Friday 4 October 2019

कांग्रेस बन गई विपक्ष की कमजोरी का कारण



लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूती एक अनिवार्य तत्व है। उस दृष्टि से अनेक लोग वर्तमान परिदृश्य को लेकर चिंतित रहते हैं। 2014 के बाद  2019 के लोकसभा चुनाव में भी विपक्ष बुरी तरह पराजित हुआ। कहां तो ये आशंका व्यक्त की जाने लगी थी कि भाजपा को अपनी दम पर बहुमत नहीं मिलेगा और उसे सहयोगी दलों की बैसाखी का सहारा लेना होगा। उस स्थिति में नरेन्द्र मोदी की ताकत घट जाती। ये सोचने वाले भी कम नहीं थे कि भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए बहुमत से पीछे रह जाएगा और तब कांग्रेस की अगुआई में विपक्षी गठबंधन सत्ता में आ जाएगा। लेकिन जब नतीजे  आये तब सबको चौंकाते हुए अकेले भाजपा ने 300 से ज्यादा सीटें जीतकर अपने दम पर स्थायी सरकार बनाने की ताकत हासिल कर ली। यद्यपि उसने एनडीए के अपने सहयोगियों को सत्ता में हिस्सेदारी भी दी जिसे नीतीश कुमार की जद (यू) को छोड़कर सभी ने चुपचाप स्वीकार कर लिया। जिस शिवसेना ने बीते पांच साल तक साथ रहते  हुए भी खूब मुंह चलाया वह भी दूसरी पारी में शालीनता दिखा रही है। महाराष्ट्र में विधानसभा सीटों के बंटवारे से ये साफ भी हो गया। नई लोकसभा में हालांकि कांग्रेस की सीटें 10 सीटें बढ़ गईं लेकिन तमाम दिग्गजों के हार जाने से उसकी रंगत फीकी पड़ गई। खुद राहुल गांधी अपनी पुश्तैनी अमेठी सीट नहीं बचा सके और केरल से लोकसभा पहुंचे। बहरहाल विपक्ष के कमजोर होने को लोकतंत्र के लिए खतरा मानने वालों की चिंता तब और बढ़ जाती है जब संसद और उसके बाहर कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद लचर दिखाई देता है। इसकी असली वजह  शीर्ष स्तर पर व्याप्त नेतृत्व शून्यता और अनिर्णय की स्थिति है। लोकसभा चुनाव में करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने पार्टी का अध्यक्ष पद त्यागकर जिस नैतिकता का परिचय दिया वह तब पानी में चली गयी जब महीनों तक उनका उत्तराधिकारी तय नहीं हो सका और अंत में सोनिया गांधी को ही कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर गाड़ी घसीटने का निर्णय किया गया। दूसरा उदाहरण मप्र का है। कमलनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद त्यागने की पेशकश कर  दी लेकिन उनकी जगह कौन लेगा इसे लेकर पार्टी के अंदर ही रस्साकशी चल रही है। ऐसे ही नजारे हरियाणा और महाराष्ट्र में भी दिखाई दे रहे हैं। हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा बगावत पर उतारू हो गए तब अशोक तंवर को हटाकर उन्हें पार्टी की बागडोर सौंप तो दी  गई लेकिन श्री हुड्डा के ताकतवर होने के बाद श्री तंवर पार्टी  की जड़ें खोदने पर आमादा हैं। उन्होंने चुनाव संबंधी समितियों से स्तीफा देते हुए आरोप लगा दिया कि हरियाणा में पार्टी हुड्डा कांग्रेस बन चुकी है। हरियाणा की आग महाराष्ट्र में भी जा पहुंची जहां मुम्बई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और उत्तर भारतीयों के नेता के रूप में स्थापित संजय निरुपम ने टिकिट वितरण के विरोध में पार्टी का प्रचार करने से मना करते हुए यहां तक कह दिया कि उम्मीद है पार्टी को गुड बाय कहने की नौबत नहीं आयेगी। इन दोनों राज्यों में पार्टी के अनेक दिग्गज नेता और विधायक