Friday 11 October 2019

चीन को दबाने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा



आज की दुनिया में सामरिक शक्ति के समानांतर आर्थिक मजबूती का महत्व है ।  यही वजह है कि इमरान खान जब भारत को परमाणु युद्ध की धमकी देते हैं तब पूरी दुनिया में उसका मजाक बनता है। इसका कारण उसका फटेहाल हो जाना है। आर्थिक कूटनीति से किसी ताकतवर प्रतिद्वंदी को कैसे झुकाया जा सकता है इसका सबसे ताजा उदाहरण अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा चीन  के विरुद्ध शुरू किया गया व्यापारिक युद्द (ट्रेड  वार) है। विश्व में चीन की गिनती आर्थिक महाशक्ति के तौर पर भी होने लगी थी। भारत जैसे देश तो खैर उसका  मुकाबला करने में सक्षम नहीं थे लेकिन अमेरिका तक चीन के आर्थिक प्रवाह को रोक पाने में खुद को असमर्थ महसूस करने लगा। अमेरिका के बाजारों में चीन उत्पादों का छा जाना आम बात होने लगी। वहां की वित्तीय संस्थाओं पर भी चीनी कम्पनियां  काबिज  होने लगीं। सबसे बड़ी बात ये हुई  कि सस्ते श्रमिकों  के लालच में अमेरिका की नामी गिरामी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूंजी चीन में निवेशित हो गयी। धीरे - धीरे चीन की आर्थिक प्रगति उसके लिए चिंता का सबब बनने लगी। सोवियत संघ के विघटन के बाद चीन ही अमेरिका का सबसे प्रमुख वैचारिक प्रतिद्वंदी था। हालांकि विश्व की सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला एशिया का यह देश माओवादी लौह आवरण वाले दौर से बाहर निकलकर बहुत हद तक पूंजीवादी संस्कृति और जीवन शैली में ढल चुका है।  बावजूद इसके चीन अभी भी अमेरिका की तुलना में काफी पीछे और अलग है। विस्तारवादी नीतियों की वजह से उसके सभी पड़ोसी देश उससे भयभीत रहते हैं। पहले वह केवल सामरिक ताकत से डराया करता था लेकिन ज्योंही उसने आर्थिक  मोर्चे पर दुनिया के विकसित देशों के बराबर खड़े होने की हैसियत प्राप्त कर ली त्योंहीं वह अमेरिका की निगाहों में खटकने लगा। इसीलिये डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका की बागडोर संभालते ही चीन के विरूद्ध व्यापारिक जंग शुरू करते हुए तरह - तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए। इसका असर भी देखने मिला और साल दर साल कुलांचे मार रही चीन की अर्थव्यवस्था में उतार आने लगा। ट्रम्प ने अमेरिकी कम्पनियों को चीन से कारोबार समेटने के लिए बाध्य कर दिया। धीरे - धीरे वे वहां से उठकर भारत जैसे किसी दूसरे  देश में ठिकाने तलाशने लगीं जहां श्रमिक विकसित देशों की तुलना में सस्ते हैं। हालाँकि इस प्रक्रिया में समय लगेगा लेकिन चीन इससे घबराहट में है। उसके राष्ट्रपति शी जिनपिंग माओ के बाद सबसे ताकतवर नेता के रूप में उभरे हैं। उन्होंने जीवन भर सत्ता में बने रहने की व्यवस्था भी साम्यवादी पार्टी से करवाली है। जिनपिंग ये भी समझ गये हैं कि  चीन अपनी सामरिक ताकत के बल पर वह सब हासिल नहीं कर पायेगा जो आर्थिक समृद्धि से संभव है। इसीलिये वह अमेरिका के व्यापारिक युद्ध से लडऩे के रास्ते तलाश रहा है। आज से शुरू हो रही जिनपिंग की दो दिवसीय भारत यात्रा उसी सिलसिले में है। चीन की महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड परियोजना खटाई में पडऩे के कारण उसकी काफी पूंजी फंसकर रह गई है। भारत द्वारा इस प्रकल्प से पूरी तरह दूरी बना लेने से भी चीन को परेशानी हुई। उधर पाकिस्तान के भीतर भी इसका विरोध होने लगा है। चीन द्वारा मुस्लिमों पर लगाई जा रहे प्रतिबंधों से  पकिस्तान के कट्टरपंथी संगठन काफी नाराज हैं। ऐसी  स्थिति में पाकिस्तान चीन के गले की हड्डी बन गया है। यद्यपि शुरू से ही भारत विरोधी नीति के कारण उसने पाकिस्तान को बिना शर्त समर्थन दिया लेकिन बीते कुछ  सालों से वह भारत को लेकर थोड़ा ही सही किन्तु लचीला हुआ है। आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में