रेस पूरी तरह शरद पवार के सहारे थी। मुम्बई में जहां उसका भाजपा से सीधा मुलाबला था वहां उसकी हालत पतली ही रही। आर्थिक मंदी के जोरदार हल्ले के बावजूद देश की व्यवसायिक राजधानी मुम्बई में भाजपा की सफलता चौंकाने वाली है। इसी तरह श्री फडनवीस के अपने अंचल विदर्भ में ही भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। चूंकि इसके बावजूद भाजपा ही सरकार बनाती दिख रही है इसलिए चुनाव परिणामों का सूक्ष्म विश्लेषण भी उसे ही करना चाहिए। झारखंड और दिल्ली के चुनाव भी नजदीक ही हैं। उनमें भाजपा ताजा गलतियों से सीखेगी या नहीं ये देखने वाली बात होगी। जहाँ तक बात कांग्रेस की है तो उसकी दुविधा ये है कि गांधी परिवार में चुनाव जिताने की क्षमता समाप्त हो गयी है लेकिन ये भी एच है कि उसके बिना पार्टी एकजुट नहीं रह सकेगी। महाराष्ट्र में शरद पवार ने कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया वहीं हरियाणा में सत्ता से बाहर रहकर वह बिखराव से बची रहेगी ये कहना मुश्किल है। दो राज्यों के चुनावों के साथ ही विभिन्न राज्यों से उपचुनावों के नतीजे भी आये। कांग्रेस को गुजरात, राजस्थान और मप्र में तो सफलता मिल गई लेकिन शेष राज्यों में उसका खराब प्रदर्शन जारी रहा। उप्र में प्रियंका वाड्रा के सक्रिय रहने के बावजूद 11 विधानसभा सीटों की उपचुनावों में कांग्रेस कहीं मुकाबले में नहीं दिखी। बसपा भी पूरी तरह विफल रही। इस आधार पर ये माना जा सकता है कि भाजपा को अपना प्रादेशिक आधार संभालने पर ध्यान देना होगा वहीं कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नये नेतृत्व को आगे लाना जरुरी हो गया है। राहुल गांधी नामक प्रयोग पूरी तरह विफल साबित होने के बाद सोनिया गांधी को दोबारा कमान सौंपना मजबूरी ही है, जिसे लंबे समय तक निभाना संभव नहीं होगा। भाजपा के लिए दो राज्यों के चुनाव परिणाम एक चेतावनी लेकर आये हैं। यदि जैसे-तैसे सत्ता वापिस मिल जाने की खुशी में डूबकर वह जनादेश के संकेत नहीं समझ पाती तब उसके लिए आने वाली लड़ाइयाँ और कठिन होती जायेंगी। जैसा प्रारम्भ में कहा गया जनता अभी भी श्री मोदी के प्रति आस्थावान है लेकिन लोगों की अपेक्षा ये है कि अच्छे दिन आसमान से जमीन पर भी उतरें। प्रयोग बहुत हो चुके अब परिणाम भी मिलने चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 24 October 2019

सौरव गांगुली : कप्तानी की दूसरी पारी



ऐसे समय में जब भारतीय क्रिकेट विश्वस्तर पर अपनी धाक ज़माने में सफल हो चुका है तब ये सुखद संयोग ही है कि भारतीय टीम के पूर्व कप्तान सौरव गांगुली ने बीसीसीआई (भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड) की कमान संभाल ली। क्रिकेट की समझ रखने वाले तमाम विश्लेषक बेहिचक मानते हैं कि भारतीय क्रिकेट आज जिस आक्रामक अंदाज के लिए प्रसिद्ध है उसके पीछे सौरव की कप्तानी का वह दौर है जब उन्होंने भारतीय टीम में केवल आंकड़ों के लिए नहीं वरन जीतने के लिए खेलने की भावना का संचार किया। खेल प्रेमियों को इंग्लैण्ड में लॉड्र्स के पैविलियन की बालकनी में अपनी कमीज उतारकर हवा में लहराते हुए जीत की खुशी व्यक्त करने का उनका अंदाज आज भी याद होगा। दादा के नाम से लोकप्रिय सौरव को बोर्ड का अध्यक्ष चुने जाने के पीछे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की भूमिका भी बताई जा रही है। राजनीतिक क्षेत्र में चल रही चर्चाओं के अनुसार श्री शाह उनको बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा का चेहरा बनाकर पेश करने की योजना बना चुके हैं। यद्यपि इसकी किसी भी तरफ  से पुष्टि नहीं हुई लेकिन यहाँ चर्चा केवल बीसीसीआई के संचालन पर ही सीमित रखना उचित होगा। कहा जा रहा है कि महाराज कुमार विजयनगरम 'विजीÓ के बाद सौरव पहले ऐसे खिलाड़ी हैं जो भारतीय टीम के कप्तान रहने के बाद बोर्ड की कप्तानी भी कर रहे हैं। यहां ये बताना जरूरी है कि बीसीसीआई दुनिया के सबसे धनी खेल संघों में हैं। बिना भारतीय टीम के विश्व क्रिकेट की कल्पना तक नहीं की जा सकती। आईपीएल शुरू होने के बाद से तो भारत ने इंग्लैण्ड के काउंटी क्रिकेट के साथ ही आस्ट्रेलिया के क्लब क्रिकेट तक की रंगत फीकी कर दी है। हालांकि इस आयोजन में भ्रष्टाचार भी जमकर हुआ जिसके छींटे बड़े-बड़े उद्योगपतियों, राजनेताओं और खिलाडियों तक पर पड़े। उसके बाद से ही ये कहा जाने लगा कि खेल संघों का प्रशासन बजाय दीगर क्षेत्रों के खेल से जुडी हस्तियां ही करें। बीसीसीआई अकेला खेल संघ नहीं है जिस पर खिलाडिय़ों की बजाय नेताओं, उद्योगपतियों और पूर्व राजा महाराजाओं का कब्जा रहा। हॉकी, फुटबाल, बैडमिन्टन, कुश्ती, मुक्केबाजी, तीरंदाजी, सायकिलिंग जैसे तमाम खेलों के प्रशासन में खिलाडिय़ों की भूमिका निर्णायक नहीं रहने से ही देश खेलों में अपेक्षित प्रगति नहीं कर सका। लेकिन बीते कुछ सालों में हालात थोड़े से बदले हैं। खेल संघों में भ्रष्टाचार की चर्चा संसद से सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंची। आईपीएल घोटाले के बाद तो सर्वोच्च न्यायालय ने उस आयोजन के संचालन हेतु भी अपनी ओर से व्यक्ति को नामंाकित किया। ये भी शुभ संकेत है कि क्रिकेट की चकाचौंध से निकलकर अब अन्य खेलों में भी प्रायोजक मिलने लगे हैं। कबड्डी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। लॉन टेनिस और बैडमिन्टन के साथ ही कुश्ती और मुक्केबाजी में भारतीय खिलाड़ी विश्व प्रतियोगिताओं में पदक हासिल करने लगे हैं। बहरहाल क्रिकेट की बात और्रों से हटकर है क्योंकि यह खेल और इसका प्रशासन करने वाला बीसीसीआई सोने के अंडे देने वाली मुर्गी जो बन गया है। ऐसे में जब विश्व क्रिकेट में भारत का दबदबा इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया, वेस्ट इंडीज और दक्षिण अफ्रीका की बराबरी का हो चुका हो तब ये जरूरी हो गया था कि बीसीसीआई की कमान भी ऐसे किसी व्यक्ति के हाथ आये जो विशुद्ध रूप से खिलाड़ी रहा हो और जिसकी चिंता केवल भारतीय टीम को विश्वस्तरीय बनाये रखने में हो। सौरव गांगुली उस दृष्टि से सबसे अच्छा चयन कहा जा सकता है। बीते कुछ समय से टीम और प्रबन्धन को लेकर कुछ विवाद चर्चाओं में आये। मौजूदा कप्तान विराट कोहली और कुछ खिलाडिय़ों के बीच खटपट की खबरें भी उड़ीं। प्रशिक्षक और टीम मैनेजर के बारे में भी विवाद होने की जानकारी सामने आई। पूर्व कप्तान महिंद्र सिंह धोनी के सन्यास संबंधी अनिश्चितता भी सुखिऱ्यों में है। लेकिन इस सबके बीच सौरव को बीसीसीआई की कमान सौंपे जाने से इस खेल संगठन और टीम के बीच संवाद बेहतर तरीके से कायम हो सकेगा। श्री गांगुली आधुनिक और पेशेवर सोच रखने वाले खिलाड़ी और कप्तान रहे हैं। उन्हें खेल और खिलाडिय़ों के बारे में छोटी से छोटी जानकारी है। उनके साथ जुड़ी समस्याओं से भी वे बखूबी वाकिफ  हैं। कप्तान रहते हुए उन्हें टीम के प्रशिक्षक और प्रबन्धन से जो परेशानियां झेलनी पड़ीं उनका अनुभव उन्हें नये दायित्व के निर्वहन में सहायक बनेगा। अब ये सौरव पर निर्भर करेगा कि वे टीम की कप्तानी वाला जोश इस नई पारी में किस तरह दिखा पाते हैं क्योंकि खेल के मैदान में तो जो होता है वह पूरी दुनिया को दिखाई देता है जबकि बीसीसीआई के भीतर होने वाला खेल नजर नहीं आता। सौरव को इस पद पर काम करने के लिए एक साल से भी कम का समय मिलेगा लेकिन वे इसका उपयोग इस खेल संगठन को गैर खिलाडिय़ों के शिकंजे से मुक्त करवाने में कर सके तो ये बड़ी उपलब्धि होगी। क्रिकेट में रूचि रखने वाले हर व्यक्ति की शुभकामनाएं उनके साथ हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 23 October 2019

कृत्रिम उपायों से मांग बढ़ाना स्थायी इलाज नहीं



अर्थशास्त्र का नोबल पुरूस्कार जीतने वाले अभिजीत बनर्जी गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी से मिले। गरीबी हटाने को लेकर किये शोध पर मिले नोबल सम्मान के बाद भारत यात्रा पर आये श्री बनर्जी को वामपंथी माना जाता है। दिल्ली के जेएनयू विवि से अर्थशास्त्र पढ़कर वे अमेरिका चले गये। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के घोषणापत्र में शामिल जिस न्याय योजना को राहुल गांधी का तुरुप का इक्का कहा जा रहा था वह उन्हीं के दिमाग की ही उपज थी। अफ्रीका के अनेक देशों में गरीबी उन्मूलन की दिशा में उनके सुझाव कारगर रहे ये भी प्रचारित किया गया। नोबल पुरस्कार की घोषणा होने के बाद भारतीय समाचार माध्यमों से बात करते हुए उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को चिंताजनक बताकर भाजपा विरोधियों को खुश कर दिया। शायद इसीलिये केन्द्रीय मंत्री पियूष गोयल ने उनकी तीखी आलोचना भी कर डाली। सरकार विरोधियों की तरफ  से ये तंज भी कसा गया कि एक भारतीय को नोबल पुरस्कार मिलने पर प्रधानमन्त्री सहित सरकार से जुड़े शेष जिम्मेदार लोगों ने वैसी गर्मजोश बधाई नहीं दी, जैसी दी जानी चाहिए थी। इसकी वजह उनकी जेएनयू वाली पृष्ठभूमि को माना गया। स्मरणीय है श्री बनर्जी वहां पढ़ाई की दौरान आन्दोलन के सिलसिले में तिहाड़ जेल में बंद भी रह चुके थे। बहरहाल श्री मोदी से मिलने के बाद उन्होंने बड़े ही सधे शब्दों में पत्रकारों से बात की और आलोचना से भी बचे। वहीं प्रधानमन्त्री ने भी उनकी सराहना की। जहां तक गरीबी उन्मूलन के बारे में उनके सुझाव हैं तो साधारण व्यक्ति तक ये बता देगा कि जब तक आम आदमी के हाथ में पैसा नहीं आएगा तब तक बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था में मंदी या सुस्ती बरकरार रहेगी। उनके पहले भी अनेक लोग ऐसा कहते आये हैं। सवाल ये है कि आम आदमी की जेब में पैसा आयेगा कैसे और कहाँ से ? कांग्रेस के घोषणापत्र में जिस न्याय योजना के अंतर्गत हर परिवार में निश्चित मासिक आय का वायदा किया गया था यदि वह लागू कर दी जाए तो क्या गरीबी दूर हो जायेगी। क्योंकि मनरेगा जैसी योजना के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में हालात सुधरने जैसी बात नहीं हो सकी। उलटे शराबखोरी बढ़ी और खेतिहर माज्दूरों की किल्लत हो गयी। मोदी सरकार ने गरीब तबके की हालत सुधारने के लिए तरह-तरह की योजनायें चला रखी हैं। इनके कारण लोकसभा चुनाव में भाजपा की झोली में वोट तो जमकर गिरे लेकिन चुनाव के बाद से ही अर्थव्यवस्था पर चिंता के बादल मंडराने लगे। कहाँ तो दो अंकों वाली विकास दर के सपने देखे जा रहे थे और कहाँ वह घटकर 5 फीसदी के आसपास आ गयी। फिलहाल जो अनुमान लगाये जा रहे हैं उनके अनुसार भी मौजूदा वित्तीय वर्ष खत्म होते तक विकास दर बमुश्किल 6 प्रतिशत या उससे थोड़ी ज्यादा ही रह सकेगी। ऐसी स्थिति में जब औद्योगिक उत्पादन भी अपेक्षानुरूप नहीं हो पा रहा और बेरोजगारी बढ़ रही है तब लोगों की जेब में पैसा डालकर बाजार में मांग बढ़ाने का तरीका कृत्रिम वर्षा जैसा उपाय तो हो सकता है लेकिन इससे समस्या का स्थायी इलाज नहीं हो सकता। श्री बनर्जी की बौद्धिक योग्यता और उनके शोध कार्य की गुणवत्ता पर संदेह किये बिना भी ये कहना गलत नहीं होगा कि भारत की परिस्थितियाँ विश्व के बाकी देशों से सर्वथा अलग हैं। सामजिक विभिन्नता के चलते देश के अलग-अलग हिस्सों का आर्थिक ढांचा एवं जरूरतें भी भिन्न हैं। 1971 में डा मनमोहन सिंह ने जिस उदारीकरण के पश्चिमी मॉडल को भारत में लागू किया उसके कारण उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिला और उधार लेकर घी पीने की प्रवृत्ति पूरे समाज पर हावी हो चली। पैसा बचाकर भविष्य को सुरक्षित करने वाला आम भारतीय जीरो प्रतिशत ब्याज पर आसान किश्तों में खरीदने जैसे आकर्षक प्रस्तावों के फेर में उलझकर कर्जे के मकडज़ाल में फंसकर रह गया। बाजार में रौनक देखने मिलने लगी। जिस देश में लैन्डलाइन फोन हासिल करना बड़ी बात होती थी वहां दुनिया के सबसे ज्यादा मोबाइल उपभोक्ता बन गए। झुग्गी-झोपडिय़ों तक में टीवी की छतरी नजर आने लगी। सड़कों पर सायकिलों से ज्यादा पेट्रोल चलित दोपहिया वाहन दिखने लगे। जीवन स्तर के मापदंड अचानक बदल गये। मध्यम वर्गीय परिवारों में भी चार पहिये वाले वाहन खड़े दिखने लगे। कहने का आशय ये है कि अर्थव्यवस्था को हारमोन के इन्जेक्शन लगाकर रातों-रात बढ़ाने का प्रयास हुआ जिससे उपर से देखने पर तो शरीर थुलथुल होता गया लेकिन भीतर से कमजोरी बनी रही। भारतीय समाज में रोजगार और कार्यकुशलता विरासत के तौर पर उपलब्ध थी। मेहनत से लोग न शर्माते और न ही कतराते थे। लेकिन धीरे-धीरे पूरी व्यवस्था सरकार पर आश्रित होती चली गई। सरकार ने भी बिना जरुरत के उन सभी क्षेत्रों में टांग फंसाना शुरु कर दिया जिनसे उसे दूर रहना चाहिए था। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर सबसे ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत थी लेकिन उनकी जमकर उपेक्षा हुई। इंदिरा जी के सत्ता में आने के बाद से गरीबी हटाओ का नारा गूँज रहा है। प्रत्येक राजनीतिक दल गरीबी हटाने का वायदा करता है लेकिन सिवाय मुफ्तखोरी बढ़ाने के और कुछ नहीं हुआ। देश में गरीबी और बेरोजगारी को लेकर तो खूब शोर होता है लेकिन सच्चाई ये है कि रोजगार का मतलब सरकारी नौकरी मान लिया गया है। निजी क्षेत्र के व्यवसाय और उद्योग काम करने वालों की किल्लत से जूझते सुनाई देते हैं। यहाँ तक कि गावों में खेती के लिए मजदूर तक नहीं मिल रहे। अभिजीत बनर्जी चूंकि भारत में ही पले बढ़े हैं और यहाँ की जमीनी सच्चाई को जानते हैं इसलिए उनसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे इस बात का सुझाव दें कि देश के करोड़ों लोगों में कार्य संस्कृति किस प्रकार विकसित की जाए क्योंकि बिना उसके लोगों की जेब में पैसा डालकर बाजार में मांग बढ़ाने से बीमारी पूरी तरह ठीक नहीं होगी। भारत की परिस्थितियाँ अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप ही नहीं वरन चीन तक से अलग हैं। औद्योगिक विकास की होड़ में परम्परागत व्यवसायों को पूरी तरह से उपेक्षित करना बहुत नुकसानदेह साबित हुआ है। श्री बनर्जी केवल उपभोक्ता की जेब गर्म करते हुए अर्थव्यवस्था में सुधार का जो सुझाव देते हैं वह भारत में तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक हमारे देश में ईमानदारी से मेहनत का चारित्रिक गुण पुनस्र्थापित नहीं हो जाता। बेहतर हो बड़े देशों की नकल करने की बजाय 1971 में अस्तित्व में आए बांग्ला देश और अमेरिका के साथ चली लम्बी लड़ाई में बर्बाद हो चुके वियतनाम की आर्थिक प्रगति का सूक्ष्म अध्ययन करते हुए भारत अपनी आर्थिक नीतियों का निर्धारण करे जहां की जनता ने अपनी कर्मठता से पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 22 October 2019

