Tuesday 30 November 2021

किसानों के नये कैप्टन बनना चाह रहे अमरिंदर



प्रधानमंत्री पर अविश्वास करने वालों को उस वक्त निराशा हुई होगी जब संसद ने विवादित तीनों कृषि कानून रद्द करने के  प्रस्ताव को मंजूरी दे दी | उसके बाद से दिल्ली में जारी किसानों के धरने में शामिल 40 में से पंजाब के 32 संगठनों ने वापिस लौटने की इच्छा व्यक्त करते हुए कहा कि जिस उद्देश्य से धरना शुरू किया गया था वह पूरा होने के बाद वहां बैठे रहने का कोई औचित्य नहीं बचा | हालाँकि संयुक्त किसान मोर्चा ने अभी तक इस बारे में अंतिम निर्णय नहीं लिया और  राकेश टिकैत धरना जारी रखने के पक्षधर हैं क्योंकि पश्चिमी उ.प्र के जाट बहुल क्षेत्रों में भाजपा को हराना उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है | धरना खत्म हो गया तो उनकी मुहिम कमजोर पड़ जायेगी | दूसरी तरफ एक बात साफ हो गई है कि पंजाब के किसान संगठन श्री टिकैत को आगे ढोने के लिए राजी नहीं हैं क्योंकि उनके राज्य में भाजपा का जनाधार बेहद कम होने से उसके विरुद्ध मोर्चा खोलना उन्हें गैरजरूरी लगता है | सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये संगठन पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के प्रभाव में हैं जिन्होंने अपना सिरदर्द टालने के  लिए आन्दोलन  को दिल्ली भेजने की रणनीति बनाई थी | अब कैप्टन उन संगठनों से बात कर उन्हें दिल्ली से लौटकर पंजाब में चन्नी सरकार को घेरने  के लिए प्रेरित कर रहे हैं  | प्राप्त जानकारी के अनुसार वे  काफी हद तक इसके लिये तैयार भी हो गए हैं | सही बात ये है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे पर पंजाब और हरियाणा के किसान ज्यादा आंदोलित नहीं हैं क्योंकि सरकार द्वारा  की जाने वाली ज्यादातर खरीदी इन्हीं दो राज्यों से होती है | अमरिंदर ने हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को भी  आन्दोलन के दौरान किसानों पर दर्ज प्रकरण वापिस लेने के साथ ही मृतकों के परिवारों को आर्थिक सहायता देने के लिए राजी कर लिया है | दूसरी तरफ उ.प्र के साथ ही हरियाणा में जाट समुदाय के प्रमुख लोगों को श्री टिकैत की चौधराहट रास नहीं आ रही | राजनीतिक क्षेत्रों में व्याप्त सुगबुगाहट के अनुसार रालोद नेता जयंत सिंह भी नहीं चाहते कि जाटों के बीच नया शक्ति केंद्र उभरे | इसीलिये अभी तक वे श्री टिकैत की राजनीतिक टिप्पणियों पर कुछ भी बोलने से बच रहे हैं | बहरहाल जहां तक सवाल किसानों के आन्दोलन का है तो  तीनों कानूनों के वापिस हो जाने के बाद से धरने की धार कमजोर होने लगी है | जहां तक बात न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनाने की है तो इसकी मांग  न जाने कब से उठती रही है लेकिन इस हेतु दिल्ली में धरना देने की बात किसी संगठन ने कभी नहीं सोची थी | यदि केंद्र सरकार  तीन कानून न बनाती और कैप्टन ने पंजाब के किसानों को दिल्ली भेजने का प्रायोजित कार्यक्रम न बनाया होता तो बखेड़ा न बनता | ये कहना भी गलत न होगा कि किसान आन्दोलन की जो फसल पंजाब के किसान संगठनों ने तैयार की थी उसे बड़ी ही चतुराई से श्री  टिकैत  काट ले गये | यद्यपि संसद में विपक्षी दल न्यूनतम समर्थन मूल्य को वैधानिक बनाने की मांग सरकार से कर रहे हैं  परन्तु विपक्ष द्वारा शासित अनेक  राज्यों  में अनाज की सरकारी खरीद ही नहीं होती तो वे किस मुंह से संसद में इस मांग को रखेंगे ? कुल मिलाकर देखा जाए तो भले ही संयुक्त किसान मोर्चा धरना जारी रखे रहे लेकिन पंजाब के किसान संगठनों ने यदि वापिसी का फैसला कर लिया तब श्री टिकैत अकेले पड़ जायेंगे | अंदर की  बात तो ये है कि अमरिंदर किसान आन्दोलन का केंद्र दिल्ली से वापिस लाकर पंजाब में  कांग्रेस सरकार की मुसीबत बढ़ाने की योजना बना रहे हैं | उनके लिए ऐसा करना जरूरी है क्योंकि विधानसभा चुनाव में कोई ऐसा बड़ा मुद्दा नहीं है जिसके बल पर वे चन्नी सरकार को घेर सकें |  लेकिन पंजाब के किसान संगठन कैप्टन द्वारा उनके आन्दोलन को जो मदद की गई उसे  भूले नहीं हैं और ऐसे में राज्य सरकार से जुड़ी  अपनी समस्याओं के लिए आन्दोलन करने के लिये वे उनके नेतृत्व में मोर्चा खोलने में संकोच नहीं करेंगे जिसके लिए उन्हें घर से दूर भी नहीं जाना पड़ेगा | ऐसा होने से अमरिंदर को भाजपा समर्थक हिन्दू मतदाताओं का समर्थन भी मिल सकेगा जो अब तक अकाली दल के खाते में जमा होता था | यही सब कारण हैं जिनकी वजह से जिस आन्दोलन में  उन्होंने हवा भरी वे उसी की हवा निकालने में जुट गये हैं | इसमें दो राय नहीं हैं कि पंजाब के किसान इस आन्दोलन को राजनीतिक मोड़ देने के पक्षधर नहीं रहे |  ऐसे में आन्दोलन को चुनावी राजनीति से जोड़ने पर किसानों के सामने ये दुविधा हो जायेगी कि वे किस दल को समर्थन दें ? किसानों के इस असमंजस को दूर करने के लिए अमरिंदर ये दांव चल रहे हैं कि किसान दिल्ली से उठकर पंजाब की चन्नी सरकार के विरोध में सड़कों पर उतरें और वे उनके नेता बनकर सामने आयें | ये सोच कितनी कारगर रहेगी ये कह पाना फ़िलहाल तो जल्दबाजी होगी लेकिन इस तीर से वे कई निशाने एक साथ साध सकेंगे | पहला तो  आन्दोलन का नेतृत्व जाटों के हाथ से छीनकर उसे सिख चेहरा देना और दूसरा प्रधानमंत्री सहित भाजपा के केन्द्रीय और प्रादेशिक नेतृत्व का विश्वास अर्जित कर लेना | बहुत कम लोग जानते होंगे कि सिख होने के बावजूद अमरिंदर और ज्योत्तिरादित्य सिंधिया के बीच रिश्तेदारी है | श्री सिंधिया की भांजी और जम्मू – कश्मीर के पूर्व महाराजा डा. कर्णसिंह की पौत्री का विवाह कैप्टेन के पौत्र से हुआ है | अमरिंदर के बहनोई कुंवर नटवर सिंह भी जो किसी ज़माने में  गांधी परिवार के दरबारी हुआ करते थे , इन दिनों उससे खफा चल रहे हैं | नवजोत सिंह सिद्धू के जाने के बाद पंजाब में भाजपा के पास कोई दमदार सिख नेता नहीं है | इस कमी को कैप्टन कितना पूरा कर सकेंगे ये तो समय ही  बताएगा किन्तु फिलहाल वे भाजपा के लिए ना मामा से काना मामा भला वाली  कहावत को चरितार्थ कर सकते हैं | भाजपा भी बड़ी ही चतुराई से जिन अमरिंदर ने किसान आन्दोलन को पंजाब से दिल्ली भेजा उन्हें ही इसे ठंडा करने के लिए इस्तेमाल कर रही है } इसीलिये ये प्रचारित किया गया कि प्रधानमन्त्री ने तीन कृषि कानून उनकी सलाह पर ही वापिस लिए | ये सम्भावना भी जताई जा रही है कि उन्हें  आगे रखकर केंद्र सरकार किसानों की कुछ और मांगें मंजूर करने जा रही है जिससे श्री टिकैत को किसी भी प्रकार का श्रेय न मिल पाए |  किसान आन्दोलन की शुरुवात राजनीतिक दांव था इसलिए उसको खत्म करवाने के लिए भी राजनीतिक दांव पेंच शुरू हो गए हैं | रोचक बात ये है कि मुकाबले की पहली चाल  अमरिंदर ने ही चली थी और आखिरी भी वे ही चलते दिख रहे हैं | फर्क केवल ये है कि पहले वे बिसात की उस तरफ बैठे थे लेकिन अब इस तरफ नजर आ रहे हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 29 November 2021

संसद का शीतकालीन सत्र : नए समीकरणों की शुरुआत हो सकती है



आज से संसद का  शीतकालीन सत्र शुरू हो रहा है | बजट के पहले  वाले इस सत्र पर किसान आन्दोलन की छाया स्पष्ट है | तीन कृषि कानून वापिस होने के साथ ही देश की नजर इस बात पर भी रहेगी कि अन्य मांगों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुख क्या होता है और क्या सरकार की तरफ से उनके बारे में कोई नीतिगत घोषणा जावेगी या वह केवल तीन कानून वापिस लेकर चुप बैठ जायेगी | इस सत्र के बाद उ.प्र , उत्तराखंड , पंजाब , मणिपुर और गोवा में विधानसभा  चुनाव का बिगुल बजने से सरकार के सामने ये चुनौती रहेगी कि वह इन राज्यों के मतदाताओं को किस तरह से भाजपा की और मोड़ती है | उल्लेखनीय है पंजाब के अलावा बाकी चारों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं |  कृषि क़ानून वापिस लेने के पहले दीपावली पर पेट्रोल – डीजल की कीमतों में बड़ी कटौती कर सरकार ने ये संकेत दिया था कि उसे  जनता की नाराजगी का आभास हो चला था | उसके पश्चात उसने किसानों की नाराजगी दूर करने का दांव चला लेकिन किसान संगठनों द्वारा अभी तक जो तेवर दिखाए जा रहे हैं उनसे तो लगता है जैसे वे सरकार की कमजोर नस को जान गये हैं | और कोई समय होता तब शायद प्रधानमंत्री द्वारा तीन कानून वापिस लेने की घोषणा के बाद आन्दोलन वापिस ले लिया जाता तथा शेष मांगों पर विचार हेतु गठित की जाने वाले समिति की रिपोर्ट का इंतजार किया जाता किन्तु किसान नेताओं को ये बात समझ में आ चुकी है कि उ.प्र भाजपा के लिए जीवन मरण का सवाल है और वह किसी भी कीमत पर उसे खोना नहीं चाहेगी | और तो और उसे 2017 में जीती सीटों में कमी भी मंजूर नहीं होगी क्योंकि उसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़ने के पहले ही राष्ट्रपति के चुनाव में दिख जायेगा जिसे जीतना भाजपा के लिए नितांत जरूरी है  | चूँकि विपक्षी दल भी एक  स्वर से किसानों की मांगों का  समर्थन करते आ रहे हैं इसलिए भी सरकार के सामने सदन में काफी दबाव होगा | उनकी दो मांगों मसलन बिजली संबंधी विधेयक और पराली जलाने वालों को कड़े दंड और जुर्माने पर तो सरकार की तरफ से आश्वासन मिल चुका है | आन्दोलन के दौरान दर्ज मुक़दमे भी वापिस लेना बड़ी बात नहीं होगी किन्त्तु न्यूनतम समर्थन मूल्य का पेंच फंसा रह सकता है | दरअसल सरकार भी एक बात समझ गई है कि इस  माँग को मान लेने के बाद भी कतिपय किसान नेता और उनके संगठन बजाय सरकार को धन्यवाद देने के आगामी  लोकसभा चुनाव के मद्देनजर नए सिरे से दबाव बनाना शुरू कर देंगे | इसका एक कारण ये भी है कि अधिकांश किसान नेता भाजपा विरोधी हैं और उनमें से  कुछ के मन में राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ हिलोरें मारने लगी हैं | इसका प्रमाण उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव में देखने मिल सकता है | लेकिन भाजपा और केंद्र सरकार के लिए कुछ राहत की बातें भी हैं | जैसे भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों का चुनावों की दृष्टि से गठबंधन न कर पाना | पंजाब में तो कांग्रेस के भीतर जबरदस्त घमासान है | अमरिंदर सिंह अलग पार्टी बनाकर भाजपा के करीब हैं | आम आदमी पार्टी  सत्ता की प्रबल दावेदार बनकार उभर रही है जबकि अकालियों ने बसपा के साथ गठजोड़ कर लिया | उ.प्र में भी विपक्ष बंटा हुआ है | सपा , बसपा और कांग्रेस का दूर रहना भाजपा के लिए सुकून का विषय है | वहीं  असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम मतदाताओं को इस बात के लिए प्रेरित कर रहे हैं कि वे बजाय किसी पार्टी के पिछलग्गू बनने के अपना अलग अस्तित्व प्रदर्शित करें | यदि वे कामयाब हो सके तो भाजपा की राह आसान हो जायेगी | सबसे बुरी स्थिति कांग्रेस की है जिसे दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करने की प्रियंका वाड्रा की कोशिशें बेअसर साबित हो रही हैं | इसका असर संसद के भीतर भी  नजर आयेगा | बीते सप्ताह अपने दिल्ली दौरे में ममता बैनर्जी ने  तृणमूल कांग्रेस को असली कांग्रेस साबित करने  के अपने अभियान के अंतर्गत जो तोड़फोड़ मचाई उससे ये लगने लगा कि बंगाल जीतने के बाद अब वे  स्वयं को सोनिया गांधी से बड़ा नेता मानने लगी हैं | तभी वे हर बार की तरह इस दिल्ली यात्रा में श्रीमती गांधी से मिलने नहीं गईं | और तो और कांग्रेस दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे द्वारा सत्र के दौरान संयुक्त रणनीति बनाने हेतु विपक्षी दलों की जो बैठक बुलाई गयी  उसमें भाग  लेने से भी साफ़ मना कर  दिया  | संसद के भीतर भी  कांग्रेस के साथ किसी तरह के तालमेल से तृणमूल का इंकार इस बात की तरफ इशारा है कि ममता 2024 के लोकसभा चुनाव को मोदी विरुद्ध   राहुल गांधी की बजाय मोदी विरुद्ध ममता बनाना चाहती हैं | और ऐसा करने के लिए उनको कांग्रेस और गांधी परिवार का लिहाज तोड़ना जरूरी है | इस प्रकार इस शीतकालीन सत्र में किसान आन्दोलन के अलावा बाकी मुद्दों पर विपक्ष के सुर अलग – अलग हों तो आश्चर्य न होगा | उ.प्र के चुनाव को देखते हुए कांग्रेस , सपा  और बसपा भाजपा के विरोधी होते हुए आपस में एकजुट नहीं होंगे | ममता के तेवरों से लगता है कि तृणमूल कांग्रेस  संसद में सरकार से टकराने वाली मुख्य पार्टी की  भूमिका में होगी और ऐसा करने के पीछे उसकी रणनीति ममता के उस दावे को सच ठहराने की ही होगी कि भाजपा और श्री मोदी का मुकाबला करने की क्षमता कांग्रेस और राहुल में नहीं बची और तृणमूल ही इसका बीड़ा उठायेगी | ये देखते हुए संसद में विपक्ष की एकता पर भी पांच राज्यों के चुनाव का असर नजर आयेगा | ममता की रणनीति यदि कारगर रही तो फिर कांग्रेस पूरी तरह अलग – थलग पड़ सकती है जो  नए राजनीतिक समीकरणों की शुरुवात होगी | जहाँ तक सरकार का सवाल है तो उसकी पहली प्राथमिकता सदन को चलाते हुए जो भी लंबित विधेयक हैं उनको पारित करवाना होगा | इसके अलावा आगामी चुनावी मुकाबलों को देखते हुए वह ऐसी नीतिगत घोषणाएं भी कर सकती है जिनसे महंगाई को लेकर जनता की नाराजगी दूर की जा सके | हो सकता है न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी प्रधानमन्त्री कोई ऐलान संसद के भीतर कर दें जिसका समर्थन करने विपक्ष भी बाध्य हो और किसान आन्दोलन से वोटों के नुकसान की आशंका भी समाप्त हो जाये | वैसे इस सत्र में ऐसा कोई मुद्दा नजर नहीं आ रहा जिसकी वजह से विपक्ष सदन को पहले की तरह ठप्प कर सके | सरकार ने कृषि कानून के साथ बिजली और पराली संबंधी मांगों को मानकर सदन में शांति बनाये रखने की जो  पहल की उसी का परिणाम है कि कृषि कानून वापिस होने तक संसद को जाने वाले ट्रैक्टर मार्च को किसान संगठनों द्वारा रद्द कर दिया गया | राजनीतिक विश्लेषकों का ये मानना है  कि इस सत्र के दौरान प्रधानमन्त्री किसान आन्दोलन के  दबाव से निकलने के लिए ऐसा कोई कदम उठा सकते हैं जिसे क्रिकेट की भाषा में मैच जिताऊ शाट कहा जाता है | लेकिन  पंजाब औए बंगाल में सीमा सुरक्षा बल का अधिकार क्षेत्र बढ़ाये जाने , मुम्बई में नारकोटिक्स नियंत्रण ब्यूरो के छापे  जैसे मुद्दों पर सदन का माहौल गरमाए बिना नहीं रहेगा | विपक्ष के लिए भी ये अच्छा अवसर है संसद के से  संचालन को लेकर बनी अपनी नकारात्मक छवि को सुधारने का | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 27 November 2021

