Wednesday 30 November 2022

गुजरात में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की लड़ाई से भाजपा को फायदा



 गुजरात विधानसभा चुनाव हेतु पहले चरण का मतदान कल 1 दिसम्बर को होने जा रहा है | आख़िरी दौर में सभी प्रमुख प्रतिद्वन्दियों ने पूरी ताकत झोंक दी है | भाजपा के स्टार प्रचारक खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं जबकि गृहमंत्री अमित शाह भी धुँआधार प्रचार में जुटे हुए हैं | राहुल  गांधी की भारत जोड़ो यात्रा म.प्र से निकलते हुए राजस्थान में प्रविष्ट होगी लेकिन उसका गुजरात न आना राजनीतिक दृष्टि से बेहद चौंकाने वाला  रहा | हालाँकि श्री गांधी बीच में आकर एक – दो सभाएं कर आये परन्तु पूरे प्रचार के दौरान उनकी गैर मौजूदगी से कांग्रेसजनों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ा और यही  कारण है कि आम आदमी पार्टी भाजपा विरोधी मतों का बड़ा हिस्सा खींचने की तरफ बढ़ रही है| म.प्र और राजस्थान की तरह गुजरात में भी भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होता आया है परन्तु इस बार ऐसा लगता है कांग्रेस पराजयबोध से ग्रसित होने के कारण बुझे मन से मैदान में उतरी | आम आदमी पार्टी भी समझ चुकी है कि उसे स्पष्ट बहुमत मिलना तो दूर रहा लेकिन वह इस प्रयास में है कि किसी तरह कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन  करते हुए मुख्य विपक्षी दल बन जाए ताकि  भविष्य में भाजपा का विकल्प बन सके | इसी वजह से जितने भी  सर्वे आये वे सभी कांग्रेस  और आम आदमी पार्टी के बीच दूसरे और तीसरे स्थान के  लिए मुकाबला बताते हुए भाजपा की सरकार  बनने के संकेत दे रहे हैं | यद्यपि  अरविन्द केजरीवाल तो खुले आम अपनी सरकार बनाने के दावे कर रहे हैं किन्तु गुजरात में  उनकी बात पर विश्वास करने वाले कम ही होंगे | वहीं कांग्रेस के लिए चिंता का विषय ये भी  है कि 2017 के चुनाव तक साथ  रहे  प्रतिबद्ध मतदाता भी उससे बिदक रहे हैं | इसमें दो मत नहीं कि पांच साल पहले हुए चुनाव में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन करते हुए भाजपा को सांस फूलने वाली स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया था | अगर श्री  शाह ने  अंतिम दौर में सूरत की 16 सीटों को न संभाला होता तो बड़ी बात नहीं कांग्रेस बाजी पलट देती | लेकिन उसके बाद बीते पांच साल में और उस पर भी अहमद पटेल के न रहने के बाद से वह  दिशाहीन होकर रह गई है | और इसी शून्य को भरने की कोशिश में आम आदमी पार्टी है | वह अपने मकसद में कितनी कामयाब होती है ये तो 8 दिसम्बर की दोपहर तक स्पष्ट हो जाएगा लेकिन गुजरात पर नजर रखने वाले अधिकतर पत्रकारों और सर्वेक्षण एजेंसियों का मानना है कि आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के लिए बड़ा गड्ढा खोद दिया है | यद्यपि ये आशंका भी है कि वह खुद भी उसी में गिर सकती किन्तु त्रिकोणीय मुकाबले के कारण भाजपा को स्वाभाविक बढ़त नजर आ रही है | बावजूद इसके मोदी और शाह की  जोड़ी किसी मुगालते में नहीं दिख रही और भाजपा ने अन्य प्रान्तों से भी अपने दिग्गज बुलाकर मजबूत मोर्चेबंदी कर रखी है | हालाँकि हार्दिक पटेल के आने से पटेल मतों की नाराजगी का खतरा उतना नहीं रहा परन्तु  महंगाई का मुद्दा भाजपा को रक्षात्मक बनाने के लिए पर्याप्त है | इसीलिये प्रधानमंत्री गुजरात के प्रतीक पुरुष बनकर मतदाता को रिझाने में लगे हैं और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे का ताजा बयान उनके लिए उपहार की तरह हो गया जिसमें उन्होंने श्री मोदी की तुलना रावण से कर डाली | इतने वरिष्ट नेता होते हुए भी कांग्रेस अध्यक्ष वही  गलती कर बैठे जो सोनिया गांधी ने अतीत में  उनको मौत का सौदागर कहकर की थी | मतदान के महज पहले आई इस टिप्पणी को भाजपा के प्रचारतंत्र ने सीधे गुजरात के अपमान से जोड़ दिया | ऐसे में श्री खडगे का ये बयान कांग्रेस के लिए दूबरे में दो आसाढ वाली स्थिति पैदा कर सकता है | रही बात आम आदमी पार्टी की तो उसके लिए ये चुनाव खुद को राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत दिलवाने पर केन्द्रित है | यदि पार्टी गुजरात में कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए मजबूत विपक्ष  बनने में कामयाब हो जाती है तब आगामी लोकसभा चुनाव में विपक्ष द्वारा बनये  जाने वाले किसी भी मोर्चे ,में उसकी उपस्थिति अनिवार्य होगी | लेकिन जैसी संभावना अनेक सर्वे बता रहे हैं वह कांग्रेस से भी पीछे रहते हुए 10 -15 सीटों तक सिमट गई तब जरूर श्री केजरीवाल का राष्ट्रीय नेता बनने का सपना चूर हो सकता है | कुल मिलाकर कोई बड़ा उलटफेर न हुआ तब गुजरात में भाजपा ने  जो हिंदुत्व की प्रयोगशाला स्थापित की थी वह काम करती रहेगी | इसके साथ ही कांग्रेस के लिए ये अवसर है अपनी खोई साख वापस हासिल करने का | अगर वह 2017 के प्रदर्शन के आसपास भी पहुंच सकी तब उसके पास ये कहने का अवसर होगा कि बिना राहुल गांधी के  भी उसने अपना आधार बनाये रखा |  भाजपा की आंतरिक राजनीति में भी गुजरात के चुनाव नतीजे बड़े परिवर्तन का कारण बनेंगे | यदि चुनाव विशेषज्ञों द्वारा जताई जा रही संभावनाओं के अनुसार ही परिणाम आये और भाजपा अपने इस दुर्ग पर कब्ज़ा बरकरार रख सकी तब प्रधानमंत्री निश्चित रूप से और मजबूत हो जायेंगे | वैसे भी हाल - फ़िलहाल सत्ता और संगठन में उन्हें चुनौती देने वाला नजर नहीं आ रहा |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 29 November 2022

न्यायाधीशों की नियुक्ति : एकाधिकार न सरकार का हो न न्यायपालिका का



सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में केंद्र सरकार द्वारा किये जाने वाले  विलम्ब पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा है कि कालेजियम की सिफरिशों में कुछ को रोके रखने से  कालान्तर में न्यायाधीशों की वरिष्टता प्रभावित होती है | मसलन उच्च न्यायालय में किसी न्यायाधीश द्वारा पदभार ग्रहण करने की तिथि से ही भविष्य में उसके सर्वोच्च न्यायालय जाने की सम्भावना बनती है | एक दिन की देरी भी उसके लिये नुकसानदेह हो सकती है | इसीलिये जो लोग कम आयु में  न्यायाधीश बन जाते हैं उनके लिए भारत का प्रधान न्यायाधीश बनने तक का रास्ता साफ़ हो जाता है | गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान यहाँ तक कहा कि लगता है सरकार उसके द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग ( एन.जे.सी ) को रद्द करने के फैसले से नाराज है | उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार के पास कालेजियम द्वारा भेजी सिफारिशों में से कुछ उसने विचारार्थ रोक रखी हैं | सर्वोच्च न्यायालय का ये कहना सही है कि  इसके कारण न्यायाधीशों का वरिष्टता क्रम प्रभावित होता है | साथ ही  पद रिक्त रहने से लंबित प्रकरणों का ढेर बढ़ता जा रहा है | दरअसल सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र  सरकार के बीच कालेजियम व्यवस्था  को लेकर लंबे समय से शीतयुद्ध चला आ रहा है | 2015 में संसद द्वारा लोकसेवा आयोग की तर्ज पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाकर उसके माध्यम से  नियुक्ति की जो व्यवस्था बनाई गयी उसे सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया | कानून मंत्री किरण रिजुजू ने हाल ही में नियुक्ति आयोग को पुनर्जीवित करने के संकेत दिए हैं | उसी क्रम में गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय में जिस तरह की बातें  हुईं उसके बाद तनाव और बढ़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता | संविधान दिवस पर आयोजित समारोह में हालाँकि क़ानून मंत्री ने विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका को एक ही संविधान की संतान बताते हुए मिलकर काम करने की बात कही किन्तु कल जो कुछ हुआ उसके बाद ये कहना गलत न होगा कि कालेजियम , सरकार और न्यायपालिका के बीच प्रतिष्ठा का विषय बनता जा रहा है | कानून मंत्री मौका मिलते ही इसकी खामियों को गिनाने से नहीं चूकते वहीं  न्यायपालिका उसको छोड़ने के लिए किसी भी सूरत में राजी नहीं लगती | ऐसे में सवाल ये है कि अगर केंद्र सरकार दोबारा न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रस्ताव संसद से पारित करवा लेती है तब क्या सर्वोच्च न्यायालय उसे फिर से रद्द कर देगा ? गत दिवस न्यायाधीश संजय किशन कौल ने केंद्र के रवैये पर तंज कसते  हुए यहाँ तक कह दिया कि ऐसे में व्यवस्था कैसे चलेगी ?  हालाँकि कालेजियम प्रथा के प्रति  अधिवक्ताओं के एक वर्ग में भी असंतोष व्यक्त होता रहा है | जिन आधारों  पर किसी  अधिवक्ता को न्यायाधीश बनाये जाने की अनुशंसा की जाती  है उनकी प्रामाणिकता अक्सर विवाद में रही है | इसके जरिये न्यायाधीश बन गये  अनेक लोग बाद में उपहास के पात्र बनते हैं और अधिवक्ता समुदाय भी उनके प्रति अपेक्षित सम्मान  नहीं रखता | गत दिवस  जबलपुर उच्च न्यायालय  द्वारा जिन अधिवक्ताओं को न्यायाधीश बनाये जाने की सिफारिश सर्वोच्च न्यायालय भेजे जाने की खबर है उनमें से एक को लेकर हाईकोर्ट बार एसोसियेशन ने ये कहते हुए खुला विरोध किया कि वे म.प्र के निवासी नहीं हैं | इसी तरह के ऐतराज समय – समय पर उठते रहे हैं | ऐसे अनेक नामों की अनुशंसा भी होती रही है जो बतौर अधिवक्ता तो प्रभाव नहीं छोड़ पाए परन्तु  उनका सम्बन्ध किसी ऐसे परिवार से रहा  जिसमें न्यायाधीश बनते रहे हैं | यद्यपि ये कहना तो बेमानी होगा कि कालेजियम  द्वारा अनुशंसित सभी नाम योग्यता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते किन्तु उनमें से किसी नाम को केंद्र सरकार द्वारा लौटाए जाने के बाद कालेजियम यदि दोबारा भेजता है तब सरकार के पास उसे मंजूर करने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं बचता | लेकिन वह उसे कितने समय तक रोककर रख सकती है इसकी समय सीमा तय न होने से अहं का टकराव जन्म लेता है | मौजूदा विवाद के पीछे भी यही कुछ है | बेहतर हो इस बारे में पारदर्शिता लागू करने पर दोनों पक्ष ध्यान दें क्योंकि  विवाद जिस तरह गहराता जा रहा है वह सरकार और न्यायपालिका दोनों के बीच टकराव के साथ ही न्यायाधीशों की छवि पर भी नकारात्मक असर डालने वाला है | न्यायाधीश जैसे पद पर नियुक्ति में न तो सरकार और न ही न्याय  की आसंदी पर बैठे कुछ महानुभावों का एकाधिकार वाजिब है | कहते हैं न्याय होने के साथ ही  होते हुए दिखना भी चाहिए | उसी तरह न्यायाधीश की  नियुक्ति में  प्रक्रिया की निष्पक्षता और गुणवत्ता दिखनी भी चाहिए | हमारे देश में नेताओं के बारे में कितनी भी आलोचनात्मक टिप्पणियां की जाती हों परन्तु न्यायाधीशों के बारे में संयम और शालीनता का ध्यान रखा जाता रहा है | लेकिन हाल के वर्षों में  न्यायपालिका और न्यायाधीश दोनों  के बारे में तीखी बातें सुनने में मिलने लगी हैं | ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय में विराजमान न्याय के संरक्षकों को उनके बारे में चलने वाली जन चर्चाओं का संज्ञान भी लेना चाहिए क्योंकि अंततः वे भी तो समाज का ही हिस्सा हैं | और उनके लिए भी जनता का विश्वास जीतना नितांत आवश्यक है | न्यायपालिका की स्वतंत्रता निःसंदेह सर्वोपरि है परन्तु  संसदीय प्रजातंत्र जिस  नियंत्रण और संतुलन  के  आधारभूत सिद्धांत पर चलता है , उससे वह  भी अछूती नहीं रह  सकती |

-रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 28 November 2022

चीन भी सोवियत संघ की राह पर बढ़ रहा



साम्यवादी व्यवस्था  समतामूलक समाज की सोच पर आधारित है जिसमें न कोई अमीर  होता है और न गरीब  |  सरकार ही जनता की  भाग्य विधाता होती है | शिक्षा , स्वास्थ्य और आवास सब उसके जिम्मे होता है | जिससे व्यक्ति सरकार का बंधुआ बन जाता है | स्वतंत्र सोच के लिए कोई स्थान नहीं होता |  प्रचार के सभी माध्यम सरकार नियंत्रित होने से सच्ची जानकारी नहीं मिल पाती | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  साम्यवाद में है ही नहीं | इसका ये अर्थ नहीं कि पूंजीवाद श्रेष्ठ व्यवस्था है किन्तु साम्यवाद में  चूंकि व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व और सोच का दमन होता  है इसलिए पूंजीवाद तमाम विसंगतियों के बावजूद आकर्षित करता है | इसका सबसे बड़ा उदाहरण है सोवियत संघ का विघटन | 1917 की साम्यवादी क्रांति के बाद रूस ने अपने पड़ोसी छोटे देशों को एकत्र कर सोवियत संघ का गठन किया | मध्य एशिया और यूरोप की संस्कृति का ये मेल  सात दशक के बाद बिखर गया और  रूस फिर अकेला रह गया | दरअसल साम्यवादी व्यवस्था में सोवियत संघ विश्व शक्ति तो बन बैठा किन्तु वैयक्तिक स्वत्रंत्रता के अभाव में लोग मशीनी मानव सरीखे हो गये | भले ही उसके नाम पहले इंसान को अन्तरिक्ष में भेजने का कीर्तिमान दर्ज है और वह अमेरिका के बराबर सामरिक शक्ति वाला देश बन गया किन्तु मानव अधिकार और व्यक्तिगत संतुष्टि के नजरिये से  उसकी प्रगति संवेदनहीन होने से  जनता के मन को छू नहीं सकी | आखिरकार वही जनता साहस के साथ आगे आई और देखते ही देखते सोवियत संघ अस्तित्वहीन हो गया | साम्यवादी  सत्ता का  वह पहला प्रयोग अनेक देशों के लिए  प्रेरणा का स्रोत बना | चीन , क्यूबा , उत्तर कोरिया , वियतनाम , पोलेंड , चेकोस्लोवाकिया , यूगोस्लाविया , रूमानिया , पूर्वी जर्मनी आदि में उससे प्रभावित होकर एक दलीय सत्ता कायम हो गयी | कहना गलत नहीं होगा कि 1917 की रूसी क्रांति ने जहां  साम्यवादी शासन व्यवस्था  से दुनिया को अवगत कराया वहीं द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अनेक देशों ने उसकी देखा – सीखी साम्यवाद को अपना लिया | दुनिया दो खेमों  में बाँट गई | शीतयुद्ध नामक  आर्थिक और सैन्य प्रतिस्पर्धा चल पड़ी | लेकिन सोवियत संघ को  झटका तब लगा जब चीन में माओ त्से तुंग और यूगोस्लाविया में मार्शल टीटो ने  अलग रास्ता अपनाया | कहने को ये व्यवस्था जनतांत्रिक है लेकिन इस तंत्र में जन का कोई स्थान नहीं है क्योंकि जब एक ही पार्टी है तब चुनाव किसके बीच होता होगा ये समझ से परे है | साम्यवादी  देश की जनता का बाहरी दुनिया से सम्पर्क भी सरकार की इच्छा पर निर्भर रहने से वह कुए का मेंढक बनकर रह गयी | लेकिन  ज्यों – ज्यों उसे अंधेरी कोठरी से झाँकने मिला उसके मन में भी आजादी के उजाले में रहने की ललक जागी | कोशिशें हुईं भी किन्तु कुचल दी गईं | लेकिन स्वतंत्रता मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति है और जैसे ही अवसर मिला उसने सोवियत संघ में  साम्यवादी लौह दीवार को धराशायी कर दिया | बर्लिन की दीवार देखते ही देखते अस्तित्वहीन कर  दी गई | पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देश उस  सोच से बाहर आ गये | 20 सदी ने एक तरफ जहाँ साम्यवादी शासन व्यवस्था का उदय देखा तो दूसरी तरफ उपनिवेशवाद और  सोवियत संघ का टूटना  शताब्दि की सबसे बड़ी घटनाओं में शामिल हो गया |  इसे संयोग ही  कहा जायेगा कि उधर सोवियत संघ के टुकड़े हुए और इधर साम्यवाद का दूसरा   गढ़ चीन  आर्थिक महाशक्ति के तौर पर उभरने लगा |  उसने सोवियत संघ की गलतियों से सीख लेते हुए  आत्मकेंद्रित रहने के बजाय अपने दरवाजे पूंजी के लिए खोल दिए जिसके कारण  वह दुनिया का उत्पादन मुख्यालय बन गया | जो पूंजीवादी देश चीन को दुश्मन मानते थे और चीन भी जिन्हें नफरत की निगाह से देखता था वे सब उसकी प्रगति के आधार बन बैठे | लेकिन एक - दो दशक के उदार रवैये के बाद जबसे चीन में शी जिनपिंग शक्तिशाली हुए , साम्यवादी कठोरता फिर से नजर आने  लगी | उसका चरमोत्कर्ष आया कोविड के आगमन के साथ | भले ही प्रमाणित न हुआ हो लेकिन पूरी दुनिया मानती है कि इसे फ़ैलाने में चीन का ही हाथ था | लेकिन वह चाल उसके अपने गले पड़ गयी जिससे  आज तक वह  उबर नहीं पा रहा | उसकी बनाई वैक्सीन पर चीनी जनता को ही विश्वास नहीं है | सारी दुनिया लॉक डाउन  से बाहर आ गई लेकिन चीन में आज भी  अनेक बड़े शहरों में करोड़ों लोग  या तो घरों में बंद हैं  या दफ्तरों  और कारखानों में रहने मजबूर  | दुनिया भर के  जिन निवेशकों ने वहां  निवेश कर रखा है वे भी अपना धन अन्यत्र ले जा रहे हैं | चीन की  आन्तरिक हालत यद्यपि बाहरी दुनिया से छिपाई जाती है किन्तु  बीते कुछ समय से चीनी जनता का गुस्सा सामने आने लगा है | जिनपिंग ने सत्ता में बने रहने का पुख्ता  इंतजाम भले कर लिया हो किन्तु जनता उनसे त्रस्त हो चुकी है | जीरो कोविड नीति से करोड़ों चीनी बिना गिरफ्तार हुए हिरासत में रहने जैसी पीड़ा भोग रहे हैं | परन्तु अब उनके  सब्र का बांध टूट रहा है | अनेक शहरों में जिनपिंग  विरोधी  प्रदर्शन भविष्य में होने वाली किसी बड़ी घटना की प्रस्तावना कही जा सकती है | हालाँकि आज  ये कहना ज्ल्दबाजी होगी कि चीन जल्द ही सोवियत संघ की तरह टूट जायेगा लेकिन साम्यवाद के विरुद्ध जनता के मन में वितृष्णा जन्म ले चुकी है | इसमें कितने बरस या दशक लगेंगे इसकी भविष्यवाणी फ़िलहाल तो संभव नहीं किन्तु इतना अवश्य माना जा सकता है कि धरती के भीतर धधक रहा ज्वालामुखी फूटने की कगार पर आ रहा है | वैसे भी अब साम्यवादी व्यवस्था बूढ़ी हो चुकी है और जिनपिंग सहित पूरा चीन पश्चिमी रहन - सहन में ढलता जा रहा है | नई पीढ़ी को  दुनिया देखने मिलने के बाद वह बंद दरवाजे वाली व्यस्था में घुटन महसूस करने लगी है | कुल मिलाकर जिस कोरोना को हथियार बनाकर चीन ने दुनिया को अपने कब्जे में करने का  का षडयंत्र रचा वह खुद उसी में उलझकर हांफने लगा है | हो सकता है कुछ लोग इसे बुद्धिविलास कहते हुए अस्वीकृत कर दें किन्तु चीन की ऐतिहसिक दीवार अब उसकी रक्षा करने में असमर्थ है क्योंकि उसके लिये बाहरी से ज्यादा खतरा भीतरी है |