जनभावनाओं को न समझने का दंड भोग रही कांग्रेस



महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए मतदान गत दिवस संपन्न हो गया। 2014 की तुलना में कम मतदाताओं का घर से निकलना चुनाव विश्लेषकों के लिए विचारणीय बन गया है। दोनों राज्यों में भाजपा सत्तारूढ़ है इसलिए उसके प्रवक्ताओं का कहना है कि चूंकि वहां सत्ता परिवर्तन की कोई भी गुंजाईश नहीं थी इसलिए विपक्ष समर्थक मतदाता उदासीन बना रहा। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के बाद कल शाम आये एग्जिट पोल के नतीजे भी स्पष्ट कर रहे हैं कि दोनों राज्य एक बार पुन: भाजपा की झोली में जा रहे हैं। बीते पांच साल तक सत्ता में रहने के बाद भी यदि भाजपा को मतदाता दोबारा अवसर देने के लिए तैयार नजर आते हैं तब ये उसके सुशासन का परिणाम है या विपक्ष का जन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाना, इस पर नए सिरे से बहस चल पड़ी है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा के ताकतवर होते जाने से गद्गद् उसके समर्थकों के बीच भी ये चिंता देखी जाने लगी है कि मजबूत विपक्ष का अभाव लोकतंत्र को विकृत कर सकता है। महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडऩवीस और हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर ने बतौर मुख्यमंत्री अच्छा काम किया ऐसा कहा जाता है। दोनों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं लगे और अपने सामने आई चुनौतियों का सामना भी दोनों ने अच्छी तरह से करते हुए पांच साल तक सरकार चलाई। संयोगवश पार्टी हाईकमान ने भी उनमें विश्वास बनाये रखा जिससे किसी प्रकार की राजनीतिक अनिश्चितता नहीं रही। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में रामराज्य आ गया हो जिसमें किसी को किसी भी प्रकार की तकलीफ  नहीं रही। हरियाणा तो भौगोलिक दृष्टि से छोटा सा राज्य है जिसे राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटा होने का जबरदस्त फायदा मिलता है लेकिन महाराष्ट्र आकार और आबादी में बहुत बड़ा है। इसलिए वहां का शासन चलाना आसान नहीं था। खास तौर पर जब श्री फडऩवीस के साथ सत्ता में भागीदारी कर रही शिवसेना ही उनकी टांग खींचने में कभी पीछे नहीं रही हो। इसलिए यदि अनुमानों के मुताबिक ही दोनों राज्यों में वर्तमान मुख्यमंत्री दोबारा जनता का भरोसा जीतने में सफल होते हैं तब फिर विपक्ष की नाकामी पर भी ध्यान जाना स्वाभाविक है। चुनाव के दौरान अनेक मतदाता ये कहते सुने गए कि अनुच्छेद 370 हटाने का राज्यों के चुनाव से क्या वास्ता? राहुल गांधी ने भी अपनी सभाओं में यह सवाल उठाया कि प्रधानमन्त्री दोनों राज्यों के संबंध में अप्रासंगिक मुद्दों को उछालकर मतदाताओं का ध्यान अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट , बेरोजगारी और किसानों की समस्याओं से हटाकर राष्ट्रवाद जैसे भावनात्मक मुद्दों के इर्दगिर्द केन्द्रित रखने में लगे रहे। बात गलत भी नहीं है किन्तु इसी के साथ ये भी स्वीकार करना होगा कि विपक्ष में बैठी कांग्रेस न तो राज्यों की समस्याओं को लेकर मतदाताओं के बीच सत्ता विरोधी रुझान उत्पन्न कर सकी और न ही केंद्र की नीतियों और निर्णयों को इस चुनाव में अप्रासंगिक साबित कर सकी। जैसा अनुमान है यदि नतीजा ठीक वैसा ही निकला तब ये सत्ता में बैठे दल की जीत से ज्यादा विपक्ष की पराजय भी कही जायेगी क्योंकि वह अपनी भूमिका का सही तरीके से निर्वहन नहीं कर सका। राज्य के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे नहीं उठाये जायेंगे, ये कहीं नहीं कहा गया। ऐसा पहले भी होता आया है वरना राष्ट्रीय नेताओं विशेष रूप से प्रधानमन्त्री के प्रचार में उतरने की जरूरत ही क्या है? चूंकि उक्त दोनों राज्यों में कांग्रेस ही विपक्ष के चेहरे के रूप में थी इसलिए विपक्ष की पराजय के लिए उसे ही कठघरे में खड़ा किया जायेगा। इसलिए बेहतर होगा कांग्रेस के प्रादेशिक और राष्ट्रीय नेता पार्टी के प्रति जनता के घटते विश्वास के कारणों का ईमानदारी से पता लगाएं। साथ ही उन्हें ये भी देखना होगा कि क्या भाजपा के राष्ट्रवाद को केवल इस कारण से नकार दिया जावे कि वह हिंदुत्व के करीब है। अनुच्छेद 370 को हटाने के निर्णय, वीर सावरकर को भारत रत्न देने के चुनावी वायदे या फिर पाकिस्तान के साथ चल रहे तनाव जैसे विषयों पर कांग्रेस की दिशाहीनता की वजह से आम जनता के बीच उसकी छवि एक ऐसे गैर जिम्मेदार विपक्ष के रूप में स्थापित हो गयी जो अपने समृद्ध अतीत से जुड़े श्रेष्ठता के भाव को ठीक उसी तरह नहीं भुला पा रहा, जैसे पूर्व रियासतों के वारिस। मतदान के एक दिन पहले भारतीय सेना द्वारा सीमा पार पाकिस्तान के संरक्षण में चल रहे आतंकवादी अड्डों पर की गई सैन्य कार्रवाई को चुनाव से जोडऩा भी यही साबित करता है कि कांग्रेस ने नहीं सुधरने की कसम खा ली है। सावरकर की कर्मभूमि में उनकी देशभक्ति पर सवाल और फौजियों के प्रदेश के रूप में प्रसिद्ध हरियाणा में सेना के पराक्रम पर राजनीतिक टिप्पणियों के कारण कांग्रेस को जबर्दस्त नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन इस बारे में उल्लेखनीय बात ये है कि ऐसी ही गलतियाँ बीते हुए अनेक चुनावों के दौरान करने के बावजूद कांग्रेस ने उन्हें दोहराने से परहेज नहीं किया। विपक्ष के लगातार कमजोर होते जाने से सत्ता में बैठे लोगों में तानाशाही मानसिकता उत्पन्न हो जाने के प्रति चिन्तित वर्ग भी कांग्रेस के बेहद गैर दिशाहीन रवैये से परेशान है। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूती केवल संख्याबल के आधार पर ही नहीं बल्कि सैद्धांतिक तौर पर भी होना चाहिए। इसके अलावा उसे जनभावनाओं की भी गहरी समझ होना जरूरी है। दुर्भाग्य से भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में जिस कांग्रेस को देखा जा सकता है वह अपनी ही गलतियों से कमजोर होती जा रही है। उसके नेता नरेंद्र मोदी और रास्वसंघ को चाहे जितना कोसते फिरें लेकिन तमाम विफलताओं और समस्याओं के अम्बार के बावजूद भी यदि जनता श्री मोदी और उनकी विचारधारा को समर्थन देती जा रही है तब ये मान लेना गलत नहीं होगा कि विपक्ष जनमानस को समझने में विफल रहा है। क्षेत्रीय पार्टियों का इस सम्बन्ध में उल्लेख गैर जरूरी लगता है क्योंकि उनकी पहुँच सीमित ही है। चूंकि हमारे देश में चुनाव निरंतर चलने वाला कर्मकांड बन चुका है इसलिए विपक्ष को भी उसके लिए हर समय तैयार रहना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता तब दूसरों पर दोष मढऩे से उसे कुछ भी हासिल नहीं होगा। मराठाओं के दबदबे वाले राज्य महाराष्ट्र में ब्राह्मण और जाटों के राजनीतिक प्रभुत्व के बीच हरियाणा में गैर जाट पंजाबी मुख्यमंत्री की सत्ता में वापसी जाति आधारित सियासत को भी प्रभावहीन कर रही है जिसे शुभ संकेत ही कहा जाएगा।


-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 21 October 2019

दो नगर निगम : एक तो संभल नहीं रही



मप्र की राजधानी भोपाल की नगरनिगम को दो हिस्सों में बाँट दिया गया। नगरीय प्रशासन विभाग को ये लगा कि ऐसा करने से विकास संबंधी कार्य सुचारू रूप से हो सकेंगे और विषमता भी दूर होगी। कहा जाता है कि प्रशासन का विकेंद्रीकरण करने से कार्यक्षमता और निर्णय प्रक्रिया में सुधार होता है। इस बारे में छोटे राज्यों का उदाहरण सामने है जो विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़े। विभागीय मंत्री जयवर्धन सिंह ने तो बड़े वार्डों को भी छोटा करने की बात कही हैं। भोपाल का विस्तार होते जाने से नगर निगम की परेशानियां बढऩा स्वाभाविक है और उस लिहाज से उसे दो हिस्सों में बाँट देना प्रायोगिक दृष्टि से सही हो सकता है लेकिन हमारे देश में राजनीति चूंकि हर मामले में टांग अड़ाने लगती है इसलिए भोपाल की तरह से ही इंदौर और जबलपुर में भी दो नगर निगम बनाने की मांग उठ खड़ी हुई।  बीते कुछ सालों में नगरीय सीमा में वृद्धि को देखते हुए वार्डों की संख्या भी तदनुसार बढ़ाई जाती रही। ऐसा होने से विकास संबंधी अपेक्षाएं और जिम्मेदारी भी बढ़ीं।  स्थानीय निकायों को यूँ तो स्वायत्त माना जाता है लेकिन ये स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि न केवल प्रशासनिक अपितु वित्तीय मामलों में भी वे पूरी तरह से राज्य सरकार के शिकंजे में फंसे होते हैं।  इसका असर विकास परियोजनाओं पर भी पड़ता है। यदि सर्वे करवाया जाए तब ये बात सामने आ जायेगी कि छोटे, मझोले शहरों के ही नहीं बल्कि महानगरों के स्थानीय निकाय भी सिर से पाँव तक कर्ज में डूबे हुए हैं।  करों की वसूली भी लक्ष्य के अनुसार नहीं हो पाती और बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो स्थानीय निकायों को कर देते ही नहीं।  प्रश्न ये है कि क्या स्थानीय निकायों का विभाजन किये जाने से शहरी विकास और प्रबन्धन का उद्देश्य पूरा हो सकेगा? देश की राजधानी दिल्ली में नगर निगम को अनेक हिस्सों में बाँट दिया गया लेकिन उससे व्यवस्था में किसी भी तरह का सुधार हुआ हो ऐसा नहीं लगता जबकि दिल्ली में केंद्र और राज्य दोनों की सरकारें भी हैं। इससे अलग हटकर देखें तो देश की व्यवसायिक राजधानी मुम्बई में महानगरपलिका है जो इस महानगर के स्थानीय निकाय के रूप में कार्यरत है।  मुम्बई जैसे विशाल महानगर का प्रबन्ध मामूली बात नहीं है लेकिन तमाम विरोधाभासों और विफलताओं के बाद भी मुम्बई महानगरपालिका का विभाजन नहीं किया गया।  मप्र में भोपाल से शुरू होकर बात इन्दौर और जबलपुर में दो नगर निगमों तक आने के बाद भविष्य में ग्वालियर का नाम भी जोड़ा जा सकता है लेकिन पहले इसके व्यवहरिक पक्ष को भी समझ लेना चाहिए क्योंकि सरकारी दफ्तरों का स्थापना व्यय  बहुत बढ़ गया है।  दो नगर निगम बनते ही समानांतर प्रशासनिक ढांचा भी खड़ा करना पड़ेगा जिससे अतिरिक्त बोझ बढ़ेगा।  छोटे जिलों के गठन के बाद इसका अनुभव हो चुका है। उस आधार पर स्थान निकायों का विभाजन करने के पूर्व उनकी उपादेयता और भविष्य में उत्पन्न होने वाली प्रशासनिक और वित्तीय समस्याओं का अनुमान लगाने के बाद ही फैसला लेना सही होगा।  स्थानीय निकायों की वर्तमान स्थिति कर्जा लेकर घी पीने वाली होकर रह गई है। वेतन बांटने तक के लाले पड़े रहते हैं। धीरे-धीरे बहुत सी सेवाएं निजी हाथों में दी जाने लगी है। पेशेवर सोच के अभाव के चलते जनता को परेशान करने वाली कार्यशैली अभी भी जारी है। न सिर्फ  प्रशासनिक अमला बल्कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी लूट सके सो लूट वाली मनोवृत्ति में लिप्त रहते हैं।  ऐसी स्थिति में एक शहर में दो नगर निगम बनाने से कुछ लोगों की नेतागिरी भले चमक जाये लेकिन शहर और जनता दोनों को विशेष लाभ की उम्मीद नहीं की जा सकती।  गत दिवस ज्योंहीं भोपाल के बाद जबलपुर और इन्दौर में दो नगर निगम बनाने की सुगबुगाहट प्रारंभ हुई त्योंही सोशल मीडिया पर मप्र के विभाजन के साथ ही अलग महाकौशल राज्य की मांग भी उछलने लगी।  राजनीतिक मोर्चे पर भी कांग्रेस - भाजपा आमने सामने आकर बयानों के तीर चलाने लगीं।  हालाँकि सरकारी स्तर पर बात अभी भोपाल में दो नगर निगम तक ही सीमित है किन्तु कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा ने चूँकि जबलपुर में भी भोपाल की तरह दो महापौर की चर्चा छेड़ी है तब माना जा सकता है कि कमलनाथ सरकार को इस पर विचार करना पड़ेगा।  लेकिन किसी भी अंतिम निर्णय पर पहुँचने से पहले बेहतर यही होगा कि बजाय नगरीय प्रशासन को हिस्सों में बांटने के मौजूदा स्थिति को ही सुधारा जाए।  यदि कार्यशैली को समयबद्धता के साथ ही पेशेवर रूप दिया जाए तो वर्तमान ढांचे में ही वांछित नतीजे हासिल किये जा सकते हैं।  देश इस समय जिस तरह की आर्थिक अनिश्चितता से गुजर रहा है उसे देखते हुए सरकारी खर्च में कटौती की जरूरत है न कि उसे और बढ़ाने की।  एक तरफ  तो स्थानीय निकायों द्वारा सफाई जैसे अपने मूलभूत दायित्व को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है तब एक ही शहर में दो नगर निगम बनाने से क्या हासिल होगा ये समझ से परे है। और जब एक ही बच्चे का रखरखाव उचित तरीके से नहीं हो पाउ रहा तब दूसरा पैदा करना कहां की बुद्धिमता होगी?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 19 October 2019