तो क्या 15 अगस्त और 26 जनवरी का भी बहिष्कार होगा



संविधान किसी एक राजनीतिक दल या व्यक्ति का न होकर  देश के हर व्यक्ति के लिए बना वह पवित्र दस्तावेज है जिसके अनुसार शासन और प्रशासन चला करता है | उस दृष्टि से संविधान दिवस की भी वही महत्ता है जो स्वाधीनता और गणतंत्र दिवस की है | इसीलिये जिस तरह 15 अगस्त और 26 जनवरी के आयोजनों में सभी राजनीतिक दल तमाम मतभेद भूलकर शामिल होते हैं उसी तरह 26 नवम्बर को संविधान दिवस का जश्न भी राष्ट्रीय पर्व से कम नहीं होना चाहिए | लेकिन गत दिवस संसद के केन्द्रीय कक्ष में आयोजित संविधान दिवस के जलसे का  कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने जिस तरह बहिष्कार किया उसका  राजनीतिक तौर पर भले ही औचित्य साबित किया जाए लेकिन राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखने पर वह बेहद गैर जिम्मेदाराना कदम था | कांग्रेस प्रवक्ता ने इस पर अपनी सफाई में कहा कि चूँकि भाजपा सरकार संवैधानिक व्यवस्थाओं और संसदीय गरिमा को नष्ट कर रही है इसलिए विपक्ष ने उक्त कार्यक्रम का बहिष्कार किया | पार्टी प्रवक्ता आनंद शर्मा ने ये आरोप भी लगाया कि सरकारी आयोजनों में विपक्ष को पर्याप्त सम्मान और महत्व नहीं मिलता | विपक्ष की गैर मौजूदगी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खाली मैदान दे दिया  जिसका लाभ उठाते हुए उन्होंने वंशवादी राजनीति पर कड़े प्रहार करते हुए उसे लोकतंत्र के लिए खतरा बताया | स्मरणीय है कि जो आनंद शर्मा सरकार पर संवैधानिक गरिमा को नष्ट करने का आरोप लगाने सामने आये वे कांग्रेस नेताओं के उस जी – 23 समूह के प्रमुख सदस्य हैं जो कांग्रेस में गांधी परिवार द्वारा पार्टी संविधान की अवहेलना करते हुए संगठन के चुनाव को टालते रहने का आरोप लगाया करता है | व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण से  देखें और सोचें तो संसद के केन्द्रीय कक्ष में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की मौजूदगी में आयोजित संविधान दिवस का आयोजन दलगत   राजनीति से परे  होना चाहिए था | कांग्रेस तो वह पार्टी है जिसका संविधान सभा में वर्चस्व था | डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे ऋषि तुल्य और परम विद्वान राजनेता उसके अध्यक्ष थे और संविधान का प्रारूप भीमराव आम्बेडकर जैसे प्रख्यात विधिवेत्ता द्वारा तैयार किया गया | इन दोनों महान हस्तियों का प्रधानमंत्री ने अपने उद्बोधन में सम्मानपूर्वक उल्लेख किया | निश्चित तौर पर ऐसे अवसरों पर देश की एकता  का प्रगटीकरण होता है | लेकिन दुर्भाग्यवश अब राष्ट्रीय दिवस भी राजनीतिक वैमनस्यता और रागद्वेष के शिकार होने लगे हैं | कांग्रेस द्वारा सरकार पर संवैधानिक व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने का आरोप लगाते हुए संविधान दिवस का तो बहिष्कार कर दिया गया और उसकी देखीसीखी अन्य  विपक्षी दल भी उस जलसे से दूर रहे लेकिन  सरकार के साथ अपने मतभेदों के चलते क्या कांग्रेस और शेष विपक्ष भविष्य में स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र की वर्षगाँठ पर आयोजित कार्यक्रमोंका भी बहिष्कार करेगा ? ये बात बिलकुल सही है कि इस तरह की सोच के पीछे कांग्रेस साहित उन विपक्षी पार्टियों  पर हावी सामन्तवादी मानसिकता  ही है जिसके प्रभावस्वरूप वे सत्ता पर अपना एकाधिकार समझते हैं और उससे बाहर आते ही उनको संविधान और लोकतंत्र खतरे में नजर आने लगता है |  यदि कल के आयोजन में विपक्ष भी मौजूद रहता तब शायद श्री मोदी के भाषण की विषयवस्तु भी अलग होती | लेकिन उन्होंने बिना किसी दल का नाम लिए वंशवादी राजनीति पर जो प्रहार किया वह लोकतंत्र के  व्यापक हितों के मद्देनजर विचारणीय है | निश्चित रूप से कांग्रेस इसके लिए प्राथमिक तौर पर दोषी मानी जायेगी जिसने आजादी के बाद से ही एक परिवार के खूंटे से खुद को बांधे रखा | बीच – बीच में उसे इससे आजाद होने का अवसर मिला भी किन्तु घूम - फिरकर वह उसी परिवार की निजी जागीर बनकर रह गयी | इससे प्रोत्साहित होकर अन्य पार्टियों ने भी  परिवारवाद को अपनाया और देखते – देखते अनेक क्षेत्रीय दल पारिवारिक उत्तराधिकार की परम्परा अपनाते हुए मैदान में आ गये | कांग्रेस को ये बात समझनी  चाहिए कि उससे प्रेरित होकर वंशवाद अपनाने वाले इन क्षेत्रीय दलों ने सबसे ज्यादा उसे ही नुकसान पहुँचाया | आज स्थिति ये आ गयी कि देश की  सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस को लालू यादव और ठाकरे परिवार की  शिवसेना में बतौर कनिष्ट भागीदार गठबंधन करना पड़ा | 2017 में उ.प्र विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव और राहुल गांधी के बीच गठबंधन हुआ था जिसे राष्ट्रीय राजनीति की दिशा बदलने वाला बताया गया | लेकिन चुनाव परिणाम ने दोनों को फिर दूर कर दिया और आज हालत ये है कि उ.प्र में सपा - बसपा तो दूर छोटी – छोटी पार्टियाँ तक कांग्रेस के करीब आने में कतरा रही हैं | हाल ही में बिहार में हुए उपचुनावों के दौरान लालू के बेटों ने भी कांग्रेस को खूब अपमानित किया | इस सबका कारण  पार्टी की वैचारिक पहिचान पर पारिवारिक मिल्कियत का ठप्पा लग जाना है | ये बात बिलकुल सही है कि परिवार के शिकंजे में फंसा राजनीतिक दल आंतरिक लोकतंत्र सहन नहीं कर सकता | कांग्रेस तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ही लेकिन राजद , सपा , बसपा , शिवसेना , टीआरएस , द्रमुक , अकाली , रालोद  , इनेलो , नेशनल कांफ्रेंस , पीडीपी और ऐसे ही अन्य छोटे दल एक परिवार की निजी संपत्ति बनकर रह गये हैं | इसीलिये इनके लिए लोकतंत्र तभी तक सुरक्षित और सार्थक है जब तक सत्ता इनके हाथ में है वरना उस पर खतरा मंडराने का ढोल पीटा जाने लगता है | ममता बैनर्जी ने भी राजनीतिक तौर पर ताकतवर होते ही तृणमूल कांग्रेस में अपने भतीजे अभिषेक को उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित कर दिया | यही स्थिति बसपा में मायावती के भतीजे आनंद कुमार की है | हालाँकि श्री मोदी की अपनी पार्टी भाजपा में भी परिवारवाद की विषबेल फैलने लगी है लेकिन पार्टी के वैचारिक अभिभावक के रूप में रास्वसंघ के कारण शीर्ष नेतृत्व पर परिवारवाद के लिए जगह नहीं है | वामपंथी दल जरूर इस बुराई से मुक्त हैं और अभी तक आम आदमी पार्टी भी किन्तु वह एक व्यक्ति के करिश्मे की बंधक बनकर रह गई है जिनको चुनौती देने वाले को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है | ऐसे में संविधान दिवस पर श्री मोदी द्वारा वंशवाद में जकड़ी राजनीतिक पार्टियों पर किया गया कटाक्ष गलत नहीं था | आज देश जिस माहौल से गुजर रहा है वह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है | देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर भी दलीय हितों को महत्व दिया जाना खतरनाक संकेत है | सीमा पर मंडराते संकट के बीच विपक्ष का प्रमुख नेता शत्रु देश के दूतावास में किसलिए गया ये प्रश्न आज तक अनुत्तरित है | एक और नेता दूसरे दुश्मन देश के प्रधानमंत्री से याराना निभाने में फक्र महसूस कर रहा है | राष्ट्रहित के मूद्दों पर  राजनीतिक सहमति बननी ही चाहिए लेकिन जब विपक्ष संविधान दिवस पर संसद में आयोजित समारोह का बहिष्कार करने जैसा आचरण करने लगे तब उससे और क्या अपेक्षा की जा सकती है | संसद के भीतर सत्ता और विपक्ष के बीच टकराहट कोई नई बात नहीं है | पं. नेहरु के जमाने से ऐसा होता आ रहा है | लेकिन राष्ट्रीय सम्मान से जुड़े किसी भी विषय पर राजनीतिक मतभेदों को ताक पर रखने की स्वर्णिम परम्परा भी  रही है | उसका स्मरण करने पर गत दिवस विपक्ष विशेष रूप से कांग्रेस द्वारा संविधान दिवस समारोह  का बहिष्कार लोकतंत्र और स्वस्थ राजनीति के  लिए अच्छा संकेत नहीं है | विपक्ष उस समारोह  में शामिल होने का बाद अपना पृथक आयोजन रखकर सरकार की घोर आलोचना कर सकता था किन्तु राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार करने जैसी गलती पुनः दोहराई गई | ये देखते हुए तो ऐसा लगता है भविष्य में सरकार से नाराज विपक्ष कहीं संसद में जाने से ही परहेज न करने लगे | लोकतंत्र वैचारिक मतभेदों के बावजूद  सौजन्यता , सामंजस्य और समन्वय के मौलिक सिद्धांतों पर आधारित होता है | इसके लिए सत्ता और विपक्ष दोनों को दायित्वबोध का परिचय देना होता है | सत्ता पक्ष को जहां बड़ा दिल दिखाना चाहिए वहीं विपक्ष को भी जनादेश का सम्मान करने की आदत डालनी होगी  क्योंकि जनता किसी एक दल ,  नेता या परिवार  के मोहपाश से मुक्त होकर निर्णय लेना सीख चुकी है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 26 November 2021