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 26 November 2022

इतिहास के गौरवशाली पक्ष को उजागर करने का सही समय



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ये कहना पूरी तरह सही है कि हमारे इतिहास में केवल गुलामी और पराजय के बारे में बताया जाता है जबकि उसमें हमारी विजय गाथाएँ  भी भरी हुई  हैं | मुगलिया सल्तनत के विरुद्ध युद्ध में अद्वितीय वीरता का प्रदर्शन करने वाले असम के महान  योद्धा लचित बरफुकन की 400 वीं जयंती पर श्री मोदी ने कहा कि आजादी के बाद गलत इतिहास पढ़ाया गया | चूंकि इसकी रचना पराधीनता के दौर में हुई इसलिये हमारे गौरव पुरुषों की उपेक्षा करते हुए तथ्यहीन  और भ्रामक जानकारी दी जाती रही | उन्होंने स्पष्ट किया कि उस गलती को सुधारकर उन गुमनाम वीरों और वीरांगनाओं को याद  किया जा रहा है जिन पर साजिशन विस्मृति की धूल डाल दी गयी थी | इस बारे में ये उक्ति काफ़ी प्रचलित है कि इतिहास विजेता द्वारा लिखा जाता है | भारत में चूंकि सैकड़ों वर्षों तक गैर हिन्दू धर्मावलम्बियों का शासन रहा इसलिए उन्होंने हमारी संस्कृति और गौरवशाली अतीत से हमको दूर करने का षडयंत्र रचा | अकबर को महान मानने वाली मानसिकता उसी साजिश का हिस्सा है | जिसके चलते देश की राजधानी में उस औरंगजेब के नाम का मार्ग तक बनाया गया जिसने सनातन धर्म के लोगों पर अत्याचार की पराकाष्टा कर डाली थी | इसी तरह अंग्रेजों का प्रशस्तिगान करने वाले संस्थान और संबोधनों को भी आज तक ढोया जा रहा है | दुर्भाग्य से इतिहास लेखन के साथ की जाने वाली शरारत स्वाधीनता के बाद भी जारी रही | कांग्रेस में एक से एक बुद्धिजीवी और देशभक्त थे |  लेकिन प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरु चूंकि सोवियत संघ की साम्यवादी क्रांति से प्रभावित थे इसलिए उन्होंने साहित्य , कला , शिक्षा और इतिहास जैसे क्षेत्रों में वामपंथी रुझान वाले व्यक्तियीं को स्थापित किया जिसका दुष्परिणाम वैचारिक विकृति के तौर पर देखने मिला | यही वजह रही कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और स्वामी विवेकानंद जैसी विभूतियों तक के प्रति उपेक्षाभाव बरता गया | बीते कुछ समय से स्वातंत्र्य वीर सावरकर को लेकर सुनियोजित मिथ्या प्रचार अभियान  चलाया जा रहा है | इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि सावरकर जी देश की आजादी के लिए लड़ने के साथ ही हिंदुत्व के प्रखर प्रवक्ता थे | उनके बारे में अनर्गल बातें कहने वाले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दो दिन पहले भारत जोड़ो यात्रा के दौरान म.प्र में टंट्या मामा नामक आदिवासी स्वाधीनता सेनानी को लेकर रास्वसंघ पर आरोप लगा दिया कि वह उन्हें फांसी दिए जाने के बारे में अंग्रेजों के साथ था | उनके इस बयान को समाचार माध्यमों में खूब सुर्खिया भी मिलीं | लेकिन तत्काल ये  स्पष्ट हो गया कि आजादी के उक्त सिपाही को तो रास्वसंघ के जन्म के कई दशक पहले अंग्रेजों द्वारा  सूली पर चढ़ाया गया था |  श्री गांधी कांग्रेस के शीर्ष नेता और लम्बे समय से सांसद हैं | ऐसे में उनसे इस तरह के गैर जिम्मेदाराना बयान की अपेक्षा कोई भी समझदार नहीं करेगा | लेकिन उनकी जानकारी  चूंकि विदेशी और वामपंथी इतिहासकारों से प्रेरित है इसलिए इस तरह की  आधारहीन , असत्य और अप्रामाणिक बातें वे अक्सर कहा करते हैं | यद्यपि इतिहास के बारे में मानसिक विकृति के शिकार लोगों की संख्या अनगिनत है | बीते सात दशक और उसके पहले से ही इतिहास लेखन पर उस तबके का आधिपत्य रहा जिसे भारतीय संस्कृति , हिन्दुत्व , राष्ट्रवाद और तो और भारत के एक प्राचीन देश होने तक पर यकीन नहीं रहा | जिस देश में भगवान राम राष्ट्रीय आस्था के सबसे बड़े प्रतीक हों उसी में उनके अस्तित्व को नकारने की सोच को स्वीकृति और समर्थन मिलना इस बात का परिचायक है कि ऐसे लोगों का इतिहास बोध कितना घटिया है | उस दृष्टि से प्रधानमंत्री ने आजादी की लड़ाई के दौरान देश के कोने – कोने में विदेशी सत्ता के अत्याचारों के विरुद्ध हुए उग्र प्रतिरोध की कहानियों को दबाने की भूल को सुधारकर उन विभूतियों को महिमामंडित करने की जो बात  कही , वह समय की मांग है क्योंकि अकबर को महान बताने वाली सोच ने महाराणा प्रताप के शौर्य और स्वाभिमान को उपेक्षित कर दिया | बाबर और  औरंगजेब के नाम पर दिल्ली में मार्ग का होना ही इतिहास के खलनायकों को गौरवान्वित करना था | ये सब देखते हुए भावी पीढ़ी को इतिहास का  उजला पक्ष  बताने की जरूरत है | लार्ड माउंटबेटन की कुटिल नीति के चलते देश का विभाजन किन कारणों से हुआ इस बारे में सही जानकारी आनी चाहिए | तत्कालीन नेताओं ने एक प्राचीन देश के दो टुकड़े उस धर्म के नाम पर क्यों स्वीकार किये जो आक्रमणकारी और लुटेरा था | सवाल और भी हैं जिन पर जान - बूझकर इसलिए पर्दा डालकर रखा गया जिससे भविष्य का भारत अपनी गौरव गाथाओं से अपरिचित रहते हुए दासता की अपमानजनक कहानियों  के साथ आत्मग्लानि में डूबा रहे | इतिहास में सुधार की जो प्रक्रिया कुछ समय से चल रही है उसकी वजह से उस वर्ग के पेट में मरोड़ हो रहा है जो देश को गुलाम बनाने वाले आक्रान्ताओं को राष्ट्रनायकों से ऊपर रखने की मानसिकता से प्रभावित और पोषित है | याद रहे इतिहास की नींव पर भविष्य का ढांचा खड़ा होता है | ऐसे में यदि इतिहास ही आधारहीन तथ्यों पर आधारित होगा तब आने वाली पीढ़ी अपने स्वर्णिम अतीत और उससे जुडी गौरव गाथाओं से किस प्रकार परिचित हो सकेगी , ये बड़ा सवाल है | सदियों की गुलामी के बाद आजाद हुए देश की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में प्रामाणिक इतिहास लेखन होना चाहिए था | लेकिन उसे पूरी तरह उपेक्षित किया गया क्योंकि आजादी के बाद  उसे चलाने वालों की मानसिकता पर विदेशी छाप बरकरार थी | उस गलती को सुधारना निहायत जरूरी है जिससे न  सिर्फ देशवासी अपितु दुनिया भर में फैले भारतवंशी लोगों के मन में ये बात स्थापित की जा सके कि भारत का इतिहास केवल मुगलों और अंग्रेजों की दासता तक ही सीमित नहीं अपितु उससे बहुत पहले का है जिसमें ज्ञान , विज्ञान , कला - संस्कृति , वीरता , दर्शन , धर्म , आध्यात्म , उद्योग - व्यापार  आदि की अनगिनत ऐसी गाथाएँ भरी पड़ीं हैं जिनकी वजह से ये देश विश्व गुरु और सोने की चिड़िया जैसे विशेषणों से जाना जाता था | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 25 November 2022

राहुल की मेहनत पर पानी फेरने आमादा हैं गहलोत



भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को बहुत आशाएं हैं | हालाँकि राजनीतिक प्रेक्षक मान रहे हैं कि  इससे राहुल गांधी की छवि में  सुधार  भले हो जाये लेकिन बतौर पार्टी कांग्रेस को कुछ हासिल होने वाला नहीं  क्योंकि संगठन को मजबूत करने की कोशिश इस यात्रा की कार्यसूची में नजर नहीं आ रही  | म.प्र में प्रवेश के बाद अब उत्तर भारत में यात्रा का संज्ञान लिया जाने लगा है | दक्षिण के जिन राज्यों के बाद महाराष्ट्र में राहुल ने पद यात्रा की वहां उन्हें देखने तो काफी जनता आई लेकिन उनमें कांग्रेस अपने बलबूते क्षेत्रीय पार्टियों या भाजपा का मुकाबला करने में असमर्थ है | लेकिन म.प्र . और राजस्थान वे  राज्य हैं जहाँ उसका भाजपा से सीधा संघर्ष है |  गुजरात में भी चुनाव चल रहे हैं लेकिन वह श्री गांधी के मार्ग में नहीं है | हालाँकि वे यात्रा के बीच में से वहां जाकर एक – दो सभाएं कर आये हैं | म.प्र  के बाद वे राजस्थान में प्रविष्ट होंगे | इन दोनों राज्यों में एक साल बाद विधानसभा चुनाव होने हैं | 2018 में उसने यहाँ की सत्ता भाजपा से छीनी थी | हालाँकि म.प्र में तो ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के कारण वह विपक्ष में आ गयी किन्तु राजस्थान का दुर्ग तमाम झटकों के बावजूद अब तक बचा हुआ है | वहां के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को गांधी परिवार का अत्यंत विश्वस्त माना जाता था और इसीलिये उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का निर्णय हुआ लेकिन वे सत्ता छोड़ने तैयार नहीं थे और उसका  कारण ये था कि पार्टी हाईकमान उनकी जगह सचिन पायलट की ताजपोशी चाह रहा था जो उन्हें सपने में भी मंजूर नहीं है  | उसके बाद जो राजनीतिक नाटक हुआ वह सर्वविदित है | श्री गहलोत ने उस दौरान गांधी परिवार को जिस तरह ठेंगा दिखाया और हाईकमान द्वारा भेजे पर्यवेक्षकों को उनके समर्थकों ने  अपमानित किया वह मामूली बात नहीं थी | हालाँकि बाद में श्री गहलोत ने सोनिया गांधी से मिलकर माफी मांगते हुए ये तो कहा कि उनका भविष्य हाईकमान ही तय करेगा किन्तु उनके हाव - भाव से साफ़ होता  गया कि वे सत्ता किसी भी हालत में नहीं छोड़ने वाले | सबसे बड़ी बात ये हुई कि  जयपुर में छीछालेदर करवाने के बाद दिल्ली लौटकर जिन कांग्रेस विधायकों के विरुद्ध कार्रवाई की अनुशंसा पर्यवेक्षक द्वय अजय माकन और मल्लिकार्जुन खरगे ने हाईकमान से की ,  उनका बाला भी बांका नहीं हुआ | हद तो तब हो गयी जब उनमें से एक  को  भारत जोड़ो यात्रा का प्रभारी बना दिया | इससे  नाराज होकर श्री  माकन ने राष्ट्रीय महासचिव पद से त्यागपत्र दे दिया परन्तु   हाईकमान  बागी तेवर दिखाने वाले विधायकों को दण्डित करने का साहस नहीं बटोर पा रहा जबकि  पर्यवेक्षकों में  एक तो खुद खरगे जी ही थे | ये भी महत्वपूर्ण है कि गांधी परिवार की खुली  अवहेलना करने के बाद भी श्री गहलोत गुजरात में कांग्रेस के चुनाव संचालक बने हुए हैं | पिछले चुनाव में वहां कांग्रेस ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया था किन्तु इस बार वह आधे – अधूरे मन से मैदान में है | ऊपर से  आम आदमी पार्टी उसकी संभावनाओं को कमजोर कर रही है |  इसके बाद भी श्री गांधी का गुजरात चुनाव से दूर रहने का निर्णय समझ से परे है | हिमाचल प्रदेश के चुनाव में भी वे  गैर हाजिर रहे | इस यात्रा से पार्टी में एकता का संचार कितना हो रहा है उसका ताजा नमूना श्री गहलोत द्वारा अपने प्रतिद्वंदी पर किया गया नया हमला है | एक साक्षात्कार में उन्होंने सचिन को गद्दार बताते हुए कहा कि ऐसे व्यक्ति को पार्टी मुख्यमंत्री नहीं बना सकती जिसने प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए अपनी ही सरकार को गिराने की साजिश रची हो | उन्होंने ये आरोप भी दोहराया कि श्री पायलट गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा नेता धर्मेन्द्र प्रधान के सम्पर्क में थे और 10 करोड़ रु. भी लिए | उन्हें मुख्यमंत्री बनाये जाने की सम्भावना को काल्पनिक बताते हुए श्री गहलोत  ने कहा कि जिसके पास 10 विधायक हों उसकी कोई उम्मीद नहीं है | हालाँकि दोनों नेताओं के बीच बयानबाजी का सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है लेकिन दो दिन पहले श्री पायलट म.प्र में श्री गांधी की पदयात्रा में शामिल हुए जो जल्द   राजस्थान में प्रवेश करेगी  | ये देखते हुए श्री  गहलोत का ताजा बयान  श्री गांधी को  साफ़ संकेत है कि राजस्थान में वे ही कांग्रेस के सर्वेसर्वा हैं और उनके शत्रु को साथ रखना उन्हें बर्दाश्त नहीं होगा | राजनीति में समय चयन का बड़ा महत्व है | उस दृष्टि से श्री गहलोत ने सचिन पर धारदार हमले का जो समय चुना वह उनके राजनीतिक चातुर्य के साथ ही दुस्साहस का प्रमाण है | कांग्रेस में  जाहिर तौर पर उनकी काफी अहमियत है लेकिन श्री गांधी की यात्रा के राजस्थान में आने के पहले उनका बयान पार्टी को कमजोर करने के साथ ही गांधी परिवार के लिए भी चुनौती है | इसीलिए राजनीतिक विश्लेषकों का ये सोचना काफी हद तक सही है कि श्री गांधी का यह महत्वाकांक्षी आयोजन उनके आपने आभामंडल की चमक बढ़ने तक सिमटकर रह जायेगा किन्तु  कांग्रेस पार्टी की दशा यथावत रहेगी | ये देखते हुए श्री गहलोत का साक्षात्कार पार्टी के लिए बड़े नुकसान  का कारण बन जाये तो आश्चर्य नहीं होगा | सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि न तो श्री गांधी और न ही सोनिया जी इस बारे में कुछ कर रहे हैं | रही बात पार्टी अध्यक्ष श्री खरगे की तो वे जयपुर में उनका अपमान करने वाले विधायकों के कान नहीं खींच सके तब उनसे किसी बड़े कदम की अपेक्षा करना व्यर्थ है | ऐसा लगता है पार्टी को मजबूत बनाने के लिए हजारों  कि.मी की यात्रा पर निकले श्री गांधी की  मेहनत पर उनके दल के ही  कतिपय नेता  पानी  फेरने में जुटे  हैं | तभी तो वे जहां भाजपा पर हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे वहीं दूसरी ओर श्री गहलोत जैसे दिग्गज नेता अपने ही घर को आग लगाने की मूर्खता करने पर आमादा हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 24 November 2022

