Monday 7 October 2019

प्रकृति, पर्यावरण और प्रगति में समन्वय जरूरी



महात्मा गांधी की 150 वीं जयन्ती से देश भर में एक बार उपयोग कर फेंक दी जाने वाली प्लास्टिक ( सिंगल यूज) की चीजों पर रोक का अभियान चल पड़ा है। केंद्र सरकार ने दिल्ली स्थित अपने दफ्तरों से इसकी शुरुवात भी कर दी। रेलवे ने प्लास्टिक के कप की जगह मिट्टी के कुल्हड़ वापिस लाने की पहल कर दी है। प्लास्टिक की थैलियों के स्थान पर कपड़े के थैले के उपयोग हेतु जन सामान्य से आग्रह किया जा रहा है। पर्यावरण के प्रति संवेदनशील लोग पालीथिन के उपयोग को रोकने के प्रति पहले से ही प्रयत्नशील थे। प्लास्टिक की घटिया चीजों को बनाने पर सरकारी रोक भी लागाई जा चुकी है। यद्यपि उसका अपेक्षित असर नहीं हुआ लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि उससे होने वाले नुकसानों के बारे में काफी बड़े वर्ग में जागरूकता आई। प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण को लेकर पूरे देश में सकारात्मक वातावरण नजर आना निश्चित्त रूप से आश्वस्त करता है। लेकिन अभी भी लापरवाही बरतने वाले तुलनात्मक रूप से ज्यादा हैं। इस वर्ष देश के अनेक हिस्सों में अतिवृष्टि होने से अनेक शहरों में जल प्लावन के हालात बन गये। देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में तो प्रति वर्ष बारिश के समय पानी भर जाने से लाखों लोगों का जीवन ठहर जाता है। ताजा उदाहरण बिहार की राजधानी पटना का है जहां लगभग एक सप्ताह तक पानी भरे रहने से आपदा प्रबन्धन के सभी इंतजाम धरे के धरे रह गए। सफाई में कहा गया कि सौ साल से भी ज्यादा समय के बाद पटना में इस तरह का जल प्लावन हुआ लेकिन पानी उतरने के बाद ये बात भी सामने आई कि पटना शहर की तमाम नालियां और नाले पानी की बोतलों, पोलीथिन की थैलियों, थर्मोकोल और गुटका के खाली पाउचों से भरे होने से अतिरिक्त जल की निकासी में व्यवधान पैदा हुआ तथा सड़कों से होता हुआ पानी घरों के भीतर भर गया। उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी तक को उनके घर से निकालने में बचाव दस्ते को जबर्दस्त मशक्कत करनी पड़ी। जिसे लेकर बिहार सरकार को हंसी का पात्र भी बनना पडा। शहरों ही नहीं अपितु छोटे-छोटे कस्बों तक में पॉलीथीन और प्लास्टिक से बनी बाकी चीजों के कारण जिस तरह की समस्याएँ पैदा हो गईं उनको देखने के बाद ये कहना गलत नहीं होगा कि हम जागे तो लेकिन बहुत देर से। दरअसल प्रधानमन्त्री द्वारा लालकिले की प्राचीर से सिंगल यूज प्लास्टिक पर रोक लगाने की घोषणा के बाद देश भर में हरकत हुई। आम तौर पर उसका स्वागत ही हुआ। हालांकि प्लास्टिक के सामान बनाने वालों की लाबी ने भी समानांतर रूप से सक्रियता दिखाते हुए सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास किया लेकिन अच्छी बात ये है कि समाज ने प्रधानमंत्री के आह्वान को अच्छा समर्थन दिया। लेकिन सिंगल यूज प्लास्टिक के अलावा पैकिंग में अल्युमीनियम के उपयोग को लेकर भी चिंता के बादल मंडरा रहे हैं। थर्मोकोल भी दूसरी बड़ी समस्या है। एक समय था जब इनके बारे में कोई सोचता नहीं था लेकिन अब ये चीजें हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं। निश्चित रूप से इनकी वजह से पैकेजिंग उद्योग में