एक साल बाद भी किसान जहां का तहां :आन्दोलन भी राष्ट्रव्यापी नहीं बन सका



दिल्ली की देहलीज पर संयुक्त किसान मोर्चे के धरने को आज एक वर्ष बीत गया | इससे क्या हासिल हुआ इस प्रश्न के जवाब में केवल ये  कहा जा सकता है कि प्रधानमन्त्री  ने उन तीन कृषि कानूनों को वापिस लेने की घोषणा कर दी जिन्हें लागू किये जाने पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पहले ही रोक लगा दी गई थी | दर्जन भर वार्ताओं का दौर चलने के बाद भी समझौते  की गुंजाईश नहीं बनी जिसकी वजह किसान नेताओं और सरकार का  अपनी – अपनी बात पर अड़े रहना था | संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की जिद रही कि पहले तीनों कानून वापिस लिए जावें तब ही बात आगे बढ़ेगी किन्तु सरकार कहती रही  कि जिन बिन्दुओं पर सहमति बन सकती है उन पर बात करते हुए वार्ता जारी रखी जावे | आख़िरी बातचीत तकरीबन 10 महीने पहले हुई थी | उसके बाद किसान नेताओं को महसूस हुआ  कि दिल्ली की सीमाओं पर  बैठे रहने से कुछ हासिल नहीं होने वाला तब वे देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों को आन्दोलन के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करने निकल पड़े | लेकिन उनको अपेक्षित सफलता नहीं मिली | यही वजह रही कि जबरदस्त प्रचार और समूचे विपक्ष के समर्थन के बाद  भी आन्दोलन पंजाब  , हरियाणा और प. उ.प्र के अलावा राजस्थान के छोटे से हिस्से तक सिमटकर रह गया |  इस वजह से उस पर सिखों और जाटों का आन्दोलन होने का ठप्पा लग गया | पंजाब में गुरुद्वारों का सहयोग और बाकी जगह जाटों की पंचायतें किसान आन्दोलन की पहिचान बन गईं | और यहीं से आन्दोलन पर क्षेत्रीयता हावी होने लगी | जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है तो वे केवल बहती गंगा में हाथ धोने के लिए धरना स्थल पर अपना समर्थन व्यक्त करने की औपचारिकता निभाते रहे | यद्यपि ये बात भी पूरी तरह सच है कि संयुक्त किसान मोर्चे ने राजनेताओं को मंच नहीं दिया लेकिन केंद्र सरकार का विरोध करते – करते वे आख़िरकार भाजपा विरोधी मोर्चा खोल बैठे | बीते एक वर्ष में आन्दोलन से जुड़ी ऐसी अनेक घटनाएँ हुईं जिनके कारण उसकी गम्भीरता और प्रभाव कम हुआ | जिनमें सबसे बड़ा वाकया बीती 26 जनवरी का था जब गणतंत्र दिवस के दिन किसानों की ट्रैक्टर रैली अनियंत्रित होकर हिंसा पर उतारू हो गई | लालाकिले पर चढ़कर तलवार लहराने और राष्ट्रध्वज के अपमान के दुस्साहस ने किसान आन्दोलन के चेहरे को दागदार कर दिया | इसी तरह लम्बे समय से दिल्ली जाने वाले रास्ते को घेरकर बैठे रहने से आवाजाही करने वालों के साथ ही क्षेत्रीय व्यापारियों  को जो परेशानी हुई उसके कारण भी आन्दोलन जनता की सहानुभूति अर्जित नहीं कर सका , जबकि हमारे देश में किसानों के प्रति फ़ौजी जवानों जैसे  ही सम्मान का भाव है | हाल ही में प्रधानमन्त्री ने कृषि  कानून वापिस लेने का ऐलान किया उसके बाद  भी किसान आन्दोलन के अधिकतर नेताओं की जो प्रतिक्रिया आई उसमें भी बजाय सौजन्यता के अकड़ दिखाई दी  | इसका संकेत धरना जारी रखने और संसद तक ट्रैक्टर ले जाने जैसी घोषणाओं से मिला | संयुक्त किसान मोर्चा का कहना है कि बिजली और  पराली के मुद्दों के अलावा  न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनाये बिना आन्दोलन समाप्त नहीं होगा | राकेश टिकैत सरकार से  वार्ता शुरू करने के लिए भी कह रहे हैं | लेकिन इस बात का कोई आश्वासन नहीं दिया जा रहा कि वार्ता में इकतरफा जिद कायम रहेगी या एक – एक सीढ़ी चढ़ते हुए समाधान तक पहुँचने का तरीका अपनाया जावेगा | ये देखते हुए कहा जा सकता है कि किसान नेताओं का अपना अहं किसानों की समस्याओं के हल में बाधक बन रहा है | पहले वे कृषि कानून रद्द किये जाने का हठ करते रहे और अब न्यूनतम समर्थन मूल्य की जिद है,  जिसकी अव्यवहारिकता से वे भी  अपरिचित नहीं हैं | लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों को ये सोचना चाहिए कि एक साल के भीतर भी वे इस आन्दोलन को राष्ट्रीय स्वरूप क्यों नहीं दे सके ? उनके रवैये को देखते हुए  कहना गलत न होगा कि वे आगे भी सीमित दायरे में ही बने रहेंगे | आन्दोलन के भीतर  पंजाब और उ.प्र के विधानसभा चुनावों को लेकर जो अंतर्विरोध है वह उसमें बिखराव का कारण बन सकता है | इन दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम यदि किसान नेताओं के मनमाफिक न निकले तब आन्दोलन की दशा और दिशा क्या होगी ये कोई  नहीं बता सकता | सही  बात तो ये है कि आन्दोलन को इतना लम्बा खींचने के कारण उसकी गंभीरता नष्ट हो चुकी है | प्रधानमन्त्री द्वारा कृषि कानून वापिस लिए जाने के कदम को भले ही किसानों की जीत के तौर पर प्रचारित किया जा रहा हो लेकिन ये केवल आभासी ही कही जायेगी क्योंकि वे लागू ही नहीं हो सके थे | और जैसी सम्भावना बन रही थी केंद्र सरकार भी उनको ठन्डे बस्ते में डालकर रखने के मूड में थी | एक वर्ष बाद भी किसान आन्दोलन जहां का तहां खड़ा है तो उसके लिए वे नेता कसूरवार हैं जो किसानों के कन्धों पर चढ़कर अपनी नेतागिरी चमकाने  में लग गए | पिछले अनुभवों  से उन्होंने कुछ सीखा हो तो वे आन्दोलन को दिल्ली के दरवाजे से उठाकर पूरे देश में फैलाने की योजना बनाएं | लेकिन इसके लिए उनको राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होना पड़ेगा | किसान नेताओं को ये नहीं भूलना चाहिये कि  वामपंथी दलों के नियंत्रण वाली कर्मचारी यूनियनों के सदस्य अपना वेतन बढ़वाने तो लाल झंडे के नीचे एकत्र हो जाते हैं परन्तु  चुनाव में वे साम्यवादी पार्टियों के उम्मीदवारों की बजाय अन्य पार्टियों के पक्ष में मतदान करते हैं | यही वजह है कि वामपंथी पार्टियों का जनाधार लगातार छोटा होता जा रहा है | कहने का आशय ये है कि पंजाब के सभी सिख और प.उ.प्र के जाट किसान क्या आन्दोलन के नेताओं के कहने से किसी का समर्थन अथवा विरोध करेंगे ? और जब दो किसान नेता पंजाब में अपनी पार्टी बनाकर चुनाव में उतरने वाले हैं तब क्या होगा ये आसानी से समझा जा सकता है | उचित तो यही होगा कि बजाय विजयोल्लास मनाने के किसान नेता आत्ममंथन करते हुए उन कमियों को दूर करने का उपाय तलाशें जिनकी वजह से अब तक वे पूरे देश के किसानों का मन नहीं जीत सके |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 25 November 2021

सिद्धू कांग्रेस के लिए जी का जंजाल साबित हो रहे



 आगामी वर्ष फरवरी में जिन पांच राज्यों में  विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उनमें पंजाब भी है | 2017 में वहां कांग्रेस को अच्छा खासा बहुमत मिला था | सरकार भी ठीक - ठाक चली  लेकिन अचानक नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टेन अमरिंदर सिंह का निजी झगड़ा इतना बढ़ गया कि मुख्यमंत्री बदलने की नौबत आ गयी | नवजोत ने जो बिसात बिछाई थी उसका मकसद खुद मुख्यमंत्री  बनना था किन्तु दो की लड़ाई में तीसरे के फायदे वाली कहावत चरितार्थ हो गयी और चरणजीत सिंह चन्नी को अमरिंदर की जगह बिठा दिया गया | शुरुवाती दौर में तो वे नवजोत के विश्वासपात्र लगे लेकिन कुछ दिनों के भीतर ही उन्होंने श्री सिद्धू के शिकंजे  से खुद को आजाद कर लिया | उनके इस कदम को कांग्रेस आलाकमान का समर्थन भी प्राप्त हुआ  जो चाहकर भी नवजोत की हरकतों को नियन्त्रित करने में असफल साबित हुआ है | प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर बैठे नवजोत आये  दिन उनको जिस तरह से बौना बताकर अपमानित करने में जुटे हैं उसकी वजह से पार्टी नेतृत्व मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने का साहस नहीं कर पा रहा |  ये कहने में कुछ भी गलत न होगा कि श्री चन्नी की जितनी आलोचना पूरा विपक्ष मिलकर करता है उससे  कहीं ज्यादा सार्वजनिक रूप से श्री सिद्धू कर देते हैं | बतौर प्रदेश अध्यक्ष उनको अपनी बातें मुख्यमंत्री से निजी तौर पर कहना चाहिए | लेकिन वे अपनी सभाओं में मुख्यमंत्री से नई – नई मांगें करने के अलावा उनके अनेक फैसलों की तीखी  आलोचना कर कांग्रेस के लिए शोचनीय स्थित उत्पन्न कर रहे हैं | हालाँकि  ये हरकत विपक्ष को भी रास आ रही हैं क्योंकि वे उनका काम आसान जो कर  रहे हैं | आम आदमी पार्टी का प्रचार करने पंजाब आये  दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविदं केजरीवाल ने तो श्री सिद्धू को साहसिक बताते हुए उनकी प्रशंसा तक कर डाली | यदि पार्टी हाईकमान नवजोत की हरकतों पर समय रहते लगाम लगा लेता तब शायद पंजाब में कांग्रेस के सामने इस तरह के हालात उत्पन्न न होते जिसमें  घर को आग लग गई घर के चिराग से वाली कहावत चरितार्थ हो  रही है | नवजोत की वाकपटुता बेशक उनको लोकप्रिय बनाती रही है | सार्वजनिक मंचों से वे श्रोताओं को आकर्षित भी करते हैं | लेकिन अपने अस्थिर  और मेरी मुर्गे की डेढ़ टांग वाले स्वभाव के कारण आलोचना  और मजाक का पात्र भी बनते रहे हैं | क्रिकेट में नाम कमाने के बाद वे तब चर्चा में आये जब  हत्या के एक मामले  में आरोपी बने | उनका सार्वजनिक जीवन अमृतसर से भाजपा   सांसद के रूप में शुरू हुआ किन्तु 2014 में टिकिट नहीं  मिलने के बाद राज्यसभा में मनोनयन के बावजूद वे  भाजपा छोड़ कांग्रेस की गोद में आ बैठे और उसके बाद जिस गांधी परिवार के विरुद्ध बेहद तीखी टिप्पणियाँ किया करते थे उसी का अभिनंदन पत्र पढ़ने  लगे | हालाँकि भाजपा  से उनकी निकासी के पीछे अकाली दल का सर्वेसर्वा बादल परिवार रहा , परन्तु   अमरिंदर मंत्रीमंडल के सदस्य बनने के बाद उनकी कैप्टेन से भी नहीं पटी जिसका परिणाम पंजाब में हुआ सत्ता परिवर्तन है | हाल ही में नवजोत एक बार फिर आलोचना के घेरे में आ गये जब गुरुनानक जयन्ती पर भारतीय सीमा से कुछ  दूर पाकिस्तान स्थित ननकाना साहेब गुरूद्वारे की यात्रा के दौरान उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान को बड़ा भाई बताते हुए उनके प्रति प्रेम व्यक्त किया | उनकी इस टिप्पणी पर कांग्रेस के भीतर ही बवाल मच गया | सांसद मनीष तिवारी सहित अनेक नेताओं ने इसे देशहित के विरुद्ध बताते हुए उनकी कड़ी आलोचना की | स्मरणीय है इमरान के शपथ ग्रहण में बतौर अतिथि गये नवजोत के   सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा से गले मिलने पर भी  उनकी जबरदस्त  निंदा हुई थी | पंजाब कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में उनकी भूमिका संगठन और सत्ता में समन्वय स्थापित करने की होनी चाहिए किन्तु वे खुद मुख्यमंत्री के विरुद्ध खुले आम मोर्चा खोलकर अपनी ही सरकार के लिए मुसीबत पैदा करने में लगे हैं | न जाने क्यों गांधी परिवार उनकी हरकतों को सहन कर रहा है | पंजाब में अमरिंदर सिंह के नई पार्टी बनाने का सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही होगा | लेकिन नवजोत के मोह में उसने अपने अनुभवी और जनाधार वाले नेता को पार्टी छोड़ने मजबूर कर दिया | ऐसा कहा जाता है कि नवजोत को मुख्यमंत्री बनने से रोकने के पीछे उनका बचकाना आचरण ही रहा | इस वजह से वे और आहत हो उठे और प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के साथ ही मनमाफिक नियुक्तियों के लिए अड़ गये | बावजूद इसके पार्टी उनके नखरे सहन करती आ रही है तो उसके पीछे कोई न कोई रहस्य तो है | पंजाब में इस बार चतुष्कोणीय मुकाबला होगा | कांग्रेस को आम आदमी पार्टी और  अकाली – बसपा के अलावा अमरिंदर – भाजपा गठबंधन से टकराना होगा | नए मुख्यमंत्री श्री चन्नी की जनता के बीच अमरिंदर जैसी पकड़  नहीं है और  बची – खुची फजीहत श्री सिद्धू किये दे रहे हैं | ऐसे में पंजाब जहाँ कांग्रेस  ने पिछले चुनाव में रिकॉर्ड सफलता  हासिल की थी इस बार अपने घर की कलह से ही परेशान है | नवजोत सिद्धू नादाँ की दोस्ती जी का जंजाल साबित होते लग रहे हैं | उनकी गैर जिम्मेदाराना हरकतों से किसान  आन्दोलन खड़ा करने के बावजूद कांग्रेस मुकाबले से पहले ही बाहर हो जाये तो आश्चर्य नहीं होगा | नवजोत को न जाने ये बात कब समझ में आयेगी कि राजनीति और कामेडी शो में अंतर होता है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 24 November 2021