शिक्षित जनप्रतिनिधि : जम्मू नगर निगम की अच्छी पहल



लोकतंत्र को  प्रभावी बनाने के लिए समय – समय पर कदम उठाये जाते रहे हैं | चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को नामांकन के साथ ही चल – अचल संपत्ति के विवरण के साथ उस पर चल रहे अपराधिक प्रकरणों की जानकारी शपथ पत्र के रूप में देनी होती है | इसके कारण आम जनता को उसकी माली स्थिति के अलावा अपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी भी मिल जाती है | सर्वोच्च न्यायालय ने दो साल से अधिक की सजा होते ही किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त करने का जो नियम बनाया उसके कारण ही लालू प्रसाद यादव जैसे लोग चुनाव लड़ने से वंचित हुए | लेकिन जनप्रतिनिधियों की शैक्षणिक योग्यता के बारे में कोई मापदंड नहीं है | वयस्क मताधिकार के अंतर्गत 18 साल की आयु प्राप्त करते ही व्यक्ति मतदाता बनने की पात्रता हासिल कर लेता है | चुनाव लड़ने के लिए भी न्यूनतम आयु के साथ ही  कुछ शर्तें हैं | लेकिन आज तक प्रत्याशी की शिक्षा को लेकर कोई नियम नहीं बना जिसके कारण अंगूठा छाप व्यक्ति तक चुनाव जीतकर आ जाते हैं | जबसे पंचायत और स्थानीय निकायो में महिलाओं के लिये आरक्षण का प्रावधान हुआ है तबसे अनेक सरपंच , जिला पंचायत अध्यक्ष और महापौर जैसे पदों पर ऐसी महिलाएं चुनकर आने लगी हैं जिन्हें हस्ताक्षर करना तक नहीं आता | सरकार में मंत्री बन जाने वाले अनेक नेता  अपनी शपथ तक नहीं पढ़ पाते | इस सबकी वजह से जनप्रतिनिधियों की शिक्षा को लेकर सवाल उठा करते है लेकिन किसी भी राजनीतिक दल के अलावा , न्यायपालिका अथवा चुनाव आयोग ने इस बारे में कोई पहल अब तक नहीं की | लेकिन गत दिवस खबर आई कि जम्मू नगर निगम ने प्रस्ताव पारित किया  है कि पार्षदों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता स्नातक कर दी जावे | तदाशय का प्रस्ताव निगम के सदन  ने पारित कर शासन के पास भेजते हुए अनुरोध किया है कि उसे उचित माध्यम से चुनाव आयोग की स्वीकृति हेतु  प्रेषित किया जावे | यद्यपि ये एक छोटी सी कोशिश है लेकिन इस बात का स्वागत होना चाहिए कि जिस विषय पर विधानसभा और संसद में चर्चा होनी चाहिए थी उसका जम्मू के स्थानीय निकाय ने संज्ञान लिया | हालाँकि इस सलाह  को आसानी से राजनीतिक दल शायद ही पचा पायें | यहाँ तक कि भाजपा खुद अपने  महापौर द्वारा लाये गये उक्त प्रस्ताव को कितनी  अहमियत देगी ये कहना भी मुश्किल है | बावजूद इसके  इस तरह के मुद्दों पर राष्ट्रीय विमर्श आवश्यक है | लोकतंत्र के तीन  स्तम्भ है विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं |  इन तीनों में विधायिका को छोड़कर शेष दोनों में न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का प्रावधान है | मसलन शासकीय  नौकरी करने वाले भृत्य की शैक्षणिक योग्यता भी उसके चयन के लिए जरूरी होती है |  जैसे – जैसे पद ऊंचा होता है उसका दायरा बढता जाता है | सेना , प्रशासन , न्यायपालिका सभी में छोटे से छोटे पद के लिए भी शिक्षा का एक स्तर निर्धारित है | लेकिन अकेली विधायिका ही है जिसके लिए चुनाव के जरिये जो  जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं उनके लिए किसी भी प्रकार की शैक्षणिक योग्यता की जरूरत नहीं है | इसका परिणाम ये हुआ कि जिन सांसदों और विधायकों पर  कानून और  नीतियाँ बनाने का दायित्व है उनकी बहुत बड़ी संख्या इनके बारे में कुछ जानती ही नहीं | सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि अनेक ऐसे मंत्री भी बना दिए जाते हैं जिनकी शैक्षणिक योग्यता शून्य है लेकिन जाति और क्षेत्रवाद के नाम पर उन्हें सरकार में शामिल किया जाता है | ये  मंत्री प्रशासनिक अधिकारी से किस तरह पेश आते होंगे और विचार्रार्थ आने वाले विषयों पर निर्णय लेने में कितने सक्षम साबित होते हैं ये चिन्तन का विषय है | उस दृष्टि से जम्मू नगर निगम द्वारा पारित प्रस्ताव एक अच्छी शुरुवात है | यद्यपि सरकारी तंत्र के जरिये  इसके चुनाव आयोग तक पहुँचने और उसके बाद उस पर किसी निर्णय के रास्ते में तरह – तरह के अवरोध आयेंगे और  राजनीतिक नेताओं का एक वर्ग इसके विरोध में वैसे ही आसमान सिर पर उठा लेगा जैसे महिला आरक्षण के मामले में देखने मिला | लेकिन अब जब बात निकल ही पड़ी है तो उसे अंजाम तक ले जाना भी जरूरी है | जिन विकसित देशों में संसदीय लोकतंत्र है वहां हर व्यक्ति न्यूनतम स्तर तक शिक्षित्त होता है | जबकि अपने देश में इस तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया | संविधान का चेहरा बने डा. भीमराव आम्बेडकर यदि उच्च शिक्षित न होते तब शायद वे अपने समुदाय की स्थिति में  क्रांतिकारी परिवर्तन करवाने में कामयाब न हो पाते | शासन तंत्र पर नौकरशाही के हावी होने का सबसे बड़ा कारण अधिकतर मंत्रियों की शैक्षणिक और पेशेवर योग्यता का अभाव ही है | यद्यपि कुछ अल्प शिक्षित नेता अच्छे प्रशासक साबित हुए है  किन्तु उन्हें अपवाद मानकर ये तय करने का समय आ गया है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के शिक्षित होने का कोई मापदंड तय हो | लोकतंत्र मूलतः लोक कल्याणकारी व्यवस्था है जिसमें  शिक्षा शासन की मूलभूत जिम्मेदारी है | 21 वीं सदी के भारत में अशिक्षा किसी कलंक से कम नहीं है | और जब जनता के भाग्य विधाता अशिक्षित होते हैं तब वही सब कुछ होता है जो हम आये दिन देखते हैं | ये देखते हुए जम्मू नगर निगम के प्रस्ताव को एक पहल मानकर इस विचार को आगे बढ़ाया जाना देशहित में होगा | उल्लेखनीय है किसी भी बड़े सफर की शुरुआत एक छोटे से कदम से ही होती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी  


Wednesday 23 November 2022

जेल जाते ही सरकारी कर्मचारी निलम्बित हो जाता है तो मंत्री क्यों नहीं



दिल्ली सरकार के एक मंत्री सत्येन्द्र जैन काफी समय से जेल में हैं | 24 घंटे से ज्यादा हिरासत में रहने वाले सरकारी कर्मचारी को निलंबित कर दिया जाता है | पहले किसी अपराधिक प्रकरण के दर्ज होते ही  मंत्री या तो त्यागपत्र दे देता या बर्खास्त कर दिया जाता था | म.प्र. की पूर्व  मुख्यमंत्री उमाश्री भारती ने  कर्नाटक के हुबली शहर में निषेधाज्ञा तोड़ने के पुराने प्रकरण में  गिरफतारी वारंट आने के बाद त्यागपत्र दे दिया था | ऐसे और भी दृष्टांत हैं किन्तु वे  गुजरे ज़माने की बात बनते जा रहे हैं | महाराष्ट्र में उद्धव सरकार के दो वरिष्ट मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार होकर जेल चले गए लेकिन उनको पद से हटाया नहीं गया | दिल्ली सरकार के उक्त  मंत्री को भी हटाने की जरूरत  मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को महसूस नहीं हुई | कुछ दिन पहले एक तस्वीर आई जिसमें श्री जैन जेल में मसाज करवा रहे हैं | फिर क्या था सियासत शुरू हो गई | सफाई दी गई कि मंत्री जी की मसाज नहीं अपितु फिजियो थेरेपी हो रही थी | तब लगा कि  शारीरिक कष्ट के कारण चिकित्सक की सलाह पर वैसा किया जा रहा था | जेल में  रहने वालों की चिकित्सा भी जेल प्रशासन की जिम्मेदारी होती है | लेकिन जल्द ही स्पष्ट  हो गया  कि मंत्री जी मसाज का ही सुख ले रहे थे और  बलात्कार का आरोपी एक कैदी उनकी सेवा में लगा था | अब एक नया वीडियो प्रकाश में आया है जिसमें श्री जैन  होटल से आया भोजन ग्रहण कर रहे हैं जो उनको सलीके से परोसा गया है | बताते हैं जेल का पौष्टिक (?) भोजन करने से उनका वजन बढ़ गया है | दिल्ली में चूंकि इन दिनों स्थानीय चुनाव चल रहे हैं इसलिए भाजपा और कांग्रेस दोनों मंत्री  द्वारा जेल में ऐशो – आराम की ज़िन्दगी व्यतीत करने को मुद्दा बना रहे हैं अन्यथा इस तरह के किस्से आम हैं | जेल जाने का अंदेशा होते ही किसी भी वीआईपी का रक्तचाप और हृदयगति तेज हो जाती है | लालू प्रसाद यादव ने तो लम्बी सजा अस्पताल में ही काट डाली और वह भी शानदार इंतजाम के साथ | मरीज बनकर भी वे राजनीतिक समीकरण बिठाते रहे | पहले जेल में सुख - सुविधाओं के उपभोग के बारे में मफिया सरगनाओं की चर्चा होती थी किन्त्तु अब राजनीतिक नेता भी उसी श्रेणी में आते जा रहे हैं | आम आदमी पार्टी जिस आन्दोलन की कोख से उत्पन्न हुई वह व्यवस्था के शुद्धिकरण के लिए हुआ था | लेकिन धीरे – धीरे अन्य दलों की तरह वह भी सत्ता के मकड़जाल में फंसती जा रही है | उसके अनेक नेता भ्रष्टाचार में लिप्त हैं | लेकिन बजाय  अलग करने के उनका बचाव किया जा रहा है | जेल में श्री जैन का मसाज करवाना या होटल का भोजन करना नई बात नहीं है | अपने देश में जेल के भीतर जो कुछ होता है वह किसी से छिपा नहीं है | राजनेता , धनकुबेर और माफिया सरगना वहां  रहते हुए भी  बाहरी दुनिया के तमाम सुख भोगते हैं | पैसा और प्रभाव हो तो जेल की सलाखों के भीतर भी ऐशो - आराम के साधन आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं | लेकिन इससे हटकर प्रश्न ये है कि जेल जाते ही सरकारी मुलाजिम जब निलम्बित कर दिया जाता है तब लोकसेवक की श्रेणी वाले मंत्री को पद पर बनाये रखने का क्या औचित्य है ? केवल इसलिए कि राजनीतिक कारणों से फंसाया गया , मंत्री जी जेल में रहते हुए भी  सरकार का हिस्सा बने रहें ये लोकतंत्र का मजाक भी है  और अपमान भी | जेल प्रशासन सरकार के मंत्री के साथ आम कैदी जैसा बर्ताव करे ये सोचना तो वास्तविकता से आँखें चुराने जैसा होगा | दरअसल  ये तो मुख्यमंत्री के लिए सोचने वाली बात है कि संविधान की रक्षा की शपथ लिया हुआ व्यक्ति कैद  में होने के बाद भी मंत्री पद पर कैसे बना हुआ है ? राजनीति में नैतिकता के पालन के लिए स्व. लालबहादुर शास्त्री का उदाहरण दिया जाता  है जिन्होंने रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था | लेकिन कालांतर में इस तरह के आदर्श मूर्खता माने जाने लगे और  कानून तोड़ने की क्षमता ही व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का मापदंड बन गई | स्व. इंदिरा  गांधी का चुनाव अलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किये जाने के बाद नियमानुसार उन्हें तत्काल पद छोड़ना चाहिए था किन्तु उन्होंने आपातकाल थोपकर लोकतंत्र को ही निलंबित करते हुए विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंसकर सेंसरशिप लगा दी | उसके बाद से राजनीति में बची – खुची नैतिकता भी जाती रही | आज किसी भी दल से ये अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह आरोप लगते ही  अपने नेता को पद छोड़ने कहे | भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी ने हवाला कांड में नाम आते ही संसद से त्यागपत्र देते हुए प्रण किया था कि निर्दोष साबित होने तक  चुनाव नहीं लड़ेंगे और वे उस पर अडिग रहे | लेकिन आज भाजपा में उस तरह की नैतिकता का उदाहरण देने वाले नेता ढूँढने पर भी नहीं मिलते | भले ही  आरोप लगने मात्र से किसी को अपराधी करार देना उचित नहीं है लेकिन संवैधानिक पद पर बैठे राज्य सरकार के मंत्री का महीनों से जेल में रहने के बाद भी सरकार में बना रहना  नैतिकता और संविधान दोनों का मखौल  है | आम आदमी पार्टी राजनीति में ताजी हवा का झोका बनकर आई थी | उसके मुखिया अरविन्द केजरीवाल ये कहते नहीं थकते थे कि उनका मकसद केवल  सत्ता नहीं वरन व्यवस्था बदलना है | लेकिन उनके एक मंत्री के जेल में मसाज करवाते चित्र सामने आने के बाद ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि श्री जैन को मंत्री बनाये  रखकर उन्होंने हमाम में सभी के निर्वस्त्र होने की कहावत को ही चरितार्थ किया है |


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 22 November 2022

ममता का बदलता रुख नई खिचड़ी पकने का संकेत



 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध लगातार बोलने वाली प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी काफी समय से खामोश हैं | जुलाई में अपने खासमखास मंत्री पार्थ चटर्जी पर छापे के बाद उनकी  आक्रामकता लगातार ढलान पर आती गई  | राज्य के पूर्व राज्यपाल जगदीप धनखड़ के साथ तो उनके सम्बन्ध बेहद तनावपूर्ण रहे | लेकिन जब भाजपा ने उनको उपराष्ट्रपति पद हेतु प्रत्याशी बनाया तब आशंका के विपरीत तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव में हिस्सा ही नहीं लिया जिसे समर्थन ही माना गया | हालाँकि आज तक ये स्पष्ट नहीं हुआ कि उस कदम में राजनीतिक  निहितार्थ क्या था और श्री मोदी के विरुद्ध उनकी तीखी बयानबाजी में कमी किस वजह से हुई ? बंगाल की राजनीति पर नजर रखने वाले मानते हैं कि प्रधानमंत्री को सीधे ललकारने वाली सुश्री बैनर्जी अनेक मंत्रियों , विधायकों और तृणमूल नेताओं के अलावा अपने भाई - भाभी आदि पर ईडी और आयकर के कसते शिकंजे से घबराई हुई हैं | यही कारण है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष का संयुक्त मोर्चा बनाने की उनकी कोशिश ठंडी पड़ गई | राहुल गांधी को  विपक्ष का चेहरा बनाये जाने का भी वे अनेक बार विरोध कर चुकी हैं | प. बंगाल विधानसभा के पिछले चुनाव में जीत के बाद उनका आत्मविश्वास आसमान छूने लगा था | जिसके बाद वे राष्ट्रीय राजनीति में उतरने की मंशा से विपक्ष के अनेक दिग्गजों से मिलीं | लेकिन गोवा विधानसभा में उम्मीदवार उतारकर उन्होंने कांग्रेस  और आम आदमी पार्टी दोनों का जो नुकसान किया उसकी वजह से विपक्ष उनसे छड़कने लगा | हालाँकि ये बात भी सही है कि पिछले चुनाव में श्री मोदी और अमित शाह के जबरदस्त प्रचार के बावजूद ममता की जीत के बाद ये अवधारणा देश भर में सुदृढ़ हुई कि वे ही आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला करने में सक्षम  हैं |  विधानसभा चुनाव में हालाँकि भाजपा ने 3 से 73 तक की  छलांग लगाई किन्तु  नंदीग्राम में पुराने सहयोगी शुबेंदु अधिकारी से हारने  के बावजूद सत्ता में लौटते ही ममता ने जिस तरह भाजपा में सेंध लगाकर उसके विधायक - सांसद तोड़े  और वामपंथी शैली में   कार्यकर्ताओं को भयाक्रांत किया उसके कारण चुनाव के पहले भाजपा में आये तमाम नेता उलटे पांव लौटने लगे | उपचुनावों  में भी तृणमूल ने बड़ी जीत हासिल कर  दिखा दिया कि भाजपा का उभार , उधार के नेताओं की वजह से हुआ था जिनके वापिस जाते ही उसकी वृद्धि पर विराम लग गया | मोदी मंत्रीमंडल से हटाये जाते ही बाबुल सुप्रियो  तृणमूल  में शामिल हो गए और उनके द्वारा रिक्त आसनसोल लोकसभा सीट से भाजपा के पुराने केन्द्रीय मंत्री शत्रुघ्न सिन्हा ने तृणमूल  उम्मीदवार के तौर पर बड़ी जीत हासिल कर ली  | बीते डेढ़ साल से ममता और तृणमूल का इकतरफा दबदबा प. बंगाल में नजर आने से  भाजपा  कार्यकर्ता और नेता पूरी तरह दबाव में थे | इस सबसे उत्साहित सुश्री  बैनर्जी प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखने लगीं | लेकिन जैसे – जैसे उनकी पार्टी के अनेक नेता भ्रष्टाचार में उलझते गए वैसे – वैसे उनकी अकड़ में कम हुई  | पार्थ चटर्जी और उनकी महिला मित्र के यहाँ  छापे में मिली अकूत नगदी के साथ ही जो जानकारियाँ सामने आईं उनके कारण ममता के तेवर ढीले पड़ने लगे | श्री चटर्जी उनके सबसे खास मंत्री थे इसलिए उनकी गर्दन में पड़े फंदे की कसावट मुख्यमंत्री को भी महसूस हुई और वहीं से बंगाल की शेरनी कहलाने वाली नेत्री  का बडबोलापन कम होने लगा | हालांकि बीच – बीच में वे केंद्र सरकार के खिलाफ बयानबाजी करते हुए ईडी , आयकर और सीबीआई के दुरूपयोग का आरोप लगाती रहीं परन्तु  उनकी जुबान से निकलने वाली आग में ठंडक आने लगी | ये भी सुनने में आया है कि उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार बनने के पहले श्री धनखड़ के साथ उनकी अन्तरंग मुलाकात दार्जिलिंग में हुई जिसके सूत्रधार रहे असम के मुख्यमंत्री  हिमंता बिस्व सरमा | उसके बाद मुख्यमंत्री और राजभवन के बीच की खींचतान काफी कम हो गई | जाते – जाते महामहिम भी अनेक मामलों में ममता को राहत दे गये जिसका बदला तृणमूल ने उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष का साथ न देकर दिया | ताजा समाचार ये है कि ममता दिसम्बर के पहले सप्ताह में प्रधानमंत्री  से मिलने वाली हैं | यद्यपि उस दौरान सभी राज्यों के मुख्यमंत्री आगामी वर्ष होने वाले जी 20 देशों के सम्मलेन की तैयारियों के सिलसिले में केंद्र सरकार के आमन्त्रण पर दिल्ली आयेंगे | लेकिन सुश्री बैनर्जी ने श्री मोदी के साथ निजी मुलाक़ात हेतु  पत्र भेजा है | सामान्यतः इस तरह की मुलाक़ात में मुख्यमंत्री अपने राज्य की लम्बित विकास योजनाओं के लिए आर्थिक संसाधन मांगते हैं | प्राकृतिक आपदा के बाद  राहत कार्यों के लिए भी ऐसी बैठक होती रही हैं | लेकिन प्रधानमंत्री के साथ पिछली मुलाकात में ममता जब बिना कोई कागज लिए खाली हाथ गईं तब उनकी तस्वीर पर तरह – तरह के तंज कसे गए |  संभवतः उस मुलाक़ात में श्री मोदी और उनके बीच चली आ रही सियासी जंग को शिथिल करने पर सहमति बन गई थी जो उसके बाद प्रमाणित भी हुई | उपराष्ट्रपति के चुनाव से दूर रहने के कारण ममता और कांग्रेस सहित बाकी विपक्षी दलों के बीच अविश्वास और बढ़ा है | वैसे सुश्री बैनर्जी उ.प्र चुनाव में वाराणसी के बंगलाभाषी मतदाताओं को सपा के पक्ष में मोड़ने गईं थीं लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ | उल्लेखनीय है विधानसभा चुनाव के बाद कोलकाता आये श्री मोदी के स्वागत करने तक से ममता ने परहेज किया और तो और उनके साथ हुई एक बैठक से  वे जरूरी काम का बहाना बनाकर चली गईं थी. | लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में अपने सहयोगियों और परिजनों के चौतरफा घिर जाने के बाद से उनका व्यवहार प्रधानमंत्री के प्रति जिस तरह से ममतामयी हो रहा है उसे  नई राजनीतिक खिचड़ी के पकने का संकेत कहा जाए तो गलत न होगा | वैसे भी ममता और अनिश्चितता एक दूसरे के समानार्थी हैं | रही बात भाजपा की तो मोदी और शाह की जोड़ी कब चौंका  दे कहना कठिन है | गुजरात में हार्दिक पटेल इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 21 November 2022