भी वह  चाहे - अनचाहे भारत के सुर में सुर मिलाता दिखता  है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि जम्मू - कश्मीर को लेकर भारत सरकार द्वारा बीते अगस्त माह में जो बड़े निर्णय लिए उनका विरोध करने के बाद भी चीन ने पाकिस्तान को वैसा समर्थन नहीं दिया जैसा वह अतीत में करता आया है। लेकिन उसका मूल चरित्र नहीं बदल सकता। जिनपिंग के भारत आने के पहले जब इमरान खान बीजिंग गए तब पहले तो जिनपिंग ने कश्मीर को द्विपक्षीय मसला मानकर भारत और पाकिस्तान द्वारा उसे मिलकर सुलझाने जैसी बात कहकर भारत को प्रसन्न कर दिया। लेकिन फिर पलटी मारते हुए पाकिस्तान को अपना पक्का  दोस्त बताकर भारत को चिढ़ाने की  हरकत दोहरा दी। ऐसे हालात में जिनपिंग का भारत दौरे का उद्देश्य समझना जरूरी है। ऐसा लगता है वे भारत को अमेरिकी  प्रभाव से बाहर निकलने की कोशिश करेंगे। नरेंद्र मोदी की  हालिया अमेरिका यात्रा से चीन काफी परेशान है। उसे मोदी सरकार द्वारा रूस से भी नजदीकी रिश्ते बना लेने से खुन्नस हो रही है। बीते पांच सालों में भारत ने सामरिक मोर्चे पर जिस तरह से अपनी  ताकत  में वृद्धि की उससे भी चीन सतर्क है । डोकलाम विवाद  के समय भारत द्वारा प्रदर्शित सख्त रवैये के बाद भी जब - जब सीमा पर चीनी सैनिकों की घुसपैठ हुई तब - तब भारत  संयम रखते हुए भी कड़ाई से पेश आया। जिनपिंग की वर्तमान भारत यात्रा का मकसद दरअसल अमेरिका की आर्थिक मोर्चेबंदी से निपटने में भारत का साथ और समर्थन हासिल करना है। उल्लेखनीय है ईरान के विरुद्ध डोनाल्ड ट्रंप द्वारा लगाई गई बंदिशों से भारत के आर्थिक हित भी बुरी तरह प्रभवित हुए हैं। लेकिन उसने फिलहाल अमेरिका का विरोध नहीं करने की नीति अपना रखी है। इसका कारण वाशिंगटन का पाकिस्तान की प्रति कठोर हो जाना है। उसकी देखा - सीखी बाकी  पश्चिमी ताकतें भी भारत के प्रति उदार हुई हैं। हाल के सालों में चीन भी भारत और पाकिस्तान के बीच संतुलन बनाकर चलता रहा है। उसकी समझ में आ गया है कि भारत के साथ शत्रुता रखना उसके दूरगामी हितों के विरुद्द्ध होगा। जिनपिंग से मुलाक़ात के दौरान चाशनी में  लिपटी कूटनीतिक बातों के परे श्री मोदी को ये इशारा कर देना चाहिए कि चीन को जितना नुक्सान अमेरिका के  साथ व्यापार युद्ध में हो रहा है उतना ही भारत भी पहुंचा सकता है। आर्थिक मंदी के कारण भारत का घरेलू औद्योगिक ढांचा जिस तरह चरमराया उसकी वजह चीन में बनी सस्ती वस्तुएं ही हैं। भाजपा जिस स्वदेशी आन्दोलन से वैचारिक तौर पर जुडी हुई है उसका जोर चीनी वस्तुओं के आयात को नियंत्रित करना रहा है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के साथ ही भारतीय उद्योगपतियों के हितों की खातिर इस बारे में कड़े निर्णय लेने में मोदी सरकार हिचकती रही। लेकिन वर्तमान वैश्विक माहौल में चीन जिस तरह से दबाव में  है और उसकी आर्थिक प्रगति का आंकड़ा ढलान की तरफ जा रहा है तब भारत के लिए अच्छा अवसर है जब वह जिनपिंग को शुद्ध हिन्दी में समझा दे कि भारत के साथ सम्बन्ध रखना हैं तो उसमें धूर्तता के लिये कोई जगह नहीं होनी चाहिए। केवल कश्मीर ही नहीं वरन आर्थिक मोर्चे पर भी चीन को झुकाने का यह अच्छा  मौका है। जिनपिंग इस समय चौतरफा घिरे हैं। कश्मीर पर भारत को मिला अभूतपूर्व  वैश्विक समर्थन चीन के लिए भी चेतावनी है। नरेंद्र मोदी का कद भी विश्व राजनीति में बेहद ऊँचा होने से वे जिनपिंग के साथ बराबरी से निपट सकते हैं। राष्ट्रीय अपेक्षा यही है कि महाबलीपुरम में होने जा रही बातचीत में भारत अपना पलड़ा भारी रखने में सफल रहेगा। चीन की गर्दन  दबाने के इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए क्योंकि वह इस समय हर तरह से दबाव में है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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