राजनेता ही एक दूसरे को कचरा कहने लगे तो और प्रमाणपत्र की क्या जरूरत



हालांकि इसे अंगूर खट्टे हैं वाली कहावत से भी जोड़कर देखा जा सकता है लेकिन आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल की ये टिप्पणी वर्तमान भारतीय राजनीति पर बहुत बड़ा कटाक्ष है कि कांग्रेस के 2 सांसद और 25 विधायक तो उनकी पार्टी में आने को तैयार हैं किन्तु हम उनका कचरा नहीं लेना चाहते। दरअसल पंजाब में आम आदमी पार्टी के दो विधायक हाल ही में कांग्रेस में चले गए। पत्रकारों द्वारा इस बारे में पूछे जाने पर श्री केजरीवाल ने टिकिट नहीं मिलने पर नेताओं के दलबदल करने को गंदी राजनीति बताते हुए कहा कि उनकी पार्टी इसे पसंद नहीं करती। हालाँकि आम आदमी पार्टी में दूसरी पार्टियों से आये लोगों को भी जगह दी गई है। 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में नवजोत सिंह सिद्धू जब राजनीतिक पुनर्वास के लिए भटक रहे थे तब उनके आम आदमी पार्टी में जाने की बात भी चली किन्तु मुख्यमंत्री का चेहरा न बनाये जाने के कारण अंतत: वे कांग्रेस की गोद में जा बैठे। लेकिन श्री केजरीवाल का तंज केवल पंजाब तक सीमित न होकर राष्ट्रीय राजनीतिक में व्याप्त सिद्धांत विहीनता पर साधा गया निशाना है। संयोगवश इसी के साथ ही ये खबर भी आ गई कि भाजपा से कांग्रेस में गये कीर्ति आजाद, हरियाणा के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर और जनता दल (यू) के पूर्व महासचिव पवन वर्मा ने ममता बैनर्जी की शान में कसीदे पढ़ते हुए तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता ले ली। उल्लेखनीय है सुश्री बनर्जी इन दिनों अपनी पार्टी को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने के लिए दूसरे दलों के नेताओं को धड़ाधड़ अपनी पार्टी में खींच रही हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पुत्र अभिजीत भी कांग्रेस छोड़ तृणमूल में जा चुके हैं। कांग्रेस के अन्य नेता भी इन दिनों ममता के साथ जाते देखे जा रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि प. बंगाल के हालिया विधानसभा चुनाव के पहले जब तृणमूल के विधायक और नेता भाजपा में घुसकर टिकिट प्राप्त कर रहे थे तब सुश्री बैनर्जी उनको कचरा बताकर अपनी पार्टी के साफ़ होने की बात कह रही थीं किन्तु चुनाव के बाद वे उसी कचरे को दोबारा अपने घर में लाने बेताब हैं। भाजपा टिकिट पर चुनाव जीते और हारे अनेक ऐसे पुराने तृणमूल नेता घर वापिसी में लगे हैं जिनको ममता और उनके करीबी कचरा कहकर अपमानित किया करते थे। भाजपा के दिग्गज नेता यशवंत सिन्हा भी तृणमूल में जा चुके हैं। हाल ही में गोवा के एक बड़े कांग्रेसी नेता ममता की पार्टी में आ गये। लेकिन सवाल ये है कि कीर्ति आजाद जैसे लोगों को अपनी पार्टी में शामिल करने का लाभ या औचित्य क्या है? कांग्रेसी पृष्ठभूमि से होने के बाद वे भाजपाई बनकर सांसद भी बने किन्तु पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से लड़कर बुरी तरह हारे। उनका अपना कोई जनाधार तो है नहीं जो वे तृणमूल को मजबूती देंगे। तकरीबन यही स्थिति यश्वंत सिन्हा की है। लेकिन जो गलती भाजपा ने बंगाल में तृणमूल और कांग्रेस के लोगों को बिना सोचे समझे खींचकर की थी वही ममता भी दोहरा रही हैं। भाजपा तो इन दिनों दूसरी पार्टी के नेताओं को आयात करने में सबसे आगे है। म.प्र और कर्नाटक में उसकी सरकार कांग्रेस से आये दलबदलुओं के बल पर ही बन सकी। उ.प्र में आज भाजपा के तमाम सांसद और विधायक ऐसे हैं जो चाल ,  चरित्र और चेहरे से भाजपाई नहीं होने के बाद भी उसमें घुसे बैठे हैं। हाल ही में विधान परिषद के दो सपा सदस्यों ने भाजपा की सदस्यता ले ली। ये देखते हुए इस बात का अंदाजा लगाना कठिन हो गया है कि कौन किस पार्टी में कब तक रहेगा? दरअसल सिद्धांत और आदर्श की बजाय पद और व्यक्तिगत अहं की संतुष्टि ही राजनीतिक निष्ठा का पर्याय बन गई है। नवजोत सिंह सिद्धू राजनीतिक कचरे के सबसे बड़े उदाहरण हैं। बीते पांच साल से वे कांग्रेस में हैं जरूर लेकिन उनकी गैर जिम्मेदाराना हरकतों के कारण पार्टी परेशान है। अमरिंदर सिंह को हटवाने के बाद जो नये मुख्यमंत्री बने उनके खिलाफ भी वे जिस तरह की बयानबाजी करते हैं वह देखकर कांग्रेस आलाकमान की लाचारी पर तरस आता है। भाजपा में रहते हुए नवजोत ने गांधी परिवार और डा. मनमोहन सिंह का जितना उपहास किया वह किसी से छिपा नहीं है। प. बंगाल में मुकुल रॉय ममता के दाहिने हाथ माने जाते थे किन्तु नाराज होकर भाजपा में आकर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्यसभा सांसद बन गये। प. बंगाल में भाजपा की जड़ें ज़माने में उनका योगदान सबसे ज्यादा था किन्तु विधानसभा चुनाव में भाजपा को अपेक्षित सफलता न मिलने पर वे फिर तृणमूल में लौट आये। ऐसे उदाहरण भारतीय राजनीति में आजकल ढेरों मिल जाएंगे। प. बंगाल में जिन लोगों ने तृणमूल छोड़ भाजपा की टिकिट हासिल की थी उनको ममता और उनके सहयोगी मीर जाफर कहकर अपमानित करने से बाज नहीं आते थे परन्तु अब उन्हीं को वापिस लेने में उन्हें न संकोच है और न ही शर्म। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि आज की राजनीति पूरी तरह व्यापार हो गई है जिसमें नीति और सिद्धांतों पर निजी स्वार्थ और महत्वाकांक्षाएं हावी हो गई हैं। ममता हों या भाजपा, ये सब सत्ता हासिल करने के लिए ही राजनीति कर रहे हैं। भाजपा के अनेक नेता ये कहते सुने भी गए हैं कि चूंकि सत्ता में रहते हुए ही अपनी नीतियों को लागू किया जा सकता है इसलिए जैसे भी हो उसे प्राप्त करना होगा। वैसे बात गलत भी नहीं क्योंकि अब किसी नेता की पहिचान और राजनीतिक ताकत चुनाव जिताकर पार्टी को सत्ता में लाने पर निर्भर है। ममता ने तीसरी बार जीत हासिल कर ली तो वे बड़ी नेता मानी जाने लगीं। लेकिन कभी प्रधानमंत्री बनने की सोचने वाले लालू यादव आज चर्चाओं से बाहर होते जा रहे हैं। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी एक समय सबसे ताकतवर और सम्माननीय हुआ करते थे लेकिन उनके नेतृत्व में 2009 का लोकसभा चुनाव हारते ही उनका रुतबा घटने लगा। हालांकि दलबदल कोई नई चीज नहीं है और न ही इसे अपराध कहा जा सकता है। परन्तु नीतिगत मतभेद के कारण पार्टी बदलना तो समझ में आता है किन्तु सिर्फ निजी स्वार्थ पूरे न होने पर पाला बदल लेना अवसरवाद नहीं तो और क्या है? श्री केजरीवाल ने जो साफगोई दिखाई वह उनके दो विधायकों के कांग्रेस में घुस जाने से उपजी खीज कही जा सकती है लेकिन दूसरी पार्टी से आने वालों को कचरा कहने का उनका अंदाज उन लोगों के लिए संकेत है जो पार्टी बदलने में तनिक भी संकोच नहीं करते। म.प्र में भी जब दो दर्जन कांग्रेस विधायक भाजपा में गये तब उनका भी कचरा कहकर उपहास किया गया था। आयाराम-गयाराम, दलबदलू, गद्दार और मीर जाफर के बाद अब पार्टी बदलने वालों को कचरा कहा जाने लगा है। लेकिन अभी तक तो पार्टी से जाने वाले ही कचरा कहलाते थे परन्तु श्री केजरीवाल ने आने वालों को भी कचरा कहकर दलबदल करने वालों के लिए एक नये विशेषण का प्रयोग किया है। लोकतंत्र को मजाक बनने से रोकना है तो इस कचरे को साफ़ करने के लिए भी राजनीतिक स्वच्छता मिशन जैसा कोई प्रयास होना चाहिए क्योंकि जब राजनेता ही एक दूसरे को कचरा कहने लगे तो किसी और के प्रमाणपत्र की जरूरत ही क्या है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 23 November 2021

आ गये चुनाव बनने लगे दबाव : पुरानी व्यवस्था की वापसी जरूरी



प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीनों कृषि कानून वापिस लेने के बाद भी संयुक्त किसान मोर्चा आन्दोलन  वापिस लेने राजी नहीं है | प्रारम्भिक संकेतों के अनुसार इस बात की सम्भावना थी कि संसद में कानून रद्द करने संबंधी प्रस्ताव पारित होते ही आन्दोलन स्थगित कर  दिया जावेगा किन्तु गत दिवस लखनऊ में आयोजित किसान महापंचायत के बाद ये साफ़ हो गया कि किसान संगठन इस अवसर को पूरी तरह से भुनाना चाहते हैं और इसीलिए उनकी तरफ से प्रधानमन्त्री को पत्र  भेजकर दो टूक कह दिया गया कि शेष मांगों को भी मंजूर किया जावे | 26 नवम्बर को धरने की वर्षगांठ पर भी किसान संगठन बड़ा जमावड़ा करने जा रहे हैं | कुल मिलाकर अब दबाव की रणनीति पर काम हो रहा है | किसानों की देखा - सीखी गत दिवस साधु – संतों को भी जोश आ गया और उन्होंने  दिल्ली में एक बैठक करने के बाद सरकार को धमकी दे डाली कि मंदिरों और मठों को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त नहीं किये जाने पर वे भी आन्दोलन करने बाध्य होंगे और शस्त्र उठाने तक में संकोच नहीं करेंगे | एक साधु ने तो यहाँ तक कह डाला कि जब मुट्ठी  भर किसान सरकार को झुका सकते हैं तब देश भर के संत क्यों नहीं ? संतों का कहना है कि अगले  चुनाव से पहले ही ये आन्दोलन खड़ा हो जाएगा जिसका लक्ष्य नई सरकार बनने के पहले ही मंदिर और मठों को सरकारी नियंत्रण से आजाद करवाना होगा | अभी तक केंद्र सरकार की तरफ से न तो किसानों की मांगों  पर किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया आई और न ही संतों की धमकी के बारे में कुछ सुनने मिला | हो सकता है आने वाले दिनों में कुछ और दबाव समूह  इसी तरह की मांगें लेकर सरकार पर हावी होने का प्रयास करने लगें क्योंकि पंजाब , उ.प्र  और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव आगामी फरवरी में होने जा रहे हैं | यद्यपि चुनाव तो मणिपुर  और गोवा में भी होंगे  लेकिन राष्ट्रीय  राजनीति में उनका ज्यादा असर नहीं है |  लेकिन पहले तीन राज्यों में पंजाब को एकबारगी छोड़ भी दें क्योंकि वहां भाजपा अभी तक अकाली दल पर निर्भर रही किन्तु उ.प्र  और उत्तराखंड उसके लिए जीवन - मरण का सवाल बन गये हैं |  इनमें होने वाली  जीत – हार की छाया 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़े बिना नहीं रहेगी | 2014 और 2019 के  लोकसभा चुनाव में उक्त दोनों राज्यों ने भाजपा की  झोली वोटों से भर दी थी | 2017 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों राज्य भगवा लहर में समाहित हो गये | उ.प्र में तो भाजपा ने ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया |  कोरोना न आया होता तब भाजपा इस बार भी पुरानी जीत को दोहराने के प्रति  आश्वस्त होती | 2017 का विधानसभा चुनाव तो उसने नोटबंदी के बाद  जीता था | पिछले लोकसभा चुनाव में भी मोदी लहर के कहर में विपक्ष साफ़ हो गया | लेकिन कोरोना और उसके बाद किसान आन्दोलन के कारण भाजपा ऊपरी तौर पर भले ही आत्मविश्वास में नजर आती हो लेकिन मन ही मन वह सहमी या यूँ कहें कि सतर्क है | उसे पता है कि इस चुनाव में यदि उसके खाते में हार आई या बहुमत कम हुआ तो उसका असर भावी मुकाबलों पर पड़ना तय है | यही वजह है कि लगभग एक वर्ष तक कृषि कानून रद्द करने से इंकार करते रहने के बाद अचानक प्रधानमन्त्री ने उनको वापिस लेने की घोषणा कर दी |  इस अप्रत्याशित फैसले के पीछे भाजपा नेता और सरकार कुछ भी कहती फिरे किन्तु मूल रूप से ये आंशिक तौर पर पंजाब और पूरी तरह उ.प्र को ध्यान में रखते हुए लिए गए ।हालाँकि उत्तराखंड के तराई इलाके में भी बड़े सिख किसान  हैं परन्तु  उ.प्र को लेकर भाजपा का शिखर नेतृत्व किसी प्रकार का खतरा मोल लेने से बच रहा है | और फिर यहाँ श्री मोदी का निर्वाचन क्षेत्र भी है | भाजपा की इसी चिंता का लाभ उठाकर पहले किसान संगठन और अब साधु – संत आन्दोलन के नाम पर केंद्र सरकार पर दबाव बनाने को आगे आ रहे हैं | कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि हमारे देश में चुनाव के समय जो मांगोगे  वही मिलेगा वाली उक्ति चरितार्थ होती है | संतों का ये कहना  पूरी तरह सही  है कि मुट्ठी भर किसान यदि श्री मोदी  समान मजबूत प्रधानमंत्री को घुटनाटेक करवा सकते हैं तब लाखों साधु – संत अगर सड़कों पर उतर गए तब सरकार को झुकाना कठिन न होगा |  इन दोनों समूहों की मांगों का समय चुनाव के नजदीक होने से ये बात सामने आई है कि देश में बारहों महीने चुनावी मौसम रहने से प्रदेश और केंद्र सरकार को दबाव समूहों के सामने झुकना पड़ता है जो  विकास और सुधार  कार्यक्रमों के लिए नुकसानदेह है | उदाहरण के तौर पर तीनों कृषि कानूनों के रद्द होने पर शेयर बाजार में ये  सोचकर गिरावट देखी गई कि चुनावी हार के डर से मोदी  सरकार आर्थिक क्षेत्र में कड़े सुधारवादी फैसले लेने से पीछे हटेगी | भाजपा विरोधी जो तमाम स्तंभ लेखक कानून वापिसी को प्रधानमन्त्री की पराजय बताने में आगे – आगे हैं उनमें से भी ज्यादातर इस बात को  स्वीकार कर रहे हैं कि इस फैसले से आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को धक्का पहुंचा है | साधु – संत भी यदि अपनी मांगों के लिए धरना देकर बैठ गए तब उ.प्र में उसका असर होने की चिंता भाजपा को सताने लगेगी | कहने का आशय ये है कि चुनावों का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला  शासन व्यवस्था के लिए बड़ी समस्या बनता जा रहा है। जिसकी वजह से नीति बनाने और उसको लागू करने में सरकारों के सामने वोटों के नुकसान की आशंका आकर खड़ी हो जाती है | इस बारे में प्रधानमन्त्री सहित अनेक मंचों से एक देश , एक चुनाव की वह व्यवस्था पुनः अपनाने की सलाह दी जा चुकी है जो 1952 से 1967 तक जारी रही | तब पांच साल में लोकसभा और  सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ  होते थे | लेकिन बाद में ये व्यवस्था छिन्न – भिन्न होने से चुनावी कैलेंडर गडबडा गया जिसकी वजह से हर समय देश में कहीं न कहीं चुनाव की हलचल बनी रहती है | इसके कारण देश में  नीतिगत अस्थिरता , राजनीतिक ब्लैकमेलिंग , जातिगत वैमनस्य और  चन्दा उद्योग की शक्ल में फलने – फूलने वाला भ्रष्टाचार जन्म लेता है | बीते दो – तीन दशक में   चुनाव सुधार की जो बयार बही उसने बहुत कुछ ठीक किया लेकिन चुनाव में धन की बर्बादी रोकने में सफलता नहीं मिली | आज इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि देश को हर समय चुनावी चक्रव्यूह में फंसे रहने की समस्या से कैसे निकाला जाए | राजनीति से इतर देश में जो कथित सिविल सोसायटी है वह इस मुहिम को आगे बढाए तो कुछ समय बाद ये मुद्दा देशव्यापी बहस का हिस्सा बन सकता है |  इस बारे में चुनाव आयोग भी एक समिति बनाकर निश्चित समय सीमा में उसके  निष्कर्ष देश के सामने रखे और फिर संसद में उस पर विचार होने के उपरांत  लागू किया जावे | कोरोना  संक्रमण के दौरान भी  देश के अनेक हिस्सों में चुनाव करवाना जनहित के विरुद्ध था | लेकिन राजनेताओं को केवल वोट की चिंता रहती है | बेहतर हो समाचार माध्यम इस मुद्दे को जनता के बीच ले जाएं | अन्यथा कभी न रुकने वाला चुनाव चक्र देश में अस्थिरता और अराजकता को बढ़ावा देने का जरिया बना रहेगा | आज देश जिन समस्याओं से गुजर रहा है उनमें से अधिकांश हर समय चुनाव के कारण हैं | इसे जितनी जल्दी समझ लिया जावे उतना अच्छा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 22 November 2021