मेग्निफिसेंट मप्र. : आगे का दारोमदार नौकरशाही पर



इंदौर में संपन्न मेग्निफिसेंट  मप्र नामक निवेशक सम्मेलन में मुख्यमंत्री कमलनाथ सतही तौर पर तो कामयाब दिख रहे हैं। स्वयं औद्योगिक पृष्ठभूमि के होने से उद्योगपतियों से वे सहज रूप से संवाद कायम करने में सक्षम हैं। केंद्र सरकार में वाणिज्य मंत्री रह चुके श्री नाथ इस क्षेत्र की समस्याओं और जरूरतों से भी अच्छी तरह वाकिफ  हैं। यही वजह रही कि उनकी सरकार ने आयोजन के पूर्व ही अनेक ऐसे फैसले लिए जिनसे प्रदेश में व्यापार और उद्योगों को काम करने में आसानी हो। आवासीय कालोनियां बनाने में आने वाली अड़चनों को दूर करने के बारे में लिए गये ताजा फैसलों का आम तौर पर स्वागत हुआ है। इसके अलावा राज्य सरकार ने खनिज के क्षेत्र में रायल्टी घटाने जैसे निर्णय भी किये। इंदौर में निवेशकों को लुभाने के लिए भी मुख्यमंत्री ने अनेक ऐसे फैसलों से उन्हें अवगत करवाया जिनके कारण प्रदेश में उद्योग लगाने में आसानी होगी। जमीन होने पर किसी अनुमति की आवश्यकता खत्म करने जैसी बात मायने रखती है। सरकारी दावे के अनुसार मेग्निफिसेंट  मप्र. अपने मकसद में सफल रहा और इसके जरिये प्रदेश में जमकर पूंजी निवेश होने के साथ ही 70 फीसदी रोजगार स्थानीय लोगों को मिलने की संभावना भी बढ़ गई। मप्र उद्योग लगाने के मामले में अत्यंत ही उपयुक्त स्थान है। बिजली, पानी, भूमि, खनिज, मौसम, भौगोलिक स्थिति, आवागमन के साधन आदि के मामले में यह प्रदेश पूरी तरह से संपन्न है। औद्योगिक उत्पादन के परिवहन का खर्च भी अपेक्षाकृत कम है क्योंकि देश के सभी इलाकों में यहाँ से आसानी से पहुंचा जा सकता है। मानव संसाधन भी भरपूर है। पर्यटन की दृष्टि से भी मप्र के सभी अंचलों में अपार संभावनाएं हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि मप्र में दूसरे राज्यों की अपेक्षा कानून व्यवस्था की स्थिति अच्छी है। किसी भाषा या राज्य के प्रति किसी तरह की दुर्भावना भी नहीं है। देश के सभी राज्यों के लोग यहाँ मिल जुलकर रहते हैं। मप्र की तासीर यही रही है कि जो भी यहाँ काम करने आया यहीं का होकर रह गया। बावजूद इसके प्रदेश के मालवा अंचल के अलावा औद्योगिक विकास उस मात्रा में नहीं हुआ जितना अपेक्षित और संभव था। पिछली शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने भी निवेशक सम्मलेन तो निरंतर किये लेकिन कटु सत्य यही है कि जितनी उम्मीद थी उसके मुताबिक औद्योगिक विकास नहीं हो सका। शिवराज सरकार ने उनकी पूर्ववर्ती दिग्विजय सरकार के मुकाबले मप्र को बिजली, पानी और सड़क की खस्ताहालत से निश्चित रूप से उबारा। इसके साथ ही उनके राज में सामाजिक कल्याण की योजनाओं के साथ ही कृषि क्षेत्र को भी दिल खोलकर सौगातें मिलीं लेकिन औद्योगिक विकास के मामले में प्रदेश का पिछड़ापन दूर नहीं हो सका। कमलनाथ ने सत्ता सँभालते ही औद्योगिक विकास की तरफ  ध्यान दिया और मेग्निफिसेंट  मप्र के माध्यम से निवेश प्रस्तावों को अमली जामा पहिनाने का जोरदार प्रयास किया। मुख्यमंत्री का निजी सम्पर्क इस दिशा में बहुत सहायक हो सकता है। हालाँकि देश के अग्रणी उद्योगपति अंबानी और अडानी इंदौर नहीं आये लेकिन वे भी श्री नाथ के सम्पर्क में हैं जिससे उनके द्वारा निवेश की सम्भावनाएं बनी हुई हैं। लेकिन दूसरा पहलू ये है कि निवेशक सम्मेलन भी अब औपचारिकताओं की शक्ल लेते जा रहे हैं। तकरीबन हर राज्य ऐसे आयोजन करते हुए उद्योगपतियों के लिए लाल कालीन बिछाकर उन्हें लुभाने की कोशिश करता है। केंद्र सरकार भी विदेशी निवेशकों की खुशामद करती है। हर सम्मलेन के बाद बड़े-बड़े दावे होते हैं लेकिन उस अनुपात में निवेश नहीं आता। वरना तो देश भर में उद्योगों का जाल बिछ जाता। सवाल यह है कि मप्र जैसे राज्य में तमाम अनुकूलताओं के बावजूद भी औद्योगिक विकास की गति धीमी क्यों रही ? और उसका उत्तर है यहाँ की लचर प्रशासनिक मशीनरी। मुख्यमंत्री यदि मेग्निफिसेंट  मप्र. में हुई घोषणाओं पर शत-प्रतिशत अमल चाहते हैं तब उन्हें नौकरशाही को भी कसना होगा। इस बारे में गुजरात से सीखा जा सकता है जहां निवेश की इच्छा व्यक्त करने के बाद सरकारी मशीनरी पीछे पड़ जाती है और उद्योग खुलवाकर ही चैन लेती है। दूसरी बात कमलनाथ सरकार को उद्योगों के लिए बिजली की दरें भी प्रतिस्पर्धात्मक रखनी चाहिए। जिस तरह शिवराज सरकार ने बिजली की आपूर्ति को निर्बाध बनाकर कृषि उत्पादन के क्षेत्र में मप्र को अग्रणी राज्य बनाया ठीक उसी तरह कमलनाथ को चाहिए वे उद्योगों को भी बिजली के मामले में रियायत देते हुए उन्हें संरक्षण प्रदान करें। जल , जंगल और जमीन तीनों की सम्पन्नता के बावजूद उद्योगों की कमी की वजह से मप्र देश का हृदय प्रदेश होने के बाद भी अपेक्षित प्रगति नहीं कर सका तो उसके लिए एक नहीं अनेक कारण हैं। कमलनाथ सरकार के स्थायित्व पर भले ही अनिश्चितता के बादल मंडराते रहते हों लेकिन उनकी विकास मूलक सोच और कार्यशैली की प्रशंसा विरोधी भी करते हैं। इंदौर में हुआ जमावड़ा कितना सफल होगा ये मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत रूचि पर निर्भर करेगा क्योंकि सत्ता बदलने के बाद भी नौकरशाही नामक व्यवस्था नहीं बदलती। यदि मुख्यमंत्री इस परिपाटी को बदल सके तब मेग्निफिसेंट मप्र आयोजन अपने नाम को सार्थक सिद्ध कर सकेगा। वरना पिछले अनुभव ख़ास अच्छे नहीं रहे।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 18 October 2019

सावरकर का विरोध कांग्रेस के गले का फंदा बना



महाराष्ट्र में भाजपा ने अपने चुनाव घोषणापत्र में वीर सावरकर , महात्मा फुले और सावत्री बाई फुले को भारत रत्न देने का जो वायदा किया वह राजनीतिक विवाद की वजह बन गया है। फुले दंपत्ति पर तो किसी ने ऐतराज नहीं किया लेकिन सावरकर जी को लेकर भाजपा को कठघरे में खड़ा किया जाने लगा। असदुद्दीन ओवैसी जैसे व्यक्ति द्वारा तो वीर सावरकर के बारे में उलटा पुल्टा बोलना स्वाभाविक ही था क्योंकि वे हिंदुत्व के प्रखर प्रवक्ता थे लेकिन कांग्रेस के कतिपय बड़बोले नेताओं ने जिस तरह की बकवास की , वह निश्चित रूप से दुखद है। मनीष तिवारी ने तो यह तक कह दिया कि सावरकर जी को भारत रत्न देने के बाद नाथूराम गोडसे को भी उसी से नवाजा जाएगा। वहीं मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने महात्मा गांधी की हत्या में सावरकर जी के आरोपी होने की बात कहते हुए उनका उपहास किया। भाजपा ने बिना देर किये इस मुद्दे को लपका और कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर दिया। फुले दंपत्ति जहां महाराष्ट्र के दलित समुदाय में अत्यंत सम्मानित हैं वहीं सावरकर जी के प्रति भी बहुत आदरभाव है। शिवसेना तो उन्हें पहला हिन्दू हृदय सम्राट मानती है। जब कांग्रेस को लगा कि सावरकर जी की आलोचना से उसे चुनावी नुकसान हो सकता है तब बजाय सोनिया गांधी और राहुल के पूर्व प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को आगे किया गया जिन्होंने सफाई देते हुए कहा कि कांग्रेस सावरकर जी की विरोधी नहीं है। उन्होंने ये भी याद दिलाया कि इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्व काल में ही सावरकर जी पर डाक टिकिट जारी किया गया था। इसी के साथ ही कांग्रेस से शिवसेना में गईं प्रियंका चतुर्वेदी ने इंदिरा जी के एक पत्र की प्रतिलिपि जारी कर दी जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सावरकर जी के साहसिक संघर्ष की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारत माता का महान सपूत बताया था। उसके बाद से कांग्रेस के उन नेताओं की जमकर किरकिरी हुई जो सावरकर जी को भारत रत्न दिए जाने संबंधी भाजपा के चुनावी वायदे को अपने लिये फायदेमंद मानकर उसका विरोध करने में जुट गये। वैसे मनीष तिवारी और दिग्विजय सिंह के बयानों को प्रबुद्ध वर्ग गम्भीरता से नहीं लेता किन्तु आम जनता में उनकी वजह से कांग्रेस को सदैव शर्मिन्दगी झेलनी पड़ती है। भले ही डॉ. मनमोहन सिंह के मुंह से सावरकर जी द्वारा स्वाधीनता संग्राम में दिए गये योगदान की प्रशंसा करवाकर कांग्रेस ने नुकसान की भरपाई करने का प्रयास किया हो लेकिन जो होना था वह हो चुका। दरअसल भाजपा और शिवसेना को कांग्रेस के कुछ नेताओं की बकवास ने एक हथियार दे दिया। ये सब देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस में गलतियों से सीखने की प्रवृत्ति पूरी तरह खत्म हो चुकी है। कहावत है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है लेकिन जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने का विरोध करने पर पूरे देश में आलोचना का पात्र बनने के बावजूद कांग्रेस को समझ नहीं आई। लोकसभा में उस मुद्दे पर हुई बहस के दौरान कांग्रेस दल के नेता अधीर रंजन चौधरी के अलावा मनीष तिवारी ने जो भाषण दिया उसकी वजह से पार्टी की पूरे देश में फजीहत हुई। गत दिवस मनमोहन सिंह जी भी सफाई देते रहे कि कांग्रेस का विरोध तरीके से था, मुद्दे से नहीं। देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी में आ चुकी यह दिशाहीनता वाकई चिंताजनक है। स्वाधीनता आन्दोलन की अगुआई करने वाली पार्टी के अनुभवी कहे जाने वाले नेताओं के मन में सावरकर जी जैसे नेता के संघर्ष और देशप्रेम के बारे दुराग्रह निश्चित्त रूप से उनकी वैचारिक विपन्नता का परिचायक है। मणिशंकर अय्यर, मनीष तिवारी, शशि थरूर, दिग्विजय सिंह, सुरजेवाला और ऐसे ही कुछ और नेताओं की बेलगाम जुबान पार्टी को कितना नुकसान पहुंचा चुकी है ये किसी से छिपा हुआ नहीं है। बावजूद इन्हें रोकने और टोकने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ती। मणिशंकर के नीचता संबंधी बयान ने गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथ आई बाजी छीन ली थी। कुछ बरस पहले सोनिया गांधी द्वारा भी मौत का सौदागर जैसी टिप्पणी कर नरेंद्र मोदी को रक्षात्मक से आक्रामक होने का अवसर दे दिया था। ऐसा नहीं है कि स्तरहीन ऊलजलूल टिप्पणियाँ करने वाले केवल कांग्रेस में ही हैं। भाजपा के कुछ नेताओं को भी वाणी के संयम और मर्यादा की सीमाएं लांघने का शौक है। लेकिन कांग्रेस को ये सोचना चाहिए कि वह जिस दयनीय स्थिति में है उसके मद्देनजर उसकी छोटी से छोटी गलती भी बड़े नुकसान का कारण बन जाती है। मणिशंकर को गुजरात चुनाव में की गई बकवास के बाद निलम्बित किया गया लेकिन धीरे से उनकी बहाली भी हो गई। अनुच्छेद 370 को लेकर पार्टी की नीति के विरोध में अनेक नेताओं के सार्वजनिक बयानों से साबित हो गया कि शीर्ष स्तर पर सामंजस्य और समन्वय का जबर्दस्त अभाव है। महाराष्ट्र कभी पार्टी का अभेद्य गढ़ हुआ करता था लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस वहां अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत है। ऐसी सूरत में उसे अतिरिक्त सतर्कता बरतना चाहिये थी। लेकिन सावरकर जी को भारत रत्न देने के वायदे पर अंट-शंट बोलकर उसके कतिपय नेताओं ने डूबती नाव में नीचे से भी छेद करने जैसी मूर्खता कर दी है। इन नेताओं को इतना भी ज्ञान नहीं रहा कि सावरकर जी केवल महाराष्ट्र ही नहीं वरन पूरे देश में अत्यंत सम्मानित हैं। स्वाधीनता संग्राम में अपनी बेहद सक्रिय भूमिका के आलावा उनका सहित्य सृजन और समाज के बारे में चिंतन अध्ययन करने योग्य है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 17 October 2019