टूटते परिवार और बिखरते संस्कार समस्या का असली कारण



दूसरी जाति या धर्म में विवाह आज के दौर में अटपटा नहीं लगता | शिक्षा के प्रसार के कारण लड़कियां भी पढ़ाई , नौकरी और व्यवसाय के सिलसिले में विदेश तक जाने लगी हैं | यही नहीं तो वे अपना जीवनसाथी चुनने में संकोच नहीं करतीं | जिसे सामान्यतः उनके परिजन भी स्वीकार कर लेते हैं | वैसे भी माता – पिता अपनी संतान के सुखी भविष्य पर  ही  ध्यान देते हैं | यद्यपि कुछ अपवाद भी  हैं | विशेष रूप से हरियाणा जैसे राज्य में जहाँ जातिगत ऊंच - नीच के आधार पर प्रेम विवाह का विरोध ऑनर किलिंग जैसी घटनाओं के रूप में भी सामने आया है | दूसरी तरफ अति आधुनिक सोच रखने वाले वर्ग में लिव इन का भी प्रचलन बढ़ा है | प्रौढ़ावस्था के अनेक विधुर और विधवाएं वृद्धावस्था के एकाकीपन से बचने के लिए विवाह या लिव इन का सहारा लेते हैं | खास तौर पर जो या तो पूरी तरह अकेले रह जाते हैं या फिर जिनके बेटे – बेटी दूर – दूर बसे हैं | अनेक बुजुर्ग ऐसे भी हैं जो अपनी संतानों के बुलावे पर विदेश जाते तो हैं लेकिन वहां  अकेलापन महसूस होने से कुछ माह बाद ही लौट आते हैं | भारत की परिवार व्यवस्था ने सदियों तक व्यक्ति को अकेलेपन से बचाए रखा किन्तु आधुनिकता और आर्थिक विषमता से उत्पन्न श्रेष्ठता अथवा हीनता के भाव ने पहले कुटुंब तोड़े और फिर संयुक्त परिवार नामक व्यवस्था  भी परिस्थितियोंवश छिन्न – भिन्न होती गयी | इसके तात्कालिक लाभ तो नजर आते हैं किन्तु धीरे – धीरे  अप्रत्यक्ष नुकसान भी महसूस किये जाने लगे हैं  | जिन परिवारों में पति - पत्नी दोनों  घर से बाहर काम करते हैं उनमें बच्चों का लालन – पालन बड़ी समस्या बनता जा रहा है | हालाँकि अब संयुक्त परिवार का पुराना दौर लौटना लगभग नामुमकिन है | दुनिया जब एक वैश्विक गाँव बनकर रह गई हो और  संचार साधनों ने भौगोलिक दूरी को आभासी निकटता में बदल दिया हो तब नौकरी या व्यवसाय के लिए अपने शहर तक सीमित रह पाना संभव नहीं है | अब तो अमेरिका , ऑस्ट्रेलिया , ब्रिटेन , कैनेडा में लाखों भारतवशियों का स्थायी निवास हो गया है | किशोर तक विदेश जाने के सपने देखने लगे हैं | निश्चित रूप से देश के विकास में इस सबका बड़ा योगदान है किन्तु इसकी वजह से अनेक सामाजिक समस्याएँ भी जन्म ले रही हैं | बीते कुछ समय से एक युवती के 35 टुकड़े करने का प्रकरण चर्चा में बना हुआ है | हिन्दू लडकी का अपने परिजनों की अस्वीकृति के बाद भी किसी अन्य धर्म के युवक के साथ रहना और बाद में उसकी नृशंस हत्या  निश्चित तौर पर विक्षिप्त मानसिकता का ही परिणाम  है | जो जानकारी आ रही है वह दिल दहलाने वाली है | प्रेम संबंधों में खटपट अस्वाभाविक नहीं होती लेकिन उसका ऐसा अंजाम अकल्पनीय है |  लगातार ऐसी घटनाएँ हो रही हैं जिनमें प्रेमी – प्रेमिका ही नहीं अपितु अवैध संबंधों के चलते अपने निकटवर्ती रिश्ते में भी हत्या की जाने लगी है | सामान्य तौर पर इसे कानून से जोड़कर देखा जाता है लेकिन दरअसल ये सामाजिक समस्या है और इसीलिये इस पर सामाजिक स्तर पर चिंतन – मनन  होना  चाहिए | संयुक्त परिवार में दादा – दादी जैसी अनुभवी आँखें बच्चों पर निगाह रखा करती थीं | समाज की सोच और समयानुकूल संस्कार  और समझाइश भी उनके जरिये अगली पीढ़ी को मिलती थी | लेकिन एकाकी परिवारों में  पति – पत्नी की व्यस्तता की वजह से बच्चों के साथ संवाद निरंतर कम हो रहे हैं  | टीवी और मोबाइल के अतिशय उपयोग की वजह से साथ उठने – बैठने और खाने – पीने का सिलसिला कम होना सर्वविदित है | और इसी  कारण समस्याएं जन्म ले रही हैं | हाल ही में घटी अनेक वारदातें परिवार द्वारा दिए जाने वाले  संस्कारों की कमी का परिणाम ही हैं | बेटे - बेटियों को अपना भविष्य चुनने की छूट देना बुरा नहीं है | जाति और धर्म की सीमाएं लांघकर विवाह करने की  बात को भी बुरा नहीं माना जा सकता | लेकिन अपनी संतानों को ये समझाइश देना माता – पिता का प्राथमिक दायित्व है कि वे अपनी निर्णय  प्रक्रिया में उन्हें न सिर्फ शामिल करें अपितु उनकी सलाह को गंभीरता से लें | अपने अनुभव के आधार पर अभिभावक आम तौर पर बच्चों को जो सलाह देते हैं वह उनके हित में ही होती है | यदि माता – पिता की शिक्षा आज के युगानुकूल न हो और वे अपनी संतान द्वारा किये जा रहे फैसलों का गुण दोष के आधार पर विश्लेषण करने में असमर्थ हों तब भी बच्चों को चाहिए वे उन्हें प्रामाणिकता के साथ आश्वस्त करें | ऐसे मामलों में बच्चों की स्वेच्छाचरिता अक्सर गलत परिणाम का कारण बनती है | श्रद्धा हत्याकांड के बाद लव जिहाद को लेकर नये सिरे से विवाद शुरू हो गया है | सोशल मीडिया पर टिप्पणियों की बाढ़ आ गई है | संस्कारों की पाठशाला के तौर पर परिवार और बतौर शिक्षक माता – पिता की भूमिका पर विमर्श चल पड़ा है | दरअसल 21 वीं सदी का भारत वैचारिक संक्रान्तिकाल से गुजर रहा है | आधुनिकता का प्रतीक मानी जाने वाली पाश्चात्य संस्कृति की असलियत जिस वीभत्स रूप में अनावृत्त हो रही है उससे सीख लेते हुए हमें अपनी परखी हुई सांस्कृतिक विरासत को सहेजकर उसके अनुरूप अपने सामाजिक आचरण को ढालना होगा अन्यथा श्रद्धा आगे भी काटी जाती रहेंगी | प्रेम और विवाह जैसे फैसलों में समाज और परिवार की अवहेलना की परम्परा सदियों से रही है | लेकिन तब  और आज की  सोच में  सबसे बड़ा अंतर ये है कि तब सम्बन्धों की पवित्रता का सम्मान होता था | लेकिन अब खाओ , पियो मौज करो और भूल जाओ वाली मानसिकता हावी है जिसमें रात गयी , बात गयी वाली बात लागू होने लगी है | ऐसे में जरूरी है कि आर्थिक और वैज्ञानिक प्रगति के साथ  ही सामाजिक ढांचे की मजबूती पर भी ध्यान दिया जाए | जिन विकसित देशों की चकाचौंध हमें आकर्षित कर रही है उनमें परिवारों की टूटन से सामाजिक विघटन के हालात पैदा गये हैं | पति – पत्नी के सम्बन्ध विच्छेद के बाद संतानों की दुर्गति बड़ी समस्या बन रही है | अनेक संस्थान भारत की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था का अध्ययन करने में जुटे हैं | ऐसे में हम गहराई तक जाकर सोचें  तो ये समझते देर नहीं लगेगी कि भारतीय परिवार व्यवस्था अपने आप में सर्वश्रेष्ठ और पर्याप्त है जिसमें रहने वाला हर सदस्य एक दूसरे पर निर्भर है और यही निर्भरता उसे हर तरह की मानसिक सुरक्षा और संबल प्रदान करती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 18 November 2022

उद्धव ठाकरे : न इधर के रहे न उधर के रहे



शिवसेना उद्धव गुट के प्रवक्ता संजय राउत ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा दिए गए वीर सावरकर विरोधी बयान से नाराज होकर महा विकास आघाड़ी नामक गठबंधन तोड़ने की चेतावनी दे डाली | उद्धव  ठाकरे द्वारा उक्त बयान से असहमति व्यक्त करने के बाद उनके प्रवक्ता  द्वारा गठबंधन से अलग होने की बात इस बात का संकेत है कि उनको अब कांग्रेस के साथ जुड़ने का नुकसान समझ में आने लगा | सही बात ये है कि स्व. बाल ठाकरे द्वारा स्थापित शिवसेना जिस रास्ते पर चलती आई उसमें कांग्रेस और राकांपा के साथ हाथ मिलाने की  गुंजाईश ही नहीं थी | यद्यपि बीते कुछ सालों  में बेमेल गठबंधन का सबसे बड़ा उदाहरण जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीडीपी की मिली जुली सरकार रही | लेकिन बाद में ये स्पष्ट हो गया कि भाजपा ने वह पांसा बहुत ही सोच समझकर चला था | इसीलिए जब महबूबा मुफ्ती की सरकार गिराने के बाद धारा 370 को मोदी सरकार द्वारा  विलोपित किया गया तो वह पाप भी पुण्य में बदल गया | उसके ठीक विपरीत उद्धव ने श्री राउत और रांकापा नेता शरद पवार के चक्रव्यूह में फंसकर अपनी फजीहत करवा ली | भाजपा के साथ दशकों पुराना उनका गठबंधन दरअसल हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को पर आधारित था | लेकिन अपने स्वर्गीय पिता की दूरगामी सोच  के विरुद्ध जाते हुए उद्धव ने सत्ता का मोह पाल लिया |  भले ही वे  मुख्यमंत्री बन बैठे और उनके बेटे आदित्य को भी  सत्ता का सुख मिल गया परन्तु शिवसेना की पूरी पुण्याई समंदर में डूब गयी | मुम्बई में आतंकवाद के सरगना दाउद  इब्राहीम के संरक्षक होने का आरोप शिवसेना जिन श्री पवार पर लगाया करती थी उन्हीं की शरण में उद्धव का जाकर बैठ जाना पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को हजम नहीं हो रहा था | स्मरणीय है कि गांधी परिवार शिवसेना के साथ गलबहियां करने के प्रति अनिच्छुक था किन्तु श्री पवार ने सोनिया गांधी से मिलकर उनको राजी कर लिया | लेकिन  खींचातानी खत्म नहीं हुई और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष  आगामी चुनाव अलग लड़ने की घोषणा दोहराते रहे | पूर्व में भी  श्री गांधी ने वीर सावरकर के बारे में तमाम ऐसी बातें कहीं जिनसे शिवसेना आगबबूला तो हुई  लेकिन सत्ता गंवाने  का साहस श्री ठाकरे न दिखा सके और बड़ी – बड़ी बातें करने वाले श्री राउत भी मिमियाकर रह गए | सही बात ये है कि कांग्रेस उस सरकार में आधे – अधूरे मन से शामिल थी क्योंकि सत्ता की असली मलाई शिवसेना और राकांपा खा रही थी  | बावजूद उसके शिवसेना में अंतर्विरोध उभरने लगे क्योंकि ठाकरे परिवार और श्री राउत जैसे कुछ दरबारियों को ही पूरा लाभ मिल रहा था | अंततः वह गठबंधन बिखराव का शिकार हो गया और अवसर की तलाश में बैठी भाजपा ने एकनाथ शिंदे की ताजपोशी करवाकर साबित कर दिया कि राजनीति केवल संभावनाओं  ही नहीं अपितु आश्चर्यचकित करने वाली बातों की भी समानार्थी है | महा विकास  आघाड़ी सरकार के गिरने से राकांपा  और कांग्रेस का तो कुछ गया नहीं लेकिन उद्धव ठाकरे का समूचा राजनीतिक वैभव  खत्म हो गया | यदि श्री पवार और कांग्रेस उनकी सरकार गिराते तब उनके पास पिता की विरासत तो रहती | लेकिन श्री शिंदे ज्यादा चतुर निकले जिन्होंने हिंदुत्व से भटकने का आरोप लगाकर उद्धव से सत्ता तो छीनी ही ,  पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह भी विवादग्रस्त बना दिया | कुल मिलाकर श्री ठाकरे उस खेल में  न इधर के रहे न उधर के रहे वाली हास्यास्पद स्थिति में आ खड़े हुए | यही कारण है कि उनकी नाराजगी से बेफिक्र होकर श्री गांधी लगातार वीर सावरकर के विरुद्ध कुछ न कुछ कहते रहे | इन्तेहा तो तब हो गई जब महाराष्ट्र आकर उन्होंने वही हिमाकत की जिसके बाद श्री राउत को गठबंधन छोड़ने की  धमकी देनी पड़ी | इस प्रकार कांग्रेस ने उद्धव को बुरी तरह फंसा लिया है | यदि वे गठबंधन तोड़ते हैं तब राहुल मुसलमानों को खुश करने में कामयाब हो जायेंगे जो कांग्रेस और  शिवसेना की जुगलबंदी से खफा होकर असदुद्दीन ओवैसी में संभावनाएं देखने लगे थे और यदि उद्धव आघाड़ी से पृथक नहीं होते तो हिन्दुओं के बीच उनका बचा – खुचा जनाधार भी दरक जाएगा |  एक संभावना ये भी जन्म ले सकती है कि वे दोबारा भाजपा के साथ आयें और एकनाथ शिंदे को आगे रखते हुए शिवसेना के एकीकरण की स्थितियां उत्पन्न होने दें | दरअसल उनकी समझ में आ गया है कि श्री शिंदे और भाजपा का गठजोड़ हिन्दू मतों को आकर्षित करने में सक्षम है जबकि कांग्रेस और रांकपा के साथ रहकर भी वे मुस्लिम मतों को आकर्षित नहीं कर सकेंगे | जमानत पर जेल से बाहर आते ही श्री राउत ने जिस तरह से शिंदे सरकार द्वारा किये गए अच्छे कार्यों को सराहा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से मिलने की इच्छा व्यक्त की वह किसी  रणनीति का हिस्सा हो सकता है | बहरहाल वीर सावरकर के  बहाने उद्धव अपने राजनीतिक पाप धोने का प्रयास कर  रहे हैं | इसमें वे कितने  सफल होंगे ये कहना कठिन है क्योंकि भाजपा दोबारा  दबाव की राजनीति को सहन करने के पहले दस बार सोचेगी | वैसे भी उद्धव और आदित्य दोनों अपनी आक्रामकता और विश्वसनीयता गँवा चुके हैं इसलिए  वे जिसके साथ रहेंगे उसके लिए बोझ साबित होंगे | शायद श्री गांधी ने भी यही सोचकर महाराष्ट्र में ही सावरकर जी पर  निशाना साधा ताकि ठाकरे परिवार खुद गठबंधन से दूर हो जाए | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 17 November 2022