न्यूनतम समर्थन मूल्य : सरकार और बाजार के बीच समन्वय मुश्किल



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गत सप्ताह तीनों कृषि कानून वापिस लेने की जो घोषणा की गई थी उसके बाद लगता था कि किसान आन्दोलन समाप्त हो जाएगा। लेकिन संयुक्त किसान मोर्च सोच रहा है कि उ.प्र. और पंजाब के विधानसभा चुनाव को देखते हुए दबाव बनाकर अन्य मांगें भी पूरी करवाई जा सकती हैं। इसका संकेत प्रधानमंत्री को प्रेषित पत्र से मिला जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी शक्ल देने के साथ ही बिजली और पराली संबंधी कानून बदलने के अलावा आन्दोलन के दौरान मारे गये किसानों के परिवारों को मुआवजा और पुनर्वास की मांग भी है। आज लखनऊ में होने वाली महापंचायत के बाद भावी रूपरेखा भी स्पष्ट हो जायेगी। अनेक किसान नेताओं का कहना है कि संसद में कृषि कानून रद्द होने तक तो आन्दोलन चलेगा ही। वैसे आज शाम तक स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। हालाँकि ये खबर भी है कि मोर्चे में शामिल अनेक नेताओं को राजनीति में भाग्य आजमाने की जल्दी होने से वे भी दिल्ली की सीमा से हटने के पक्षधर हैं। गुरनाम चढूनी और लश्कर सिंह ने तो बाकायदा पंजाब चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारने का ऐलान भी कर दिया है। वहीं राकेश टिकैत ने उ.प्र में भाजपा को घेरने की बात कहकर अपनी महत्वाकांक्षा जाहिर कर दी है। अतीत में भी वे दो मर्तबा चुनाव हार चुके हैं। और भी कुछ ऐसे नेता हैं जो किसानों के कंधों पर चढ़कर सियासत में घुसना चाहते हैं। हालाँकि अभी तक मोर्चे ने राजनीतिक दलों और नेताओं को मंच से दूर रखा परन्तु हमारे देश में हर आन्दोलन की परिणिति अंतत: चुनाव ही होती है। इसलिए ये कहना गलत न होगा कि किसान आन्दोलन से जुड़े रहे अनेक नेतागण निकट भविष्य में राजनीति का दामन थामेंगे। रही बात उनकी मांगों की तो उनमें सबसे प्रमुख है न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी शक्ल देने की। ये वह मुद्दा है जिसका सतही तौर पर तो सभी दल समर्थन करते हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद इससे कन्नी काट लेते हैं। इससे पहले भी जो सरकारें केंद्र में रहीं उनमें कृषि से जुड़े अनेक नेता थे। उनमें से शरद पवार तो कृषि मंत्री भी रहे । एचडी देवगौड़ा भी प्रधानमन्त्री बनने के बाद खुद को विनम्र किसान कहते थे लेकिन उन्होंने भी इस बारे में कुछ नहीं किया। किसान नेताओं का ये आरोप गलत नहीं है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए श्री मोदी ने भी न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बना देने की पैरवी की थी। किसानों की आमदनी बढ़ाने के पक्षधर अनेक अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी के लिए सरकार और व्यापारियों को कानूनी तौर पर बाध्य किये जाने से अनेक समस्याएँ जन्म लेंगी। वर्तमान में सरकार समर्थन मूल्य घोषित कर उस पर खरीदी करती है। लेकिन किसान चाहते हैं कि व्यापारी को भी उसी मूल्य पर अनाज खरीदने कानूनी तौर पर बाध्य किए जावे। सुनने में तो ये मांग बहुत ही वाजिब लगती है लेकिन भारत के आर्थिक ढांचे में इसे समाहित कर पाना संभव नहीं लगता क्योंकि 80 फीसदी किसान लघु और मध्यम श्रेणी के होने से बाजार तक पहुंच नहीं पाते और व्यापारी उनसे सीधे खरीदी कर लेते हैं। उनकी आर्थिक स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं होती कि वे जरा सा भी इंतजार या मोलभाव कर सकें। इसी तरह सरकार भी अपनी जरूरत की खरीदी ही करेगी जिसके बाद किसान को खुले बाजार में विक्रय करने पर सरकार द्वारा तय की गई कीमत का मिलना व्यवहारिक तौर पर संभव नहीं होगा। साल दर साल अन्न का उत्पादन बढ़ते जाने के पीछे सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य का ही आकर्षण है। लेकिन ज्यादा अनाज खुले बाजार में आने के बाद उसके दाम मांग और पूर्ति के सिद्धांत के अनुरूप ही तय होंगे। उस स्थिति में व्यापारी यदि किसान से खरीदी न करे तब उसे मजबूरन कम दाम पर विक्रय करना होगा। इसी तरह सभी कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करने की मांग पूरी होने के बाद भी लागू नहीं हो पायेगी। अनेक कृषि विशेषज्ञों ने इस बारे में कहा है कि किसान को फसल का अर्थशास्त्र समझना होगा। तकनीक आधारित उन्नत खेती का चलन शुरू होते ही अधिकतर किसान एक ही अनाज का अधिकतम उत्पादन करने लगे। खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता हो जाने के बाद अतिरिक्त उत्पादन का निर्यात ही एकमात्र रास्ता बच रहता है लेकिन तब गुणवत्ता और ग्रेडिंग की जरूरत पड़ती है। और फिर सारे के सारे कृषि उत्पादन सरकार खरीदे ये नामुमकिन है क्योंकि वह सार्वजानिक वितरण प्रणाली के साथ ही आपातकालीन भण्डारण हेतु ही खरीदी करती है। ऐसे में किसान को सरकार पर पूरी तरह निर्भर न रहते हुए अपनी क्षमता का सही उपयोग करना होगा। आन्दोलन के दबाव में हो सकता है सरकार उनकी मांगें स्वीकार कर भी लेकिन उनको अमल में लाना आसान नहीं है। जिन इलाकों में गन्ना ज्यादा होता है वहां के किसान चीनी मिलों से समय पर भुगतान नहीं मिलने के कारण परेशान रहते हैं। अब गन्ने से एथनाल बनाकर उसका वैकल्पिक उपयोग प्रारम्भ किया जा रहा है जिसके बाद किसानों की समस्या काफी हद तक सुलझ जायगी किन्तु गेंहू, धान, चना, दलहन और तिलहन को सरकार किस सीमा तक खरीद सकेगी ये बड़ा सवाल है। किसानों की आय बढ़े ये सभी चाहते हैं लेकिन केवल उनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हों तो बाकी उत्पादक भी आज न सही भविष्य में इस हेतु दबाव बन सकते हैं। वैसे भी मुक्त अर्थव्यवस्था और उदारवाद के दौर में बाजार को नियंत्रित करना सरकारों के बस में नहीं रह गया है। कृषि को उद्योग का दर्जा देने की मांग भी लगातार उठती है लेकिन क्या बड़े किसान आयकर के दायरे में आने को तैयार होंगे? बिजली सहित कृषि उपकरणों एवं अन्य चीजों पर मिलने वाली सब्सिडी के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी सुरक्षा तभी सम्भव है जब कृषि उत्पादन और जरूरत के बीच समन्वय हो सके और निर्यात की ठोस योजना हो। खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने में किसानों के योगदान को भुलाना एहसान फऱामोशी होगी। लेकिन असली किसान और फार्म हाउस वाले उन किसानों के बीच अंतर तो करना पड़ेगा जो अपने काले धन को सफेद करते हैं और वह भी बिना आयकर चुकाए। संसद के भी अनेक ऐसे सदस्य किसान होने का दावा करते हैं जो कभी खेत में घुसे तक नहीं होंगे। प्रधानमन्त्री द्वारा तीन कानून वापिस लिए जाने के ऐलान के बावजूद किसान संगठन यदि आन्दोलन खत्म करने राजी नहीं हैं तो उसके पीछे उनका सोचना ये है कि अगर इस बार चूके तो फिर उनकी मांगों के विरोध में दूसरी दबाव समूह भी सामने आने लगेंगे। इस बारे में एक बात किसानों को समझ लेनी चाहिए कि इस आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले राजनीतिक दल भी सत्ता में रहते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू करने से बचते रहे। यहाँ तक कि देवगौड़ा और गुजराल सरकार में कृषि मंत्री बने सीपीआई नेता चतुरानन मिश्र तक ये दुस्साहस नहीं कर सके। 2004 से 2009 तक मनमोहन सिंह सरकार को वाममोर्चे का बाहर से समर्थन था। सीपीएम महासचिव हरिकिशन सुरजीत उस बेमेल गठबंधन के शिल्पकार थे। लेकिन वाम मोर्चे ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनाने की मांग नहीं उठाई। उस सरकार में लालू प्रसाद यादव जैसे लोग भी मंत्री बने लेकिन उन्होंने भी कुछ नहीं किया क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य को वैधानिक बनाना व्यवहारिकता के धरातल पर अनेक समस्याओं का कारण बन जायेगा। किसान आन्दोलन फिलहाल जिस स्थिति में है उसे अनंतकाल के लिए जारी रखना आसान नहीं होगा। इस हेतु समिति बनाने के घोषणा श्री मोदी कर चुके हैं लेकिन उसकी रिपोर्ट कब तक आयेगी और क्या वह किसानों को स्वीकार्य होगी, ये सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। वैसे भी तीन कृषि कानून वापिस लेकर प्रधानमंत्री ने जो कदम उठाया उससे किसानों के हाथ कुछ नहीं आया क्योंकि वे लागू ही नहीं हुए थे। किसान संगठन अब जिन मांगों के लिए अड़े हैं उनमें से बहुत सी तो विगत वार्ताओं में ही सरकार ने मान ली थीं। हो सकता है आगामी लोकसभा चुनाव के पहले किसानों को खुश करने के लिए केंद्र सरकार वैसा कर भी दे लेकिन उस पर अमल हो पाना संभव नहीं होगा। किसान आन्दोलन की वर्तमान राजनीति पंजाब और उ.प्र के चुनाव के मद्देनजर केंद्र सरकार को घुटनाटेक करवाना है लेकिन प्रधानमंत्री के मन में भी कुछ न कुछ चल रहा होगा। इसलिए ये मुकाबला कब और कहाँ जाकर खत्म होगा ये कह पाना फिलहाल तो संभव नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 20 November 2021