जिसका सबको था इन्तजार वो घड़ी आ रही है



अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थल के स्वामित्व को लेकर चल रहे विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की उल्टी गिनती शुरू हो गई है।  गत दिवस मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने बहस करने के लिए और समय देने से मना करते हुए सायंकाल पांच बजे सुनवाई बंद कर दी।  उल्लेखनीय है श्री गोगोई आगामी 17 नवम्बर को सेवा निवृत्त होने वाले हैं।  उसी के मद्देनजर उन्होंने पहले ही कह दिया था कि वे 16 अक्टूबर के आगे बहस की अनुमति नहीं देंगे।  उनके कड़े रुख का असर भी हुआ वरना किसी प्रकरण को हनुमान जी की पूंछ की तरह लम्बा करने में वकीलों को महारत हासिल होती है।  इस मुकदमे में यूँ तो दशकों से तरह-तरह के तर्क और तथ्य सामने आते रहे लेकिन बीते कुछ दिनों में जिस तरह की जानकारी अदालत में दोनों पक्षों द्वारा पेश की गयी उसमें अनेक ऐसी बातें पता चलीं जिनसे लोग अनजान थे।  इस दौरान इतिहास के अनेक अनछुए पन्ने भी खोले गए।  भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट पर भी काफी बहस हुई।  जिसके अनुसार विवादित स्थल पर की गयी खुदाई में मिले अवशेष इस दावे को प्रमाणित करते हैं कि विवादित बाबरी ढांचा पहले से बने किसी धर्मस्थल को तोड़कर बनाया गया था।  हिन्दुओं का दावा है कि जो अवशेष मिले वे हिन्दू मन्दिर के थे जबकि मुसलमानों की तरफ से उसका खंडन किया जाता रहा।  इस मुकदमे में इतिहास को लेकर जितनी बातें सामने लाई गईं उनके आधार पर अनेक शोध प्रबंध लिखे जा सकते हैं।  अदालत का फैसला क्या होगा ये तो कोई भी बताने की स्थिति में नहीं है लेकिन किसी भी तरह की अप्रत्याशित घटना नहीं हुई तब श्री गोगोई जाते-जाते इस अत्यंत लंबे विवाद का कानूनी हल कर जायेंगे।  सबसे महत्वपूर्ण बात इस दौरान ये रही कि इस मुद्दे पर सड़कों पर होने वाली राजनीति पर काफी हद तक विराम लग गया। यद्यपि बयानबाजी बदस्तूर जारी रही। उस पर भी प्रधानमंत्री ने जब नाराजगी व्यक्त की तब जाकर कुछ रोक लगी। सर्वोच्च न्यायालय ने पूरा मामला अपने हाथ में लेने के पहले मध्यस्थता पैनल बनाकर आपसी समझौते का मौका भी दिया लेकिन उसका परिणाम शून्य ही रहा। हालांकि गत दिवस मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से विवादित भूमि पर दावा छोडऩे की खबर भी उड़ी किन्तु उसकी न तो विधिवत पुष्टि हुई और न ही खंडन । उस कारण थोड़ी सी अनिश्चितता भी बनी लेकिन अब ये मान लेना ही सही होगा कि अन्तत: सर्वोच्च न्यायालय को ही फैसला करना पड़ेगा क्योंकि दोनों समुदायों के धार्मिक संगठनों के बीच सुलह होने के बाद भी मतभेद की गुंजाइश बनी रहेगी । इस सम्बंध में पहले संकेत आए थे कि श्री गोगोई सेवा निवृत्ति के कुछ दिन पहले ही निर्णय कर पाएंगे क्योंकि जैसा वे खुद कह चुके थे कि सुनवाई के बाद इतनी जल्दी फैसला लिखवाना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा । लेकिन बीते दो - तीन दिनों से ये सुनने में आ रहा है कि नवम्बर के पहले सप्ताह में ही सर्वोच्च न्यायालय अपना निर्णय दे देगा । उप्र सरकार ने 30 नवम्बर तक सभी वरिष्ठ अधिकारियों की छुट्टियां रद्द करते हुए न्यायालयीन निर्णय के बाद किसी बवाल की आशंका के पूर्वाभास में अयोध्या में सुरक्षा प्रबंध कड़े कर दिए हैं । इस मामले में एक बात जो सबसे अधिक प्रशंसा योग्य है वह है मुस्लिम समाज के अनेक वर्गों द्वारा मंदिर के दावे को स्वीकार करते हुए तनाव को हमेशा के लिए खत्म करने की पहल किया जाना । लखनऊ में एकत्र मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक समूह ने भी इसी तरह की बात कही जिसे मुस्लिम समाज के बाकी नेताओं का समर्थन नहीं मिला लेकिन उनके अलावा आम मुसलमानों के बीच भी ये कहने वाले मिलने लगे हैं कि जन्मभूमि स्थल हिंदुओं को सौंपकर मस्जिद कहीं और बना ली जावे । दरअसल उन्हें लग गया है कि कुछ छद्म धर्मनिरपेक्ष नेताओं और पार्टियों की वजह से बीते तीस वर्षों से वे मानसिक तनाव झेल रहे हैं । हिंदुओं के बीच भी आम राय ये बनी है कि उग्रवादी सोच से अलग हटकर ऐसा रचनात्मक समाधान निकाला जाए जिससे ये विवाद सियासत के शिकंजे से मुक्त हो सके । बहरहाल जिस न्यायपालिका की लेटलतीफी और टालने वाले रवैये ने इस विवाद को लंबित रखा, अंतत: उसी की सर्वोच्च पीठ ने दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाते हुए निर्णय करने का संकल्प कर लिया। श्री गोगोई ने जिस तरह से समय सीमा निर्धारित करते हुए बहस को मुद्दे तक सीमित रखने में सफलता हासिल की वह सबसे ज्यादा कारगर साबित हुई। वरना वकीलों का बस चलता तो वे अंतहीन बहस जारी रखते । दोनों पक्षों के कुछ लोग ऐसा चाह भी रहे होंगे लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के साथ ही उससे जुड़े हिन्दू नेताओं द्वारा फैसला न्यायालय पर छोड़ देने के निर्णय के बाद से जिद वाली मानसिकता थोड़ी कमजोर पड़ी।  जो नेता आस्था को न्यायालय से उपर मानकर चलते थे वे भी अंतत: उसी की बात मानने के लिए राजी हो गये तो इसे केंद्र सरकार की सफलता माना जाना चाहिए।  अनेक लोग सुझाव देते रहे कि अपने बहुमत का इस्तेमाल करते हुए मोदी सरकार कानून बनाकर जन्मभूमि की जगह हिन्दुओं को मंदिर बनाने के लिए सौंप दे लेकिन प्रधानमन्त्री उस सबसे अप्रभावित थे।  वे चाहते थे तो वैसा कर सकते थे लेकिन तब सांप्रदायिक तनाव और उन्माद दोनों बढऩे की आशंका रहती।  मुख्य न्यायाधीश की भी तारीफ  करनी होगी जिन्होंने उनके रास्ते में आये तमाम अवरोधों को हटाते हुए मामले की सुनवाई आखिरकार पूरी कर ली।  अब पूरा देश ही नहीं अपितु अधिकांश विश्व सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का इंतजार कर रहा है।  उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायपालिका के फैसले को सभी पक्ष स्वीकार करेंगे।  न्यायपालिका को ऐसी ही प्रतिबद्धता लम्बे समय से अटके पड़े बाकी राष्ट्रीय स्तर के विवादों में भी दिखानी चाहिए जिनके कारण देश काफी नुक्सान उठा चुका है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 16 October 2019

बेपेंदी के लोटों की घर वापिसी



मप्र के जिन दो भाजपा विधायकों ने कुछ माह पूर्व विधानसभा में कमलनाथ सरकार के विधेयक का समर्थन कर कांग्रेस में जाने के संकेत दिए थे उनमें से एक नारायण त्रिपाठी गत दिवस भाजपा में वापिस आ गए। उनके साथ ही पार्टी से दूर होने वाले विधायक शरद कोल के बारे में भी दावा किया गया कि वे भाजपा में ही हैं। दरअसल इन दोनों ने जब सरकारी विधेयक के पक्ष में मतदान किया उस समय चूंकि भाजपा ने किसी भी तरह का व्हिप जारी नहीं किया था इसलिए दोनों पर दलबदल कानून लागू नहीं हुआ। हालाँकि दोनों ने क्षेत्रीय विकास के नाम पर मुख्यमंत्री की शान में कसीदे पढ़ते हुए भाजपा को कोसा भी लेकिन पार्टी ने उनके विरुद्ध किसी भी तरह की अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की जिससे तकनीकी तौर पर वे पार्टी के ही विधायक बने रहे। बावजूद उसके सदन में सरकार का समर्थन करने के बाद से वे भाजपा के करीब नहीं नजर आये और आलोचनात्मक टिप्पणियाँ करने में भी नहीं चूके। जिस समय उन्होंने विधानसभा में कमलनाथ सरकार का साथ दिया उस समय भाजपा के छोटे से लेकर बड़े नेता तक कमलनाथ सरकार गिराने की डींगें हांका करते थे। नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव तो हाईकमान का इशारा मिलने भर की बातें करते सुने गए। लेकिन ज्योंही उक्त दोनों विधायकों ने पाला बदला त्योंही सरकार गिराने की बजाय भाजपा अपना घर बचाने में जुट गई। अब अचानक वे दोबारा पार्टी से कैसे जुड़े ये तो वही जानें। शरद कोल ने तो सार्वजानिक तौर पर ज्यादा कुछ नहीं कहा लेकिन श्री त्रिपाठी ने जो बयान दिया वह उनकी बेशर्मी का परिचायक है। वैसे वे हैं भी पुराने दलबदलू। 2013 में वे मप्र की मैहर विधानसभा सीट से कांग्रेस विधायक बने लेकिन 2014 में विधायकी छोडकर भाजपा में आ गए और उपचुनाव में जीते। 2018 में फिर चुने गए लेकिन कुछ महीनों बाद ही कांग्रेस के करीब जा बैठे। दरअसल उक्त दोनों विधायक मंत्री बनने के लालच में कमलनाथ के झंडे तले चले तो गए लेकिन उसके लिए उन्हें विधायकी छोड़कर उपचुनाव लडऩा पड़ता जिसके लिए शायद कांग्रेस राजी नहीं थी। उनके सामने परेशानी ये थी कि विधानसभा में उन्हें भाजपा के साथ ही बैठना पड़ता और व्हिप जारी होने पर उसका पालन करते हुए सरकार के विरोध में मतदान करना पड़ता। राजनीति में माहिर कमलनाथ को जब लगा कि ये दोनों उनके लिए बोझ बन जायेंगे तब उनकी उपेक्षा शुरू हो गई, जिसके बाद बाद शरद कोल चुपचाप और नारायण त्रिपाठी ढोल पीटते हुए भाजपा में लौट आये। श्री त्रिपाठी कभी समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे थे। प्रदेश में सत्ता से बाहर बैठी भाजपा के लिए झाबुआ उपचुनाव के ठीक पहले दोनों विधायकों का घर लौट आना निश्चित तौर पर मनोबल बढ़ाने वाला तो है किन्तु ऐसे बेपेंदी के मिर्जापुरी लोटा कहलाने वाले विधायकों पर दोबारा भरोसा करना किसी भी लिहाज से अक्लमंदी नहीं है। लेकिन भाजपा को अब इन सबसे कोई सरोकार नहीं रहा। सत्ता की अंधी दौड़ में नैतिकता , निष्ठा और ईमानदारी कांग्रेस की तरह उसके लिए भी फिजूल की बातें बनकर रह गईं हैं। शरद कोल तो पिछले विधानसभा चुनाव के पहले तक कांग्रेस के पदाधिकारी तक रह चुके थे। जहां तक बात श्री त्रिपाठी की है तो उनके अवसरवादी और मतलबपरस्त होने में किसी को कोई संदेह न पहले था और न ही अब है। उन दोनों ने सदन में कमलनाथ सरकार के पक्ष में मत देने के बाद व्हिप नहीं होने से अनजाने में वैसा करने की बात कही होती तब उन्हें निर्दोष माना जा सकता था। लेकिन बाद में उनके द्वारा की गयी बयानबाजी से जाहिर था कि कांग्रेस के साथ उनकी बातचीत पहले से चल रही थी। उन्होंने भाजपा में उपेक्षा के आरोप भी लगाए। लेकिन जब उन्हें लगा कि एक तो कांग्रेस उन्हें भाव नहीं दे रही और विधायकी छोड़कर उपचुनाव लडऩा खतरे से खाली नहीं होगा तब वे घर वापिसी का नाटक करते हुए लौट आये। भाजपा भी उनका स्वागत करने इस तरह बेताब दिखी मानों मेले में खोये हुए भाई वापिस लौट आये हों। दो विधायकों के रूठकर जाने और फिर मान-मनौव्वल के बाद वापिस आ जाने का ये किस्सा भाजपा के लिए अब नया नहीं है। लेकिन इससे उसके निष्ठावान कार्यकर्ताओं और नेताओं पर क्या गुजरती है ये भी उसके कर्ताधर्ताओं को सोचना चाहिये। राजनीति उसके लिए केवल सत्ता का खेल हो गयी है तब उसे बेहिचक ये स्वीकार करना चाहिए कि इस मामले में वह भी और दलों की तरह ही है। हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में जिस तरह से उसने नई भर्ती वालों को टिकिट दी उससे उसकी वैचारिक पहिचान पर एक बार फिर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं। मप्र में उसके दो विधायकों के कांगे्रस की गोद में जाकर बैठ जाने और स्वार्थसिद्धि नहीं होने के बाद मीठी - मीठी बातें करते हुए लौट आने का समूचा घटनाचक्र राष्ट्रीय राजनीति की पहिचान सा बन गया है लेकिन भाजपा भी उसी का हिस्सा बन गई ये देखकर उन लोगों को आश्चर्य कम और दु:ख ज्यादा होता है जो उसकी नीतियों और सिद्धांतों के कारण उसका समर्थन करते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 15 October 2019

