Thursday 10 October 2019

जीएसटी रिफंड मिले और एनपीए का दबाव कम हो



कार्पोरेट टेक्स घटा दिया गया, विभिन्न चीजों पर जीएसटी की दरें भी कम कर दी गईं, रिजर्व बैंक ने रेपो रेट में लगातार पांचवी बार कटौती करते हुए कर्ज सस्ते करने का रास्ता साफ  किया और उसके बाद गत दिवस केन्द्रीय कर्मचारियों और पेंशन धारियों को पांच फीसदी महंगाई भत्ता स्वीकृत कर दिया गया। ये सभी कदम किसी मेहरबानी के तहत नहीं उठाये गये बल्कि आर्थिक मंदी को दूर करने के लिए ऐसा करना केंद्र सरकार की मजबूरी बन गई थी। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव नहीं होते तब शायद राहतों की बरसात के लिए अभी कुछ दिन इंतजार और करना पड़ता। राजस्व की वसूली कम होने के बाद सौगातों का पिटारा खोला जाना अच्छा आर्थिक प्रबंधन नहीं है लेकिन सत्ता में बैठे लोगों का अर्थशास्त्र भी राजनीतिशास्त्र से प्रभावित रहता है। विशेष रूप से भारत जैसे देश में राजनीति का धंधा चूँकि वोटों की फसल पर आधारित होता है इसलिए तदनुसार नीति और निर्णय होते हैं। बीते कुछ दिनों में केंद्र सरकार ने जो कुछ भी किया उसके पीछे अर्थव्यवस्था को टेका लगाना प्रत्यक्ष कारण है लेकिन पर्दे के पीछे जो चर्चाएँ हैं उनके मुताबिक लोकसभा चुनाव के फौरन बाद और खास तौर पर केंद्र का बजट आते ही अर्थव्यवस्था पर मंदी की छाया और गहराने लगी। मोदी सरकार को अब तक की तमाम उपलब्धियों पर उसकी वजह से पानी फिरता देख अंतत: वही करना पड़ा जो अपरिहार्य था और काफी पहले हो जाना चाहिए था। दरअसल सत्ताधारी कुनबे के भीतर भी अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट को लेकर चिंता व्यक्त होने लगी थी। अप्रैल से जून तक की पहली तिमाही की विकास दर जब पांच फीसदी पर आ गई तब आम जनता के मन में भी भय समाने लगा और उसी के बाद केंद्र सरकार, रिजर्व बैंक और जीएसटी काउन्सिल सब एक साथ पसीज उठे। इन समस्त प्रयासों का समन्वित उद्देश्य बाजार में मुद्रा की उपलब्धता बढ़ाकर मांग पैदा करना ही है जिससे कारोबारी जगत सन्निपात से उबरकर फिर से उठ खड़ा हो। उक्त सभी उपाय पूरी तरह से सकारात्मक और उपयोगी कहे जायेंगे जिनमें से कुछ का असर तत्काल प्रभाव से और कुछ का थोड़े समय बाद महसूस होगा। दबी जुबान ये खबर भी है कि निकट भविष्य में आयकर को लेकर भी बड़ा नीतिगत निर्णय लिया जा सकता है। उसकी दरें कम करने सम्बन्धी सिफारिशों पर सघन विचार-विमर्श चल रहा है। कहने वाले तो यहाँ तक दावा कर रहे हैं कि आयकर खत्म करते हुए किसी वैकल्पिक व्यवस्था की तलाश भी जारी है। खैर, वह तो जब होगा, तब होगा लेकिन आज की स्थिति में उद्योग और व्यापार जगत में छाई उदासी की एक बड़ी वजह है जीएसटी में कारोबारी जगत का पैसा फंस जाना। निजी क्षेत्र इससे बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। जीएसटी के रिफंड नहीं आने से व्यापारियों की पूंजी फंसकर रह गयी है। उससे उन्हें व्यापार को गतिशील बनाए रखने में मुसीबत हो रही हैं वहीं दूसरी तरफ  बैंकों से कर्ज लेने वाले कारोबारी एनपीए दूर करने के लिए बनाये जा रहे दबाव से हलाकान हैं। हालांकि इस बारे में बैंक और सरकार पूरी तरह से गलत नहीं हैं लेकिन सभी कारोबारियों को एक ही लाठी से हांका जाना सही नहीं है। बेहतर हो जीएसटी के रिफंड के साथ ही एनपीए को लेकर बनाये जाने वाले दबाव के संबंध में वित्त मंत्रालय समयोचित कदम उठाये। आर्थिक क्षेत्र में सरकार द्वारा हाल के वर्षों में उठाये गए क़दमों का देश के सभी वर्गों ने समर्थन किया और लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार को एक मौका और दिया। लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं होने की वजह से उनका प्रभाव उम्मीद के मुताबिक नहीं हुआ, अपितु कुछ हद तक उलटा भी हो गया। सौभाग्यवश केंद्र सरकार की नीयत पर किसी को संदेह नहीं था। इसीलिये भारी असंतोष के बावजूद भी शांति बनी रही। लेकिन अब समय आ गया है जब सरकार को भी आभार स्वरूप व्यापार-उद्योग और जनता सभी की चिंताओं को दूर करने के लिए समुचित और समयबद्ध कदम उठाने चाहिए। किसी भी सरकार को अपनी नीतियाँ लागू करने के लिए एक कार्यकाल पर्याप्त होता है। भारत जैसे देश में चूंकि निर्णय प्रक्रिया अपेक्षाकृत धीमी है इसलिये जनता ने नरेन्द्र मोदी को दूसरा अवसर दे दिया। लेकिन इस बार किसी बहाने की गुंजाइश नहीं रहेगी। दूसरी बात ये है कि दो और तीन साल पहले लिए गये कड़े और बड़े फैसलों का फायदा अब सामने आना चाहिए। अन्यथा जनता के मन में सत्ता के प्रति व्याप्त विश्वास में कमी आने में देर नहीं लगेगी। जीएसटी के रिफंड और एनपीए को लेकर बनाये जा रहे अनुचित दबाव के बारे में केंद्र के वित्त मंत्रालय को सार्थक कदम उठाने चाहिए जिससे कारोबार के रास्ते से रोड़े हटाये जा सकें।

-रवीन्द्र वाजपेयी



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