कृषि क़ानून : विरोधी गदगद , समर्थक हतप्रभ



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी राष्ट्र के नाम सन्देश देने वाले होते हैं तब उत्सुकता से ज्यादा भय व्याप्त हो जाता है | नोट बंदी और लॉक डाउन सदृश आशंका परेशान करने लगती है | गत दिवस जब पता चला  कि वे सुबह – सुबह देश को संबोधित करने वाले हैं तब आम तौर पर ये माना गया कि वे गुरुनानक जयन्ती पर शुभकामना संदेश देंगे | पंजाब के  सिख मतदाताओं को लुभाने इसे नितांत स्वाभाविक माना जाता लेकिन उन्होंने एक बार फिर सभी को चौंकाते हुए तीन कृषि कानूनों को वापिस लेने का ऐलान कर दिया | उनको किसानों के हित में बताने के बाद उन्होंने  कहा कि चूंकि सरकार इनके फायदों से कुछ  किसानों को समझाने में असफल रही इसलिए उनको वापिस ले लिया जावेगा | प्रधानमंत्री ने ये भी बताया कि इनके जरिये देश के 80 फीसदी लघु और सीमान्त किसानों को लाभान्वित करने का उद्देश्य था | स्मरणीय है गत वर्ष 26 नवम्बर से किसान  संगठन दिल्ली  की सीमा पर कानून रद्द करने की मांग के साथ  धरने पर बैठे थे |  उनकी अन्य मांगों में  विशेष रूप से न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहिनाना है | श्री मोदी ने कानून वापिस लेने के साथ ही इस बारे में एक समिति बनाने की बात भी कही | उनके इस कदम से आन्दोलन कर रहे किसान संगठन और उनके समर्थन में खड़ी विपक्षी पार्टियों में तो विजयोल्लास छा  गया लेकिन उनकी अपनी पार्टी और प्रशंसक वर्ग में मायूसी छा गयी | विपक्ष ने थूककर चाटने , अहंकार की पराजय , चुनावी हार  के भय से देर से लिया गया सही फैसला जैसी टिप्पणियाँ कीं वहीं समर्थकों को समझ में नहीं आया कि वे जिन कानूनों की  बीते एक साल से  वकालत करते आ रहे थे उनको वापिस लिए जाने पर क्या कहें ?  लेकिन थोड़ी देर में ही  कोई इसे मास्टर स्ट्रोक कहने लगा तो किसी ने कहा कि  किसान संगठनों के साथ ही विपक्ष के हाथ से मुद्दा छिन गया | परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाओं के बीच  इस कदम के निहितार्थ तलाशे जाने लगे | किसान संगठन भी चौंक गए क्योंकि  उन्हें लगता था कि सरकार उनसे बातचीत करते हुए समझौते की शक्ल में निर्णय लेगी | लेकिन प्रधानमंत्री ने किसी को भनक तक नहीं लगने दी और वह घोषणा कर दी जिसकी उम्मीद  किसी को भी नहीं थी | ऐलान के बाद से ही उसके राजनीतिक परिणाम का आकलन शुरू हो गया | विरोधियों ने इसे प्रधानमन्त्री और सरकार की हार तो बताया लेकिन वे इस बात को स्पष्ट नहीं कर सके कि इसका राजनीतिक लाभ कौन उठाएगा ?  ये कहना पूरी तरह सही है कि श्री मोदी ने ये कदम राजनीतिक दांव के तौर पर ही उठाया है | यदि उत्तर भारत के तीन राज्यों क्रमशः  उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा करीब न होते तब शायद वे  ये दांव न चलते | भले ही पंजाब छोड़कर शेष दोनों राज्यों के जो सर्वे आये हैं उनमें सीटें कम होने के बावजूद भाजपा सत्ता में लौटती दिख रही है लेकिन प्रधानमन्त्री के मन में 2024 का लोकसभा चुनाव है जिसके लिए उ.प्र में वर्चस्व बनाये रखना निहायत जरूरी है | इसके अलावा पंजाब में सूपड़ा साफ होने से बचाने के  लिए सिख समुदाय की नाराजगी दूर करना भी जरूरी था | ये भी कहा  जा रहा है कि  किसान आन्दोलन के बहाने पंजाब में खालिस्तानी गतिविधियाँ फिर शुरू होने लगी थीं | केंद्र सरकार को सिख विरोधी बताकर हिन्दुओं और सिखों  के बीच का सौहार्द्र खत्म करने के  संकेत भी आ रहे  थे | राजनीतिक चर्चाओं के अनुसार कैप्टेन अमरिंदर सिंह द्वारा  गृह मंत्री अमित शाह से की गई मुलाकातों में भी पंजाब में आतंकवाद के नये बीज  अंकुरित होने संबंधी जानकारी दी गयी | उन्होंने भाजपा के सामने ये शर्त भी रखी कि  कृषि कानून वापिस  लिए जावें तो वे उसके साथ अपनी नवगठित पार्टी का  गठबंधन करने तैयार हैं | इसी तरह पश्चिमी उ.प्र के जाट मतदाताओं की नाराजगी दूर करने के लिए कुछ करना जरूरी था | सतही विश्लेषण कर्रें तो यही लगता है  कि उक्त सभी कारण  अपनी जगह सही हैं जिनके कारण प्रधानमन्त्री को पराजय स्वीकार करनी पड़ी | जिससे कठोर निर्णय  पर कायम रहने वाली उनकी  छवि को धक्का पहुंचा है | बीते एक साल में समाज के बड़े वर्ग के साथ ही किसानों के बीच भी  कृषि कानूनों के पक्ष में वातावरण बनने से  दिल्ली में चल रहे धरने की रंगत भी फीकी पड़ने लगी थी | राकेश टिकैत सहित किसान संगठनों के अन्य नेता विभिन्न प्रदेशों में दौरा करने के बाद भी आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी नहीं बना सके | और फिर आम जनता को इस विवाद में  किसी भी प्रकार की रूचि नहीं थी | गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में हुए उपद्रव और हाल ही में निहंगों द्वारा  दिल्ली में धरनास्थल के पास की गयी हत्या के बाद आन्दोलन नैतिक दृष्टि से  कमजोर हो चला था | दिल्ली और पड़ोसी राज्यों की जनता और व्यापारी वर्ग भी  आन्दोलन के विरोध  में मुखर था | वैसे भी  सर्वोच्च न्यायालय की  रोक से क़ानून लागू नहीं हो सके थे | ऐसे में  प्रधानमंत्री द्वारा अचानक  किये गये  ऐलान से उनकी छवि रणछोड़ दास की बन गयी | उल्लेखनीय है 2016 में नोट बंदी के बाद भी पूरे देश में  जबरदस्त नाराजगी  थी |  कृषि कानूनों से तो  किसान ही प्रभावित हो रहे थे किन्तु नोट बंदी ने तो पूरे समाज को हलाकान कर डाला था |  2017 में इन्हीं राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले थे | लेकिन वे अपने फैसले पर अडिग रहे और तमाम आशंकाओं  के बावजूद उ.प्र और उत्तराखंड में भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली | कल के पहले तक ये लग रहा था कि प्रधानमन्त्री किसान आन्दोलन से भयभीत हुए बिना चुनाव का सामना करेंगे किन्तु इस बार उनके चौंकाने का  अंदाज कदम पीछे खींचने के रूप में सामने आया | कृषि कानूनों को लेकर उनको एक बड़े वर्ग का समर्थन भी मिला जिसने इसे आर्थिक सुधारों की दिशा में सराहनीय कदम बताया था | इस फैसले के बाद भी किसान संगठनों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए दबाव बनाने के संकेत से लगता है श्री मोदी द्वारा दिखाई गयी दरियादिली से दूसरा पक्ष ज़रा भी नहीं पसीजा , उलटे उसे ये लगने लगा है कि सड़क घेरकर बैठने से संसद के फैसले भी बदलवाए जा सकते हैं | इस तरह  प्रधानमन्त्री के कदम पीछे खींचने के इस निर्णय ने दबाव की राजनीति के लिए भी रास्ता साफ कर दिया है | यदि आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा को अपेक्षित सफलता मिली तब  तो  इस दांव की सार्थकता साबित हो जायेगी | लेकिन  किसानों की नाराजगी अब भी बनी रही तब प्रधानमंत्री की निर्णय क्षमता और राजनीतिक आकलन पर सवाल उठे बिना नहीं रहेंगे |  राजनीति के जानकार पंजाब में भाजपा को पाँव ज़माने की जगह मिलने के साथ ही पश्चिमी उ.प्र में रालोद नेता जयंत चौधरी के साथ उसके संभावित गठबंधन की जो बात सोच रहे हैं वह उतनी आसान नहीं लगती क्योंकि  अमरिंदर और  जयंत दोनों ये  भांप गये हैं कि फिलहाल भाजपा को उनकी जरूरत है | अकाली दल ने तो दोबारा  जुड़ने से साफ़ इंकार कर दिया है | इसलिए इस कदम के नतीजों के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा |  लगता है  हालिया उपचुनावों में हिमाचल और राजस्थान के नतीजों ने प्रधानमन्त्री को चिंतित किया है | उनको ये समझ में आने लगा है कि  भावनात्मक  मुद्दे भी एक सीमा के बाद काम नहीं आते किन्तु उनके समर्थकों को अब भी  ये भरोसा है कि प्रधानमन्त्री मोर्चा जरूर हारे हैं लेकिन जंग नहीं  | और फिलहाल तो उन्होंने किसान  आन्दोलन सहित विपक्षी हमले की धार कमजोर कर दी है |  आने वाले कुछ दिनों में खुलासा हो जायेगा कि  इस फैसले से किसे और कितना फायदा या नुकसान होगा ? वैसे आन्दोलन चलाने वालों को भी इस बात की समीक्षा करनी चाहिए कि एक साल तक लड़ने और सैकड़ों मौतों  के बाद किसानों को आखिर मिला क्या ? क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात समिति के पाले में चली जाने से फिलहाल उस पर किसी निर्णय की उम्मीद नहीं है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 19 November 2021