कश्मीर घाटी में एक अच्छी शुरुवात



जम्मू-कश्मीर में 72 दिनों के बाद पोस्ट पेड मोबाईल फोन  सेवा बहाल कर दी गयी। उससे एसएमएस भी भेजे जा सकेंगे। प्री पेड कनेक्शन पर बातचीत की सुविधा अभी रुकी रहेगी। प्राप्त जानकारी के अनुसार 40 लाख मोबाईल फोनधारियों के बंद पड़े फोन चालू होने से घाटी के भीतर संचार और संवाद को लेकर व्याप्त दिक्कतें दूर हो सकेंगी। घाटी के भीतर रहने वाले आम नागरिक और बाहर रहने वाले  उनके परिजनों के बीच बीते दो माह से भी ज्यादा से कोई बातचीत नहीं हो पा रही थी। इसको लेकर न सिर्फ  वहां के नेता बल्कि घाटी के बाहर की विपक्षी पार्टियां भी सवाल उठा रही थीं। केंद्र  सरकार द्वारा जब - जब भी घाटी में हालात सामान्य होने की बात कही गयी  तब - तब ये प्रश्न भी उठा कि यदि सब कुछ ठीक ठाक है तो घाटी को मोबाईल सेवा से वंचित क्यों रखा गया है ? कश्मीर के लोगों को भी इस बात पर जबर्दस्त शिकायत थी कि उनकी आवाज को पूरी तरह से दबाकर केंद्र सरकार तानाशाही पर उतारू है। ये बात भी सही है कि ये समस्या केवल घाटी की ही थी। जम्मू और लद्दाख के लोगों ने तो अनुच्छेद 370 हटाये जाने का खुलकर समर्थन किया था इसलिए वहां सरकार को किसी भी तरह की गड़बड़ी की आशंका नहीं थी लेकिन कश्मीर घाटी के भीतर अलगाववाद की भावना पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से मोबाईल ही नहीं लैंडलाइन और इन्टरनेट भी बंद कर  दिए गए।   निश्चित रूप से इससे आम जनता को भारी परेशानी हुई लेकिन देश विरोधी ताकतों के सम्पर्क सूत्र काटने का इसके अलावा और कोई  चारा भी नहीं था। वैसे भी ये पहला अवसर नहीं था जब घाटी में संचार सुविधाएं बाधित की गयी हों। आतंकवादी संगठनों के पाकिस्तान से संपर्क सर्वविदित हैं। उसे देखते हुए ये कदम नहीं उठाया गया होता तो अनुच्छेद 370 हटाने के बाद घाटी में स्थिति अनियंत्रित होना स्वाभाविक था क्योंकि मोबाइल और इन्टरनेट के जरिये अफवाहें फैलाने वाला तंत्र भी सक्रिय हुए बिना नहीं रहता। घाटी में छिपे बैठे आतंकवादी भी आपस में संपर्क करते हुए लोगों को भड़काने का काम कर सकते थे। उस लिहाज से केंद्र सरकार द्वारा समय रहते जो सख्त फैसला लिया वह कारगर रहा। भले ही कोई कुछ भी कहे लेकिन घाटी में बीते दो महीने के दौरान यदि हालात नियंत्रण में रहे तो उसमें सुरक्षा बलों की तैनाती के अलावा संचार सुविधाएं ठप कर देने का भी बड़ा योगदान रहा। हालांकि दूरस्थ क्षेत्रों में भले ही छोटी-छोटी घटनाएं हुईं लेकिन कहीं भी बलप्रयोग की नौबत नहीं आई। इस दौरान किसी की जान भी नहीं  गयी जो उल्लेखनीय है। अभी तक की स्थिति का आकलन करने के बाद केंद्र सरकार ने पहले पर्यटकों की आवाजाही पर लगी रोक हटाई और उसके बाद पोस्ट पेड मोबाईल सेवा भी शुरू करवा दी। इससे लगता है कि सरकार को ये भरोसा हो गया है कि घाटी में हालात पूरी तरह से काबू में हैं  और आतंकवादी नेटवर्क पूरी तरह से छिन्न - भिन्न हो चुका है। हुर्रियत सहित तमाम राजनीतिक नेताओं के नजरबन्द रहने से अलगाववादी गतिविधियां भी ठंडी हैं। घाटी में सर्दियों की   दस्तक शुरू हो चुकी है। ऐसे में वहां जनजीवन सामान्य करने की दिशा में केंद्र सरकार द्वारा उठाया गया ये कदम शुरुवात हो सकती है। जम्मू-कश्मीर का विधिवत विभाजन भी होने को है। उस हेतु प्रशासनिक व्यवस्था भी तदनुसार बदलेगी। इसलिए भी संचार सुविधाएं चरणों में बहाल करने की जरूरत महसूस की गयी  होगी। लेकिन ये घाटी  की जनता के व्यवहार पर निर्भर  होगा कि प्रतिबंधों को और शिथिल किया जाए अथवा नहीं। घाटी को पूरी तरह सामान्य मान लेना जल्दबाजी होगी। ज्योंहीं लोगों के बीच सम्पर्क कायम होगा परदे के पीछे छिपे भारत विरोधी तत्व अपनी  हरकतों से बाज नहीं आयंगे। बेहतर होगा जो लोग अमनपसंद हैं वे थोड़ी हिम्मत और समझदारी दिखाते हुए सरकार द्वारा सामान्य स्थिति बहाली के लिए उठाये जा रहे कदमों को सार्थक बनाने में मदद करें। क्योंकि यदि इस छूट का दुरूपयोग हुआ और अलगाववादी तत्वों ने इसका लाभ लेकर घाटी में अशांति फैलाने की कोशिश की तो फिर केंद्र सरकार के पास दोबारा रोक लगाने का विकल्प ही बच रहेगा और उस सूरत में घाटी  के लोगों के प्रति जो थोड़ी सी सहानुभूति है वह भी जाती रहेगी। कश्मीर के चंद लोग और उनके सरपरस्त चाहे कितना भी जोर लगा लें लेकिन कश्मीर में अनुच्छेद 370 की वापिसी अब नामुमकिन है। केंद्र शासित हो जाने से जम्मू-कश्मीर पर केंद्र सरकार का प्रशासनिक नियंत्रण पूरी तरह से कायम हो चुका है और आगे भी रहेगा। नौकरशाही में बैठे भारत विरोधी मानसिकता के लोगों को भी अब पहले जैसी आजादी नहीं रहेगी। पुलिस भी अलगाववादी संगठनों के प्रति पूर्ववत उदारता नहीं दिखा सकेगी। केंद्र सरकार ने बीते दो माह में जिस तरह की मोर्चेबंदी की उससे घाटी में ये एहसास तो मजबूत हुआ है कि केंद्र सरकार मजबूत इरादों के साथ काम कर रही है। यदि घाटी  के आम लोग इस अवसर का लाभ लेकर भारत विरोधी भावनाएं फैलाने वालों को उपेक्षित करना शुरू कर दें तब इस राज्य के विकास की गति तेज होते देर नहीं लगेगी। वरना घाटी आगे भी आग में जलती रहेगी और लोग सस्ते में मारे जाते रहेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 14 October 2019

आयुष्मान योजना को बीमार होने से बचाना जरूरी



सरकार द्वारा जनता के हित में बनाई जाने वाली अच्छी नीतियों का क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं होने की वजह से एक तो उनका मकसद पूरा नहीं होता और दूसरे वे भ्रष्टाचार के मकडज़ाल में फंकर रह जाती हैं। इन्हीं में से एक है प्रधानमन्त्री द्वारा देश के लगभग 55 करोड़ ऐसे लोगों के लिए पांच लाख तक की चिकित्सा निशुल्क प्रदान करने प्रारम्भ की गयी आयुष्मान योजना, जो इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ हैं। चूंकि सरकारी अस्पतालों में न तो पर्याप्त क्षमता है और न ही अपेक्षित सुविधाएं इसलिए निजी अस्पतालों में इलाज करवाने पर भी आयुष्मान योजना का लाभ प्रदान कर दिया गया। इस निर्णय में सरकार की नेकनीयती साफ झलकती है लेकिन इस सुविधा का लाभ साधनहीन मरीज को कितना मिल रहा है उससे ज्यादा सवाल इस बात का उठ खड़ा हुआ कि इसकी आड़ में निजी अस्पतालों ने कितनी लूट मचानी शुरू कर दी। हाल ही में छत्तीसगढ़ से खबर आई थी कि एक निजी अस्पताल ने साल भर के भीतर लगभग 300 रीढ़ की हड्डी के जटिल आपरेशन कर डाले। मप्र सरकार द्वारा संचालित इसी तरह की स्वास्थ्य योजना में निजी अस्पतालों द्वारा की गयी लूटमार सर्वविदित है। इस लिहाज से आज आई उस खबर ने ध्यान आकर्षित किया कि आयुष्मान योजना का लाभ घर के ही नजदीक उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से छोटे और मझोले शहरों में आधुनिक निजी अस्पतालों को प्रोत्साहित करने की दिशा में काम करते हुए 100 बिस्तरों की क्षमता वाले 1000 नये अस्पाताल खोले जाएंगे। सरकारी अस्पतालों की कमी के मद्देनजर इस तरह की योजना स्वागतयोग्य है लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि निजी क्षेत्र की चिकित्सा सेवा में सेवा भाव तो लगभग खत्म हो चुका है और वे भी पूंजी के खेल में लिप्त होकर मुनाफा कमाने के लिए किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार हैं। सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाली चिकित्सा सुविधा भी जबसे निजी अस्पतालों में भी शुरू की गई तबसे एक चिकित्सा माफिया पूरे देश में पनप गया। दवाईयां बनाने वाली कम्पनियां भीं इसमें शामिल हो गयीं। पेथालोजी, स्केनिंग, एमआरआई जैसी जांच में भी कमीशनबाजी का खेल चल पड़ा। निजी मेडिकल कालेजों से पढ़कर डाक्टर बने युवाओं के मन में पहले दिन से ही अपनी पढ़ाई पर हुए मोटे खर्च की चक्रवृद्धि ब्याज दर से वसूली की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इन परिस्थतियों में सरकार को आयुष्मान योजना के अंतर्गत निजी अस्पतालों को अधिकार देने के साथ ये भी देखना होगा कि इस व्यवस्था से वह आम आदमी ज्यादा लाभान्वित हो जिसके लिए सरकार करोड़ों रूपये खर्च करने के लिए तत्पर है न कि कमाई का अड्डा बन चुके निजी अस्पताल। आयुष्मान योजना निश्चित रूप से एक क्रांतिकारी निर्णय है जिसके लिए नरेंद्र मोदी प्रशंसा के हकदार है। किसी साधनहीन इन्सान को बिना स्वास्थ्य बीमा करवाए यदि पांच लाख तक का इलाज सरकारी खर्चे पर मिल जाए तो इससे बड़ी बात क्या होगी? देश में सरकारी कर्मचारियों को तो इलाज के सुविधा है। सांसद और विधायक तो आधुनिक सामंत हैं सो उनके लिए तो देश ही नहीं विदेश तक में इलाज का इंतजाम हो जाता है। आर्थिक दृष्टि से संपन्न लोग स्वास्थ्य बीमा करवाकर खुद को सुरक्षित कर लेते हैं लेकिन करोड़ों ऐसे लोग हैं जिनके पास डाक्टर की फीस देने तक के पैसे नहीं होते, जांच और दवाई तो बहुत बड़ी बात है। ऐसे लोगों के लिए ही आयुष्मान योजना वरदान बनकर आई लेकिन जैसा दिख रहा है उसके मुताबिक तो इसका हाल भी पहले जैसा हो रहा है। दिक्कत ये है कि सरकार के पास न तो पर्याप्त अस्पताल हैं और न ही संसाधन। दोनों हैं तो डाक्टरों का अभाव है। यही वजह है कि निजी अस्पतालों का जाल फैलता गया। छोटे और मझोले शहरों, कस्बों, गांवों में जाकर सेवा करने की भावना नई पीढ़ी के चिकित्सकों में लुप्तप्राय होते जाने से निजी चिकित्सा सेवाओं का भी शहरीकरण होता चला गया। आजादी के सात दशक बाद भी जबलपुर जैसे बड़े शहरों में रहने वालों को यदि बेहतर चिकित्सा हेतु दिल्ली, मुम्बई या अन्य किसी महानगर में जाना पड़ता है तो ये विचारणीय से ज्यादा शर्म का विषय है। आयुष्मान योजना जिस वर्ग के लिए शुरू की गयी वह शैक्षणिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से पीछे होने से उसकी आड़ में निजी अस्पतालों द्वारा की जाने वाली लूटखसोट से अनभिज्ञ रहता है। जिसका निजी अस्पाताल संचालक बेजा लाभ उठाते हैं। चूंकि इन अस्पतालों का संचालन अब केवल चिकित्सक नहीं बल्कि नेता, बिल्डर, उद्योगपति करने लगे हैं इसलिए यह सेवा पूरी तरह से व्यवसाय बनकर रह गई है। आयुष्मान योजना के विस्तार की बात बहुत ही नेक विचार है लेकिन उसे निजी अस्पतालों के हाथ सौंपने के खतरों से भी सरकार को सतर्क रहना होगा। जिस तरह बादलों से निकला वर्षा का जल पूरी तरह शुद्ध होता है। लेकिन पृथ्वी पर उतरने के बाद वह प्रदूषित होता जाता है ठीक वही हाल सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का होता है। लेकिन आयुष्मान योजना का सम्बन्ध चूंकि मानव जीवन की रक्षा से है इसलिए इस बारे में विशेष चिंता की जानी चाहिए कि जनता की बीमारी का इलाज करने वाली योजना ही कहीं बीमार होकर न रह जाए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 12 October 2019