सावरकर विवाद : दादी और पोते में कौन सच



 कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अग्रणी स्वाधीनता संग्राम सेनानी वीर सावरकर के बारे में गत दिवस जो कहा उससे महाराष्ट्र की राजनीति में उबाल आने के साथ ही कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ सकती हैं | उल्लेखनीय है वीर सावरकर की गिनती उन अग्रणी स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में होती है जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध जमकर संघर्ष किया था | ब्रिटेन में पढ़ते हुए ही वे क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आ गए थे | गिरफ्तार कर भारत लाये जाते समय पानी के जहाज से कूदकर तैरते हुए फ्रांस की सीमा तक पहुँच जाने और उसके बाद अंडमान की सेलुलर जेल में आजीवन कारावास की सजा भोगने के वृतान्त उनकी तेजस्विता के प्रमाण हैं | श्री गांधी ने गत दिवस भारत जोड़ो यात्रा के दौरान महाराष्ट्र के अकोला में एक पत्र की प्रतिलिपि पत्रकारों को दिखाकर उसे वीर सावरकर का माफीनामा बताया जिसमें उन्होंने अंग्रेजों का आज्ञाकारी सेवक बनने की मंशा व्यक्त की थी  | उस पत्र को गांधी जी ,पं. नेहरु और सरदार पटेल के साथ धोखा बताते हुए श्री गाँधी ने कहा कि उन तीनों ने जेल में रहना पसंद किया किन्तु माफी नहीं माँगी | उनके इस बयान पर भाजपा का नाराज होना तो स्वाभाविक ही था लेकिन बीते कुछ समय से कांग्रेस के सहयोगी बने हुए पूर्व मुख्यमंत्री और शिवसेना के एक गुट के नेता उद्धव ठाकरे ने भी असहमति व्यक्त की है | हालाँकि उन्होंने अपने चिर -परिचित तेवर दिखाने से परहेज किया जिसका कारण गठबंधन की मजबूरी है |  लेकिन शिवसेना से अलग हुए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने श्री गांधी की कड़े शब्दों में आलोचना करते हुए इसे महाराष्ट्र का अपमान बताया | राज्य के अनेक हिस्सों में श्री गांधी के पुतले जलाये गये और विरोध प्रदर्शन हुए | वीर सावरकर के एक परिजन ने उनके विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करवाई है | चूंकि मामला राजनीतिक है इसलिए  बयानबाजी का आदान - प्रदान भी चल पड़ा है | यद्यपि ये पहला अवसर नहीं है जब किसी कांग्रेस नेता ने वीर सावरकर के बारे में इस तरह की बात कही हो | देखा - सीखी पार्टी के अन्य  नेता और कार्यकर्ता भी उनका अनुसरण करते हुए आपत्तिजनक बातें कहते रहे हैं | दरअसल कांग्रेस की वीर सावरकर से नाराजगी के पीछे महात्मा गांधी की हत्या कही  जाती  है किन्तु उस  मामले में उन पर लगाये आरोप साबित नहीं हुए | और इसीलिये प्रधानमंत्री रहते हुए राहुल की दादी इंदिरा गांधी ने वीर सावरकर के जन्म शताब्दि के आयोजन के प्रति अपनी शुभकामनाएँ देते हुए उनको भारत का महान सपूत कहते हुए अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध उनके  साहसिक संघर्ष को स्वाधीनता संग्राम का महत्वपूर्ण अध्याय निरुपित किया था  | 20 मई 1980 को प्रधानमंत्री के अधिकृत लेटर हेड पर लिखित उक्त पत्र शासकीय रिकॉर्ड के साथ ही इन्टरनेट पर भी उपलब्ध है | इतना ही नहीं इंदिरा जी की सरकार ने सावरकर जी की जन्म शताब्दि के अवसर पर उनके सम्मान में डाक टिकिट भी जारी किया था | ये भी सुनने में आया कि श्रीमती गांधी ने जन्म शताब्दि समारोह हेतु 11 हजार रु. का आर्थिक सहयोग भी निजी तौर पर दिया था | ऐसा नहीं है कि ये सब बातें कांग्रेस के वरिष्ट नेताओं से छुपी हुई हों क्योंकि अतीत में जब भी  इस तरह का विवाद उठाने की कोशिश  हुई तब – तब इंदिरा जी का उक्त पत्र और डाक टिकिट जारी किये जाने की जानकारी मय दस्तावेज के सामने आई | पता   नहीं राहुल इन सच्चाइयों से आंखें चुराने का प्रयास क्यों करते हैं ? और फिर कांग्रेस की वर्तमान हालत में सावरकर जी का हाथ तो हैं नहीं क्योंकि वे तो 1966 में ही चल बसे थे | हिन्दू महासभा नामक जिस राजनीतिक दल से उनका सम्बन्ध था वह भी राष्ट्रीय राजनीति में अप्रासंगिक है | भाजपा और शिवसेना के दोनों धड़े निश्चित तौर पर सावरकर जी के प्रशंसक हैं और उसका कारण उनका प्रखर हिन्दुवादी होना था | स्वाधीनता सेनानी के अलावा उन्हें समाज सुधारक के रूप में भी जाना जाता रहा है | छुआछूत के विरूद्ध उनके प्रयास काफी सफल भी हुए | वे उच्च कोटि के लेखक और कवि भी थे | ऐसा लगता है जो ऐतिहासिक भूल वामपंथियों ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विरुद्ध विषवमन के रूप में की वही श्री गांधी वीर सावरकर की आलोचना करते हुए दोहरा रहे हैं | आज प. बंगाल में वामपंथी पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिये गए तो उसका कारण नेताजी और स्वामी विवेकानन्द सरीखे महापुरुषों से घृणा रखना ही था | कांग्रेस को यह  समझना चाहिए कि वीर सावरकर पर एक उंगली उठाने से बाकी उसी की ओर उठती हैं | इंदिरा जी ने तो स्वाधीनता संग्राम अपनी आँखों से देखा था | वे हिंदूवादी राजनीति की आलोचक भी रहीं इसीलिये 1969 के कांग्रेस विभाजन के बाद उनकी वामपंथियों से निकटता बढ़ी | उनके शासन काल में रास्वसंघ पर प्रतिबंध भी लगा | आपातकाल के बाद 1980 में दोबारा सत्ता में लौटने के बाद वीर सावरकर की प्रशंसा में लिखा पत्र और उनके सम्मान में डाक टिकिट जारी किया जाना ये साबित करने के लिए काफी है कि स्वाधीनता सेनानी के तौर पर श्रीमती गांधी उन्हें कितना आदर  देती थीं  | जब श्री गांधी ने  पहली बार सावरकर जी की देशभक्ति पर सवाल खड़े किये थे तब भी इंदिरा जी का संदर्भित पत्र सामने आया था | ऐसे में उन्हें सच्चाई से अवगत हो जाना चाहिए था परन्तु ऐसा लगता है राजनीतिक परिपक्वता के मामले में वे अभी भी कच्चे हैं | अब जबकि उन्होंने एक बार फिर वीर सावरकर को घेरने का प्रयास किया है तब उन्हें अपनी स्वर्गीय दादी द्वारा प्रधानमंत्री रहते हुए उनके बारे में जो कहा गया उस पर भी टिप्पणी करने का साहस दिखाना चाहिए | देश को ये जानने का अधिकार है कि सावरकर जी के बारे में जो इंदिरा जी लिख गईं क्या उनका पोता उससे झूठ साबित करने की हद तक जाएगा ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

कांग्रेस के गले की फ़ाँस बन रहा राजस्थान



राजस्थान कांग्रेस शासित सबसे प्रमुख राज्य है | मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पार्टी के वरिष्ट नेता है जिन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जा रहा था किन्तु वे मुख्यमंत्री पद छोड़ने राजी नहीं हुए | और जब पार्टी के केन्द्रीय पर्यवेक्षक के तौर पर वर्तमान अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और महामंत्री अजय माकन नए नेता का चयन करने जयपुर गए तब गहलोत समर्थक विधायकों ने उनकी उपेक्षा करते हुए अलग से बैठक कर डाली जिसकी वजह से श्री गहलोत के स्थान पर सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की आलाकमान की योजना  धरी की धरी रह गयी | उल्लेखनीय है मुख्यमंत्री को गांधी परिवार का करीबी माना जाता रहा है | इसीलिये जब श्री पायलट  उनके विरुद्ध बगावत का झंडा उठाये हुए कुछ विधायकों के साथ हरियाणा जा बैठे थे उस समय भी आलाकमान ने श्री गहलोत का साथ दिया था | लेकिन बीते कुछ समय से वह सचिन को उपकृत करने की मासिकता दिखा रही थी जिसके लिए श्री गहलोत को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का दांव चला गया | लेकिन जादूगर रहे मुख्यमंत्री ने हाथ की सफाई को पकड़ लिया और अपने समर्थक विधायकों के जरिये  आलाकमान से आये पर्यवेक्षकों को खाली हाथ लौटने जैसी परिस्थिति उत्पन्न करवा दी | उपेक्षा और अपमान का सामना करने के बाद दिल्ली लौटकर श्री खरगे और श्री माकन ने उनकी अवहेलना करने वाले विधायकों के विरुद्ध अनुशासन का डंडा चलाने की अनुशंसा सोनिया गांधी से की किन्तु श्री गहलोत ने आकर उनसे क्षमा याचना करते हुए अध्यक्ष के चुनाव से कन्नी काट ली | जिसके बाद श्री खरगे को मैदान में उतारा गया | उस दौरान राहुल गांधी की  भारत जोड़ो यात्रा शुरू हो जाने की वजह से पार्टी मुख्यालय सुनसान पड़ा हुआ था | श्रीमती गांधी खुद होकर फैसला करने में असमर्थ थीं क्योंकि श्री  गहलोत को ज़रा सा छेड़ने पर राजस्थान की सरकार हाथ से निकल जाने का खतरा था | और फिर मौका मिलते ही श्री गहलोत ने यात्रा में शामिल होकर राहुल की मिजाजपुर्सी कर डाली | उसके बाद उनका  आत्मविश्वास और बढ़ गया तथा वे आगामी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर तेजी से सक्रिय हो उठे | श्री खरगे के अध्यक्ष बन जाने के बाद भी महीना भर बीतने आया लेकिन राजस्थान में केन्द्रीय पर्यवेक्षकों को ठेंगा दिखाने वाले कांग्रेस विधायकों के विरुद्ध कार्रवाई और श्री गहलोत को हटाये जाने के सांकेतिक विरोध स्वरूप विधानसभा अध्यक्ष को अपना त्यागपत्र देने वाले विधायकों का मसला लंबित रखा गया | शायद आलाकमान भी ये मान बैठा था कि राजस्थान में यथास्थिति बनाये रखना ही सुरक्षित है | लेकिन गत दिवस अचानक खबर आई कि श्री माकन ने राष्ट्रीय अध्यक्ष को पत्र लिखकर कहा कि चूंकि उनकी दी गई रिपोर्ट पर गहलोत समर्थक उपद्रवी  विधायकों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की गयी  लिहाजा उनका राष्ट्रीय महामंत्री बना रहना निरर्थक है |  उनके त्यागपत्र का कारण ये बताया जा रहा है कि गहलोत समर्थक जिन विधायकों पर गाज गिराने की सिफारिश उन्होंने की उनको भारत जोड़ो यात्रा संबंधी महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा गया है | ज़ाहिर है ऐसा मुख्यमंत्री की सलाह और स्वीकृति से ही हुआ होगा | देखना यह है कि श्री खरगे और गांधी परिवार इस मामले में क्या कदम उठाता है क्योंकि श्री माकन दिल्ली के हैं और वहां होने जा रहे स्थानीय निकाय के चुनाव में उनकी बेरुखी कांग्रेस के लिए दूबरे में दो आसाढ़ वाली कहावत चरितार्थ कर देगी | उनके खफा होने  का एक कारण ये भी है कि अपमान तो उनका और श्री खरगे का एक साथ हुआ लेकिन वे तो अध्यक्ष बनकर संतुष्ट हो चले लेकिन उनकी अपनी किरकिरी हो गयी जो भेजे गए थे मुख्यमंत्री को हटवाने किन्तु चंद विधायकों की बदसलूकी पर उन्हें दण्डित तक नहीं करवा सके | निश्चित तौर पर ये किसी भी नेता के लिए अपमानजनक स्थिति है | लेकिन श्री माकन ने जो कदम उठाया वह अप्रत्यक्ष रूप से गांधी परिवार के लिए चेतावनी है क्योंकि ये बात सभी जानते हैं कि बतौर अध्यक्ष श्री खरगे इस बारे में निर्णय लेने का खतरा शायद ही उठाएंगे | हालाँकि श्री माकन की हस्ती इतनी बड़ी भी नहीं है कि वे गांधी परिवार से टकरा सकें लेकिन उनका त्यागपत्र और उसके कारणों से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि कांग्रेस के उच्च नेतृत्व पर अनिर्णय की जो प्रवृत्ति हावी हो गई है उसके कारण अनेक समस्याएँ जन्म ले रही हैं | राजस्थान का मसला जिस तरह उलझा उसके लिए जितनी श्री गहलोत और श्री पायलट के बीच की रस्साकशी जिम्मेदार है उतना  ही कांग्रेस आलाकमान का लटकाऊ रवैया जिसकी वजह से वह चाहते हुए भी मुख्यमंत्री पद पर अपनी पसन्द का व्यक्ति नहीं बिठा पा रहा | सबसे बड़ी बात ये है कि न तो पार्टी ने श्री पायलट द्वारा अतीत में दिखाए बगावती तेवरों पर  कार्रवाई की और न ही वह गहलोत समर्थक   विधायकों की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाने का साहस कर पा रही है | इसी का लाभ उठाकर श्री माकन ने अपना गुस्सा व्यक्त करने का साहस दिखाया |  इस समूचे प्रकरण में पार्टी  का उच्च नेतृत्व जिस प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बैठा हुआ है उससे अनुशासनहीनता करने वालों के हौसले बुलंद हो रहे हैं | कहाँ तो श्री गांधी के हवाले से ये सुनाई दिया था कि  चाहे सरकार चली जाए लेकिन अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं  की जायेगी और कहाँ अनुशासन की धज्जियां उड़ाने वालों को उनकी यात्रा के इंतजाम में लगाया जा रहा है | श्री माकन का त्यागपत्र वैसे तो शायद ही स्वीकार होगा लेकिन इसके जरिये उन्होंने श्री खरगे के सामने एक चुनौती तो पेश कर ही दी है | जिससे वे कैसे निबटते हैं इसी से उनकी कार्यशैली की बानगी मिल जायेगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 16 November 2022

जनसंख्या नियंत्रण कानून की सख्त जरूरत



दुनिया की आबादी 8 अरब हो गई और भारत अगले  साल चीन को पीछे छोड़कर सबसे ज्यादा जनसँख्या वाला देश बन जाएगा | वैश्विक आबादी में अगली एक अरब की वृद्धि जिन देशों से अपेक्षित है उनमें  भारत , पाकिस्तान , कांगो , मिस्र , इथियोपिया , नाइजीरिया , फिलीपींस और  तंजानिया माने जा रहे हैं | इसका अर्थ ये है कि अव्वल तो चीन ने अपनी जनसँख्या वृद्धि पर जबर्दस्त नियंत्रण किया और दूसरा यह  कि दुनिया के संपन्न देश अभी भी आबादी बढ़ने के मामले में पीछे हैं | उक्त आठों देश अफ्रीका और एशिया महाद्वीप में स्थित हैं | जिनमें कुछ बेहद गरीब हैं  तो कुछ विकास की राह पर धीरे – धीरे बढ़ रहे हैं | केवल भारत ही है जो आर्थिक दृष्टि से उत्थान की ओर है | उल्लेखनीय तथ्य ये भी है कि दुनिया की आबादी में पिछली एक अरब  की वृद्धि में भारत का योगदान 15 फीसदी से ज्यादा है | बाली में चल रहे जी 20 देशों के सम्मलेन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की विशाल जनसँख्या के आधार पर दुनिया के बड़े देशों को तो दो टूक समझा दिया कि इतने बड़े उपभोक्ता बाजार की उपेक्षा करना अब उनके लिये संभव नहीं है इसलिए  भारत के बिना दुनिया का काम नहीं चल सकता | उन्होंने भारत की बढ़ती सामर्थ्य का उदाहरण देते हुए बताया कि उसने अपनी विशाल आबादी को कोरोना का टीका लगाने जैसा काम बेहद कुशलता से करने के साथ ही दुनिया भर को टीके की आपूर्ति भी की | श्री मोदी ने अमेरिका  के राष्ट्रपति जो बाईडेन की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अमेरिका की कुल जनसँख्या से ज्यादा तो भारत में गरीबों के बैंक खाते हैं | जनसँख्या का आंकड़ा 8 अरब तक पहुंचते ही ये बात भी सामने आई कि चीन अपनी जनसँख्या में स्थिरता आने से चिंतित है और एक बच्चे की नीति में शिथिलता देने की तैयारी कर रहा है | ये भी सुनने में आ रहा है कि अगली एक अरब  की वृद्धि पिछले से ज्यादा समय में होगी | और बढ़ती औसत आयु के बावजूद जनसंख्या में बढ़ोतरी की गति पूर्ववत न होकर मंद पड़ेगी | लेकिन आंकड़ों के इस खेल के बीच हमारे लिये  चिंता का विषय ये है कि चीन जहां आर्थिक विकास के चरम पर है वहीं भारत आज भी अपने 80 करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न देने की मजबूरी से गुजर रहा है | इसका कारण ये है कि हम  समय रहते अपने मानव संसाधन को उस तरह काम पर नहीं लगा पाए जैसा चीन ने कर दिखाया | भारत में परिवार नियोजन का नाम बदलकर परिवार कल्याण करने के बाद उस कार्यक्रम का कैसा बंटाधार हुआ ये सब जानते हैं | यहाँ तक कि दीवारों पर हम दो हमारे दो और छोटा परिवार सुखी परिवार जैसे नारे तक दिखाई देना बंद हो गए | किसी भी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में जनसँख्या नियंत्रण सम्बन्धी कोई कार्ययोजना नहीं दिखती | हालाँकि बीते कुछ समय से राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा है कि केंद्र सरकार समान नागरिक संहिता के साथ ही जनसँख्या नियंत्रण कानून भी लाने जा रही है | यद्यपि इस बारे में कोई  अधिकृत जानकारी नहीं है | वैसे भाजपा शासित कुछ राज्यों में  समान नागरिक संहिता लागू किये जाने का मुद्दा आम  विमर्श बन गया है | गोवा में तो वह पहले से लागू  है | लेकिन जनसँख्या नियंत्रण संबंधी कानून बनाने का अधिकार चूंकि केंद्र के पास है इसलिए इस बारे में पहल उसे ही करनी पड़ेगी | लेकिन ऐसे विषयों पर राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर विचार होना चाहिए | मसलन मुस्लिम समुदाय में परिवार नियंत्रण के बारे में जो अरुचि है वह सदैव आलोचना के घेरे में रही | हालाँकि शिक्षित हो चुके मुसलमान भी एक या दो बच्चों की अवधारणा को स्वीकार करने लगे हैं लेकिन धर्मान्धता के प्रभावस्वरूप अपनी आबादी बढ़ाने की मानसिकता बहुतेरे मुस्लिमों में आज भी है | हिन्दुओं में भी अशिक्षा के कारण अनेक  निम्न वर्गीय लोग परिवार नियोजन को लेकर लापरवाह नजर आते हैं | इसके कारण केंद्र और राज्य सरकारों के काफी आर्थिक संसाधन लोक कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च हो जाते हैं | मोदी सरकार ने जनधन खातों के जरिये सीधे बैंकों में राशि जमा करवाने की जो व्यवस्था की उसके कारण भ्रष्टाचार बेशक घटा लेकिन सरकार पर पड़ने वाला आर्थिक बोझ कम नहीं हो पा रहा | सबसे बड़ी बात ये है कि इतनी बड़ी आबादी के भोजन के लिए देश में पैदा होने वाला खाद्यान्न भले कम न पड़े लेकिन शिक्षा और  स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की समुचित व्यवस्था आज तक नहीं हो  सकी | आज देश के सामने जितनी भी समस्याएँ हैं उनके मूल में कहीं न कहीं जनसंख्या वृद्धि है जिसके कारण समूचा आर्थिक नियोजन गड़बड़ा जाता है | ये देखते हुए देशहित का तकाजा है कि केंद सरकार बिना देर किये जनसंख्या नियंत्रण संबंधी कानून बनाये | इसे लेकर राजनीतिक बवाल मचना स्वाभाविक है | धर्मनिरपेक्षता पर आघात जैसी बातें भी सुनाई देंगी परन्तु  जिस तरह जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने का साहसिक कदम  उठाया गया ठीक वैसी ही मुस्तैदी जनसंख्या नियंत्रण के मामले में भी दिखानी चाहिए क्योंकि चीन से ज्यादा जनसँख्या होना गौरव की बात नहीं होगी बल्कि जब आर्थिक प्रगति के मामले में हम उसे पीछे छोड़ेंगे उस दिन सही  मायनों में हम विश्व शक्ति कहलाने लायक होंगे | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 15 November 2022