सरकारी शालाओं का कायाकल्प : दिल्ली सरकार बधाई की हकदार


 
भारत को कृषि प्रधान की बजाय अब चुनाव प्रधान देश कहना चाहिए क्योंकि यहाँ जब देखो तब चुनाव रूपी फसल की तैयारी होती रहती है | चूंकि चुनावों का मूल आधार राजनीति है इसलिए उसकी चर्चा भी इक्का – दुक्का  छोड़कर हर जुबान पर रहती है |  शोचनीय बात ये है कि इस चर्चा के विषय जाति , धर्म और स्थानीय मुद्दे ही ज्यादा होते हैं | लेकिन इसके लिए आम जनता को दोषी ठहराना गलत होगा क्योंकि राजनेता और राजनीतिक दलों से उसे जो सुनने मिलता है उसी के इर्द - गिर्द उसकी  सोच सिमटकर रह जाती है | ये कहना गलत न होगा कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर राजनीतिक विमर्श कम ही सुनाई देता है | टीवी चैनलों पर होने वाली दिशाहीन बहस में भी वही मुद्दे शामिल होते हैं जिनसे दर्शक संख्या बढ़े | वहीं अखबारी पन्ने भी राजनीति , हिंसा , भ्रष्टाचार और ऐसी ही बाकी सनसनीखेज खबरों से भरे रहते हैं | जबकि देश की अधिकतर जनसँख्या को प्रभावित करने वाले मुद्दे कुछ और ही हैं | उस दृष्टि से देखा जाए तो दिल्ली सरकार द्वारा अपनी शालाओं का स्तर सुधारकर उन्हें बड़े नाम वाले निजी विद्यालयों की टक्कर में खड़ा किये जाने को राष्ट्रीय उपलब्धि  के तौर पर प्रचारित किया जाना चाहिए ,  किन्तु ऐसी खबरों को अपेक्षित महत्व नहीं मिलता | आज ही छोटी सी खबर से पता चला कि देश में सरकारी विद्यालयों की गुणवता के आधार पर जो सूची तैयार की गई उसमें सर्वश्रेष्ठ विद्यालय दिल्ली का ही है | यही नहीं जिन 10 सरकारी विद्यालयों का श्रेष्ठता सूची हेतु चयन हुआ उनमें चार दिल्ली सरकार द्वारा संचालित हैं | दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया के पास शिक्षा विभाग भी है | अपने पहले कार्यकाल  में ही उन्होंने इस दिशा में ईमानदारी से प्रयास किये  जिसके परिणामस्वरूप दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में संपन्न वर्ग के अभिभावक भी अपने बच्चों को प्रवेश दिलवाने प्रेरित हुए | उनमें दी जाने वाली शिक्षा के अलावा अन्य वे सभी गतिविधियां संचालित की जाने लगीं जिनकी वजह से निजी विद्यालय आकर्षण का केंद्र माने जाते हैं | राजनीतिक मतभेदों से परे  हटकर ये मानना ही पड़ेगा  कि अरविन्द केजरीवाल की सरकार ने शासकीय विद्यालयों की दशा और दिशा दोनों में जबरदस्त या यूँ कहें कि अकल्पनीय सुधार करते हुए उनको निजी क्षेत्र के महंगे विद्यालयों से प्रतिस्पर्धा करने लायक बनाकर उनसे आगे निकलने में सक्षम बनाया | देश की 10 श्रेष्ठ सरकारी शालाओं में से चार दिल्ली की होना मायने रखता है | केजरीवाल सरकार और आम आदमी पार्टी की नीतियों से मतभिन्नता होना बुरा नहीं है परन्तु शिक्षा और मोहल्ला क्लीनिक के रूप में उसने दिल्ली में जो काम किया वह राष्ट्रीय राजनीति के लिए प्रेरणास्पद कहा जाएगा | विद्यालयीन शिक्षा और प्राथमिक चिकित्सा ऐसे मौलिक विषय हैं जिन पर सरकार को विशेष ध्यान देना चाहिए । लेकिन वोट बैंक की राजनीति में उलझे राजनीतिक दलों को इस बारे में ज्यादा रूचि नहीं होती | अनेक अदालती फैसलों के अलावा सरकारी  आदेशों में शासकीय सेवारत अधिकारियों तक से ये कहा गया कि वे अपने बच्चों को शासकीय शाला में पढ़ाएं | कुछ  स्थानों से इसका पालन किये जाने संबंधी खबरें भी आईं किन्तु उनको अपवाद ही कहा जा सकता है | आज भी न सिर्फ नौकरशाहों अपितु ज्यादातर राजनेताओं के बच्चे महंगे निजी विद्यालयों में ही शिक्षा प्राप्त करते हैं | और उसके बाद उनकी कोशिश होती है कि उच्च शिक्षा हेतु किसी तरह उन्हें विदेश भेज दिया जाए | इस माहौल में दिल्ली सरकार द्वारा हासिल उपलब्धि प्रशंसा और अभिनंदन के साथ ही अन्य सरकारों के लिए अनुकरणीय भी है | श्री सिसौदिया ने ये साबित कर दिया कि सरकारी  विद्यालयों की दशा सुधारकर उनका उन्नयन संभव है , बशर्ते प्रयासों में प्रतिबद्धता और ईमानदारी हो | दिल्ली सरकार ने सरकारी शालाओं का स्तर उठाकर ये स्थिति उत्पन्न कर दी कि उच्च  वर्गीय परिवारों के अभिभावक भी अपने बच्चों को इनमें प्रवेश दिलवाने को प्रयासरत रहते हैं | राजनीति की अपनी सीमाएं  और संकोच हैं , लेकिन ऐसे मुद्दों पर अपने विरोधी से भी सीखना ही बुद्धिमत्ता होती है | स्व. अटलबिहारी वाजपेयी ने प्रधानमन्त्री रहते हुए उच्चस्तरीय सडकों - की जरूरत और महत्व समझाया | उनकी सोच को केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने जिस कुशलता से आगे बढ़ाया उसकी उनके विरोधी भी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं | दिल्ली सरकार के शिक्षा मंत्री रहते हुए श्री सिसौदिया ने सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता को  जिस ऊंचाई तक पहुँचाया उसे राष्ट्रीय मॉडल बनाया जाना  चाहिए | देश में शिक्षा के व्यवसायीकरण को रोकने का ये एक कारगर उपाय हो सकता है | सबका साथ , सबका विकास और सबका विश्वास नारे को  वास्तविकता  में तभी बदला जा सकेगा जब शिक्षा जैसी मूलभूत चीज बाजारवादी ताकतों के हाथों में कैद न रहे |  वैसे अनेक राज्यों में लड़कियों को मुफ्त शिक्षा के  अलावा अन्य सुविधाएँ जैसी योजनाएँ भी प्रचलित हैं किन्तु शासकीय शिक्षण संस्थाएं गुणवत्ता की दौड़ में पिछड़ने की वजह से विद्यार्थियों की पसंद नहीं बन पातीं | इस कमी को दूर करना समय की मांग है | विशेष रूप से विद्यालय स्तर तक की शिक्षा के लिये सरकारी संस्थानों का निजी क्षेत्र के समकक्ष होना बेहद जरूरी हो गया है क्योंकि विकास की कल्पना इसके बिना अधूरी है | बताया जाता है अमेरिका में शालेय शिक्षा हेतु बच्चों को ज्यादा दूर भेजने की बजाय निकटवर्ती शाला में प्रवेश दिलवाना अनिवार्य है | इसका कारण वहां सभी विद्यालयों का  मूलभूत ढांचा एक समान होना है | 21वीं सदी में भारत को यदि विश्वशक्ति बनना है तब उसे विद्यालयीन स्तर से ही सरकारी शिक्षा  संस्थानों को उच्च स्तरीय बना होगा | शाला का अर्थ केवल एक भवन न होकर उसमें दी जाने वाली शिक्षा होती है | हमारे देश में  बिजली , सड़क और पानी जैसे मुद्दे चुनावों में हावी रहते हैं | उनके अलावा आरक्षण रूपी लॉलीपाप  और मुफ्त उपहारों की घोषणा से मतदाताओं को आकर्षित किया जाता है | लेकिन दिल्ली सरकार ने सरकारी विद्यालयों का कायाकल्प करते हुए उनको जिस तरह से प्रतिष्ठित किया वह अँधेरे में किरण जैसा है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 18 November 2021

न्यायपालिका भी तो अपनी सुविधा के मुताबिक संज्ञान लेती है



सर्वोच्च न्यायालय कानून की किताबों से बाहर निकलकर भी आये दिन ऐसी टिप्पणियां करता है जो जनता की आवाज प्रतीत होती हैं। दिल्ली में प्रदूषण की समस्या पर केजरीवाल सरकार और केंद्र दोनों को जिस तरह से फटकार लग रही है उससे आम जनता खुश है। दरअसल इन दिनों दिल्ली वासियों का साँस लेना दूभर हो रहा है। दीपावली पर चली आतिशबाजी के बाद पड़ोसी पंजाब और हरियाणा राज्यों के किसानों द्वारा खेतों में पराली जलाए जाने से निकले धुंए ने हर साल की तरह इस साल भी दिल्ली का रुख किया जिससे वहां के आसमान में धुंआ छा गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में दिल्ली और केंद्र सरकार के हलफनामे पर सवाल उठाते हुआ कहा कि पराली से होने वाला प्रदूषण वाहनों के धुंए की तुलना में बहुत कम है जिसे रोकने में वे दोनों असफल रहे हैं। और साल भर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के बाद सर्दियां आते ही किसानों को दोषी बताकर अपनी गलतियाँ छिपाते हैं। न्यायालय ने नौकरशाही की अकर्मण्यता पर भी तंज़ कसते हुए कहा कि वह पूरी तरह निष्क्रिय बनी रहकर अदालत से आदेश मिलने का इन्तजार करती रहती है। न्यायालय ने कानपुर आईआईटी द्वारा पराली प्रदूषण पर दिए गए सुझाव पर नाराजगी जताते हुए कहा कि उसके निष्कर्ष भरोसे लायक नहीं हैं और पांच सितारा होटलों में बैठकर किसानों को दोषी ठहराना आसान है। अदालत ने दिल्ली सरकार को लताड़ते हुए ये भी कहा कि वह विज्ञापनों पर तो भारी-भरकम राशि लुटाती है परन्तु प्रदूषण रोकने की बजाय बलि के बकरे खोजा करती है। लेकिन न्यायालय की ये टिप्पणी सबसे तीखी रही कि टीवी पर होने वाली बहस सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं क्योंकि उसमें शामिल लोगों को मुद्दे की समझ नहीं होने पर वे कुछ भी बोल जाते हैं जिससे वातावारण खराब होता है। सर्वोच्च न्यायालय तकरीबन हर रोज किसी न किसी मामले में इसी तरह की व्यंग्यात्मक और कड़वी लगने वाली बातें किया करता है। नौकरशाहों को फटकारने में भी वह संकोच नहीं करता। आजकल उसकी ये धमकीनुमा टिप्पणी भी अक्सर सुनाई दे जाती है कि शासन और प्रशासन की तरफ से जल्द कोई कदम न उठाया गया तब वह खुद होकर आदेश पारित कर देगा। यद्यपि इसके पीछे सरकारी मशीनरी को तेजी से काम करने के लिए बाध्य करना होता है किन्तु अनेक ऐसे मामले हैं जिनमें न्यायपालिका ही अनिर्णय बनाये रखते हुए इस बात की प्रतीक्षा करती है कि सरकार और नौकरशाह ऐसा कुछ कर दें जिससे वह निर्णय देने से बच जावे। इसके दो ज्वलंत उदाहरण हैं , दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में मुस्लिम समाज द्वारा लम्बे समय तक सड़क रोककर बैठ जाना और उसके बाद कृषि कानूनों के विरुद्ध दिल्ली की सीमाओं पर किसानों द्वारा सड़कों पर किया गया कब्जा। इन दोनों मामलों में सम्बंधित राज्य और केंद्र की सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या कानून व्यवस्था बनाये रखने की थी। शाहीन बाग़ के आन्दोलन को समूचे विपक्ष का समर्थन था। यदि केंद्र सरकार धरना स्थल को बलपूर्वक खाली करवाती तो अल्पसंख्यकों पर अत्याचार का हल्ला मचाकर सहिष्णुता और ऐसे ही अन्य मुद्दे उछाले जाते। इसी तरह किसान आन्दोलन के जरिये घेरी गईं सड़कें जिन राज्यों के क्षेत्राधिकार में आती हैं यदि वे आम नागरिकों को हो रही परेशानी दूर करने के लिए धरने को पुलिस की मदद से खत्म करवातीं तो उन पर किसान विरोधी होने का दोष थोप दिया जाता। ये बात किसी से छिपी नहीं है कि शाहीन बाग़ और किसान आन्दोलन में सड़क पर कब्जा किये जाने से दिल्ली के नागरिकों सहित बाहर से आने वालों को कितना हलाकान होना पड़ा। होना तो ये चाहिए था कि सर्वोच्च न्यायालय खुद होकर संज्ञान लेते हुए सड़कों को खाली करवाने का आदेश पारित करता किन्तु वह ऐसा करने से बचता रहा जिसका कारण तो वही जानता होगा। लेकिन जब उनके विरोध में याचिकाएं पेश हुईं तब भी न्यायालय की तरफ से उपदेशात्मक बातें तो खूब की गईं लेकिन आदेशात्मक कुछ भी नहीं। शाहीन बाग़ का धरना पूरी तरह गैरकानूनी था। लेकिन न्यायपालिका ने बजाय उसे हटवाने के बजाय धरना देने वालों से बात करने के लिए एक टीम बनाई जो खाली हाथ लौटी। यदि कोरोना न आया होता तो बड़ी बात नहीं शाहीन बाग़ वाली सड़क पर आज भी धरना दिए मुस्लिम महिलाओं और बच्चों को बैठाये रखा जाता। इसी तरह किसान आंदोलन के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने विवादित कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी किन्तु उसके बाद भी किसानों ने धरना खत्म नहीं किया तो बजाय उनको हटाने का आदेश देने के उसने आन्दोलन के अधिकार को मान्यता देते हुए किसान संगठनों से केवल ये पूछा कि कानूनों पर रोक के बाद भी वे जनता के लिए परेशानी का कारण क्यों बने हुए हैं ? जनअपेक्षा यही थी कि सर्वोच्च न्यायालय उक्त दोनों धरनों के बारे में दायर याचिकाओं पर बजाय लम्बी सुनवाई के सबसे पहले सड़क खाली करने का आदेश देता किन्तु कानून व्यवस्था राज्य की जिम्मेदारी होने के नाम पर वह इससे बचता रहा। ये कहना कतई गलत न होगा कि यदि सर्वोच्च न्यायालय स्वत: संज्ञान लेते हुए शाहीन बाग के धरने को गैरकानूनी बताते हुए सड़क खाली करवाने का आदेश दे देता तब शायद किसान संगठनों द्वारा भी राजधानी को जाने वाली सड़कें घेरने का दुस्साहस नहीं किया जाता। सही बात ये है कि दिल्ली में दीपावली की रात चले पटाकों से न्यायपालिका भन्नाई हुई है। सर्वोच्च न्यायालय के कड़े और स्पष्ट आदेश के बाद भी उसकी नजर के सामने ही दिल्लीवासियों ने उसके आदेश को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। हालांकि उस आदेश की मंशा असंदिग्ध रूप से जनहित में ही थी। ये देखते हुए न्यायपालिका को भी अपनी कार्यप्रणाली की समीक्षा करनी चाहिए। किस मामले में वह स्वत: संज्ञान लेगी और किसमें ऐसा करने से बचेगी,इस बारे में स्पष्टता होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की जागरूकता और जनहितैषी सोच निश्चित तौर पर प्रशंसनीय है। शासन और प्रशासन के कान खींचने के उसके प्रयासों को जनता भी पसंद करती है किन्तु न्यायपालिका के बारे में ये अवधारणा भी आम जनता के मन में गहराई तक घर करती जा रही है कि वह अनेक गम्भीर मामलों को अपनी सुविधा के अनुसार निपटाती है। दिल्ली में प्रदूषण की मौजूदा स्थिति पर केंद्र और केजरीवाल सरकार पर उसकी नाराजगी पूरी तरह जायज है। नौकरशाही के निकम्मेपन और टीवी चैनलों पर होने वाली बेसिर पैर की बहस पर रोषपूर्ण और व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ भी लोगों को अच्छी लग रही हैं। लेकिन ये बात भी सच है कि न्यायपालिका की सक्रियता जब विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करती दिखाई देती है तब अहं का जो टकराव पैदा होता है वह अनेक समस्याओं का कारण बनता है। प्रदूषण सहित ऐसे ही अनेक विषयों पर न्यायालयों की चिंता स्वागतयोग्य है किन्तु जब शाहीन बाग़ और किसान संगठनों द्वारा सड़क पर गैर कानूनी कब्जे के विरुद्ध वह सख्त कदम उठाने से खुद को बचाता है तब उसके आदेशों की गम्भीरता वैसे ही नष्ट हो जाती है जैसा दीपावली की रात हर साल देखने मिलता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 17 November 2021