कमलनाथ: बाहर से ज्यादा खतरा भीतर से



मप्र में कांग्रेस की सरकार 15 साल बाद आई और वह भी अल्पमत वाली। यद्यपि शुरू-शुरू में उसकी स्थिरता को लेकर जो आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं वे धीरे-धीरे ठंडी पड़ गईं। मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ शासन -प्रशासन पर अपनी पकड़ बनाते जा रहे हैं। जो भाजपा नेता आये दिन सरकार गिराने की धमकी दिया करते थे वे पहले तो अपने दो विधायकों के टूटने से सनाके में आ गए और बची-खुची कसर पूरी कर दी हनी ट्रैप काण्ड ने जिसमें भाजपा के अनेक नेता लिप्त बताये जाने से पूरी पार्टी रक्षात्मक होकर रह गई। कहने वाले तो यहाँ तक कहते सुने जा सकते हैं कि श्री नाथ ने हनी ट्रैप मामले की जाँच जानबूझकर धीमी करवा दी जिससे भाजपा में घबराहट बनी रहे। शिवराज सरकार के कार्यकाल के दौरान हुए कथित घोटालों की जाँच बिठाकर भी वे भाजपा पर दबाव जारी रखने का प्रयास कर रहे हैं। ताजा उदाहरण 450 करोड़ के पौधारोपण में घोटाले का आरोप लगाकर शिवराज सिंह चौहान और तत्कालीन वन मंत्री गौरीशंकर शेजवार के विरुद्ध जाँच करवाए जाने का है। इस सबसे मुख्यमंत्री का आत्मविश्वास जाहिर होता है। प्रदेश में निवेशक सम्मलेन आयोजित कर वे उद्योग जगत को भी ये सन्देश देने में जुटे हैं कि उनकी सरकार स्थायी है। लेकिन इससे अलग हटकर एक दूसरा चित्र भी है जो इस बात का संकेत देता है कि प्रदेश सरकार की हालत उतनी अच्छी नहीं जितनी ऊपर से नजर आ रही है और इसकी वजह है कांग्रेस पार्टी में व्याप्त गुटबाजी। जिस तरह से बड़े नेता और उनके पिछलग्गू बयानबाजी करते हुए एक दूसरे की टांग खींचने में जुटे हुए हैं उससे लगता है कि कमलनाथ का मुख्यमंत्री बनना उनकी पार्टी के सभी गुटों को अभी तक नहीं पचा। ज्योतिरादित्य सिंधिया तो सरकार बनने के कुछ दिनों बाद से ही रूठे-रूठे चल रहे हैं। कभी वे किसानों की समस्याओं को लेकर राज्य सरकार को घेरते हैं तो कभी कर्ज माफी में देर पर उसे कठघरे में खड़ा करने में नहीं हिचकिचाते। उनके कोटे के मंत्री भी दूसरे गुटों के मंत्रियों से उलझने में नहीं डरते। श्री सिंधिया के मन की पीड़ा सर्वविदित है। प्रदेश की सत्ता हाथ से निकलने का गम वे चाहकर भी भुला नहीं पा रहे और ऊपर से लोकसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित हार ने उनके आभामंडल को चकनाचूर करके रख दिया। कहाँ तो वे राष्ट्रीय राजनीति में ऊंची उड़ान का ख्वाब देखते फिर रहे थे और कहाँ दिल्ली में सरकारी बंगले से निकलकर निजी आवास में आने की मजबूरी से गुजरना पड़ा। राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष पद त्यागने के कारण भी ज्योतिरादित्य को झटका लगा। बीते कुछ समय से उनके जो बयान कांग्रेस की केन्द्रीय राजनीति के बारे में आये वे भी उनकी नाराजगी का संकेत हैं। लेकिन जिन दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ की ताजपोशी की राह आसान की वे भी जिस तरह की बातें कर रहे हैं उससे ये लगता है कि मुख्यमंत्री सरकार चलाने में इस बुरी तरह उलझ गये हैं कि पार्टी के भीतर सामंजस्य बनाये रखने की फुर्सत उन्हें नहीं है। स्मरणीय है अभी भी वही कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पद पर बने हुए हैं। गत दिवस राजमार्गों पर बैठी गायों को लेकर दिग्विजय सिंह द्वारा किये गये ट्वीट के जवाब में कमलनाथ के खासमखास मंत्री सज्जन सिंह वर्मा की तीखी प्रतिक्रिया और उसके बाद मुख्यमंत्री के लगातार दो-तीन ट्वीट से ये स्पष्ट हो गया कि दिग्विजय सिंह की दखलंदाजी श्री नाथ को भी नागवार गुजरने लगी है। उल्लेखनीय है कुछ समय पहले पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा विभिन्न मंत्रियों को पत्र लिखकर जवाब मांगे जाने और उनके पास आकर सरकार के कामकाज का ब्यौरा पेश करने की बात पर जबर्दस्त बवाल मचा था। उमंग सिंगार नामक एक मंत्री ने तो दिग्विजय सिंह को जिस अंदाज में जवाब दिया उससे उनकी खूब किरिकिरी भी हुई। श्री सिंगार ने यहाँ तक कह दिया कि दिग्विजय सिंह परदे के पीछे से सरकार चला रहे हैं। उनके इस बयान का कमलनाथ खेमे तक को खंडन करना पड़ा। राजनीति के जानकार बताते हैं कि उमंग सदृश युवा मंत्री द्वारा दिग्विजय जैसे बड़े नेता से जुबान लड़ाना मामूली बात नहीं थी। लेकिन मुख्यमंत्री ने उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई न करते हुए संयम रखने की समझाइश मात्र दे दी। दिग्विजय के मंत्री पुत्र जयवर्धन ने अवश्य पिता का बचाव किया लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री को पार्टी के भीतर भी वैसा समर्थन नहीं मिला जैसी उन्हें उम्मीद रही होगी। उसके बाद से उनकी वजनदारी में निश्चित रूप से कमी आई। हालांकि वे सिंधिया खेमे के साथ जुड़ते नहीं दिखे लेकिन गत दिवस गोरक्षा को लेकर उन्होंने जिस तरह का ट्वीट किया और जिस तरह से पहले सज्जन सिंह और बाद में खुद मुख्यमंत्री ने जवाब दिया उससे दिग्विजय सिंह को ये एहसास हो गया होगा कि उन्हें अपनी वरिष्ठता का गुमान छोड़ देना चाहिए। लेकिन कमलनाथ को भी एक साथ ज्योतिरादित्य और दिग्विजय दोनों से टकराना नुकसानदेह हो सकता है। हालांकि श्री सिंह के कांग्रेस विरोधी होने की कोई सम्भावना नहीं है लेकिन श्री सिंधिया जिस तरह से छटपटा रहे हैं उसे देखते हुए उनके बागी होने की अटकलें हकीकत में बदल सकती हैं। कुछ सूत्र तो अमित शाह के साथ उनकी गुप्त मुलाकात हो जाने का दावा भी कर रहे हैं। ये भी सुनने में आया है कि बड़ौदा के राजपरिवार के जरिये ज्योतिरादित्य के भाजपा प्रवेश का तानाबाना बुना जा रहा है। उल्लेखनीय है उनकी पत्नी बड़ौदा के गायकवाड़ परिवार से हैं जिसके नरेंद्र मोदी और श्री शाह से नजदीकी सम्बन्ध हैं। बहरहाल ताजा हालातों में कमलनाथ सरकार को बाहरी तौर पर कोई खतरा भले नहीं हो लेकिन उनके अपने घर में ही बगावत के चिंगारियां सुलगने लगी हैं। ज्योतिरादित्य के बाद दिग्विजय का भी खुले आम सरकार पर निशाना साधना हवा में उड़ाने लायक बात नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 11 October 2019

चीन को दबाने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा



आज की दुनिया में सामरिक शक्ति के समानांतर आर्थिक मजबूती का महत्व है ।  यही वजह है कि इमरान खान जब भारत को परमाणु युद्ध की धमकी देते हैं तब पूरी दुनिया में उसका मजाक बनता है। इसका कारण उसका फटेहाल हो जाना है। आर्थिक कूटनीति से किसी ताकतवर प्रतिद्वंदी को कैसे झुकाया जा सकता है इसका सबसे ताजा उदाहरण अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा चीन  के विरुद्ध शुरू किया गया व्यापारिक युद्द (ट्रेड  वार) है। विश्व में चीन की गिनती आर्थिक महाशक्ति के तौर पर भी होने लगी थी। भारत जैसे देश तो खैर उसका  मुकाबला करने में सक्षम नहीं थे लेकिन अमेरिका तक चीन के आर्थिक प्रवाह को रोक पाने में खुद को असमर्थ महसूस करने लगा। अमेरिका के बाजारों में चीन उत्पादों का छा जाना आम बात होने लगी। वहां की वित्तीय संस्थाओं पर भी चीनी कम्पनियां  काबिज  होने लगीं। सबसे बड़ी बात ये हुई  कि सस्ते श्रमिकों  के लालच में अमेरिका की नामी गिरामी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूंजी चीन में निवेशित हो गयी। धीरे - धीरे चीन की आर्थिक प्रगति उसके लिए चिंता का सबब बनने लगी। सोवियत संघ के विघटन के बाद चीन ही अमेरिका का सबसे प्रमुख वैचारिक प्रतिद्वंदी था। हालांकि विश्व की सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला एशिया का यह देश माओवादी लौह आवरण वाले दौर से बाहर निकलकर बहुत हद तक पूंजीवादी संस्कृति और जीवन शैली में ढल चुका है।  बावजूद इसके चीन अभी भी अमेरिका की तुलना में काफी पीछे और अलग है। विस्तारवादी नीतियों की वजह से उसके सभी पड़ोसी देश उससे भयभीत रहते हैं। पहले वह केवल सामरिक ताकत से डराया करता था लेकिन ज्योंही उसने आर्थिक  मोर्चे पर दुनिया के विकसित देशों के बराबर खड़े होने की हैसियत प्राप्त कर ली त्योंहीं वह अमेरिका की निगाहों में खटकने लगा। इसीलिये डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका की बागडोर संभालते ही चीन के विरूद्ध व्यापारिक जंग शुरू करते हुए तरह - तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए। इसका असर भी देखने मिला और साल दर साल कुलांचे मार रही चीन की अर्थव्यवस्था में उतार आने लगा। ट्रम्प ने अमेरिकी कम्पनियों को चीन से कारोबार समेटने के लिए बाध्य कर दिया। धीरे - धीरे वे वहां से उठकर भारत जैसे किसी दूसरे  देश में ठिकाने तलाशने लगीं जहां श्रमिक विकसित देशों की तुलना में सस्ते हैं। हालाँकि इस प्रक्रिया में समय लगेगा लेकिन चीन इससे घबराहट में है। उसके राष्ट्रपति शी जिनपिंग माओ के बाद सबसे ताकतवर नेता के रूप में उभरे हैं। उन्होंने जीवन भर सत्ता में बने रहने की व्यवस्था भी साम्यवादी पार्टी से करवाली है। जिनपिंग ये भी समझ गये हैं कि  चीन अपनी सामरिक ताकत के बल पर वह सब हासिल नहीं कर पायेगा जो आर्थिक समृद्धि से संभव है। इसीलिये वह अमेरिका के व्यापारिक युद्ध से लडऩे के रास्ते तलाश रहा है। आज से शुरू हो रही जिनपिंग की दो दिवसीय भारत यात्रा उसी सिलसिले में है। चीन की महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड परियोजना खटाई में पडऩे के कारण उसकी काफी पूंजी फंसकर रह गई है। भारत द्वारा इस प्रकल्प से पूरी तरह दूरी बना लेने से भी चीन को परेशानी हुई। उधर पाकिस्तान के भीतर भी इसका विरोध होने लगा है। चीन द्वारा मुस्लिमों पर लगाई जा रहे प्रतिबंधों से  पकिस्तान के कट्टरपंथी संगठन काफी नाराज हैं। ऐसी  स्थिति में पाकिस्तान चीन के गले की हड्डी बन गया है। यद्यपि शुरू से ही भारत विरोधी नीति के कारण उसने पाकिस्तान को बिना शर्त समर्थन दिया लेकिन बीते कुछ  सालों से वह भारत को लेकर थोड़ा ही सही किन्तु लचीला हुआ है। आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में भी वह  चाहे - अनचाहे भारत के सुर में सुर मिलाता दिखता  है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि जम्मू - कश्मीर को लेकर भारत सरकार द्वारा बीते अगस्त माह में जो बड़े निर्णय लिए उनका विरोध करने के बाद भी चीन ने पाकिस्तान को वैसा समर्थन नहीं दिया जैसा वह अतीत में करता आया है। लेकिन उसका मूल चरित्र नहीं बदल सकता। जिनपिंग के भारत आने के पहले जब इमरान खान बीजिंग गए तब पहले तो जिनपिंग ने कश्मीर को द्विपक्षीय मसला मानकर भारत और पाकिस्तान द्वारा उसे मिलकर सुलझाने जैसी बात कहकर भारत को प्रसन्न कर दिया। लेकिन फिर पलटी मारते हुए पाकिस्तान को अपना पक्का  दोस्त बताकर भारत को चिढ़ाने की  हरकत दोहरा दी। ऐसे हालात में जिनपिंग का भारत दौरे का उद्देश्य समझना जरूरी है। ऐसा लगता है वे भारत को अमेरिकी  प्रभाव से बाहर निकलने की कोशिश करेंगे। नरेंद्र मोदी की  हालिया अमेरिका यात्रा से चीन काफी परेशान है। उसे मोदी सरकार द्वारा रूस से भी नजदीकी रिश्ते बना लेने से खुन्नस हो रही है। बीते पांच सालों में भारत ने सामरिक मोर्चे पर जिस तरह से अपनी  ताकत  में वृद्धि की उससे भी चीन सतर्क है । डोकलाम विवाद  के समय भारत द्वारा प्रदर्शित सख्त रवैये के बाद भी जब - जब सीमा पर चीनी सैनिकों की घुसपैठ हुई तब - तब भारत  संयम रखते हुए भी कड़ाई से पेश आया। जिनपिंग की वर्तमान भारत यात्रा का मकसद दरअसल अमेरिका की आर्थिक मोर्चेबंदी से निपटने में भारत का साथ और समर्थन हासिल करना है। उल्लेखनीय है ईरान के विरुद्ध डोनाल्ड ट्रंप द्वारा लगाई गई बंदिशों से भारत के आर्थिक हित भी बुरी तरह प्रभवित हुए हैं। लेकिन उसने फिलहाल अमेरिका का विरोध नहीं करने की नीति अपना रखी है। इसका कारण वाशिंगटन का पाकिस्तान की प्रति कठोर हो जाना है। उसकी देखा - सीखी बाकी  पश्चिमी ताकतें भी भारत के प्रति उदार हुई हैं। हाल के सालों में चीन भी भारत और पाकिस्तान के बीच संतुलन बनाकर चलता रहा है। उसकी समझ में आ गया है कि भारत के साथ शत्रुता रखना उसके दूरगामी हितों के विरुद्द्ध होगा। जिनपिंग से मुलाक़ात के दौरान चाशनी में  लिपटी कूटनीतिक बातों के परे श्री मोदी को ये इशारा कर देना चाहिए कि चीन को जितना नुक्सान अमेरिका के  साथ व्यापार युद्ध में हो रहा है उतना ही भारत भी पहुंचा सकता है। आर्थिक मंदी के कारण भारत का घरेलू औद्योगिक ढांचा जिस तरह चरमराया उसकी वजह चीन में बनी सस्ती वस्तुएं ही हैं। भाजपा जिस स्वदेशी आन्दोलन से वैचारिक तौर पर जुडी हुई है उसका जोर चीनी वस्तुओं के आयात को नियंत्रित करना रहा है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के साथ ही भारतीय उद्योगपतियों के हितों की खातिर इस बारे में कड़े निर्णय लेने में मोदी सरकार हिचकती रही। लेकिन वर्तमान वैश्विक माहौल में चीन जिस तरह से दबाव में  है और उसकी आर्थिक प्रगति का आंकड़ा ढलान की तरफ जा रहा है तब भारत के लिए अच्छा अवसर है जब वह जिनपिंग को शुद्ध हिन्दी में समझा दे कि भारत के साथ सम्बन्ध रखना हैं तो उसमें धूर्तता के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिए। केवल कश्मीर ही नहीं वरन आर्थिक मोर्चे पर भी चीन को झुकाने का यह अच्छा  मौका है। जिनपिंग इस समय चौतरफा घिरे हैं। कश्मीर पर भारत को मिला अभूतपूर्व  वैश्विक समर्थन चीन के लिए भी चेतावनी है। नरेंद्र मोदी का कद भी विश्व राजनीति में बेहद ऊँचा होने से वे जिनपिंग के साथ बराबरी से निपट सकते हैं। राष्ट्रीय अपेक्षा यही है कि महाबलीपुरम में होने जा रही बातचीत में भारत अपना पलड़ा भारी रखने में सफल रहेगा। चीन की गर्दन  दबाने के इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए क्योंकि वह इस समय हर तरह से दबाव में है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 10 October 2019