जबर्दस्त क्रांति हुई और कारोबार भी बढ़ा लेकिन कालान्तर में इनकी वजह से पर्यावरण संबंधी जो समस्या उत्पन्न हुई उसकी तरफ  दुर्लक्ष्य किये जाने का दुष्परिणाम अब भयावह रूप में सामने आ चुका है। समय आ गया है जब देश में पैकेजिंग उद्योग को भी पर्यावरण के अनुकूल बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास किये जावें। जिन विकसित देशों से हमने ये सब चीजें ग्रहण कीं वहां एक तो आबादी बहुत कम है दूसरी बात ये भी है कि उनके यहाँ प्लास्टिक, थर्मोकोल और अल्युमीनियम जैसे कचरे के विनष्टीकरण का इंतजाम भी समय रहते कर लिया गया। ऐसे में एक आम उपभोक्ता तो प्लास्टिक के कैरी बैग या पॉलीथिन के विकल्प के तौर पर कपड़े के थैले को अपना लेगा लेकिन उद्योग जगत पैकेजिंग में उपयोग होने वाले थर्मोकोल, प्लास्टिक और पॉलीथिन के स्थान पर क्या उपयोग करेगा ये बड़ा सवाल है। आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो कपड़े के थैले का उपयोग करने की अपील को घड़ी की सुइयां पीछे घुमाने का प्रयास बताकर उसका उपहास कर रहे हैं। लेकिन ये बात भी पूरी तरह सही है कि पटना की बेकाबू बाढ़ के बाद भी अगर हम नहीं चेते तो दुनिया भर में हमारी छवि मूर्खों की बने बिना नहीं रहेगी। प्रकृति, पर्यावरण और विकास एक दूसरे के शत्रु बन जाएँ ये जरूरी नहीं है। भारतीय जीवन शैली में उनके साथ संतुलन बनाकर आगे बढऩे की प्रवृत्ति रही है। खान-पान, धर्म-कर्म सभी में प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा का ध्यान रखा जाता था। अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली खेती भी पूरी तरह से पर्यावरण के संरक्षण पर केन्द्रित थी। जल, जंगल और जमीन को देव स्वरूप माना जाता था। आधुनिकता के आगमन और बढ़ती आबादी के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से पूरी तरह से अतीत को पुनर्जीवित करना तो संभव नहीं रहा लेकिन अब तक भी जो बचा रहा उसे सुरक्षित रखना भी बड़ी बात होगी। उस लिहाज से कपड़े के थैले , मिट्टी के कुल्हड़ और दोना - पत्तल का उपयोग पिछड़ेपन की बजाय हमारी प्रगतिशील सोच का प्रमाण बन सकती है। दक्षिण भारत के अनेक पांच सितारा होटलों तक में केले के पत्तों पर भोजन परोसे जाने को लोग पसंद करते हैं। कुछ दशक पहले तक शादी की दावतों में दोने-पत्तल और कुल्हड़ का ही उपयोग हुआ करता था। इसकी वजह से समाज के एक बड़े वर्ग को स्थायी रोजगार उपलब्ध था। सैकड़ों लोगों का भोजन होने के बाद भी आसपास का वातावरण प्रदूषित नहीं होता था। विज्ञान का काम निरंतर नई चीजें खोजना है लेकिन इसका ये अर्थ नहीं है कि जो कुछ भी पुराना है वह रद्दी की टोकरी के लायक हो गया। जिस विज्ञान ने दुनिया को प्रदूषण दिया ये उसका दायित्व है कि वही उससे बचने के तरीके ईजाद करे। विश्व के अग्रणी देश भी चाहें तो भारत से सीख सकते हैं जिसने प्रकृति और पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए भी प्रगति की राह पर बढऩे का हुनर हासिल कर लिया था। लेकिन उसके पहले हम भारतवासियों को भी अपनी प्राचीन विरासत के प्रति स्नेह और सम्मान का भाव पुनर्जीवित करना होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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