Tuesday 29 November 2022

न्यायाधीशों की नियुक्ति : एकाधिकार न सरकार का हो न न्यायपालिका का



सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में केंद्र सरकार द्वारा किये जाने वाले  विलम्ब पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा है कि कालेजियम की सिफरिशों में कुछ को रोके रखने से  कालान्तर में न्यायाधीशों की वरिष्टता प्रभावित होती है | मसलन उच्च न्यायालय में किसी न्यायाधीश द्वारा पदभार ग्रहण करने की तिथि से ही भविष्य में उसके सर्वोच्च न्यायालय जाने की सम्भावना बनती है | एक दिन की देरी भी उसके लिये नुकसानदेह हो सकती है | इसीलिये जो लोग कम आयु में  न्यायाधीश बन जाते हैं उनके लिए भारत का प्रधान न्यायाधीश बनने तक का रास्ता साफ़ हो जाता है | गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान यहाँ तक कहा कि लगता है सरकार उसके द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग ( एन.जे.सी ) को रद्द करने के फैसले से नाराज है | उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार के पास कालेजियम द्वारा भेजी सिफारिशों में से कुछ उसने विचारार्थ रोक रखी हैं | सर्वोच्च न्यायालय का ये कहना सही है कि  इसके कारण न्यायाधीशों का वरिष्टता क्रम प्रभावित होता है | साथ ही  पद रिक्त रहने से लंबित प्रकरणों का ढेर बढ़ता जा रहा है | दरअसल सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र  सरकार के बीच कालेजियम व्यवस्था  को लेकर लंबे समय से शीतयुद्ध चला आ रहा है | 2015 में संसद द्वारा लोकसेवा आयोग की तर्ज पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाकर उसके माध्यम से  नियुक्ति की जो व्यवस्था बनाई गयी उसे सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया | कानून मंत्री किरण रिजुजू ने हाल ही में नियुक्ति आयोग को पुनर्जीवित करने के संकेत दिए हैं | उसी क्रम में गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय में जिस तरह की बातें  हुईं उसके बाद तनाव और बढ़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता | संविधान दिवस पर आयोजित समारोह में हालाँकि क़ानून मंत्री ने विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका को एक ही संविधान की संतान बताते हुए मिलकर काम करने की बात कही किन्तु कल जो कुछ हुआ उसके बाद ये कहना गलत न होगा कि कालेजियम , सरकार और न्यायपालिका के बीच प्रतिष्ठा का विषय बनता जा रहा है | कानून मंत्री मौका मिलते ही इसकी खामियों को गिनाने से नहीं चूकते वहीं  न्यायपालिका उसको छोड़ने के लिए किसी भी सूरत में राजी नहीं लगती | ऐसे में सवाल ये है कि अगर केंद्र सरकार दोबारा न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रस्ताव संसद से पारित करवा लेती है तब क्या सर्वोच्च न्यायालय उसे फिर से रद्द कर देगा ? गत दिवस न्यायाधीश संजय किशन कौल ने केंद्र के रवैये पर तंज कसते  हुए यहाँ तक कह दिया कि ऐसे में व्यवस्था कैसे चलेगी ?  हालाँकि कालेजियम प्रथा के प्रति  अधिवक्ताओं के एक वर्ग में भी असंतोष व्यक्त होता रहा है | जिन आधारों  पर किसी  अधिवक्ता को न्यायाधीश बनाये जाने की अनुशंसा की जाती  है उनकी प्रामाणिकता अक्सर विवाद में रही है | इसके जरिये न्यायाधीश बन गये  अनेक लोग बाद में उपहास के पात्र बनते हैं और अधिवक्ता समुदाय भी उनके प्रति अपेक्षित सम्मान  नहीं रखता | गत दिवस  जबलपुर उच्च न्यायालय  द्वारा जिन अधिवक्ताओं को न्यायाधीश बनाये जाने की सिफारिश सर्वोच्च न्यायालय भेजे जाने की खबर है उनमें से एक को लेकर हाईकोर्ट बार एसोसियेशन ने ये कहते हुए खुला विरोध किया कि वे म.प्र के निवासी नहीं हैं | इसी तरह के ऐतराज समय – समय पर उठते रहे हैं | ऐसे अनेक नामों की अनुशंसा भी होती रही है जो बतौर अधिवक्ता तो प्रभाव नहीं छोड़ पाए परन्तु  उनका सम्बन्ध किसी ऐसे परिवार से रहा  जिसमें न्यायाधीश बनते रहे हैं | यद्यपि ये कहना तो बेमानी होगा कि कालेजियम  द्वारा अनुशंसित सभी नाम योग्यता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते किन्तु उनमें से किसी नाम को केंद्र सरकार द्वारा लौटाए जाने के बाद कालेजियम यदि दोबारा भेजता है तब सरकार के पास उसे मंजूर करने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं बचता | लेकिन वह उसे कितने समय तक रोककर रख सकती है इसकी समय सीमा तय न होने से अहं का टकराव जन्म लेता है | मौजूदा विवाद के पीछे भी यही कुछ है | बेहतर हो इस बारे में पारदर्शिता लागू करने पर दोनों पक्ष ध्यान दें क्योंकि  विवाद जिस तरह गहराता जा रहा है वह सरकार और न्यायपालिका दोनों के बीच टकराव के साथ ही न्यायाधीशों की छवि पर भी नकारात्मक असर डालने वाला है | न्यायाधीश जैसे पद पर नियुक्ति में न तो सरकार और न ही न्याय  की आसंदी पर बैठे कुछ महानुभावों का एकाधिकार वाजिब है | कहते हैं न्याय होने के साथ ही  होते हुए दिखना भी चाहिए | उसी तरह न्यायाधीश की  नियुक्ति में  प्रक्रिया की निष्पक्षता और गुणवत्ता दिखनी भी चाहिए | हमारे देश में नेताओं के बारे में कितनी भी आलोचनात्मक टिप्पणियां की जाती हों परन्तु न्यायाधीशों के बारे में संयम और शालीनता का ध्यान रखा जाता रहा है | लेकिन हाल के वर्षों में  न्यायपालिका और न्यायाधीश दोनों  के बारे में तीखी बातें सुनने में मिलने लगी हैं | ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय में विराजमान न्याय के संरक्षकों को उनके बारे में चलने वाली जन चर्चाओं का संज्ञान भी लेना चाहिए क्योंकि अंततः वे भी तो समाज का ही हिस्सा हैं | और उनके लिए भी जनता का विश्वास जीतना नितांत आवश्यक है | न्यायपालिका की स्वतंत्रता निःसंदेह सर्वोपरि है परन्तु  संसदीय प्रजातंत्र जिस  नियंत्रण और संतुलन  के  आधारभूत सिद्धांत पर चलता है , उससे वह  भी अछूती नहीं रह  सकती |

-रवीन्द्र वाजपेयी


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