Friday 25 October 2019

जनादेश : प्रयोग बहुत हुए अब परिणाम चाहिए



महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद राजनीतिक विश्लेषक असमंजस में पड़ गए  क्योंकि मतदाताओं ने जो निर्णय दिया उसमें जीत-हार का निष्कर्ष निकालना कठिन है। कल सुबह से बनी अनिश्चितता शाम आते तक काफी हद तक खत्म हो गयी। महाराष्ट्र में तो खैर, भाजपा और शिवसेना के गठबंधन को तकरीबन 25 सीटों के नुकसान के बाद भी सुविधाजनक बहुमत सरकार बनाने हेतु मिल ही गया जबकि दूसरी तरफ हरियाणा में भाजपा अंतत: 40 सीटें लेकर बहुमत के बेहद करीब पहुंच गयी और शाम को पार्टी मुख्यालय में आयोजित जलसे में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने देवेन्द्र फडनवीस और मनोहर लाल खट्टर की तारीफ  करते हुए उन्हें दूसरी पारी दिए जाने का ऐलान जिस अंदाज में किया उसके बाद से ये मान लिया गया कि शिवसेना के दबाव के बावजूद भी भाजपा महाराष्ट्र में अपना वर्चस्व बनाये रखेगी। वहीं हरियाणा में दुष्यंत चौटाला को कर्नाटक की तर्ज पर कुमारस्वामी बनने से भी उसने रोक दिया है। आधा दर्जन निर्दलीय विधायक भाजपा के बागी ही हैं। उनसे पार्टी ने संवाद कायम कर लिया ऐसी खबरों के बीच खट्टर सरकार बनने के आसार मजबूत हो गए। वैसे भी कांग्रेस के 31 पर अटक जाने और दुष्यंत के अति महत्वाकांक्षी होने से भाजपा का बिगड़ता खेल बनता दिख रहा है। भूपिंदर सिंह हुड्डा इस चुनाव के सबसे बड़े नायक बनकर उभरे जिन्हें मात्र डेढ़ महीने पहले कांग्रेस ने सेनापति बनाया। यदि ये निर्णय पहले हो जाता तब बड़ी बात नहीं कांग्रेस भाजपा की जगह होती। दो राज्यों के चुनाव में बहस का मुद्दा मुख्य रूप से भाजपा की ताकत घटने का बन गया है जो स्वाभाविक है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद राष्ट्रवाद की भावना को तुरुप का इक्का मान बैठी भाजपा ने दोनों राज्यों में काफी बड़े-बड़े दावे किये थे। यद्यपि ऐसा पहली बार नहीं हुआ। पिछले लगभग सभी चुनावों में वह एक लक्ष्य प्रचारित करती रही है। लोकसभा चुनाव में 300 पार का नारा था जो सफलीभूत हो गया। लेकिन उसके पहले गुजरात के अलावा अनेक राज्यों के चुनाव में भाजपा अपने घोषित लक्ष्य से पीछे रह चुकी थी। ऐसे में यदि वह हरियाणा में 75 और महाराष्ट्र में 200 पार का नारा नहीं लगाती तब शायद उसका इतना मखौल नहीं उड़ा होता जितना कल सुबह से देर रात तक हुआ। चुनाव नतीजों का जो मोटा - मोटा विश्लेषण हो रहा है उसका सार ये है कि राज्य के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे उतने कारगर नहीं होते। चूँकि भाजपा का पूरा दारोमदार श्री मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर आकर टिक गया है इसलिए हर चुनाव में वे ही अग्रिम मोर्चा सँभालते हुए अपनी हैसियत के मुताबिक राष्ट्रीय मुद्दों की चर्चा करते हैं। इन चुनावों में उन दोनों ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने को प्रमुख हथियार बनाया। विपक्ष के पास इसका कोई जवाब नहीं था इसलिए उसने आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, किसानों की बदहाली जैसे मुद्दे उठाकर भाजपा का विजय रथ रोकने का दांव चला जो चुनाव परिणाम देखने के बाद कामयाब प्रमाणित हो गया। भले ही भाजपा इसे स्वीकार नहीं करे लेकिन ये बात सही है कि प्रखर राष्ट्रवाद की लहर चलाने के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो ये इसके पीछे स्थानीय नेतृत्व का जनता से कट जाना ही है। पार्टी ने चुनावी जीत को ही अपना मुख्य उद्देश्य बना लिया जिसकी वजह से दूसरी पार्टी से आने वाले लोगों को मैदान में उतार दिया जाता है। महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों में भाजपा ने नवागंतुकों को टिकिट देकर अपने प्रतिबद्ध समर्थकों को नाराज किया जिसका खामियाजा उसे भोगना पडा। हरियाणा में उसके 16 बागी खड़े हुए जिनमें से 7 जीते और वह भी लम्बे अंतर से। भाजपा के प्रादेशिक और राष्ट्रीय नेतृत्व के बारे में अब ये चर्चा आम हो चली है कि उसमें अहंकार आ गया है और असहमति के लिए कोई स्थान नहीं है। इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि श्री मोदी