Friday 11 November 2022

लाल टोपी लगाने मात्र से लोहियावादी पहचान नहीं मिलती



राजनीतिक दल किसे अपना उम्मीदवार बनायें ये उनका विशेषाधिकार है |  चूंकि उन्हें जनता से समर्थन लेना होता है इसलिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह क्या चाहती है ? संदर्भ उ.प्र की मैनपुरी लोकसभा सीट का है जो समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन से रिक्त हुई है | उस पर होने जा रहे उपचुनाव हेतु सपा ने पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव को उम्मीदवार बनाने की घोषणा की है जो अतीत में भी सांसद रह चुकी हैं | 2019 के चुनाव में वे हार गई थीं | कुछ समय पूर्व आजमगढ़ में हुए उपचुनाव में भी डिम्पल को मैदान में उतारने की चर्चा चली किन्तु टिकिट किसी और को दिया गया तब लगा कि अखिलेश ने परिवारवाद के आरोप से बचने के लिए वह फैसला लिया था | लेकिन एन वक्त पर अचानक वह निर्णय उलट दिया गया और अखिलेश ने अपने चचेरे भाई पूर्व सांसद धर्मेन्द्र यादव को उम्मीदवारी दे दी जो  कि 2019 में पराजित हो चुके थे | उस फैसले को सपा कार्यकर्ताओं और जनता दोनों ने पसंद नहीं  किया और पार्टी के हाथ से उसकी परम्परागत सीट चली गयी | होना तो ये चाहिए था कि अखिलेश उस नतीजे से सबक लेते हुए इस बात का एहसास करते कि उनके राजनीतिक उत्थान में उनके पिता मुलायम सिंह की भूमिका रही है | मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने  पार्टी पर कब्जा करने के लिए  अपने चाचा शिवपाल  यादव और पिता के करीबी अमर सिंह , बेनीप्रसाद वर्मा और पार्टी का अल्पसंख्यक चेहरा रहे आज़म खां को हाशिये पर धकेलते हुए पिता को नाममात्र का अध्यक्ष बना डाला | यही वजह है कि 2012 के बाद से अखिलेश की राजनीति ढलान  पर आती चली गयी | 2014 का लोकसभा , और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की धमाकेदार जीत के बाद अखिलेश को जनमत का रुझान समझ जाना चाहिए था किन्तु अपने पिता के लचीलेपन और संघर्षशीलता से उन्होंने सीख नहीं ली  और इस मुगालते में बैठे रहे कि घूम -फिरकर  सत्ता उनके पास आ जायेगी | 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जिस अंदाज में वापसी की उसके बाद अखिलेश की पकड़ और कमजोर हुई है  | मुलायम सिंह का स्वास्थ्य लगातार खराब होते जाने से परिवार में बिखराव तेज होने लगा | शिवपाल अपनी अलग पार्टी बनाकर बैठ गये | आज़म खान को जेल जाना पड़ा | सौतेले भाई की  पत्नी 2022 के विधानसभा चुनाव के समय ही भाजपा में शामिल हो गयी  | अनेक  छोटी पार्टियों और जातिगत समीकरणों को साधकर अखिलेश सोचने लगे कि  वे योगी  आदित्यनाथ के आभामंडल को नष्ट कर देंगे लेकिन जब परिणाम आये तो निराशा ही उनके हाथ लगी  |  किसान आन्दोलन का लाभ लेने के लिए लोकदल नेता जयंत चौधरी से हाथ मिलाने की जुगत भी काम नहीं आई | मुसलमानों के दम पर योगी को हराने की रणनीति औंधे मुंह गिरी | जो ओबीसी नेता साथ आये थे वे भी दायें बाएं होने लगे | ओवैसी की पार्टी ने मुसलमानों के बीच नए नेतृत्व की जो ललक पैदा की उसकी वजह से सपा का मुस्लिम जनाधार दरकने लगा | यहाँ तक कि यादव बहुल इलाकों तक में अखिलेश को पहले जैसा समर्थन नहीं मिला | हाल ही में हुए उपचुनावों के नतीजे सपा के लिए किसी झटके से कम नहीं हैं | जब तक मुलायम सिंह जीवित थे तब तक शिवपाल सिंह भी थोड़ा लिहाज रखते थे किन्तु उनका अंतिम संस्कार होते ही उन्होंने संवाददाताओं से बात करते हुए जिस तरह की राजनीतिक टिप्पणियाँ कीं उनसे ये लग गया कि वे ज्यादा समय तक परिवार का संकोच  नहीं करेंगे | ये उम्मीद जताई  जा रही थी दो लोकसभा और हाल ही में संपन्न विधानसभा उपचुनाव हारने के बाद अखिलेश  पार्टी के जनाधार के विस्तार पर ध्यान देंगे लेकिन मैनपुरी सीट परंतु अपनी पत्नी को उम्मीदवार बनाकर उन्होंने एक बार फिर  अपनी सीमित सोच का परिचय दे दिया | हालाँकि इस बात की सम्भावना है कि नेताजी के नाम से लोकप्रिय रहे मुलायम सिंह की मृत्यु के कारण उनके परिवार की परम्परागत मैनपुरी सीट पर सहानुभति लहर में डिंपल जीत जायेंगीं परन्तु उनकी बजाय पार्टी किसी ऐसे नेता को उतारती जो राज्य में उसके संगठन के विस्तार में सहायक होता तब शायद भविष्य की दृष्टि से उसे लाभ मिलता | उस दृष्टि से मुलायम सिंह ज्यादा व्यवहारिक थे जिन्होंने परिवारवाद और जातिवाद तो जमकर चलाया तथा अपने भाई  शिवपाल और रामगोपाल के साथ ही भतीजों को भी उपकृत किया | लेकिन जनेश्वर मिश्र सहित पुराने  समाजवादी छत्रपों को वे सदैव महत्व देते रहे | राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री पद पर अखिलेश को बिठा दिया लेकिन वहीं से सपा में विघटन की शुरुआत होने लगी | हालाँकि  नेताजी के रहते हुए असंतुष्ट तबका अपनी  नाराजगी को दबाये रहा | लेकिन अब हालात पहले जैसे नहीं हैं | पता नहीं अखिलेश इस वास्तविकता को क्यों नहीं समझ रहे | लोकसभा में पार्टी को अपनी आवाज रखने के लिए जुझारू लोगों की जरूरत है न कि परिवार के सदस्यों की | उ.प्र की राजनीति में सपा दूसरी बड़ी शक्ति मानी जाती है किन्तु ये कहने में कुछ भी  गलत नहीं है कि मुलायम सिंह के न रहने  के बाद उसका आधार बरकरार रखना आसान नहीं होगा | लाल टोपी लगा लेने के बाद भी अखिलेश लोहियावादी पहिचान नहीं रखते और यही उनकी समस्या बन गई है |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

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