Monday 28 November 2022

चीन भी सोवियत संघ की राह पर बढ़ रहा



साम्यवादी व्यवस्था  समतामूलक समाज की सोच पर आधारित है जिसमें न कोई अमीर  होता है और न गरीब  |  सरकार ही जनता की  भाग्य विधाता होती है | शिक्षा , स्वास्थ्य और आवास सब उसके जिम्मे होता है | जिससे व्यक्ति सरकार का बंधुआ बन जाता है | स्वतंत्र सोच के लिए कोई स्थान नहीं होता |  प्रचार के सभी माध्यम सरकार नियंत्रित होने से सच्ची जानकारी नहीं मिल पाती | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  साम्यवाद में है ही नहीं | इसका ये अर्थ नहीं कि पूंजीवाद श्रेष्ठ व्यवस्था है किन्तु साम्यवाद में  चूंकि व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व और सोच का दमन होता  है इसलिए पूंजीवाद तमाम विसंगतियों के बावजूद आकर्षित करता है | इसका सबसे बड़ा उदाहरण है सोवियत संघ का विघटन | 1917 की साम्यवादी क्रांति के बाद रूस ने अपने पड़ोसी छोटे देशों को एकत्र कर सोवियत संघ का गठन किया | मध्य एशिया और यूरोप की संस्कृति का ये मेल  सात दशक के बाद बिखर गया और  रूस फिर अकेला रह गया | दरअसल साम्यवादी व्यवस्था में सोवियत संघ विश्व शक्ति तो बन बैठा किन्तु वैयक्तिक स्वत्रंत्रता के अभाव में लोग मशीनी मानव सरीखे हो गये | भले ही उसके नाम पहले इंसान को अन्तरिक्ष में भेजने का कीर्तिमान दर्ज है और वह अमेरिका के बराबर सामरिक शक्ति वाला देश बन गया किन्तु मानव अधिकार और व्यक्तिगत संतुष्टि के नजरिये से  उसकी प्रगति संवेदनहीन होने से  जनता के मन को छू नहीं सकी | आखिरकार वही जनता साहस के साथ आगे आई और देखते ही देखते सोवियत संघ अस्तित्वहीन हो गया | साम्यवादी  सत्ता का  वह पहला प्रयोग अनेक देशों के लिए  प्रेरणा का स्रोत बना | चीन , क्यूबा , उत्तर कोरिया , वियतनाम , पोलेंड , चेकोस्लोवाकिया , यूगोस्लाविया , रूमानिया , पूर्वी जर्मनी आदि में उससे प्रभावित होकर एक दलीय सत्ता कायम हो गयी | कहना गलत नहीं होगा कि 1917 की रूसी क्रांति ने जहां  साम्यवादी शासन व्यवस्था  से दुनिया को अवगत कराया वहीं द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अनेक देशों ने उसकी देखा – सीखी साम्यवाद को अपना लिया | दुनिया दो खेमों  में बाँट गई | शीतयुद्ध नामक  आर्थिक और सैन्य प्रतिस्पर्धा चल पड़ी | लेकिन सोवियत संघ को  झटका तब लगा जब चीन में माओ त्से तुंग और यूगोस्लाविया में मार्शल टीटो ने  अलग रास्ता अपनाया | कहने को ये व्यवस्था जनतांत्रिक है लेकिन इस तंत्र में जन का कोई स्थान नहीं है क्योंकि जब एक ही पार्टी है तब चुनाव किसके बीच होता होगा ये समझ से परे है | साम्यवादी  देश की जनता का बाहरी दुनिया से सम्पर्क भी सरकार की इच्छा पर निर्भर रहने से वह कुए का मेंढक बनकर रह गयी | लेकिन  ज्यों – ज्यों उसे अंधेरी कोठरी से झाँकने मिला उसके मन में भी आजादी के उजाले में रहने की ललक जागी | कोशिशें हुईं भी किन्तु कुचल दी गईं | लेकिन स्वतंत्रता मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति है और जैसे ही अवसर मिला उसने सोवियत संघ में  साम्यवादी लौह दीवार को धराशायी कर दिया | बर्लिन की दीवार