पर अभी भी जनता का भरोसा है जबकि प्रादेशिक नेताओं की छवि अपेक्षाकृत उतनी अच्छी नहीं है। ये भी कहा जाता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व ने सुनियोजित ढंग से प्रादेशिक नेताओं को बौना बनाकर रख दिया है। देवेन्द्र फडनवीस को उनके विरोधी भी भविष्य का नेता मानकर चल रहे थे। महाराष्ट्र की राजनीति में मराठाओं के प्रभुत्व के बावजूद एक ब्राह्मण मुख्यमंत्री का प्रयोग काफी चर्चित हुआ। बीते पांच साल में उन्होंने सरकार भी अच्छी तरह चलाई। इसी तरह हरियाणा में गैर जाट पंजाबी को मुख्यमंत्री बनाए जाने को भी भाजपा की नई रणनीति के तौर पर प्रचारित किया गया। इस प्रयोग में कुछ भी बुराई नहीं थी लेकिन उसका ढोल जिस तरह पीटा गया उसका विपरीत असर हुआ। महाराष्ट्र में मराठा और हरियाणा में जाट मतदाताओं का भाजपा के विरोध में गोलबंद होना इसका सबूत है। उक्त दोनों मुख्यमंत्रियों की अच्छी छवि के बावजूद मंत्रियों की छवि खराब रही। हरियाणा में तो एक को छोड़कर सभी औंधे मुंह गिरे। महाराष्ट्र में पंकजा मुंडे की हार स्थानीय समस्या का निदान नहीं हो पाने से हुई। इन परिणामों के बारे में ये भी निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि विपक्ष विशेष रूप से कांग्रेस यदि पराजयबोध से ग्रसित नहीं होती तब शायद भाजपा की वापिसी संभव नहीं थी। लेकिन ये बात भी विचारणीय है कि जिस तरह से भाजपा को राष्ट्रीय मुद्दों से हुआ लाभ स्थानीय कमियों के कारण बेअसर होकर रह गया ठीक वैसे ही कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व खास तौर पर गांधी परिवार को दूर रखने के कारण ही पार्टी दोबारा खड़े होने लायक बन सकी। हरियाणा में श्री हुड्डा ने पार्टी छोडऩे की धमकी दी तब जाकर उन्हें कमान दी गई। वहीं महाराष्ट्र में कांग्रेस पूरी तरह शरद पवार के सहारे थी। मुम्बई में जहां उसका भाजपा से सीधा मुलाबला था वहां उसकी हालत पतली ही रही। आर्थिक मंदी के जोरदार हल्ले के बावजूद देश की व्यवसायिक राजधानी मुम्बई में भाजपा की सफलता चौंकाने वाली है। इसी तरह श्री फडनवीस के अपने अंचल विदर्भ में ही भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। चूंकि इसके बावजूद भाजपा ही सरकार बनाती दिख रही है इसलिए चुनाव परिणामों का सूक्ष्म विश्लेषण भी उसे ही करना चाहिए। झारखंड और दिल्ली के चुनाव भी नजदीक ही हैं। उनमें भाजपा ताजा गलतियों से सीखेगी या नहीं ये देखने वाली बात होगी। जहाँ तक बात कांग्रेस की है तो उसकी दुविधा ये है कि गांधी परिवार में चुनाव जिताने की क्षमता समाप्त हो गयी है लेकिन ये भी एच है कि उसके बिना पार्टी एकजुट नहीं रह सकेगी। महाराष्ट्र में शरद पवार ने कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया वहीं हरियाणा में सत्ता से बाहर रहकर वह बिखराव से बची रहेगी ये कहना मुश्किल है। दो राज्यों के चुनावों के साथ ही विभिन्न राज्यों से उपचुनावों के नतीजे भी आये। कांग्रेस को गुजरात, राजस्थान और मप्र में तो सफलता मिल गई लेकिन शेष राज्यों में उसका खराब प्रदर्शन जारी रहा। उप्र में प्रियंका वाड्रा के सक्रिय रहने के बावजूद 11 विधानसभा सीटों की उपचुनावों में कांग्रेस कहीं मुकाबले में नहीं दिखी। बसपा भी पूरी तरह विफल रही। इस आधार पर ये माना जा सकता है कि भाजपा को अपना प्रादेशिक आधार संभालने पर ध्यान देना होगा वहीं कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नये नेतृत्व को आगे लाना जरुरी हो गया है। राहुल गांधी नामक प्रयोग पूरी तरह विफल साबित होने के बाद सोनिया गांधी को दोबारा कमान सौंपना मजबूरी ही है, जिसे लंबे समय तक निभाना संभव नहीं होगा। भाजपा के लिए दो राज्यों के चुनाव परिणाम एक चेतावनी लेकर आये हैं। यदि जैसे-तैसे सत्ता वापिस मिल जाने की खुशी में डूबकर वह जनादेश के संकेत नहीं समझ पाती तब उसके लिए आने वाली लड़ाइयाँ और कठिन होती जायेंगी। जैसा प्रारम्भ में कहा गया जनता अभी भी श्री मोदी के प्रति आस्थावान है लेकिन लोगों की अपेक्षा ये है कि अच्छे दिन आसमान से जमीन पर भी उतरें। प्रयोग बहुत हो चुके अब परिणाम भी मिलने चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment