Monday 21 October 2019

दो नगर निगम : एक तो संभल नहीं रही



मप्र की राजधानी भोपाल की नगरनिगम को दो हिस्सों में बाँट दिया गया। नगरीय प्रशासन विभाग को ये लगा कि ऐसा करने से विकास संबंधी कार्य सुचारू रूप से हो सकेंगे और विषमता भी दूर होगी। कहा जाता है कि प्रशासन का विकेंद्रीकरण करने से कार्यक्षमता और निर्णय प्रक्रिया में सुधार होता है। इस बारे में छोटे राज्यों का उदाहरण सामने है जो विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़े। विभागीय मंत्री जयवर्धन सिंह ने तो बड़े वार्डों को भी छोटा करने की बात कही हैं। भोपाल का विस्तार होते जाने से नगर निगम की परेशानियां बढऩा स्वाभाविक है और उस लिहाज से उसे दो हिस्सों में बाँट देना प्रायोगिक दृष्टि से सही हो सकता है लेकिन हमारे देश में राजनीति चूंकि हर मामले में टांग अड़ाने लगती है इसलिए भोपाल की तरह से ही इंदौर और जबलपुर में भी दो नगर निगम बनाने की मांग उठ खड़ी हुई।  बीते कुछ सालों में नगरीय सीमा में वृद्धि को देखते हुए वार्डों की संख्या भी तदनुसार बढ़ाई जाती रही। ऐसा होने से विकास संबंधी अपेक्षाएं और जिम्मेदारी भी बढ़ीं।  स्थानीय निकायों को यूँ तो स्वायत्त माना जाता है लेकिन ये स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि न केवल प्रशासनिक अपितु वित्तीय मामलों में भी वे पूरी तरह से राज्य सरकार के शिकंजे में फंसे होते हैं।  इसका असर विकास परियोजनाओं पर भी पड़ता है। यदि सर्वे करवाया जाए तब ये बात सामने आ जायेगी कि छोटे, मझोले शहरों के ही नहीं बल्कि महानगरों के स्थानीय निकाय भी सिर से पाँव तक कर्ज में डूबे हुए हैं।  करों की वसूली भी लक्ष्य के अनुसार नहीं हो पाती और बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो स्थानीय निकायों को कर देते ही नहीं।  प्रश्न ये है कि क्या स्थानीय निकायों का विभाजन किये जाने से शहरी विकास और प्रबन्धन का उद्देश्य पूरा हो सकेगा? देश की राजधानी दिल्ली में नगर निगम को अनेक हिस्सों में बाँट दिया गया लेकिन उससे व्यवस्था में किसी भी तरह का सुधार हुआ हो ऐसा नहीं लगता जबकि दिल्ली में केंद्र और राज्य दोनों की सरकारें भी हैं। इससे अलग हटकर देखें तो देश की व्यवसायिक राजधानी मुम्बई में महानगरपलिका है जो इस महानगर के स्थानीय निकाय के रूप में कार्यरत है।  मुम्बई जैसे विशाल महानगर का प्रबन्ध मामूली बात नहीं है लेकिन तमाम विरोधाभासों और विफलताओं के बाद भी मुम्बई महानगरपालिका का विभाजन नहीं किया गया।  मप्र में भोपाल से शुरू होकर बात इन्दौर और जबलपुर में दो नगर निगमों तक आने के बाद भविष्य में ग्वालियर का नाम भी जोड़ा जा सकता है लेकिन पहले इसके व्यवहरिक पक्ष को भी समझ लेना चाहिए क्योंकि सरकारी दफ्तरों का स्थापना व्यय  बहुत बढ़ गया है।  दो नगर निगम बनते ही समानांतर प्रशासनिक ढांचा भी खड़ा करना पड़ेगा जिससे अतिरिक्त बोझ बढ़ेगा।  छोटे जिलों के गठन के बाद इसका अनुभव हो चुका है। उस आधार पर स्थान निकायों का विभाजन करने के पूर्व उनकी उपादेयता और भविष्य में उत्पन्न होने वाली प्रशासनिक और वित्तीय समस्याओं का अनुमान लगाने के बाद ही फैसला लेना सही होगा।  स्थानीय निकायों की वर्तमान स्थिति कर्जा लेकर घी पीने वाली होकर रह गई है। वेतन बांटने तक के लाले पड़े रहते हैं। धीरे-धीरे बहुत सी सेवाएं निजी हाथों में दी जाने लगी है। पेशेवर सोच के अभाव के चलते जनता को परेशान करने वाली कार्यशैली अभी भी जारी है। न सिर्फ  प्रशासनिक अमला बल्कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी लूट सके सो लूट वाली मनोवृत्ति में लिप्त रहते हैं।  ऐसी स्थिति में एक शहर में दो नगर निगम बनाने से कुछ लोगों की नेतागिरी भले चमक जाये लेकिन शहर और जनता दोनों को विशेष लाभ की उम्मीद नहीं की जा सकती।  गत दिवस ज्योंहीं भोपाल के बाद जबलपुर और इन्दौर में दो नगर निगम बनाने की सुगबुगाहट प्रारंभ हुई त्योंही सोशल मीडिया पर मप्र के विभाजन के साथ ही अलग महाकौशल राज्य की मांग भी उछलने लगी।  राजनीतिक मोर्चे पर भी कांग्रेस - भाजपा आमने सामने आकर बयानों के तीर चलाने लगीं।  हालाँकि सरकारी स्तर पर बात अभी भोपाल में दो नगर निगम तक ही सीमित है किन्तु कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा ने चूँकि जबलपुर में भी भोपाल की तरह दो महापौर की चर्चा छेड़ी है तब माना जा सकता है कि कमलनाथ सरकार को इस पर विचार करना पड़ेगा।  लेकिन किसी भी अंतिम निर्णय पर पहुँचने से पहले बेहतर यही होगा कि बजाय नगरीय प्रशासन को हिस्सों में बांटने के मौजूदा स्थिति को ही सुधारा जाए।  यदि कार्यशैली को समयबद्धता के साथ ही पेशेवर रूप दिया जाए तो वर्तमान ढांचे में ही वांछित नतीजे हासिल किये जा सकते हैं।  देश इस समय जिस तरह की आर्थिक अनिश्चितता से गुजर रहा है उसे देखते हुए सरकारी खर्च में कटौती की जरूरत है न कि उसे और बढ़ाने की।  एक तरफ  तो स्थानीय निकायों द्वारा सफाई जैसे अपने मूलभूत दायित्व को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है तब एक ही शहर में दो नगर निगम बनाने से क्या हासिल होगा ये समझ से परे है। और जब एक ही बच्चे का रखरखाव उचित तरीके से नहीं हो पाउ रहा तब दूसरा पैदा करना कहां की बुद्धिमता होगी?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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