मतान्तरण : अतीत की गलतियों को सुधारने का समय



सर्वोच्च  न्यायालय द्वारा छल , लालच और जोर – जबरदस्ती से किये जाने वाले मतान्तरण के आरोपों संबंधी याचिका पर सुनवाई  करते हुए कहा गया कि यदि वे  सही हैं तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए  खतरा है , जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए | याचिकाकर्ता ने मतांतरण रोकने के लिए क़ानून बनाने की जो मांग की उस पर अदालत ने केंद्र सरकार से हलफनामा माँगा है | उल्लेखनीय है म.प्र और उड़ीसा में इस बारे में पहले से कानून बने हुए हैं और उनके अंतर्गत  कार्रवाई भी की जाती रही है | उक्त कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय ने सही ठहरा दिया था | उस आधार पर याचिकाकर्ता की मांग में वजनदारी प्रतीत होती है |  उसके द्वारा चिंता जताए जाने के बाद हो सकता है केंद्र सरकार भी इस दिशा में आगे बढ़े | बहरहाल ये मुद्दा काफी समय से राष्ट्रीय विमर्श का विषय बना हुआ है | हालाँकि पूर्ववर्ती केंद्र सरकारें चूंकि इस बारे में उदासीन रहीं इसलिए देश के बड़े हिस्से में मतान्तरण एक सुनियोजित अभियान के रूप में चलता रहा | विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों में मतान्तरण का काफी जोर देखा जा सकता है | बिहार , झारखण्ड , उड़ीसा , म.प्र और छत्तीसगढ़ में चूंकि अनु. जनजाति की जनसंख्या काफी ज्यादा है लिहाजा वहां मतान्तरण थोक के भाव हुआ | इसके पीछे जितनी गलती ईसाई मिशनरियों की है  उससे ज्यादा हमारे देश के राजनताओं की भी रही  जो अपने राजनीतिक स्वार्थ की खातिर देश के दूरगामी हितों को ताक पर रख देते हैं | इसमें दो राय नहीं हैं कि मिशनरियां शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के साथ अनु.जाति और जनजाति बहुल इलाकों में डेरा जमाकर लोगों को आकर्षित करती हैं | भारत के संविधान में अपने धर्म का प्रचार करना जायज माना  गया है | स्वेच्छा से यदि कोई व्यक्ति अपना धर्म त्यागकर दूसरे को अपनाना चाहता है तब वह भी कानून की कसौटी पर सही है | इसी तरह यदि किसी को धर्म में रूचि नहीं  है और वह नास्तिक  बना रहना चाहता है तो उसे  आस्तिक बनने बाध्य नहीं किया जा सकता | सबसे  बड़ी बात ये है कि धर्म या मत को मानना पूरी तरह निजी मामला है | मसलन एक परिवार में एक से ज्यादा धर्म के अनुयायी हो सकते हैं | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के सामने जो विषय विचाराधीन है वह धमकाकर , छल – कपट अथवा लोभ – लालच से मत या धर्म बदले जाने के विरुद्ध कानून बनाये जाने का है | भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है लेकिन प्रमाणित सत्य ये है कि बहुसंख्यक हिन्दुओं अथवा हिंदुत्व के करीब समझे जाने वाले भारतीय मूल के बाकी धर्म , पंथ या मत में आस्था रखने वाले जिस इलाके में अल्पसंख्यक होते हैं वे समस्या ग्रस्त बन जाते हैं |  ये बात सेकुलर जमात को कड़वी लग सकती है और उसके पैरोकार गंगा – जमुनी तहजीब का राग अलापने लगेंगे किन्तु  सर्वोच्च न्यायालय की ये टिप्पणी विचारणीय है कि  मतान्तरण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है | याचिकाकर्ता ने जो आरोप लगाए हैं वे किसी से छिपे नहीं हैं | ताजा जानकारी के अनुसार पंजाब में दलित वर्ग के सिख भी  बड़ी संख्या में ईसाई धर्म अपना रहे हैं | सही बात ये है कि ईसाई मिशनरियों द्वारा अपना अभियान ज्यादातर उन्हीं इलाकों में चलाया  जाता है जहां आर्थिक और सामाजिक विषमता है | छुआछूत को  भी इसका जिम्मेदार माना जाता है | लेकिन देखने वाली बात ये है कि बीते सात दशक में देश में मतान्तरण के अधिकांश मामले आदिवासी इलाकों में हुए | इसका कारण उनका समाज की मुख्यधारा से  कटा रहना है जिसके लिए हिन्दू समाज के जिम्मेदार लोग और धर्माचार्य भी  कम जिम्मेदार नहीं हैं | ये बात भी गलत नहीं है कि मत या धर्म  परिवर्तन कर चुके बहुतेरे लोगों को ये पता ही नहीं होता कि उनसे क्या करवा लिया गया | यहाँ तक भी ठीक है लेकिन चूंकि  मतान्तरण के प्रभावस्वरूप राष्ट्रविरोधी गतिविधियाँ संचालित होती हैं अतः  उनको रोकना जरूरी हो जाता है | उड़ीसा और म.प्र में जो कानून बना है उसके प्रभावस्वरूप गैर कानूनी तरीके से मतान्तरण करवाने वालों पर कानून का शिकंजा कसता है | इसका अच्छा प्रभाव भी नजर आने लगा है | आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी समस्याओं को बढावा देने में भी धर्म परिवर्तन का बड़ा योगदान है | केंद्र सरकार को चाहिए वह याचिका के संदर्भ में सकारात्मक रवैया प्रदर्शित करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाये जाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय को तत्संबंधी जानकारी दे | देश विरोधी शक्तियों ने धर्म निरपेक्षता की आड़ में जो कुछ अब तक किया उसका दुष्परिणाम देखने के बाद भी यदि हम सावधान नहीं हुए तब ये मान लेना होगा कि हमने अतीत की ऐतिहासिक भूलों से कुछ नहीं सीखा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 12 November 2022

निर्दयता पर न्याय की दया



भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को उनकी सजा समाप्त करते हुए रिहा करने के आदेश देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा दिए गए हैं। अदालत का मानना है कि 30 वर्ष की सजा के बाद राजीव गांधी के हत्यारों का आचरण जेल मैनुअल के हिसाब से उत्तम कहा जा सकता है। इसके बाद न्यायालय ने उन्हें रिहा करने के आदेश जारी किए हैं। इससे पहले भी भारत के महामहिम राष्ट्रपति के पास इन लोगों की दया याचिका विचारार्थ थी। राजीव गांधी की हत्या में शामिल नलिनी के आग्रह पर श्रीमती सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति से दया याचिका में फांसी की सजा को माफ किए जाने की अपील भी की थी। सोनिया जी ने यह भी कहा था कि वह नलिनी को राजीव गांधी की हत्या के लिए माफ करती हैं! इन सभी घटनाक्रमों को देखते हुए भारत की सबसे बड़ी अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों में से 6 को रिहा करने के आदेश दिए हैं। इस मामले में कुछ बरी भी हो चुके हैं। इसके बाद यह विषय एक बार फिर राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गया है। यहां सवाल यह उठाया जा रहा है कि क्या राजीव गांधी, श्रीमती सोनिया गांधी के पति के अलावा भी कुछ थे? क्या भारत के प्रधानमंत्री की हत्या हो जाने के बाद उसे पारिवारिक विषय बनाते हुए क्षमा कर देना उचित है? यह विषय आखिरकार न्याय व्यवस्था को भविष्य के लिए किस प्रकार से प्रभावित करेगा देखना जरूरी है। यह सवाल भी अपने आप में सामयिक है कि कोई हत्या का अभियुक्त वह भी सहज हत्या का अभियुक्त न होते हुए प्रधानमंत्री की हत्या का अभियुक्त हो , अपने आचरण के कारण सजा से मुक्त होने के की पात्रता रखता है? इन सवालों के उत्तर न केवल भारतीय राजनीतिक गलियारों में अपितु न्याय व्यवस्था की गलियों में भी मांगे जा रहे हैं। भारत की न्याय व्यवस्था के संदर्भ में आज भी किसी प्रकार की आशंका का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। इसके बाद भी अनेकों अवसरों में यह लगता है कि न्यायपालिका कुछ रचनात्मक प्रयोग करने का प्रयास कर रही है। पिछले कुछ समय से सरकार के निर्णयों की समीक्षा संबंधी विषयों को भी इसी संदर्भ के साथ जोड़कर देखा जा सकता है। ठीक उसी प्रकार से भारत के प्रधानमंत्री के हत्यारों को उनके आचरण के कारण समय से पहले रिहा करने का यह प्रसंग भी न्यायपालिका के नए प्रयोगों के रूप में देखा जा रहा है। सामान्यतया आम व्यक्ति को न्याय पाने के लिए ही बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं, वहीं दूसरी तरफ एक हाईप्रोफाइल मामले में अपराधियों के प्रति न्याय की दया का प्रदर्शन भी देखने को मिलता है। आने वाले समय में न्याय व्यवस्था में इस प्रकार के प्रयोगों का कितना लाभ होता है और कितने अपराधी अपने आचरण को समय से पहले सुधार पाते हैं यह गंभीरता पूर्वक देखने का विषय होगा। यदि न्याय व्यवस्था कोई गुणात्मक प्रयोग करना चाहती है तब हाई प्रोफाइल मामलों में और खासकर जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री जैसी हत्या शामिल हो वहां इन प्रयोगों में और अधिक सतर्कता की जरूरत है। अन्यथा हत्या के बाद आचरण सुधार के ड्रामे आम बात होने जैसी स्थिति हो सकती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 11 November 2022

लाल टोपी लगाने मात्र से लोहियावादी पहचान नहीं मिलती



राजनीतिक दल किसे अपना उम्मीदवार बनायें ये उनका विशेषाधिकार है |  चूंकि उन्हें जनता से समर्थन लेना होता है इसलिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह क्या चाहती है ? संदर्भ उ.प्र की मैनपुरी लोकसभा सीट का है जो समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन से रिक्त हुई है | उस पर होने जा रहे उपचुनाव हेतु सपा ने पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव को उम्मीदवार बनाने की घोषणा की है जो अतीत में भी सांसद रह चुकी हैं | 2019 के चुनाव में वे हार गई थीं | कुछ समय पूर्व आजमगढ़ में हुए उपचुनाव में भी डिम्पल को मैदान में उतारने की चर्चा चली किन्तु टिकिट किसी और को दिया गया तब लगा कि अखिलेश ने परिवारवाद के आरोप से बचने के लिए वह फैसला लिया था | लेकिन एन वक्त पर अचानक वह निर्णय उलट दिया गया और अखिलेश ने अपने चचेरे भाई पूर्व सांसद धर्मेन्द्र यादव को उम्मीदवारी दे दी जो  कि 2019 में पराजित हो चुके थे | उस फैसले को सपा कार्यकर्ताओं और जनता दोनों ने पसंद नहीं  किया और पार्टी के हाथ से उसकी परम्परागत सीट चली गयी | होना तो ये चाहिए था कि अखिलेश उस नतीजे से सबक लेते हुए इस बात का एहसास करते कि उनके राजनीतिक उत्थान में उनके पिता मुलायम सिंह की भूमिका रही है | मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने  पार्टी पर कब्जा करने के लिए  अपने चाचा शिवपाल  यादव और पिता के करीबी अमर सिंह , बेनीप्रसाद वर्मा और पार्टी का अल्पसंख्यक चेहरा रहे आज़म खां को हाशिये पर धकेलते हुए पिता को नाममात्र का अध्यक्ष बना डाला | यही वजह है कि 2012 के बाद से अखिलेश की राजनीति ढलान  पर आती चली गयी | 2014 का लोकसभा , और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की धमाकेदार जीत के बाद अखिलेश को जनमत का रुझान समझ जाना चाहिए था किन्तु अपने पिता के लचीलेपन और संघर्षशीलता से उन्होंने सीख नहीं ली  और इस मुगालते में बैठे रहे कि घूम -फिरकर  सत्ता उनके पास आ जायेगी | 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जिस अंदाज में वापसी की उसके बाद अखिलेश की पकड़ और कमजोर हुई है  | मुलायम सिंह का स्वास्थ्य लगातार खराब होते जाने से परिवार में बिखराव तेज होने लगा | शिवपाल अपनी अलग पार्टी बनाकर बैठ गये | आज़म खान को जेल जाना पड़ा | सौतेले भाई की  पत्नी 2022 के विधानसभा चुनाव के समय ही भाजपा में शामिल हो गयी  | अनेक  छोटी पार्टियों और जातिगत समीकरणों को साधकर अखिलेश सोचने लगे कि  वे योगी  आदित्यनाथ के आभामंडल को नष्ट कर देंगे लेकिन जब परिणाम आये तो निराशा ही उनके हाथ लगी  |  किसान आन्दोलन का लाभ लेने के लिए लोकदल नेता जयंत चौधरी से हाथ मिलाने की जुगत भी काम नहीं आई | मुसलमानों के दम पर योगी को हराने की रणनीति औंधे मुंह गिरी | जो ओबीसी नेता साथ आये थे वे भी दायें बाएं होने लगे | ओवैसी की पार्टी ने मुसलमानों के बीच नए नेतृत्व की जो ललक पैदा की उसकी वजह से सपा का मुस्लिम जनाधार दरकने लगा | यहाँ तक कि यादव बहुल इलाकों तक में अखिलेश को पहले जैसा समर्थन नहीं मिला | हाल ही में हुए उपचुनावों के नतीजे सपा के लिए किसी झटके से कम नहीं हैं | जब तक मुलायम सिंह जीवित थे तब तक शिवपाल सिंह भी थोड़ा लिहाज रखते थे किन्तु उनका अंतिम संस्कार होते ही उन्होंने संवाददाताओं से बात करते हुए जिस तरह की राजनीतिक टिप्पणियाँ कीं उनसे ये लग गया कि वे ज्यादा समय तक परिवार का संकोच  नहीं करेंगे | ये उम्मीद जताई  जा रही थी दो लोकसभा और हाल ही में संपन्न विधानसभा उपचुनाव हारने के बाद अखिलेश  पार्टी के जनाधार के विस्तार पर ध्यान देंगे लेकिन मैनपुरी सीट परंतु अपनी पत्नी को उम्मीदवार बनाकर उन्होंने एक बार फिर  अपनी सीमित सोच का परिचय दे दिया | हालाँकि इस बात की सम्भावना है कि नेताजी के नाम से लोकप्रिय रहे मुलायम सिंह की मृत्यु के कारण उनके परिवार की परम्परागत मैनपुरी सीट पर सहानुभति लहर में डिंपल जीत जायेंगीं परन्तु उनकी बजाय पार्टी किसी ऐसे नेता को उतारती जो राज्य में उसके संगठन के विस्तार में सहायक होता तब शायद भविष्य की दृष्टि से उसे लाभ मिलता | उस दृष्टि से मुलायम सिंह ज्यादा व्यवहारिक थे जिन्होंने परिवारवाद और जातिवाद तो जमकर चलाया तथा अपने भाई  शिवपाल और रामगोपाल के साथ ही भतीजों को भी उपकृत किया | लेकिन जनेश्वर मिश्र सहित पुराने  समाजवादी छत्रपों को वे सदैव महत्व देते रहे | राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री पद पर अखिलेश को बिठा दिया लेकिन वहीं से सपा में विघटन की शुरुआत होने लगी | हालाँकि  नेताजी के रहते हुए असंतुष्ट तबका अपनी  नाराजगी को दबाये रहा | लेकिन अब हालात पहले जैसे नहीं हैं | पता नहीं अखिलेश इस वास्तविकता को क्यों नहीं समझ रहे | लोकसभा में पार्टी को अपनी आवाज रखने के लिए जुझारू लोगों की जरूरत है न कि परिवार के सदस्यों की | उ.प्र की राजनीति में सपा दूसरी बड़ी शक्ति मानी जाती है किन्तु ये कहने में कुछ भी  गलत नहीं है कि मुलायम सिंह के न रहने  के बाद उसका आधार बरकरार रखना आसान नहीं होगा | लाल टोपी लगा लेने के बाद भी अखिलेश लोहियावादी पहिचान नहीं रखते और यही उनकी समस्या बन गई है |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 10 November 2022

वकील का चेहरा देख फैसला देने का आरोप धोना बड़ी चुनौती



भारत के 50 वें मुख्य न्यायाधीश की शपथ लेने के बाद धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने कहा कि वे बातों से नहीं अपितु काम से भरोसा हासिल करेंगे | हालाँकि ये स्पष्ट नहीं है कि ऐसा उन्होंने अपने बारे में कहा या समूची न्यायपालिका को ध्यान में रखकर | श्री चंद्रचूड़ को बहुत ही कुशल और निडर न्यायाधीश माना जाता है | अनेक  महत्वपूर्ण फैसलों में सरकार के विरुद्ध दिए गए फैसलों से वे अपनी निष्पक्षता साबित करते रहे हैं | इसीलिये राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा थी कि शायद केंद्र सरकार उनकी वरिष्टता की उपेक्षा करते हुए किसी और को मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी सौंपेगी किन्तु जब अवकाश प्राप्त मुख्य  न्यायाधीश ने उनके नाम की अनुशंसा भेजी तो सरकार ने बिना देर लगाये उसे मंजूर कर लिया |   उल्लेखनीय है श्री चंद्रचूड के पिता भी देश के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं | उनकी शिक्षा विश्व के सुप्रसिद्ध हार्वर्ड विवि में हुई  और विधि क्षेत्र का अनुभव उन्हें इस पद के योग्य साबित करने पर्याप्त है | उच्च न्यायालय में न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीश से देश के मुख्य न्यायाधीश बनने तक का उनका सफर अनेक चर्चित फैसलों से भरा रहा जिसमें अपने पिता द्वारा दिये  गये पुराने फैसले के विरुद्ध दिया गया निर्णय भी है | लेकिन न्यायपालिका विश्वास के जिस संकट से गुजर रही है उसे देखते हुए श्री चंद्रचूड़ को लगभग दो साल के कार्यकाल में फैसले सुनाने के अलावा न्याय को सहज , सुलभ और सस्ता बनाने के लिए साहसिक कदम उठाने होंगे | स्मरणीय है कुछ समय पहले जयपुर में हुए एक कार्यक्रम में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की मौजूदगी में कानून मंत्री किरण रिजिजू और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने खुलकर कहा था कि बड़े वकीलों की महंगी फीस के चलते आम आदमी न्यायमंदिर की सीढ़ियाँ तक चढ़ने का साहस नहीं कर पाता | मुख्य न्यायाधीश के सामने ये कहने का दुस्साहस भी दोनों ने किया कि न्यायाधीश वकील का चेहरा देखकर फैसला सुनाते हैं | आम तौर पर इस तरह की टिप्पणियाँ सुनने में आती रही हैं  किन्तु सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के सामने देश के कानून मंत्री और एक राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा सुनाई गयी खरी – खरी बातों का समुचित स्पष्टीकरण वे नहीं दे सके जो साधारण बात नहीं थी  | और शायद श्री चंद्रचूड के लिए भी ऐसा करना कठिन होगा क्योंकि अदालत में वकालत शुरू करने से लेकर मुख्य न्यायाधीश बनने तक के दौर में उन्हें उन विसंगतियों का भली – भांति ज्ञान होगा जिनकी वजह से  न्यायपालिका के बारे में ये अवधारणा जनमानस में गहराई तक पैठ बना चुकी है कि वहां फैसले होते हैं किन्तु न्याय नहीं | यद्यपि किसी अधिवक्ता की फीस कितनी हो ये तय कर पाना कानूनन सम्भव नहीं है और न ही केंद्र सरकार द्वारा गरीबों के लिए शुरू की गयी मुफ्त इलाज जैसी सुविधा कानूनी सहायता के रूप में दिया जाना संभव होगा । लेकिन श्री चंद्रचूड अपने पिता के सान्निध्य के कारण चूंकि बचपन से ही न्यायपालिका से जुड़े माहौल में रहे इसलिए उन्हें उसमें निहित विडम्बनाओं का भी अच्छी तरह से एहसास होगा | अदालतों में लगे मुकदमों के अंबार की तुलना में  न्यायाधीशों की अपर्याप्त संख्या भी न्याय में विलम्ब का कारण है और यहीं से पक्षकार के आर्थिक शोषण और मानसिक प्रताड़ना की शुरुआत होती है | हालाँकि अनेक मामले ऐसे होते हैं जिनकी सुनवाई लंबी चलती है किन्तु जिन प्रकरणों में न्याय प्रक्रिया जल्द संपन्न की जा सकती है उनको भी जब लम्बा खींचा जाता है तब उसकी सार्थकता पर लगने वाले सवालिया निशान और गहरे हो जाते हैं | यदि जैसा उन्होंने आश्वस्त किया है श्री चंद्रचूड वाकई अपने कामों से लोगों का भरोसा जीतना चाहते हैं तो उन्हें त्वरित और सस्त्ते न्याय की व्यवस्था  करनी चाहिए | वकीलों की मोटी – मोटी फीस कम करवाना तो उनके बस में नहीं होगा किन्तु  दिग्गज वकीलों के चेहरे देखकर फैसले किये जाने जैसे आरोपों से न्यायपालिका को मुक्त करवा सकें तो ये क्रांतिकारी होगा | विशिष्ट हस्तियों के मामले में ये देखने में आया है कि नामचीन वकील के खड़े होते ही न्यायाधीश के व्यवहार में नरमी आ जाती है | एक विख्यात अभिनेता के बेटे के नशीली दवाओं के मामले में पकडे जाने पर जमानत अर्जी टलती रही लेकिन ज्योंही एक बड़े  वकील पैरवी करने आये बेटा जेल से बाहर आ गया | सलमान खान को सजा हुई तो दिल्ली से विख्यात वकील विशेष विमान से आये और उस दौरान ऊपरी अदालत जमानत देने उनका इंतजार करती बैठी रही | ऐसी अनेक बातें हैं जिन्हें यदि सुधारा जा सके तो न्यायपालिका के प्रति व्याप्त  असंतोष और अविश्वास कम किया जा सकता है | वैसे जो भी नया मुख्य  न्यायाधीश उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त होता है वह शुरू में तो अच्छे सपने दिखाता है लेकिन कुछ समय बाद न्यायपालिका में व्याप्त अव्यवस्था के सामने उसकी  लाचारी दिखाई देने लगती है | श्री चंद्रचूड को उनके कार्यकाल में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रचलित कालेजियम प्रणाली को बदलकर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की पुनर्स्थापना के प्रयास पर केंद्र सरकार के साथ टकराव का सामना करना पड़ सकता है | उल्लेखनीय है संसद द्वारा बनाए गये  आयोग को सर्वोच्च न्यायालय ने  असंवैधानिक बताकर रद्द कर दिया था | हाल ही में कानून मंत्री ने संसद में बयान दिया था कि कालेजियम व्यवस्था की जगह आयोग की स्थापना किये जाने की मांग जोर पकड रही है | इससे संकेत मिला कि सरकार आयोग की स्थापना का विधेयक दोबारा संसद में लाने जा रही है | ऐसा होने पर श्री चंद्रचूड का रुख सरकार और न्यायपालिका के बीच का सम्बन्ध और संतुलन तय करेगा |  यदि वे सचमुच  भरोसा जीतना चाहते हैं तो उन्हें खुद होकर कालेजियम प्रथा समाप्त करने की पहल करनी चाहिये जिससे न्यायपालिका की गुणवत्ता और छवि दोनों में सुधार हो सके |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 9 November 2022