देखते ही देखते अस्तित्वहीन कर  दी गई | पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देश उस  सोच से बाहर आ गये | 20 सदी ने एक तरफ जहाँ साम्यवादी शासन व्यवस्था का उदय देखा तो दूसरी तरफ उपनिवेशवाद और  सोवियत संघ का टूटना  शताब्दि की सबसे बड़ी घटनाओं में शामिल हो गया |  इसे संयोग ही  कहा जायेगा कि उधर सोवियत संघ के टुकड़े हुए और इधर साम्यवाद का दूसरा   गढ़ चीन  आर्थिक महाशक्ति के तौर पर उभरने लगा |  उसने सोवियत संघ की गलतियों से सीख लेते हुए  आत्मकेंद्रित रहने के बजाय अपने दरवाजे पूंजी के लिए खोल दिए जिसके कारण  वह दुनिया का उत्पादन मुख्यालय बन गया | जो पूंजीवादी देश चीन को दुश्मन मानते थे और चीन भी जिन्हें नफरत की निगाह से देखता था वे सब उसकी प्रगति के आधार बन बैठे | लेकिन एक - दो दशक के उदार रवैये के बाद जबसे चीन में शी जिनपिंग शक्तिशाली हुए , साम्यवादी कठोरता फिर से नजर आने  लगी | उसका चरमोत्कर्ष आया कोविड के आगमन के साथ | भले ही प्रमाणित न हुआ हो लेकिन पूरी दुनिया मानती है कि इसे फ़ैलाने में चीन का ही हाथ था | लेकिन वह चाल उसके अपने गले पड़ गयी जिससे  आज तक वह  उबर नहीं पा रहा | उसकी बनाई वैक्सीन पर चीनी जनता को ही विश्वास नहीं है | सारी दुनिया लॉक डाउन  से बाहर आ गई लेकिन चीन में आज भी  अनेक बड़े शहरों में करोड़ों लोग  या तो घरों में बंद हैं  या दफ्तरों  और कारखानों में रहने मजबूर  | दुनिया भर के  जिन निवेशकों ने वहां  निवेश कर रखा है वे भी अपना धन अन्यत्र ले जा रहे हैं | चीन की  आन्तरिक हालत यद्यपि बाहरी दुनिया से छिपाई जाती है किन्तु  बीते कुछ समय से चीनी जनता का गुस्सा सामने आने लगा है | जिनपिंग ने सत्ता में बने रहने का पुख्ता  इंतजाम भले कर लिया हो किन्तु जनता उनसे त्रस्त हो चुकी है | जीरो कोविड नीति से करोड़ों चीनी बिना गिरफ्तार हुए हिरासत में रहने जैसी पीड़ा भोग रहे हैं | परन्तु अब उनके  सब्र का बांध टूट रहा है | अनेक शहरों में जिनपिंग  विरोधी  प्रदर्शन भविष्य में होने वाली किसी बड़ी घटना की प्रस्तावना कही जा सकती है | हालाँकि आज  ये कहना ज्ल्दबाजी होगी कि चीन जल्द ही सोवियत संघ की तरह टूट जायेगा लेकिन साम्यवाद के विरुद्ध जनता के मन में वितृष्णा जन्म ले चुकी है | इसमें कितने बरस या दशक लगेंगे इसकी भविष्यवाणी फ़िलहाल तो संभव नहीं किन्तु इतना अवश्य माना जा सकता है कि धरती के भीतर धधक रहा ज्वालामुखी फूटने की कगार पर आ रहा है | वैसे भी अब साम्यवादी व्यवस्था बूढ़ी हो चुकी है और जिनपिंग सहित पूरा चीन पश्चिमी रहन - सहन में ढलता जा रहा है | नई पीढ़ी को  दुनिया देखने मिलने के बाद वह बंद दरवाजे वाली व्यस्था में घुटन महसूस करने लगी है | कुल मिलाकर जिस कोरोना को हथियार बनाकर चीन ने दुनिया को अपने कब्जे में करने का  का षडयंत्र रचा वह खुद उसी में उलझकर हांफने लगा है | हो सकता है कुछ लोग इसे बुद्धिविलास कहते हुए अस्वीकृत कर दें किन्तु चीन की ऐतिहसिक दीवार अब उसकी रक्षा करने में असमर्थ है क्योंकि उसके लिये बाहरी से ज्यादा खतरा भीतरी है |


- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment