Thursday 3 October 2019

समाधि महात्मा की: नाम राजघाट



गांधी जी की 150 वीं जयंती पूरी देश में धूमधाम से मनाई गयी। विविधताओं का देश होने से सभी ने अपने-अपने ढंग से गांधी जी को पूजा और सराहा। इस दौरान ये जताने की कोशिश भी हुई कि उनका असली वारिस कौन है। कोई रैली निकाल रहा था तो कोई पदयात्रा के जरिये उनसे अपनी निकट रिश्तेदारी साबित करने की कोशिश में जुटा था। सभाओं, गोष्ठियों और सांस्कृतिक आयोजनों के जरिये भी महात्मा जी को याद करने की औपचारिकता का निर्वहन किया गया। संसद भवन से साबरमती आश्रम तक उनके प्रति श्रद्धा का उद्घोष किया गया। इस दौरान आरोप-प्रत्यारोप भी हुए जिसका उद्देश्य गांधी पर अपना पक्का कब्जा जताने की कोशिश ही थी। प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी ने देश को खुले में शौच से मुक्त कराने का श्रेय लूटा तो कांग्रेस ने उन पर बीते पांच वर्षों में बापू की आत्मा को दुखी करने की तोहमत थोप दी। राज्यों में भी अपनी-अपनी पसंद और सुविधानुसार राष्ट्रपिता के प्रति लगाव दर्शाने का प्रयास किया गया। बीते सत्तर साल में बापू के उपदेशों की धज्जियां उड़ाने वालों ने नये सिरे से उनमें निवेश करने की दिशा में कदम उठाते  हुए उनके नाम  पर स्तंभ, पीठ और स्मारक बनाकर खाने-पीने के नए रास्ते भी तलाश  लिए। चूंकि गांधी को संसार छोड़े हुए सात दशक से ज्यादा हो गए  इसलिए उन पर किसी का कापीराईट नहीं रहा। यही वजह है कि गांधी जी के अपने परिवार को पीछे रखते हुए उनके नये रिश्तेदार माहौल पर कब्जा करते नजर आये। राजघाट तो खैर, ऐसे अवसर पर रेडीमेड सरकारी पर्यटन केंद्र बन ही जाता है लेकिन देश में जहां-जहां गांधी जी के चरण कभी भी पड़े उन सभी स्थानों को लीप-पोतकर उनकी उपस्थिति को महसूस करने का प्रयास हुआ। संभवत: गांधी जी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो पूरे देश में लोगों के साथ सीधे जुड़े और जहां भी गये अपनी छाप छोड़कर आये। यही वजह थी कि गत दिवस पूरे देश ने उन्हें याद करते हुए उनके कृतित्व के प्रति अपना आभार व्यक्त किया। लेकिन इस दौरान भी वह कटुता नहीं मिट सकी जो वे चाहते थे। किसी ने  गांधी जी की ह्त्या को मुद्दा बनाया तो किसी ने उनके विचारों को दफन करने के लिए दोषारोपण करने की पुरजोर कोशिश की। राष्ट्रपिता कहलाने वाले एक युगपुरुष को श्रद्धांजलि देते समय भी राष्ट्रीय एकता की बजाय खेमेबाजी के शर्मनाक प्रदर्शन ने उनकी आत्मा को निश्चित तौर पर दु:ख पहुँचाया होगा। ये सब देखने के बाद सवाल उठ खड़ा होता है कि गांधी-गांधी करने के बाद भी उनकी इच्छाओं और उपदेशों के प्रति क्या अपेक्षित सम्मान का भाव हमारे नेताओं और उनके अनुयायियों में है? यदि होता तब गत दिवस अच्छी-अच्छी बातों के बीच जहर  बुझे तीर नहीं छोड़े जाते। बरसों पहले स्व. हरिशंकर परसाईं ने एक व्यंग्य लिखा था। जिसमें गणेश विसर्जन  के जुलूस में इस बात पर विवाद होने का जिक्र था कि उच्च जाति के लोगों द्वारा रखी गयी प्रतिमा से आगे नीची जाति के लोगों की प्रतिमा कैसे चल रही थी। उनका आशय ये था कि लोगों की आस्था भगवान गणेश में कम और अपनी कथित जातिगत श्रेष्ठता में ज्यादा थी। परसाईं जी तो नहीं रहे लेकिन उनका वह कटाक्ष गत दिवस गांधी भक्ति को लेकर हुए विवाद के रूप में फिर ताजा हो  गया। महात्मा जी ने जीते जी ही कह  दिया था कि उनके विचारों को किसी दर्शन का नाम नहीं दिया जाए क्योंकि उनमें विभिन्न विचारों का संग्रह है। फिर भी सत्य और अहिंसा को उनके नाम पर चस्पा कर दिया गया। इस पर किसी को ऐतराज  भी नहीं है क्योंकि वे जीवन भर इन दोनों का भरसक पालन भी करते रहे। लेकिन परेशानी तब हो जाती है जब गांधी दर्शन से अभिप्राय गांधी को दर्शनीय बनाने से लगा लिया जाता है। हमारे देश की समूची व्यवस्था गांधी जी को हाजिर नाजिर मानकर संचालित होती है। वैध-अवैध सभी प्रकार का लेनदेन जिस मुद्रा के माध्यम से किया जाता है उस पर भी मुस्कुराते बापू नजर आते हैं। इस तरह उनके योगदान का मूल्यांकन हर कोई अपनी अंटी में रखे रूपये के नोट के मुताबिक करने लगा है। 150  वां जन्मदिन मनाकर महात्मा जी के गौरवगान  के साथ ही केंद्र और राज्यों की सरकारों  ने उनके नाम पर अर्जित कुछ उपलब्धियों और कुछ नये कार्यक्रमों का ऐलान करते हुए अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। आचरण की बजाय उन्हें भी आंकड़ों की विषयवस्तु बना दिया गया। बेहतर होता इस अवसर पर बीते सात दशकों का हिसाब-किताब तैयार करते हुए देश और दुनिया को ये बताया जाता कि हमने किस हद तक गांधी जी को धोखा दिया और उनकी कही गईं किन-किन बातों को राजघाट के पीछे बहने वाली प्रदूषण की प्रतीक यमुना में सडऩे फेंक दिया गया?  सही बात तो ये है कि गांधी जी, सिद्धान्तों की ओट लेकर सत्ता  हथियाने का जरिया मात्र  बनकर रह गए हैं। उनके नाम से किसी को परहेज नहीं है  लेकिन उनके कामों को दोहराने के प्रति अरुचि  भी कम नहीं है। एक फकीराना जीवन जीने वाले महात्मा जैसे व्यक्ति  की समाधि का नाम राजघाट रखा जाना भी विरोधाभास नहीं तो और क्या है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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