कांग्रेस छोड़ चुके हैं। कांग्रेस समर्थक माने जाने वाले विश्लेषक भी कह  रहे हैं कि दोनों जगह कांग्रेस की हालत पतली ही नहीं बेहद पतली है। इसकी वजह राज्य में पार्टी की अंतर्कलह से ज्यादा केन्द्रीय स्तर पर व्याप्त दिशाहीनता है। महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने में विफलता ने कांग्रेस को  अंतर्विरोधों में ही उलझाकर रख दिया है। अनुच्छेद 370 पर अनेक वरिष्ठ नेताओं के बयान पार्टी नीति से अलग आना इसका प्रमाण है। नई संसद के पहले सत्र में सदन के भीतर उसका प्रदर्शन भी प्रभावहीन रहा। विपक्षी महागठबंधन की कोशिशें तो पहले ही बीच रास्ते  में दम तोड़ चुकी हैं। आज की तारीख में पूरे देश में विपक्ष का जो बिखराव है उसके लिए कांग्रेस ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है जिसके कारण क्षेत्रीय दल भी उससे छिटकने लगे। भाजपा यदि इस परिस्थिति का लाभ लेकर अपने को मजबूत कर रही है तो ये उसकी अक्लमंदी कही जायेगी। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस और विपक्ष में बैठी शेष पार्टियों के पास मोदी सरकार और भाजपा को कठघरे में खड़ा करने के लिए मुद्दे कम हों। लेकिन उनकी समझ में नहीं आ रहा कि वे  करें तो करें क्या? उप्र ने पहले कांग्रेस और सपा का गठबंधन देखा और उसके बाद सपा और बसपा का। लेकिन आज की स्थिति में ये तीनों अलग हैं। बिहार में कांग्रेस लालू से पिंड छुड़ाना चाह रही है। आन्ध्र में उसके सहयोगी बने चंद्रा बाबू नायडू की लुटिया डूब चुकी है। तमिलनाडु में भी वह पूरी तरह से द्रमुक पर निर्भर है। पंजाब में जो सफलता मिली थी वह सिद्धू और अमरिंदर की लड़ाई में चमकविहीन  हो गयी। मप्र और राजस्थान में भी गुटबाजी बढ़ती जा रही है जिसे रोकने का कोई प्रयास नजर नहीं आ रहा। केवल छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस की दशा और दिशा ठीक है वरना तो वह पूरी तरह हाशिये की तरफ  तेजी से बढ़ रही है। देश की  सबसे पुरानी पार्टी का इस तरह कमजोर होता जाना लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। उसका यह आशावाद भी हवा - हवाई है कि 1984 में भाजपा भी तो लोकसभा में 2 सीटों पर आ गयी थी जबकि आज पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है। कांग्रेस भूल जाती है कि भाजपा ने अपने संगठन के साथ ही जनता की भावनाओं को समझते हुए नीतियां बनाकर वापिसी की किन्तु कांग्रेस न तो अपने चरमराते संगठन की मरम्म्त पर ध्यान दे रही है और न ही जनता की नब्ज पर हाथ रखने का उसे ध्यान है। ये बात पूरी तरह से सही है कि भले ही देश में पार्टियों की भरमार हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर के विकल्प के रूप में कांग्रेस पर ही लोगों की निगाह जाती है और उस लिहाज से यदि देश में विपक्ष को मजबूत बनाना है तो कांग्रेस को दोबारा खड़ा होना पड़ेगा। लेकिन मौजूदा सूरते हाल में तो उसकी संभावना नहीं लग रही। यदि हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव नतीजे भी  जैसी संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं, वैसे ही आये तब तो कांग्रेस के भविष्य पर मंडराने वाले काले बादल और गहरे हो जायेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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