जीएसटी रिफंड मिले और एनपीए का दबाव कम हो



कार्पोरेट टेक्स घटा दिया गया, विभिन्न चीजों पर जीएसटी की दरें भी कम कर दी गईं, रिजर्व बैंक ने रेपो रेट में लगातार पांचवी बार कटौती करते हुए कर्ज सस्ते करने का रास्ता साफ  किया और उसके बाद गत दिवस केन्द्रीय कर्मचारियों और पेंशन धारियों को पांच फीसदी महंगाई भत्ता स्वीकृत कर दिया गया। ये सभी कदम किसी मेहरबानी के तहत नहीं उठाये गये बल्कि आर्थिक मंदी को दूर करने के लिए ऐसा करना केंद्र सरकार की मजबूरी बन गई थी। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव नहीं होते तब शायद राहतों की बरसात के लिए अभी कुछ दिन इंतजार और करना पड़ता। राजस्व की वसूली कम होने के बाद सौगातों का पिटारा खोला जाना अच्छा आर्थिक प्रबंधन नहीं है लेकिन सत्ता में बैठे लोगों का अर्थशास्त्र भी राजनीतिशास्त्र से प्रभावित रहता है। विशेष रूप से भारत जैसे देश में राजनीति का धंधा चूँकि वोटों की फसल पर आधारित होता है इसलिए तदनुसार नीति और निर्णय होते हैं। बीते कुछ दिनों में केंद्र सरकार ने जो कुछ भी किया उसके पीछे अर्थव्यवस्था को टेका लगाना प्रत्यक्ष कारण है लेकिन पर्दे के पीछे जो चर्चाएँ हैं उनके मुताबिक लोकसभा चुनाव के फौरन बाद और खास तौर पर केंद्र का बजट आते ही अर्थव्यवस्था पर मंदी की छाया और गहराने लगी। मोदी सरकार को अब तक की तमाम उपलब्धियों पर उसकी वजह से पानी फिरता देख अंतत: वही करना पड़ा जो अपरिहार्य था और काफी पहले हो जाना चाहिए था। दरअसल सत्ताधारी कुनबे के भीतर भी अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट को लेकर चिंता व्यक्त होने लगी थी। अप्रैल से जून तक की पहली तिमाही की विकास दर जब पांच फीसदी पर आ गई तब आम जनता के मन में भी भय समाने लगा और उसी के बाद केंद्र सरकार, रिजर्व बैंक और जीएसटी काउन्सिल सब एक साथ पसीज उठे। इन समस्त प्रयासों का समन्वित उद्देश्य बाजार में मुद्रा की उपलब्धता बढ़ाकर मांग पैदा करना ही है जिससे कारोबारी जगत सन्निपात से उबरकर फिर से उठ खड़ा हो। उक्त सभी उपाय पूरी तरह से सकारात्मक और उपयोगी कहे जायेंगे जिनमें से कुछ का असर तत्काल प्रभाव से और कुछ का थोड़े समय बाद महसूस होगा। दबी जुबान ये खबर भी है कि निकट भविष्य में आयकर को लेकर भी बड़ा नीतिगत निर्णय लिया जा सकता है। उसकी दरें कम करने सम्बन्धी सिफारिशों पर सघन विचार-विमर्श चल रहा है। कहने वाले तो यहाँ तक दावा कर रहे हैं कि आयकर खत्म करते हुए किसी वैकल्पिक व्यवस्था की तलाश भी जारी है। खैर, वह तो जब होगा, तब होगा लेकिन आज की स्थिति में उद्योग और व्यापार जगत में छाई उदासी की एक बड़ी वजह है जीएसटी में कारोबारी जगत का पैसा फंस जाना। निजी क्षेत्र इससे बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। जीएसटी के रिफंड नहीं आने से व्यापारियों की पूंजी फंसकर रह गयी है। उससे उन्हें व्यापार को गतिशील बनाए रखने में मुसीबत हो रही हैं वहीं दूसरी तरफ  बैंकों से कर्ज लेने वाले कारोबारी एनपीए दूर करने के लिए बनाये जा रहे दबाव से हलाकान हैं। हालांकि इस बारे में बैंक और सरकार पूरी तरह से गलत नहीं हैं लेकिन सभी कारोबारियों को एक ही लाठी से हांका जाना सही नहीं है। बेहतर हो जीएसटी के रिफंड के साथ ही एनपीए को लेकर बनाये जाने वाले दबाव के संबंध में वित्त मंत्रालय समयोचित कदम उठाये। आर्थिक क्षेत्र में सरकार द्वारा हाल के वर्षों में उठाये गए क़दमों का देश के सभी वर्गों ने समर्थन किया और लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार को एक मौका और दिया। लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं होने की वजह से उनका प्रभाव उम्मीद के मुताबिक नहीं हुआ, अपितु कुछ हद तक उलटा भी हो गया। सौभाग्यवश केंद्र सरकार की नीयत पर किसी को संदेह नहीं था। इसीलिये भारी असंतोष के बावजूद भी शांति बनी रही। लेकिन अब समय आ गया है जब सरकार को भी आभार स्वरूप व्यापार-उद्योग और जनता सभी की चिंताओं को दूर करने के लिए समुचित और समयबद्ध कदम उठाने चाहिए। किसी भी सरकार को अपनी नीतियाँ लागू करने के लिए एक कार्यकाल पर्याप्त होता है। भारत जैसे देश में चूंकि निर्णय प्रक्रिया अपेक्षाकृत धीमी है इसलिये जनता ने नरेन्द्र मोदी को दूसरा अवसर दे दिया। लेकिन इस बार किसी बहाने की गुंजाइश नहीं रहेगी। दूसरी बात ये है कि दो और तीन साल पहले लिए गये कड़े और बड़े फैसलों का फायदा अब सामने आना चाहिए। अन्यथा जनता के मन में सत्ता के प्रति व्याप्त विश्वास में कमी आने में देर नहीं लगेगी। जीएसटी के रिफंड और एनपीए को लेकर बनाये जा रहे अनुचित दबाव के बारे में केंद्र के वित्त मंत्रालय को सार्थक कदम उठाने चाहिए जिससे कारोबार के रास्ते से रोड़े हटाये जा सकें।

-रवीन्द्र वाजपेयी



Wednesday 9 October 2019

बाजार में मंदी की मार : ऑनलाइन गुले-गुलजार



भारत में दशहरा और दीपावली त्यौहारी मौसम के तौर पर जाने जाते हैं। यूँ तो हमारे यहाँ हर अंचल में सांस्कृतिक विविधता है लेकिन दशहरा और दीपावली पर पूरे देश में हर्षोल्लास का वातावरण बन जाता है।  वर्षा ऋतु की औपचारिक विदाई के बाद चार महीनों से ठहरी जि़न्दगी पटरी पर लौट आती है। मौसम खुशनुमा होते ही लोगों का मन भी उमंग और उत्साह से भर उठता है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है आर्थिक कारोबार अर्थात बाजार पर। नवरात्रि प्रारम्भ होते ही बाजारों में खरीददारी शुरू होने लगती है। दीपावली के पश्चात ही चूँकि शादी-विवाह के मुहूर्त निकलने लगते हैं इसलिए उसका असर भी बाजार पर पड़ता है। लेकिन इस वर्ष त्यौहार का मौसम आने के बावजूद भी बाजार में वह चहलपहल नहीं दिखाई दे रही जिसका व्यापारी वर्ग पूरे साल इन्तजार किया करते हैं। इसकी वजह आर्थिक मंदी बताई जा रही है जिसकी शुरुवात यूँ तो कई सालों पहले हो चुकी थी लेकिन जैसा आम तौर पर मान लिया गया है उसके अनुसार 2016 में हुई नोटबन्दी और उसके बाद 2017 में लागू हुए जीएसटी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से अस्त व्यस्त कर दिया। शुरू-शुरू में कहा गया कि ये प्रसव पीड़ा जैसा है लेकिन अभी तक जो हालात बने हुए हैं उनमें कोई भी ये बता पाने की स्थिति में नहीं है कि मंदी या सरकारी शब्दावली के अनुसार कारोबारी सुस्ती आखिर कब तक चलेगी। चूंकि इस वर्ष तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए मानसूनी वर्षा काफी जोरदार रही इसलिए कृषि क्षेत्र से अच्छी खबरें आने की उम्मीदें होने से बाजार में भी आशा का संचार तो हुआ है किंतु यहाँ भी विरोधाभास पीछा नहीं छोड़ रहा। जैसी कि जानकारी मिल रही है उसके मुताबिक देश में पेट्रोल और डीजल के बाद सबसे ज्यादा आयातित होने वाले सोने का कारोबार इस साल आश्चर्यजनक रूप से कमजोर रहना तय है। दीपावली के दस दिन पहले धनतेरस पर सोने की रिकार्ड खरीदी होती रही है लेकिन इस साल उसका आंकड़ा भी 50 फीसदी नीचे आ जायेगा। बीते साल तक के आंकड़ों के मुताबिक धनतेरस पर देश भर में 40 टन सोने की बिक्री होती थी लेकिन इस साल इसका आधा भी बिक जाए तो बड़ी बात होगी।  सितम्बर के महीने में कुल 26 टन स्वर्ण का आयात हुआ जबकि गत वर्ष इसी दौरान लगभग 82 टन सोना विदेशों से खरीदा गया था। यद्यपि कुछ लिहाज से ये एक अच्छा लक्षण भी है क्योंकि सोने के आयात के लिए उपयोग होने वाली विदेशी मुद्रा के कारण रूपये का विनिमय मूल्य गिरता है।  व्यापार असंतुलन की एक बड़ी वजह सोना भी है।  हालाँकि स्वर्ण आभूषण बनाने वाले लाखों कारीगर भी इससे प्रभावित होंगे। बावजूद इसके यदि देश में सोने की मांग घटती है तो उसका दूरगामी असर अच्छा ही होगा क्योंकि उसके भंडारण से अर्थव्यवस्था को कोई लाभ नहीं होता।  लेकिन अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के कारोबार में मांग कम होने से बुरा असर पड़ता है। बीते काफी समय से बाजारों में जिस तरह की मुर्दानगी देखी जा रही है उसकी वजह से भय का महौल बन गया है। वाहनों की बिक्री में गिरावट को उच्च और मध्यम वर्गीय आय समूह से जुड़ा हुआ मानकर भले ही उपेक्षित कर दिया जाए लेकिन रोजमर्रे की चीजों की बिक्री में आई कमी से मंदी की पुष्टि की जा सकती है। आज ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की अध्यक्ष ने भी विश्वव्यापी मंदी को स्वीकार करते हुए कहा कि इस साल की वैश्विक विकास दर भी घटना तय है। हालाँकि वे भी दबी जुबान इसे अमेरिका और चीन के बीच चले ट्रेड वार का नतीजा बताती हैं लेकिन मंदी भी अर्थव्यस्था का एक चक्र माना जाता है और उस लिहाज से ये एक स्वाभाविक परिस्थिति है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में मंदी का असर कम हो सकता था बशर्ते हमारा घरेलू उत्पादन ज्यादा होता। लेकिन बीते कुछ सालों में चीन से हुआ बेतहाशा आयात ने भारतीय उत्पादकों को बहुत नुकसान पहुँचाया। उसे लेकर तरह-तरह की बहस और विश्लेष्ण होता रहा है। बीते दो साल में भारतीय उत्पादन इकाइयां मरणासन्न हालात में पहुँच गईं। इन सब कारणों से त्यौहारी बाजार ठंडा रहने के आसार और मजबूत होते जा रहे थे किन्त्तु इसके ठीक विपरीत ऑनलाइन कारोबार करने वाली दो प्रमुख कंपनियों ने बीते एक सप्ताह में ही 18 हजार करोड़ की बिक्री कर डाली और उन्हें उम्मीद है दीपावली तक ये आंकड़ा 42 हजार करोड़ तक जा पहुंचेगा। ये गत वर्ष की अपेक्षा 30 फीसदी ज्यादा होगा। आर्थिक विशेषज्ञों के मुताबिक ये स्थिति दर्शाती है कि उपभोक्ता बेहतर मुनाफे के लिए इन कम्पनियों की तरफ  झुक रहा है जो उसे ज्यादा से ज्यादा रियायत देकर परम्परागत बाजार का हिस्सा अपने नाम करती जा रही हैं। बाजार में मंदी और ऑनलाइन कारोबार में रौनक का ये परस्पर विपरीत चित्र भ्रम की स्थिति को भी जन्म दे रहा है। इसका ये भी संकेत है कि भारत के बड़े उपभोक्ता बाजार को लुभाने की लिए व्यापारी समुदाय को भी नई रणनीति के साथ आगे आना होगा। दुकानदार और ग्राहक के पुश्तैनी सम्बन्धों का दौर धीरे-धीरे गुजरे जमाने की बात होता जा रहा है।  यहाँ तक कि स्वर्ण आभूषण खरीदने वाले ग्राहक भी अब सराफे की बजाय ब्रांडेड कम्पनी को प्राथमिकता देने लगे हैं। उस दृष्टि से देखें तो हर मुसीबत कुछ न कुछ सिखाती है। मंदी का ये दौर भारत के व्यापारिक ढांचे को कितना बदलता है ये देखने वाली बात होगी क्योंकि ऑनलाइन कारोबार का केवल विरोध करने से काम नहीं चलेगा। उसका मुकाबला करने के लिए व्यापार जगत को भी नई रणनीति पर काम करना होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 7 October 2019

