Tuesday 8 November 2022

वरना सामाजिक ढांचे में आ रही दरारें और चौड़ी होती जायेंगी



सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने गत दिवस आर्थिक दृष्टि से कमजोर सामान्य वर्ग के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश हेतु 10 प्रतिशत आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को निरस्त करते हुए इस बारे में व्याप्त अनिश्चितता खत्म कर दी | 8 जनवरी 2019 को लोकसभा चुनाव के पहले संसद ने उक्त संशोधन को स्वीकार किया था जिसे राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद कानून की शक्ल मिल गयी | फरवरी में ही उसके विरुद्ध याचिका सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पेश हो गई | अपने कार्यकाल के अंतिम दिन मुख्य न्यायाधीश यू. यू. ललित ने कल संशोधन की वैधता के पक्ष में फैसला सुनाया | हालाँकि पांच सदस्यीय संविधान पीठ के दो सदस्यों ने याचिकाओं को जायज ठहराया वहीं श्री ललित सहित तीन न्यायाधीशों ने उक्त क़ानून को संविधान की मूल भावना के विरुद्ध बताने वाली याचिकाओं को मंजूर करने लायक नहीं समझा | बहरहाल चूंकि सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने सवर्ण गरीबों को 10 फीसदी आरक्षण पर मुहर लगा दी है इसलिए इस बारे में बहस और विवाद समाप्त होने  चाहिए | आरक्षण का मूल उद्देश्य आर्थिक , सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से वंचित वर्ग के लोगों को विकास की राह पर आगे लाना था | देश की  आजादी के समय जो सामाजिक स्थिति थी उसमें अनु.जाति और जनजाति के लिए आरक्षण का जो प्रावधान संविधान में किया गया उसके औचित्य  और आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता था | जातिगत भेदभाव से ग्रसित समाज का बड़ा तबका सदियों से उपेक्षित और प्रताड़ित था | वर्ण व्यवस्था का विकृत स्वरूप जब जाति के तौर पर स्थापित हुआ तब समाज में विषमता और विद्वेष बढ़ता गया | इसे दूर करने के लिए महात्मा गांधी सहित अनेक समाज सुधारकों ने बड़े – बड़े आन्दोलन किये | उनका असर भी हुआ और छुआछूत को लेकर  समाज में व्याप्त अवधारणा काफी कुछ बदलने के बाद भी जातिगत भेदभाव बना हुआ था | आरक्षण ये सोचकर लागू किया गया था कि कुछ सालों बाद अनु. जाति और जनजाति के लोग शैक्षणिक रूप से आगे बढ़कर आर्थिक रूप से मजबूत होंगे जिसके आधार पर उनकी सामाजिक स्थिति में  सुधार होगा | लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि नौकरी और शिक्षा के लिए आरक्षण मिलने के बाद भी समाज की  मानसिकता अपेक्षित स्तर पर नहीं बदली | उसका परिणाम ये  हुआ कि  आरक्षण की समयावधि तो बढ़ाई जाती रही लेकिन वह अपने उद्देश्य में कितना सफल हुआ ये देखने के प्रति लापरवाही की वजह से आरक्षण अंतहीन प्रक्रिया में बदल गया |  धीरे – धीरे वह अपने उद्देश्य से भटककर वोट बटोरने का औजार बन बैठा | उसके बाद दौर आया ओबीसी आरक्षण का | 1989 में वीपी सिंह की सरकार बनने के बाद समाजवादियों के दबाव में आकर मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं | उस फैसले ने सामाजिक भेदभाव मिटाने की कोशिशों को बड़ा धक्का पहुँचाया | कुछ राज्यों ने जब अति पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का दांव चला तब आरक्षण की सीमा तय करने का मुद्दा उठा | इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने 50 फीसदी की सीमा तय कर दी किन्तु तमिलनाडु सहित अनेक राज्यों ने बड़ी ही चतुराई से उसके उल्लंघन की भी कानूनी स्वीकृति प्राप्त कर ली  | म.प्र में ओबीसी आरक्षण को लेकर काफी समय से कानूनी पेंच फंसा हुआ है | इसकी  वजह से स्थानीय निकाय के चुनाव भी कुछ समय के लिए टालने पड़े थे |  नौकरी के बाद पदोन्नति में आरक्षण के प्रावधान भी विवादों के घेरे में है | इन सबकी वजह से सामाजिक विद्वेष बढ़ रहा है | यद्यपि वह सतह पर भले न आये लेकिन राजनीतिक स्वार्थों के कारण जातिगत खाई और चौड़ी होती जा रही है | जाति से उपजाति , पिछड़े से  अति पिछड़े और दलित से महादलित तक की यात्रा में इतने हिचकोले हैं कि आरक्षण नामक गाडी के पुर्जे – पुर्जे आवाज करने लगे हैं  | आर्थिक दृष्टि से गरीब सामान्य वर्ग की जातियों को दिये गए 10 फीसदी आरक्षण को कुछ लोग इसे  समाप्त करने की दिशा में बढ़ाया गया कदम भी मानते हैं | इसके विरोधी ये कहने में नहीं चूकते कि जातिगत आरक्षण को हटाकर आर्थिक दृष्टि से कमजोर सभी वर्गों को आरक्षण का  लाभ दिलाने के लिए मोदी सरकार योजनाबद्ध तरीके से काम कर रही है | हालाँकि भाजपा और उसके वैचारिक अभिभावक रास्वसंघ की ओर से ये दोहराया जाता रहा है कि जब तक जरूरत रहेगी तब तक आरक्षण जारी रखा जावेगा | लेकिन दूसरी  तरफ ये भी सही है कि क्रीमी लेयर के लोगों के बढ़ते जाने से आरक्षित वर्ग के लोगों के बीच भी  वर्ग भेद उत्पन्न होने लगा है | वरना महादलित और अति पिछड़े वाली बातें सामने नहीं आतीं | ये देखते हुए आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण लागू किये जाने की मांग जोर पकड़ने लगी है | यही वजह है कि अब सभी राजनीतिक दलों द्वारा सवर्ण जातियों  को लुभाने की चालें  चली जा रही हैं | सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला नये राष्ट्रीय विमर्श को जन्म दे सकता है | हालाँकि वोट बैंक के मकड़जाल में फंसे राजनीतिक दल इस बारे में साहस के साथ मुंह खोलेंगे ये सोचना जल्दबाजी होगी | लेकिन समय आ गया है जब इस विषय पर सुलझे हुए मन से विचार होना चाहिए | भारतीय सामाजिक व्यवस्था का मूल स्वरूप वर्ग संघर्ष की बजाय वर्ग समन्वय पर जोर देता है | समाज से यदि जातिगत भेदभाव की दीवार हटाना है तो आरक्षण को भी युक्तियुक्त बनाना होगा | वरना सामाजिक ढांचे में आ रही दरारें और चौड़ी होती चली जायेगी |  


- रवीन्द्र वाजपेयी  


No comments:

Post a Comment