जिस अख़बार के साथ पाठकों का समर्थन हो उसे कोई नहीं झुका सकता



 9 नवम्बर 1989 थी  वो तारीख जिस दिन मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस का पहला अंक सम्माननीय पाठकों के हाथ आया था | वह दौर जबर्दस्त  राजनीतिक उठापटक का था | देश नई करवट ले रहा था | मंडल और मंदिर के मुद्दों के कारण पूरा राष्ट्र आंदोलित था और  सियासी समीकरण नया आकार ले रहे थे | महत्वाकांक्षाओं के विकृत रूप में सामने आने से  समाज को जातियों में खंडित करने का तानाबाना सामाजिक न्याय के नाम पर बुना जा रहा था | बेमेल गठबंधन और अवसरवाद समूचे राजनीतिक विमर्श पर हावी होने से जनमानस भ्रमित था | स्थापित प्रतिमाएं ध्वस्त होने के साथ ही नए भगवानों की प्राण प्रतिष्ठा की जा रही थी | कुल मिलाकर असमंजस चरम पर था | अविश्वास , अनिश्चितता और अस्थिरता के कारण सर्वत्र भ्रम और भय का माहौल बन गया | उस  माहौल में महाकोशल की राजनीतिक चेतनास्थली संस्कारधानी जबलपुर में जब एक नए सांध्य दैनिक का उदय हुआ तब उसके लिए अपनी जगह बनाना आसान नहीं था | लेकिन देखते - देखते मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस पाठकों की आदत बन गया | अपनी निर्भीक प्रस्तुति और सटीक टिप्पणियों के कारण उसे जनता का प्यार और समर्थन जिस मात्रा में मिलने लगा उसने हमारा हौसला बुलंद किया और हम साहस के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में समर्थ हो सके | आज तीन दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है | देश और दुनिया में बड़े परिवर्तन इस दौरान हुए हैं | राजनीति , अर्थव्यवस्था , कला , संस्कृति , समाचार माध्यम सभी में तब्दीली देखी जा सकती  है | सत्ता के  स्वरूप और संस्कृति में भी आमूल परिवर्तन हो गया है | कहना गलत न होगा कि राजनीति की दिशा पूरी तरह उलट गयी है | 1989 में तेजी से उभार ले रही हिन्दू लहर अब राष्ट्रीय मुख्यधारा बन चुकी है जबकि  मंडलवादी राजनीति अपने ही बनाए जाल में उलझकर दम तोड़ती जा रही है | देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अपनी प्रतिष्ठा बचाए  रखने के लिए संघर्ष कर रही है | भारत आर्थिक और सामरिक दृष्टि से विश्व के बड़े देशों के साथ बराबरी से बैठने की स्थिति में आ गया है | कोरोना जैसी महामारी का मुकाबला जिस कुशलता के साथ देश ने किया उसकी वजह से आम भारतीय का आत्मविश्वास और मजबूत हुआ है | दुनिया भर में भारतीय समुदाय अपने बुद्धिकौशल और पौरुष के बलबूते सम्मान और समृद्धि अर्जित कर रहा है | ब्रिटेन में ऋषि सुनक के प्रधानमन्त्री बन जाने से भारत का प्रभाव और प्रतिभा नए रूप  में सामने आई है | 33 साल की इस यात्रा में मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस एक जागरूक और जिम्मेदार समाचार पत्र के रूप में लगातार पाठकों के साथ बना रहा | हमने स्वस्थ पत्रकारिता की ध्वजा को जिस मजबूती से थामे रखा उसके कारण पत्रकारिता पर मंडराते  विश्वास के संकट के बावजूद इस समाचार पत्र ने अपनी विश्वसनीयता कायम रखी जो आज भी उसकी पहिचान बनी हुई है | लेकिन इस गौरव को हासिल करने के लिए हमें अनगिनत परेशानियों , अवरोधों और विरोध का सामना करना पड़ा | तकनीक में तेजी से होने वाले बदलाव के कारण लघु  और मध्यम  श्रेणी के समाचार पत्रों के सामने पूंजी का जबरदस्त संकट उत्पन्न होता जा रहा है | उसके साथ ही डिजिटल माध्यम के विकास ने समाचार पत्रों के लिए नई प्रतिस्पर्धा पेश कर दी है | लेकिन मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस इस सबसे अविचलित रहकर आगे बढ़ता जा रहा है | हमारे पाठकों का हम पर जो विश्वास है वह हमारी ऊर्जा का अक्षत स्रोत है | निःस्वार्थ भाव से हमें सहयोग देने वाले विज्ञापनदाताओं की उदारता हमारा संबल है | जिसके कारण पत्रकारिता के आदर्शों को अक्षुण्ण रखते हुए  संघर्षपथ पर बिना रुके  चलते रहने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं | जिसे पढ़े बिना शाम अधूरी है का जो विशेषण हमारे साथ शुरू से ही जुड़ा हुआ है , उसे बरकरार रखने हम संकल्पबद्ध भी हैं और समर्पित भी | आने वाला समय बेहद चुनौतीपूर्ण है | राजनीतिक घटनाचक्र भी तेजी से घूम रहा है | अगले साल म.प्र और उसके बाद लोकसभा का चुनाव होगा | समाचार माध्यमों के लिए ये समय अपनी साख बचाने का है | आरोपों और आक्षेपों की चौतरफ़ा बौछार के बीच उन्हें अपनी छवि के लिए जो संघर्ष करना पड़ रहा है उसके लिए काफी हद तक वे स्वयं भी जिम्मेदार हैं | लेकिन मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस अपने पाठकों को विश्वास दिलाता है कि हम आपके विश्वास की रक्षा करने में पीछे नहीं रहेंगे | दबाव और बहाव पहले भी आते रहे और आगे भी आयेंगे परन्तु उनके सामने झुकने की तासीर हमारी नहीं है | लिहाजा भविष्य में भी इन्हीं तेवरों के साथ ये यात्रा जारी रहेगी क्योंकि जिस अख़बार के साथ पाठकों का समर्थन हो उसे कोई नहीं झुका सकता |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 8 November 2022

वरना सामाजिक ढांचे में आ रही दरारें और चौड़ी होती जायेंगी



सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने गत दिवस आर्थिक दृष्टि से कमजोर सामान्य वर्ग के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश हेतु 10 प्रतिशत आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को निरस्त करते हुए इस बारे में व्याप्त अनिश्चितता खत्म कर दी | 8 जनवरी 2019 को लोकसभा चुनाव के पहले संसद ने उक्त संशोधन को स्वीकार किया था जिसे राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद कानून की शक्ल मिल गयी | फरवरी में ही उसके विरुद्ध याचिका सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पेश हो गई | अपने कार्यकाल के अंतिम दिन मुख्य न्यायाधीश यू. यू. ललित ने कल संशोधन की वैधता के पक्ष में फैसला सुनाया | हालाँकि पांच सदस्यीय संविधान पीठ के दो सदस्यों ने याचिकाओं को जायज ठहराया वहीं श्री ललित सहित तीन न्यायाधीशों ने उक्त क़ानून को संविधान की मूल भावना के विरुद्ध बताने वाली याचिकाओं को मंजूर करने लायक नहीं समझा | बहरहाल चूंकि सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने सवर्ण गरीबों को 10 फीसदी आरक्षण पर मुहर लगा दी है इसलिए इस बारे में बहस और विवाद समाप्त होने  चाहिए | आरक्षण का मूल उद्देश्य आर्थिक , सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से वंचित वर्ग के लोगों को विकास की राह पर आगे लाना था | देश की  आजादी के समय जो सामाजिक स्थिति थी उसमें अनु.जाति और जनजाति के लिए आरक्षण का जो प्रावधान संविधान में किया गया उसके औचित्य  और आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता था | जातिगत भेदभाव से ग्रसित समाज का बड़ा तबका सदियों से उपेक्षित और प्रताड़ित था | वर्ण व्यवस्था का विकृत स्वरूप जब जाति के तौर पर स्थापित हुआ तब समाज में विषमता और विद्वेष बढ़ता गया | इसे दूर करने के लिए महात्मा गांधी सहित अनेक समाज सुधारकों ने बड़े – बड़े आन्दोलन किये | उनका असर भी हुआ और छुआछूत को लेकर  समाज में व्याप्त अवधारणा काफी कुछ बदलने के बाद भी जातिगत भेदभाव बना हुआ था | आरक्षण ये सोचकर लागू किया गया था कि कुछ सालों बाद अनु. जाति और जनजाति के लोग शैक्षणिक रूप से आगे बढ़कर आर्थिक रूप से मजबूत होंगे जिसके आधार पर उनकी सामाजिक स्थिति में  सुधार होगा | लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि नौकरी और शिक्षा के लिए आरक्षण मिलने के बाद भी समाज की  मानसिकता अपेक्षित स्तर पर नहीं बदली | उसका परिणाम ये  हुआ कि  आरक्षण की समयावधि तो बढ़ाई जाती रही लेकिन वह अपने उद्देश्य में कितना सफल हुआ ये देखने के प्रति लापरवाही की वजह से आरक्षण अंतहीन प्रक्रिया में बदल गया |  धीरे – धीरे वह अपने उद्देश्य से भटककर वोट बटोरने का औजार बन बैठा | उसके बाद दौर आया ओबीसी आरक्षण का | 1989 में वीपी सिंह की सरकार बनने के बाद समाजवादियों के दबाव में आकर मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं | उस फैसले ने सामाजिक भेदभाव मिटाने की कोशिशों को बड़ा धक्का पहुँचाया | कुछ राज्यों ने जब अति पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का दांव चला तब आरक्षण की सीमा तय करने का मुद्दा उठा | इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने 50 फीसदी की सीमा तय कर दी किन्तु तमिलनाडु सहित अनेक राज्यों ने बड़ी ही चतुराई से उसके उल्लंघन की भी कानूनी स्वीकृति प्राप्त कर ली  | म.प्र में ओबीसी आरक्षण को लेकर काफी समय से कानूनी पेंच फंसा हुआ है | इसकी  वजह से स्थानीय निकाय के चुनाव भी कुछ समय के लिए टालने पड़े थे |  नौकरी के बाद पदोन्नति में आरक्षण के प्रावधान भी विवादों के घेरे में है | इन सबकी वजह से सामाजिक विद्वेष बढ़ रहा है | यद्यपि वह सतह पर भले न आये लेकिन राजनीतिक स्वार्थों के कारण जातिगत खाई और चौड़ी होती जा रही है | जाति से उपजाति , पिछड़े से  अति पिछड़े और दलित से महादलित तक की यात्रा में इतने हिचकोले हैं कि आरक्षण नामक गाडी के पुर्जे – पुर्जे आवाज करने लगे हैं  | आर्थिक दृष्टि से गरीब सामान्य वर्ग की जातियों को दिये गए 10 फीसदी आरक्षण को कुछ लोग इसे  समाप्त करने की दिशा में बढ़ाया गया कदम भी मानते हैं | इसके विरोधी ये कहने में नहीं चूकते कि जातिगत आरक्षण को हटाकर आर्थिक दृष्टि से कमजोर सभी वर्गों को आरक्षण का  लाभ दिलाने के लिए मोदी सरकार योजनाबद्ध तरीके से काम कर रही है | हालाँकि भाजपा और उसके वैचारिक अभिभावक रास्वसंघ की ओर से ये दोहराया जाता रहा है कि जब तक जरूरत रहेगी तब तक आरक्षण जारी रखा जावेगा | लेकिन दूसरी  तरफ ये भी सही है कि क्रीमी लेयर के लोगों के बढ़ते जाने से आरक्षित वर्ग के लोगों के बीच भी  वर्ग भेद उत्पन्न होने लगा है | वरना महादलित और अति पिछड़े वाली बातें सामने नहीं आतीं | ये देखते हुए आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण लागू किये जाने की मांग जोर पकड़ने लगी है | यही वजह है कि अब सभी राजनीतिक दलों द्वारा सवर्ण जातियों  को लुभाने की चालें  चली जा रही हैं | सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला नये राष्ट्रीय विमर्श को जन्म दे सकता है | हालाँकि वोट बैंक के मकड़जाल में फंसे राजनीतिक दल इस बारे में साहस के साथ मुंह खोलेंगे ये सोचना जल्दबाजी होगी | लेकिन समय आ गया है जब इस विषय पर सुलझे हुए मन से विचार होना चाहिए | भारतीय सामाजिक व्यवस्था का मूल स्वरूप वर्ग संघर्ष की बजाय वर्ग समन्वय पर जोर देता है | समाज से यदि जातिगत भेदभाव की दीवार हटाना है तो आरक्षण को भी युक्तियुक्त बनाना होगा | वरना सामाजिक ढांचे में आ रही दरारें और चौड़ी होती चली जायेगी |  