प्रकृति, पर्यावरण और प्रगति में समन्वय जरूरी



महात्मा गांधी की 150 वीं जयन्ती से देश भर में एक बार उपयोग कर फेंक दी जाने वाली प्लास्टिक ( सिंगल यूज) की चीजों पर रोक का अभियान चल पड़ा है। केंद्र सरकार ने दिल्ली स्थित अपने दफ्तरों से इसकी शुरुवात भी कर दी। रेलवे ने प्लास्टिक के कप की जगह मिट्टी के कुल्हड़ वापिस लाने की पहल कर दी है। प्लास्टिक की थैलियों के स्थान पर कपड़े के थैले के उपयोग हेतु जन सामान्य से आग्रह किया जा रहा है। पर्यावरण के प्रति संवेदनशील लोग पालीथिन के उपयोग को रोकने के प्रति पहले से ही प्रयत्नशील थे। प्लास्टिक की घटिया चीजों को बनाने पर सरकारी रोक भी लागाई जा चुकी है। यद्यपि उसका अपेक्षित असर नहीं हुआ लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि उससे होने वाले नुकसानों के बारे में काफी बड़े वर्ग में जागरूकता आई। प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण को लेकर पूरे देश में सकारात्मक वातावरण नजर आना निश्चित्त रूप से आश्वस्त करता है। लेकिन अभी भी लापरवाही बरतने वाले तुलनात्मक रूप से ज्यादा हैं। इस वर्ष देश के अनेक हिस्सों में अतिवृष्टि होने से अनेक शहरों में जल प्लावन के हालात बन गये। देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में तो प्रति वर्ष बारिश के समय पानी भर जाने से लाखों लोगों का जीवन ठहर जाता है। ताजा उदाहरण बिहार की राजधानी पटना का है जहां लगभग एक सप्ताह तक पानी भरे रहने से आपदा प्रबन्धन के सभी इंतजाम धरे के धरे रह गए। सफाई में कहा गया कि सौ साल से भी ज्यादा समय के बाद पटना में इस तरह का जल प्लावन हुआ लेकिन पानी उतरने के बाद ये बात भी सामने आई कि पटना शहर की तमाम नालियां और नाले पानी की बोतलों, पोलीथिन की थैलियों, थर्मोकोल और गुटका के खाली पाउचों से भरे होने से अतिरिक्त जल की निकासी में व्यवधान पैदा हुआ तथा सड़कों से होता हुआ पानी घरों के भीतर भर गया। उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी तक को उनके घर से निकालने में बचाव दस्ते को जबर्दस्त मशक्कत करनी पड़ी। जिसे लेकर बिहार सरकार को हंसी का पात्र भी बनना पडा। शहरों ही नहीं अपितु छोटे-छोटे कस्बों तक में पॉलीथीन और प्लास्टिक से बनी बाकी चीजों के कारण जिस तरह की समस्याएँ पैदा हो गईं उनको देखने के बाद ये कहना गलत नहीं होगा कि हम जागे तो लेकिन बहुत देर से। दरअसल प्रधानमन्त्री द्वारा लालकिले की प्राचीर से सिंगल यूज प्लास्टिक पर रोक लगाने की घोषणा के बाद देश भर में हरकत हुई। आम तौर पर उसका स्वागत ही हुआ। हालांकि प्लास्टिक के सामान बनाने वालों की लाबी ने भी समानांतर रूप से सक्रियता दिखाते हुए सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास किया लेकिन अच्छी बात ये है कि समाज ने प्रधानमंत्री के आह्वान को अच्छा समर्थन दिया। लेकिन सिंगल यूज प्लास्टिक के अलावा पैकिंग में अल्युमीनियम के उपयोग को लेकर भी चिंता के बादल मंडरा रहे हैं। थर्मोकोल भी दूसरी बड़ी समस्या है। एक समय था जब इनके बारे में कोई सोचता नहीं था लेकिन अब ये चीजें हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं। निश्चित रूप से इनकी वजह से पैकेजिंग उद्योग में जबर्दस्त क्रांति हुई और कारोबार भी बढ़ा लेकिन कालान्तर में इनकी वजह से पर्यावरण संबंधी जो समस्या उत्पन्न हुई उसकी तरफ  दुर्लक्ष्य किये जाने का दुष्परिणाम अब भयावह रूप में सामने आ चुका है। समय आ गया है जब देश में पैकेजिंग उद्योग को भी पर्यावरण के अनुकूल बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास किये जावें। जिन विकसित देशों से हमने ये सब चीजें ग्रहण कीं वहां एक तो आबादी बहुत कम है दूसरी बात ये भी है कि उनके यहाँ प्लास्टिक, थर्मोकोल और अल्युमीनियम जैसे कचरे के विनष्टीकरण का इंतजाम भी समय रहते कर लिया गया। ऐसे में एक आम उपभोक्ता तो प्लास्टिक के कैरी बैग या पॉलीथिन के विकल्प के तौर पर कपड़े के थैले को अपना लेगा लेकिन उद्योग जगत पैकेजिंग में उपयोग होने वाले थर्मोकोल, प्लास्टिक और पॉलीथिन के स्थान पर क्या उपयोग करेगा ये बड़ा सवाल है। आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो कपड़े के थैले का उपयोग करने की अपील को घड़ी की सुइयां पीछे घुमाने का प्रयास बताकर उसका उपहास कर रहे हैं। लेकिन ये बात भी पूरी तरह सही है कि पटना की बेकाबू बाढ़ के बाद भी अगर हम नहीं चेते तो दुनिया भर में हमारी छवि मूर्खों की बने बिना नहीं रहेगी। प्रकृति, पर्यावरण और विकास एक दूसरे के शत्रु बन जाएँ ये जरूरी नहीं है। भारतीय जीवन शैली में उनके साथ संतुलन बनाकर आगे बढऩे की प्रवृत्ति रही है। खान-पान, धर्म-कर्म सभी में प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा का ध्यान रखा जाता था। अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली खेती भी पूरी तरह से पर्यावरण के संरक्षण पर केन्द्रित थी। जल, जंगल और जमीन को देव स्वरूप माना जाता था। आधुनिकता के आगमन और बढ़ती आबादी के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से पूरी तरह से अतीत को पुनर्जीवित करना तो संभव नहीं रहा लेकिन अब तक भी जो बचा रहा उसे सुरक्षित रखना भी बड़ी बात होगी। उस लिहाज से कपड़े के थैले , मिट्टी के कुल्हड़ और दोना - पत्तल का उपयोग पिछड़ेपन की बजाय हमारी प्रगतिशील सोच का प्रमाण बन सकती है। दक्षिण भारत के अनेक पांच सितारा होटलों तक में केले के पत्तों पर भोजन परोसे जाने को लोग पसंद करते हैं। कुछ दशक पहले तक शादी की दावतों में दोने-पत्तल और कुल्हड़ का ही उपयोग हुआ करता था। इसकी वजह से समाज के एक बड़े वर्ग को स्थायी रोजगार उपलब्ध था। सैकड़ों लोगों का भोजन होने के बाद भी आसपास का वातावरण प्रदूषित नहीं होता था। विज्ञान का काम निरंतर नई चीजें खोजना है लेकिन इसका ये अर्थ नहीं है कि जो कुछ भी पुराना है वह रद्दी की टोकरी के लायक हो गया। जिस विज्ञान ने दुनिया को प्रदूषण दिया ये उसका दायित्व है कि वही उससे बचने के तरीके ईजाद करे। विश्व के अग्रणी देश भी चाहें तो भारत से सीख सकते हैं जिसने प्रकृति और पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए भी प्रगति की राह पर बढऩे का हुनर हासिल कर लिया था। लेकिन उसके पहले हम भारतवासियों को भी अपनी प्राचीन विरासत के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव पुनर्जीवित करना होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 5 October 2019

आयकर में भी राहत दे सरकार



रिजर्व बैंक ने गत दिवस एक बार फिर कर्ज सस्ता कर दिया। शशिकांत दास के गवर्नर बनने के बाद से लगातार पांच समीक्षाओं में ब्याज दर घटाई गई। लेकिन अधिकतर बैंकों ने इसमें भांजी मार दी तथा उसका पूरा लाभ ग्राहकों को नहीं दिया। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा और घटी हुई ब्याज दर का समुचित लाभ तत्काल प्रभाव से कर्ज लेने वाले ग्राहकों तक पहुंच सकेगा। ऐसा करने के पीछे रिजर्व बैंक का उद्देश्य बाजार में नगदी की उपलब्धता बढ़ाकर आर्थिक सुस्ती को दूर करना है। श्री दास के पूर्ववर्ती गवर्नरों ने मुद्रा स्फीति को रोककर महंगाई पर लगाम लगाने के लिए ब्याज दरों में कमी नहीं करने की जो जिद ठान रखी थी उसकी वजह से बाजार में सुस्ती बढ़ती गयी जिसके परिणामस्वरूप भारतीय उद्योग वैश्विक प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक सके। वर्तमान हालात अचानक पैदा नहीं हुए। रिजर्व बैंक की स्वायत्तता निश्चित तौर पर जरूरी है लेकिन वह स्वेच्छाचारिता की स्थिति तक चली जाए, ये भी उचित नहीं है। रघुराम राजन ने उस दृष्टि से अर्थव्यवस्था को पटरी से उतारने में बड़ी भूमिका निबाही। कई अवसरों पर तो लगा मानों वे किसी और के इशारों पर चलते हुए सरकार के लिए मुसीबतें पैदा कर रहे हों। उनके बाद आये गवर्नर भी बहुत संतुष्ट नहीं कर सके। इस सबसे परेशान होकर ही जब केंद्र सरकार ने श्री दास को रिजर्व बैंक की कमान सौंपी तब ये आरोप लगा कि प्रधानमंत्री ने अपने आज्ञाकारी अधिकारी को बिठाकर देश के केन्द्रीय बैंक को भी सरकारी नियंत्रण में ले लिया है। बीच में उससे अतिरिक्त लाभांश वसूलने पर भी खूब बवाल मचा। लेकिन श्री दास के आने के बाद कम से कम एक काम तो अच्छा हुआ कि केंद्र सरकार और केन्द्रीय बैंक के बीच आये दिन होने वाली खींचातानी बंद हो गई और वह अर्थव्यवस्था की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए व्यवहारिक फैसले लेने लगा। पिछली पांच बैठकों में ब्याज दर कुल 1.35 फीसदी कम होने से बीते दस साल के न्यूनतम स्तर 5.15 प्रतिशत पर आ गयी जो उत्साहजनक है। पिछले गवर्नरों को दरें घटाने से महंगाई बढऩे का डर सताया करता था किन्तु अभी तक के अनुमानों के अनुसार उसके 3.7 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहने से चिंता का कोई कारण नहीं रहेगा। हालांकि शेयर बाजार में ब्याज दर घटने के बाद भी गिरावट देखी गई लेकिन उसका मुख्य कारण मनोवैज्ञानिक था क्योंकि रिजर्व बैंक ने वार्षिक विकास दर के अनुमान को घटाकर 6.1 फीसदी कर दिया। चूंकि घटी हुई ब्याज दरों का असर आने में कुछ समय लगता है इसलिए माना जा सकता है कि दीपावली के दौरान न सही लेकिन उसके बाद इसका अनुकूल प्रभाव अवश्य पड़ेगा। बारीकी में जाने पर ये लगता है कि रिजर्व बैंक को ब्याज दर में कम से कम एक फीसदी की कमी अभी और करनी चाहिए जिससे हमारे उत्पादन सस्ते होकर चीन से आयातित उपभोक्ता वस्तुओं का मुकाबला कर सकें। दूसरी बेहद महत्वपूर्ण बात गृह निर्माण क्षेत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की है। अधो संरचना (इन्फ्रा स्ट्रक्चर) के बाद इसी क्षेत्र पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना जरूरी है। जहां तक बात ऑटोमोबाईल उद्योग में मंदी की है तो वह उतनी चिंता का विषय नहीं है लेकिन गृह निर्माण को यदि और सहूलियतें तथा रियायतें मिलें तो औद्योगिक गतिविधियों में स्वाभाविक तेजी आ जायेगी। उल्लेखनीय है कि यह ऐसा क्षेत्र है जिसमें छोटी से बड़ी सैकड़ों चीजों का इस्तेमाल होने के साथ बड़ी मात्रा में रोजगार का सृजन होता है। बताने की जरूरत नहीं है कि खेती के बाद सबसे ज्यादा श्रमिक निर्माण गतिविधियों में ही लगते हैं। ग्रामीण इलाकों से शहरों में काम की तलाश में गए अकुशल श्रमिक को निर्माण कार्यों में ही रोजी-रोटी का साधन मिलता है लेकिन इसके लिए सरकार को न्यूनतम मजदूरी के नियमों में व्यवहारिकता लाने के साथ ही श्रम कानूनों में नौकरशाही की तानाशाही दूर करनी होगी। अर्थव्यवस्था को लेकर मंडरा रहे चिंता के बादलों के बीच अच्छी खबर ये है कि भरपूर मानसूनी वर्षा के कारण खरीफ की अच्छी फसल आने वाली है जिसकी वजह से सितम्बर से दिसम्बर की तिमाही में आर्थिक विकास दर की गिरावट का क्रम सुधरेगा। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार अतिरिक्त वर्षा से जमीन के भीतर विद्यमान नमी से रबी फसल को भी जबर्दस्त फायदा होने की उम्मीद बढ़ी है। हालाँकि ये कहना जल्दबाजी होगी कि वर्तमान वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था छलांगें लगाने की स्थिति में लौट आयेगी लेकिन सरकार और रिजर्व बैंक के बीच अच्छे तालमेल से ये जरुर लगने लगा है कि सही समय पर जरूरी फैसले लिये जा सकेंगे। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने बीते दिनों जो रियायतें दीं उनसे जो उम्मीद जगी उसमें रिजर्व बैंक के ताजा फैसले से और वृद्धि हुई। लेकिन सरकार के पास विशेषज्ञ समिति की जो रिपोर्ट आई है उसके अनुसार आयकर की दरें कम करने का निर्णय लेना भी अच्छा उपाय होगा क्योंकि देश के मध्यम वर्ग के पास पैसा होने पर ही बाजार में रौनक दिखाई देती है। वैसे प्रधानमन्त्री को अपनी पार्टी के सांसद डा. सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा आयकर समाप्त करने के सुझाव पर भी विचार करना चाहिए क्योंकि यह भारत में भ्रष्टाचार, कर अपवंचन और काले धन के सृजन का सबसे बड़ा कारण है। हो सकता है वे इस निर्णय को भविष्य के लिए बचाकर रखे हों किन्तु बेहतर होगा इसे जल्द से जल्द प्रभावशील किया जाए। चाहें तो इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस चलाकर जनमत भी लिया जा सकता है। रिजर्व बैंक के ताजा निर्णय से अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर हो न हो लेकिन लोगों में ये भरोसा जरुर जागेगा कि उनकी आवाज पर ध्यान दिया जा रहा है। वैसे ये सब यही समय रहते कर लिया जाता तो अच्छे दिन के लिए इन्तजार और आगे नहीं बढ़ता।

-रवीन्द्र वाजपेयी