- रवीन्द्र वाजपेयी  


Friday 4 November 2022

गुजरात चुनाव से बदलेंगे राष्ट्रीय राजनीति के समीकरण



गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित हो गई | उसके पहले हिमाचल प्रदेश के चुनाव हो चुके होंगे | दिसंबर के पहले सप्ताह में दोनों परिणाम आने के बाद राष्ट्रीय राजनीति के समीकरणों में बड़ा बदलाव होने की संभावना है | इसकी एक वजह इस बार वहाँ त्रिकोणीय मुकाबला होना है | आम आदमी पार्टी पंजाब की शानदार सफलता के बाद हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनावों में पूरे जोर - शोर से उतरी है | हालांकि  उसकी मौजूदगी गुजरात में ज्यादा महसूस की जा रही है | इसकी वजह भी साफ़ है | दरअसल अरविन्द केजरीवाल की सोच ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के गृह प्रदेश में यदि उनकी पार्टी धमाकेदार प्रदर्शन कर सकी तो राष्ट्रीय स्तर पर ये सन्देश जायेगा कि भाजपा से सामने आकर टकराने का साहस केवल  आदमी पार्टी में ही है | इस बारे में उल्लेखनीय  है कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा के विरुद्ध विपक्ष का संयुक्त मोर्चा बनाने की जो कवायद अब तक चली है उसका नेतृत्व कौन करेगा ये निश्चित नहीं है | कांग्रेस को अब तक ये गुमान है कि बिना उसके झंडे तले गैर भाजपा गठबंधन बन ही नहीं सकता | दूसरी तरफ ममता बैनर्जी हमेशा की तरह मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग चिल्लाती फिरती हैं | तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की अपनी राजनीति है | कुल मिलाकर विपक्ष की समस्या ये है कि श्री मोदी के मुकाबले उसका चेहरा कौन होगा ये पक्का नहीं हो पा रहा |  अब तक जो देखने में आया है उससे ये लगता है कि कांग्रेस को तो श्री केजरीवाल से खुन्नस है ही क्योंकि आम आदमी पार्टी ने पहले दिल्ली और  फिर पंजाब में उसका सूपड़ा साफ़ कर दिया | हिमाचल प्रदेश और गुजरात में भी इस पार्टी के मैदान में उतरने का सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही होगा क्योंकि भाजपा विरोधी मतों में वही बटवारा करेगी | राजनीतिक विश्लेषक भी ये मानकर चल रहे हैं कि भले ही उक्त दोनों राज्यों में आम आदमी पार्टी कुछ ख़ास न कर  सके किन्तु वह कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में सक्षम जरूर है | श्री केजरीवाल की रणनीति भी यही है | उन्हें मालूम है कि जिन राज्यों में अन्य क्षेत्रीय दल मजबूत हैं वहां उनकी दाल नहीं गलने वाली लेकिन जहाँ कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा संघर्ष है वहां तीसरी ताकत के रूप में वे अपनी उपस्थिति इस एहसास के साथ करवाना चाहते हैं कि कांग्रेस डूबता जहाज है अतः भाजपा का विकल्प आम आदमी पार्टी ही बनेगी | इस दावे की वजनदारी इसलिए बढ़ जाती  है क्योंकि कांग्रेस के अलावा यही ऐसी विपक्षी पार्टी है जिसकी एक से अधिक राज्यों  में सरकारें हैं | दूसरी बात ये है कि श्री केजरीवाल  ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर मुफ्त बिजली और पानी के साथ ही शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में जो काम किया उसकी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा है | हिमाचल प्रदेश और गुजरात दोनों में श्री केजरीवाल दिल्ली सरकार की इन्हीं उपलब्धियों के आधार पर मतदाताओं को लुभाने में जुटे हैं | उन्हें कितनी कामयाबी मिलेगी ये तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही स्पष्ट होगा लेकिन इतना जरूर है कि कांग्रेस की हालत पतली करने में वे कामयाब नजर आ रहे हैं | अब तक चुनाव पूर्व जितने भी सर्वेक्षण आये हैं वे सभी उक्त दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार लौटने की उम्मीद जता रहे हैं |  यद्यपि ऐसे सर्वेक्षण अनेक बार बुरी तरह गलत भी साबित हुए हैं | विशेष रूप से हिमाचल प्रदेश में चूंकि छोटी विधानसभा है इसलिए मुकाबला नजदीकी हो सकता है | वैसे आम आदमी पार्टी चाह रही है कि दोनों राज्यों में  त्रिशंकु विधानसभा बने जिससे सत्ता का रिमोट कंट्रोल उसके हाथ आ जाए | लेकिन गुजरात में इसकी सम्भावना कम है और भाजपा 2017 की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन करने के आत्मविश्वास से भरपूर है क्योंकि अहमद पटेल के न रहने से कांग्रेस के पास कोई रणनीतिकार नहीं बचा | राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पार्टी ने वहां का प्रभारी बनाया जरूर लेकिन वे अपने ही राज्य में घिर गये हैं | दूसरे , राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के दौरान जिस तरह की नौटंकी उन्होंने की उसके बाद कांग्रेस के भीतर ही उनकी विश्वसनीयता कम हुई है | आम आदमी पार्टी कांग्रेस में उत्पन्न शून्य को भरते हुए गुजरात में खुद को दूसरे स्थान पर स्थापित करने में जुटी हुई है | कांग्रेस के टूटे हुए मनोबल का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उसके सबसे बड़े स्टार प्रचारक राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर हैं और उनका  चुनाव वाले इन दोनों राज्यों में प्रचार करने का कोई कार्यक्रम नहीं है | प्रियंका वाड्रा ने हिमाचल प्रदेश में मोर्चा संभाला जरूर है लेकिन उ.प्र में उनके नेतृत्व में कांग्रेस के दयनीय प्रदर्शन के बाद इस पहाड़ी राज्य में भी उनसे किसी चमत्कार की उम्मीद राजनीति के जानकार नहीं कर रहे हैं | वैसे 70 विधायकों और चार लोकसभा सीटों के कारण हिमाचल प्रदेश राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा असर नहीं रखता | हालाँकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का गृह राज्य होने से यहाँ  उनकी प्रतिष्ठा दांव पर है | और फिर यहाँ हर चुनाव में सरकार बदल जाने का सिलसिला चला आ रहा है किन्तु आम आदमी पार्टी के कूदने के कारण कांग्रेस को नुकसान होना तय है | रही बात गुजरात की तो पिछले चुनाव में भाजपा को बहुमत प्राप्त करने में पसीना आ गया था | हालाँकि बाद में उसने कांग्रेस में जमकर तोड़फोड़ मचाई और पांच साल सरकार भी चलाई | लेकिन मुख्यमंत्री सहित पूरे मंत्रीमंडल को बदलने की मजबूरी भी उसे झेलनी पड़ीं | सत्ता विरोधी रुझान को टालने के लिए प्रधानमंत्री ने लगातार गुजरात के दौरे किये और गृह मंत्री भी मौका पाते ही अपना घर बचाने आते रहे हैं | आम आदमी पार्टी हालाँकि ये दावा कर रही है कि मुकाबला उसके और भाजपा के बीच है लेकिन सर्वेक्षणों में उसे तीसरे स्थान पर ही दिखाया जा रहा है | इस बात को  जानते तो श्री केजरीवाल भी  हैं लेकिन उनका निशाना कांग्रेस है | अगर वे गुजरात में मुख्य विपक्षी दल बन सके तो अगले साल राजस्थान , म.प्र और छत्तीसगढ़ के चुनाव में वे पूरी ताकत झोंकेगे जहाँ  कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी लड़ाई होती रही है | लोकसभा चुनाव आने से पहले श्री केजरीवाल अपनी पार्टी को भाजपा का मुकाबला करने में सक्षम साबित करने के जिस अभियान में जुटे हैं उसका भविष्य काफी हद तक गुजरात चुनाव के नतीजों से तय हो जाएगा |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 3 November 2022

पायलट के कटाक्ष में छिपे हैं कई संकेत



राजस्थान में कांग्रेस की अंतर्कलह थमने का नाम नहीं ले रही | हालाँकि आलाकमान के समझाने पर दोनों खेमों द्वारा ऐसा दर्शाया जाता रहा  कि सब कुछ समान्य है परंतु  मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और मुख्यमंत्री बनने के लिए लम्बे समय से हाथ -  पांव मार रहे सचिन पायलट के बीच बयानों के तीर नहीं रुके  | इसमें कौन ज्यादा दोषी है और कौन कम , ये कह पाना कठिन है क्योंकि दोनों के बीच चल रहा शीतयुद्ध सत्ता की खातिर है | एक बार तो श्री पायलट राजस्थान से अपने समर्थक विधायकों को लेकर भाजपा के संरक्षण में हरियाणा जाकर बैठ गए थे | हालाँकि सरकार गिराने के लिए पर्याप्त संख्याबल जुटाने में असफल रहने के कारण वे वापिस लौट आए किन्तु उनके और मुख्यमंत्री के बीच दिखावटी सौहार्द्रता के बावजूद मनो - मालिन्य बना रहा | सबसे बड़ा पेच ये है कि गांधी परिवार चाहता तो था कि सचिन को राजस्थान की गद्दी पर बिठा दिया जाए लेकिन श्री गहलोत को हिलाने की उसकी सारी कोशिशें बेकार साबित हुई. | उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर श्री पायलट का रास्ता साफ़ करने की कोशिश भी बुरी तरह फुस्स साबित हुई | श्री गहलोत ने उस दौरान जिस तरह के तेवर दिखाए उनसे कांग्रेस आलाकमान के साथ ही गांधी परिवार की  धाक को भी धक्का पहुंचा | उससे भी ज्यादा हंसी का पात्र बने श्री पायलट जिनकी स्थिति मुख्यमंत्री के धोबी पछाड़ दांव से न घर के रहे न घाट के वाली होकर रह गई | श्री गहलोत भी अवसर मिलते ही बिना झिझके उनके बारे में जो कुछ कहते रहे उससे साफ़ हो गया कि वे झुकने तैयार नहीं हैं | कांग्रेस अध्यक्ष का पद ठुकराकर उन्होंने जब राजस्थान की सत्ता को प्राथमिकता दी तभी ये साफ़ हो चला था कि वे श्री पायलट के प्रति किसी भी प्रकार की उदारता बरतने के लिए तैयार नहीं हैं | हालाँकि बीते कुछ महीनों से मुख्यमंत्री के बारे में सचिन ने कोई तीखी बात नहीं कही जिसकी वजह ये मानी जा रही थी कि संभवतः उनको पार्टी आलाकमान  ये आश्वासन दे चुका है कि देर सवेर उनके अच्छे दिन आएंगे | कांग्रेस अध्यक्ष के  चुनाव के दौरान श्री गहलोत ने जिस तरह का पैंतरा दिखाया उसके बाद ये कयास लगाये जाने लगे थे कि गांधी परिवार  उनको पहले जैसा महत्व शायद नहीं देगा | कांग्रेस विधायक दल का नया नेता चुनने के लिए जयपुर आये पर्यवेक्षक मल्लिकार्जुन खरगे और अजय माकन के साथ जिस तरह का अपमानजनक व्यवहार गहलोत समर्थक विधायकों ने किया वह कांग्रेस के लिए अभूतपूर्व था | उन दोनों ने दिल्ली लौटकर आलाकमान को जो रिपोर्ट दी उसके बाद कुछ विधायकों को नोटिस भी दिए गए लेकिन अभी तक किसी का बाल बांका तक न हुआ | इसका कारण उनको श्री गहलोत का संरक्षण प्राप्त होना ही था | कुछ समय बाद मुख्यमंत्री राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में भी शामिल होकर लौट आये | उसके बाद ये लगा कि शायद गांधी परिवार ने उनको अभयदान दे दिया है | बीच में राजस्थान में हुए निवेशक सम्मेलन में उद्योगपति गौतम अडाणी की जब उन्होंने खुले मंच से तारीफ़ की तो कांग्रेस के भीतर खुसफुसाहट  शुरू हुई क्योंकि श्री गांधी लगभग रोजाना ही अम्बानी और अडाणी की तीखी आलोचना  किया करते हैं | लेकिन आश्चर्य तब हुआ जब उन्होंने भी ये कहते हुए श्री गहलोत को क्लीन चिट दे दी कि राजस्थान में उन्हें गलत तरीके से उपकृत नहीं किया जावेगा और यदि वैसा हुआ तब वे सबसे पहले उसका विरोध करेंगे | धीरे – धीरे ये बात तय मान ली गई कि श्री गहलोत ही आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का चेहरा होंगे | ऐसे में सवाल ये उठने लगा कि सचिन का भविष्य क्या होगा ? भले ही वे अपनी तरफ से मुख्यमंत्री के विरुद्ध कुछ बोलने से बचते रहे लेकिन श्री गहलोत ने उनके बारे में बोलने में ज़रा सी भी नरमी नहीं दिखाई | लेकिन अचानक ऐसा कुछ हो गया जिससे दोनों के बीच की खटास फिर सामने आने लगी | हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी  आयोजन में श्री गहलोत की तारीफ़ कर डाली जो कि ऐसे अवसरों पर राजनीतिक सौजन्यता का हिस्सा होता है | लेकिन श्री पायलट ने उसे मुद्दा बनाते हुए ये कटाक्ष कर दिया कि प्रधानमंत्री ने ऐसी ही प्रशंसा गुलाम नबी आजाद की भी की थी | स्मरणीय है राज्यसभा से विदाई के समय दिए गए भाषण में श्री मोदी ने श्री आज़ाद के प्रति जिस तरह की आत्मीयता और  प्रशंसा भरे उद्गार  व्यक्त किये उसके बाद ही ये कयास लगाये जाने लगे थे कि वे कांग्रेस से किनारा करने वाले हैं | ये बात भी सही है कि राज्यसभा की सदस्यता के कारण ही न सिर्फ श्री आजाद अपितु कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा जैसे वरिष्ट नेता तक कोप भवन में बैठ गये | जी 23 नामक समूह इसलिए अस्तित्व में आया था | श्री सिब्बल तो पार्टी छोड़कर सपा से राज्यसभा टिकिट लेकर उच्च सदन में लौट आये | श्री शर्मा ने भी भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा से मिलकर सनसनी मचा दी थी किन्तु अभी तक वे पार्टी में बने हुए हैं | दूसरी तरफ गुलाम नबी ने जम्मू  कश्मीर में अपनी अलग पार्टी बना ली | श्री पायलट ने श्री मोदी द्वारा की गई प्रशंसा के बहाने श्री गहलोत पर जो तीर छोड़ा उसका वैसे तो प्रभाव होता नजर नहीं आता | लेकिन इससे ये संकेत मिला है कि मुख्यमंत्री ने जिस तरह से अपनी सक्रियता समूचे राज्य में बढ़ा दी है वह उनके बढे हुए आत्मविश्वास का प्रमाण है परन्तु अचानक श्री पायलट ने उन पर जो व्यंग्य बाण छोड़ा उसे आसानी से हवा में नहीं  उड़ाया जा सकता | इसे आने वाले किसी बड़े राजनीतिक घटनाक्रम की आहट भी समझा जा सकता है | बहरहाल राजस्थान में कांग्रेस को जितना खतरा भाजपा से है उससे भी ज्यादा श्री पायलट से नजर आ रहा है क्योंकि वे घायल शेर जैसी  मानसिकता दर्शा रहे हैं | उन्हें धीरे – धीरे ही सही ये लगने लगा है कि उनके पास खोने को कुछ नहीं है इसलिए वे इस बार ऐसा वार  कर सकते हैं जो खाली न जाए | वैसे भी चुनाव के समय घात – प्रतिघात के नए – नए रूप देखने मिलते हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी


 

Wednesday 2 November 2022

सुनी जो उनके आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गत दिवस गुजरात के मोरबी में गए और पुल टूटने के कारण हुई दुर्घटना में घायल लोगों से अस्पताल में मिलकर उन्हें ढांढस बंधाया | श्री मोदी चूंकि गुजरात के ही हैं और वहां जल्द विधान सभा चुनाव होने वाले हैं इसलिए उनका  वहां जाना स्वाभाविक ही था | घायलों की सहानुभूति अर्जित करने के लिए अन्य दलों के नेता भी ऐसा करते हैं और इसे गलत नहीं कहा  जा सकता | लेकिन महत्वपूर्ण ये नहीं कि प्रधानमंत्री ने जाकर घटनास्थल का मुआयना कर हादसे के कारणों की जानकारी ली और अस्पताल में जाकर घायलों से मिलकर उनका हौसला बढ़ाया , बल्कि ये कि उनके आने के पहले आनन फानन में अस्पताल में रंग रोगन करवाया गया , नये  वाटर कूलर रखे गये | और भी जो कमियां छिपाई  जा सकती थीं उन पर पर्दा डालने का भरपूर प्रयास अस्पताल प्रबंधन और जिला प्रशासन द्वारा किया गया | प्रधानमंत्री के आने पर साफ़ - सफाई , यातायात  नियंत्रण और सुरक्षा की दृष्टि से किये जाने इंतजाम अपनी जगह  उचित हैं | लेकिन जिस तरह की दुर्घटना मोरबी में हुई उसके बाद श्री मोदी के वहां आकर घायलों से मिलने के अवसर पर किया जाने  वाला दिखावा ये साबित  करने के लिए काफी है कि हमारे देश में सरकारी मशीनरी की सोच और कार्यपद्धति कश्मीर से  कन्याकुमारी तक एक जैसी है | प्रधानमंत्री गुजरात के 12 वर्षों तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं | ऐसे में उनको वहाँ  की जमीनी हकीकत न पता हो ये असंभव है | और फिर यदि वे किसी  जलसे में आ रहे होते तो उस स्थान की साज - सज्जा का औचित्य भी होता परन्तु जिस दुर्घटना में लगभग 150 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए उसके बाद शासन – प्रशासन का ध्यान इस बात पर होना चाहिये कि घायलों के इलाज की बेहतर व्यवस्था हो | प्रधानमंत्री के आगमन का लाभ लेकर अस्पताल की बेहतरी के  लिए मदद लेने का प्रयास भी उचित रहता | लेकिन बजाय उसके सरकारी अमला रंगाई – पुताई के काम में उलझ गया | ऐसा नहीं है कि श्री मोदी की  नजरों  से वह छिपा रहा हो लेकिन वे भी बतौर मुख्यमंत्री ये सब  देखते रहे हैं | अच्छा होता यदि वे खुद होकर राज्य शासन के जो मंत्री वहां  थे उन्हें फटकार लगाते इस तरह के दिखावटी इंतजाम पर नाराजी जताते | शायद मौके की नजाकत भांपते हुए वे चुप रहे जिसके पीछे चुनाव भी हो सकते हैं किन्तु समय आ गया है जब इस तरह के कर्मकांड रोकने  की दिशा में काम हो | समाचार माध्यम तो अक्सर ऐसे मामलों में सरकारी तंत्र की खिचाई करते ही हैं लेकिन राजनीतिक पदों पर विराजमान महानुभाव इस तरह के सामंतवादी क्रिया - कलापों के विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठाते ये बड़ा सवाल है | अंग्रेजों के ज़माने में ये सब होना स्वाभाविक था क्योंकि वे इस देश को अपना गुलाम समझते थे | मुम्बई में इंग्लैण्ड के सम्राट के आगमन पर गेट वे बनाया जाना इसका प्रमाण था | लेकिन आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी हमारी सोच में वही कुछ बना रहना शोचनीय है | मोरबी के अस्पताल में ऐसा होना कोई पहली घटना नहीं थी इसलिए किसी को उस पर आश्चर्य नहीं हुआ | पूरे देश में आये दिन इस तरह की नाटकबाजी चला करती है | प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के आने पर उनके ठहरने वाले विश्राम गृह में सब कुछ नया कर दिया  जाता है ।  जिन रास्तों से उनकी सवारी निकलने वाली होती है  उन्हें भी रातों – रात सुधार दिया जा जाता है | यदि दो – चार दिन का समय भी मिल जाता है तब तो पूरी सड़क नई बना दी जाती है | मौजूदा राष्ट्रपति बेहद गरीब हालात से आई हैं | प्रधानमंत्री भी साधारण परिस्थितियों से उठकर इस पद पर आये हैं | उन्हें इस देश और यहाँ के लोगों के दुःख – दर्द अच्छी  तरह से पता हैं | राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करते समय वे उन दुर्दशाओं का प्रत्यक्ष दर्शन और अनुभव कर चुके होंगे | ऐसे में उनसे अव्यवस्था को छिपाना मायने नहीं रखता | होना तो ये चाहिए कि बड़े ओहदों पर बैठे महानुभाव खुद होकर इस तरह के दिखावों पर रोष व्यक्त करते हुए इस बात को पूछें कि इस सबकी क्या आवश्यकता थी ? उल्लेखनीय है अति विशिष्ट जनों के आगमन पर होने वाले खर्च में भारी भ्रष्टाचार होता है | ऑडिट करने वाले भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के कार्यक्रमों पर हुए खर्च पर ऐतराज करने से डरते हैं | मोरबी के अस्पताल में श्री मोदी के आने के खबर के बाद हुए रंग – रोगन से अस्पताल की समूची व्यवस्था चरमराई होगी | वहां भर्ती मरीजों को भी बेशक परेशानी झेलनी पड़ी | लेकिन राज्य  सरकार ने जिला प्रशासन और उसने अस्पताल प्रबंधन को कसा होगा कि प्रधानमंत्री के वहां आने के पहले सब कुछ चकाचक हो जाना चाहिए और ऊपर से आये हुक्म के मुताबिक़ श्री मोदी के आगमन के पहले अस्पताल को चमका दिया जाए | प्रधानमंत्री की सुरक्षा का सवाल आड़े आता है अन्यथा यदि वे अस्पताल का औचक निरीक्षण करें तब उन्हें समझ आयेगा कि वास्तविकता क्या है ? ये चलन पूरे देश में एक समान है | मंत्री के दौरे पर आयोजन स्थल पर गड्ढे खोदकर गमले गाड़ दिए जाते हैं जो उनके जाते ही निकाल लिए जाते हैं | और भी  जो कुछ किया जाता है वह जगजाहिर है | सवाल ये है कि जिन उच्च पदस्थ लोगों को जनता की तकलीफें दिखाई जानी चाहिए उनसे उनको छिपाना अव्वल दर्जे की मूर्खता भी है और धोखेबाजी भी | आश्चर्य इस बात का है कि जिन लोगों के सामने ये दिखावा किया जाता है वे भी हकीकत से वाकिफ होने पर भी शांत बने रहते हैं | 


- रवीन्द्र वाजपेयी