अजीब विरोधाभास : रिकार्ड अन्न उत्पादन के बाद भुखमरी



भारत  में भोजन के लिए भिक्षा मांगने वाले हर जगह दिख जाते हैं |  हाल ही में वैश्विक भुखमरी सूचकांक – 2021 में  खुलासा हुआ कि 116 देशों की सूची में भारत एक वर्ष के भीतर 91 वें से लुढ़क कर 116 वें स्थान पर आ गया , जो पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी नीचे  है | सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए ये शर्मिन्दगी का विषय है | इसीलिये सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस  केंद्र सरकार को  भूख से मर रहे लोगों को बचाने के लिए योजना न बनाने के लिए लताड़ते हुए कह दिया कि जल्द ऐसा न होने पर वह स्वतः संज्ञान लेकर आदेश पारित कर देगा | पेट भरने में असमर्थ लोगों की मदद के लिए सामुदायिक रसोई  सुविधा  प्रारम्भ करने की मांग करने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने उक्त आदेश दिया | न्यायालय की पीड़ा बिल्कुल  सही है | किसी भी कल्याणकारी राज्य में एक भी व्यक्ति भूख से मर जाए तो इससे बड़ी शर्म की बात दूसरी नहीं हो सकती | लेकिन सवाल ये है कि लोग भूखे क्यों हैं ? पूरे कोरोना काल में 80 करोड़ लोगों को सरकार ने मुफ्त अनाज प्रदान किया | आगामी 30 नवम्बर से मुफ्त वितरण तो बंद हो जायेगा किन्तु सस्ते अनाज की राशन व्यवस्था पूर्ववत जारी रहेगी | ऐसे में वे  परिस्थितियां विचारणीय हैं जो  भुखमरी का कारण हैं | पाकिस्तान और बांगला देश से भी बदतर स्थिति वाले सर्वेक्षण को भले ही अविश्वसनीय मान लिया जाए लेकिन ये तो सच है कि भारत में करोड़ों लोगों को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं है | इसकी  मुख्य वजह बेरोजगारी ही है जो कोरोना काल में सर्वोच्च स्तर पर जा पहुंची | ये बात सही है कि पेट भरने के लिए इन्सान के पास पैसे और पैसों के लिए काम होना चाहिए |  इसी के साथ ही जनसँख्या नियन्त्रण प्राथमिक आवश्यकता है किन्तु  इस बारे में सरकारी स्तर पर उदासीनता नजर आने लगी है | दुष्परिणाम ये हुआ कि सुशिक्षित और संपन्न वर्ग में तो परिवार नियोजन अपना लिया गया लेकिन गरीब तबके की जनसंख्या वृद्धि लगातार जारी है | कुछ समुदायों ने धर्म के नाम पर परिवार नियोजन को अपनाने से इंकार कर दिया | जनसँख्या में सबसे आगे चीन में जब  साम्यवादी व्यवस्था आई तब वह आर्थिक तौर पर भारत से भी पीछे था लेकिन आज ही ये जानकारी आई कि वह अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे धनी देश बन गया | ये चमत्कार रातों - रात नहीं हुआ | बल्कि अपनी विशाल जनसंख्या को बिठाकर मुफ्त में खिलाने के बजाय उसने हर व्यक्ति को कार्य करने  हेतु मजबूर कर दिया | परिणाम ये निकला कि देखते ही देखते वह उत्पादक देश बनने लगा जिसने न्यूनतम वेतन की बजाय अधिकतम काम पर बल दिया और  बच्चे पैदा करने के लिये भी सरकार से अनुमति लेने जैसी  व्यवस्था लागू की | हमारे देश में श्रमिक संगठनों ने कभी कार्य संस्कृति को बढ़ावा देने की जरूरत नहीं समझी जबकि चीन में आन्दोलन , हड़ताल या वेतन जैसी मांग करने का अधिकार ही नहीं दिया गया | कौन  व्यक्ति क्या  काम करेगा ये सरकार तय करती है | श्रम करने में सक्षम किसी भी व्यक्ति को बिना काम किये बैठने नहीं दिया जाता | अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन दुनिया भर के लिए नियम - कायदे बनाता है किन्तु  चीन ने उनको लागू किया या नहीं उसकी जांच वह भी नहीं कर सकता | भारत में स्थिति इसके ठीक विपरीत है | हमारे देश में अधिकारों के लिए तो खूब आवाज उठती है लेकिन कर्तव्यों का निर्वहन प्राथमिकताओं से परे है | गरीबी और भुखमरी का सबसे बड़ा कारण कामचोरी है जिसे मुफ्तखोरी ने बढ़ावा दिया | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा  भुखमरी के शिकार लोगों की चिंता करना हर दृष्टि से सही है किन्तु भुखमरी  दूर करने के लिए लोगों को मुफ्त खिलाने की बजाय काम की अनिवार्यता बेहतर विकल्प होगा | इसे विडंबना ही  कहा जाएगा  कि एक तरफ तो बेरोजगारी का आंकड़ा  सर्वकालीन उच्च स्तर पर  है लेकिन दूसरी तरफ हर क्षेत्र में काम करने वालों का अभाव है |  आज जरूरत है कि श्रम को भी मांग और पूर्ति से जोड़ा जाए | सर्वोच्च न्यायालय की मंशा पूरी तरह मानवीय है लेकिन जिस तरह मध्यान्ह आहार के बावजूद शालाओं में गरीब घरों के बच्चों के शैक्षणिक स्तर में अपेक्षित सुधार होने की बजाय भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला वैसी ही अव्यवस्था सामुदायिक रसोई में होने की आशंका से इंकार नहीं जा सकता | भारत में कृषि क्षेत्र रोजगार प्रदान करने का सबसे बड़ा जरिया  है किन्तु उसमें  भी श्रमिकों के अभाव का रोना सुनाई देता है | निर्माण क्षेत्र में इन दिनों जबरदस्त कार्य हो रहा है जहां करोड़ों श्रमिकों को रोज काम मिल सकता है | फिर भी  श्रमिकों के अभाव में बड़े – बड़े प्रोजेक्ट विलम्ब से पूरे होते हैं | मध्यमवर्गीय परिवारों के जीवन स्तर में सुधार के कारण घरेलू काम के लिए कर्मचारियों की मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है लेकिन जिसे देखो ये शिकायत करता मिल जायेगा कि उसे काम वाले नहीं मिल रहे | भूख निश्चित तौर पर बड़ी समस्या है | दूसरी तरफ देश में खाद्यान्न का उत्पादन साल दर साल बढ़ता जा रहा है | सरकार सार्वजानिक वितरण प्रणाली के लिए अरबों – खरबों रु. का अन्न खरीदकर भंडारण करती है | एक और दो रूपये में गेंहू - चावल करोड़ों लोगों को दिये जाते हैं | वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन भी मिल रही है | ऐसे में भूखा वही रह सकता है जो पूरी तरह से निकम्मा या अपाहिज हो | इसलिए  ये भी जरूरी है कि हर किसी को इस बात के लिए प्रेरित किया जावे कि वह कुछ न कुछ करे जिससे उसका भरण – पोषण हो सके | हालाँकि इस सुझाव को जनविरोधी कहने वाले भी कम नहीं होंगे  लेकिन कोई भी देश करोड़ों लोगों को मुफ्त में खिलाता रहे तो वह कभी विकास नहीं कर  सकेगा | खाद्य सुरक्षा बेशक सरकार की जिम्मेदारी है किन्तु सबकी भूख मिटाने के इंतजाम का दुष्परिणाम नए भूखों के रूप में सामने आये बिना नहीं रहेगा | सार्वजानिक रसोई अवश्य बने और जरूरतमंदों को सस्ता अनाज और भोजन मिले इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चहिये किन्तु इस समस्या का स्थायी हल आज नहीं तो कल तलाशना ही पड़ेगा | सरकारी अनुदान से जनता की भलाई बहुत जरूरी और अच्छी बात है लेकिन तालाब  के किनारे बैठे लोगों को मुफ्त में मछली बांटकर निकम्मा बनाने के बजाय उन्हें मछली पकड़कर पेट भरने के लिए प्रेरित करना ही उपयुक्त तरीका है | अपने देश के महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस की उक्त शिक्षा से  प्रेरणा लेकर चीन ने अपनी विशाल जनसंख्या को मानव संसाधन में बदलकर जो कमाल किया वही भारत को भी करना पड़ेगा | वरना एक तरफ प्रगति के आंकडे चमकेंगे और दूसरी तरफ भुखमरी के | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 16 November 2021

हिन्दू और हिन्दुत्व : कांग्रेस से न निगलते बन रहा है और न ही उगलते



ऐसा लगता है कांग्रेस ने गलतियों से सीखने की बजाय उन्हें दोहराने की आदत पाल ली है | बीते सप्ताह पार्टी के वरिष्ट नेता सलमान खुर्शीद की पुस्तक सनराइज ओवर अयोध्या के विमोचन पर वरिष्ट नेता दिग्विजय सिंह ने हिन्दू और हिंदुत्व संबंधी निरर्थक बातें कहते हुए विवाद पैदा कर दिया था | बाद में जब पुस्तक में हिंदुत्व की तुलना इस्लामिक आतंकवादी संगठनों से किये जाने की जानकारी उजागर हुई तब श्री खुर्शीद के विरुद्ध भी गुस्सा बढ़ा और बात  पुस्तक पर प्रतिबंध से उनके घर पर तोड़फोड़ तक जा पहुँची | इसी बीच एक और कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने  आग में घी डालने का काम किया | पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल  गांधी भी हिन्दू और हिंदुत्व की अधकचरी व्याख्या करने बैठ गये | म.प्र के एक कांग्रेस विधायक ने श्री खुर्शीद को पार्टी से निकालने की मांग कर डाली | उधर छत्तीसगढ़ के एक सरकारी कार्यक्रम में अतिथि के तौर पर श्री खुर्शीद को दिया आमन्त्रण रद्द कर दिया गया | बीते काफी समय से कांग्रेस स्वातंत्र्य वीर सावरकर के व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर काफ़ी आलोचनात्मक है | वामपंथी विचारधारा से भी उसकी इस मुहिम को समर्थन मिल रहा है | प्रश्न ये है कि हिन्दू और हिंदुत्व को लेकर की जा रही निराधार टिप्पणियों से कांग्रेस  को क्या हासिल होगा ? धर्मनिरपेक्षता का अनुपालन अपनी जगह ठीक है | भारत अनादिकाल से बहु आस्था वाला देश रहा है | हिन्दुओं में भी अलग – अलग देवी – देवताओं  को मानने वाले हैं | परस्पर विरोधी विचारों वाले ऋषियों को भी एक समान सम्मान दिया गया | यही वजह रही कि विदेशों से आये दूसरे धर्मों के आक्रमणकारी भी यहीं रच - बस गये | मुगलों के पहले भी गैर हिन्दू विदेशी शासकों ने हम पर हमला किया और कुछ समय तक राज भी | लेकिन  हिन्दू संस्कृति और उसमें समाया हिंदुत्व का भाव जीवित रहा तो उसकी वजह उसका शाश्वत होना है | ये बात समय – समय पर साबित हो चुकी है कि जिस सनातन  धर्म को हिन्दू  और हिंदुत्व का आधार माना जाता है वह किसी एक व्यक्ति अथवा देवता द्वारा प्रतिपादित न होकर निरंतर चलने वाली चिंतन परम्परा से विकसित होता गया | किसी एक व्यक्ति या पुस्तक को पत्थर की लकीर मानकर चलने की बजाय समूचे ब्रह्माण्ड को अपनी आस्था से जोड़कर एक उदार और विचारशील जीवन पद्धति ही हिंदु और हिंदुत्व के रूप  में स्वीकार की गई | श्री अय्यर और उन जैसे तमाम लोग समय – समय पर ये साबित करने का प्रयास करते रहते हैं कि मुग़ल शासक बड़े उदार ह्रदय थे  और उन्होंने यदि आतंक फैलाकर हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कराया होता तो आज वे बहुसंख्यक न होते | अकबर को महान बताते हुए मणिशंकर ने दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय के अकबर रोड पर होने पर खुशी भी जाहिर की | उन्होंने मुगल शासक जहांगीर और शाहजहाँ की रगों में हिन्दू खून होने के बात को भी उछाला है | लेकिन आज जब कांग्रेस पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और उसका जनाधार सिमटता जा रहा है तब उसे बजाय इस तरह के मुद्दों पर अपनी ऊर्जा और समय नष्ट करने के इस तरफ ध्यान देना चाहिए कि वह लोगों का विश्वास दोबारा किस तरह जीते | सही बात तो ये है कि कांग्रेस बीते कुछ समय से जबरदस्त मानसिक द्वन्द में फंसी हुई है | 2014 में सत्ता गंवाने के बाद बनाई गई एंटोनी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पार्टी की अल्पसंख्यक समर्थक  छवि उसकी पराजय का कारण बनी | चूँकि श्री एंटोनी गांधी परिवार के करीबी थे इसलिए उनकी बात को गम्भीरता से लेते हुए राहुल को ब्राह्मण के तौर पर प्रचारित करते हुए उनके द्वारा जनेऊ धारण करने और सारस्वत गोत्रीय होने की बात उछाली गई | मंदिरों में परंपरागत वस्त्र पहिनकर पूजा करने के चित्र भी प्रसारित होने लगे | कर्नाटक में वे विभिन्न मठों में भी गये | उनकी बहिन प्रियंका भी इन दिनों उ.प्र में मंदिरों के दर्शन करती देखी जा रही हैं | हालाँकि अभी तक उनकी माँ सोनिया गांधी ने अपने धर्म और गोत्र के बारे में कुछ भी  नहीं कहा | हाल ही कश्मीर यात्रा के दौरान भी राहुल ने खुद को कश्मीरी ब्राहमण बताया था | यद्यपि इस सबका कांग्रेस को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ , बल्कि मुस्लिम उससे छिड़कने लगे |   श्री खुर्शीद की पुस्तक में कांग्रेस के इस मानसिक भटकाव पर तंज कसते हुए कहा गया है कि पार्टी की  अल्पसंख्यक समर्थक छवि बनने के कारण जनेऊ जैसे मुद्दे उछालकर बचाव किया जाने लगा है | ऐसा लगता है राहुल और प्रियंका द्वारा स्वयं को हिन्दू साबित करने की कोशिश पार्टी के एक तबके को रास नहीं आ रही जिसका प्रमाण हिन्दू और हिंदुत्व को लेकर खड़ा किया ताजा विवाद है | हालाँकि चौतरफा छीछालेदर होने के बाद श्री खुर्शीद भी सफाई देते फिर रहे  हैं | उनकी पुस्तक बिके या नहीं लेकिन उसके  विमोचन के अवसर पर हुई बयानबाजी और उसके कुछ अंश कांग्रेस की डूबती नाव में छेद बन रहे हैं | आगामी चुनावों के मद्देनजर मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए पार्टी  तरह – तरह के  जतन कर रही है | लेकिन भाजपा पर हमला  करते – करते उसके कुछ नेता जनहित के मुद्दों को छोड़ ज्योंही हिन्दू और हिंदुत्व विरोधी बयान देते हैं त्योंही उसकी आक्रामकता ठंडी पड़ जाती है और  मजबूरन उसे रक्षात्मक होना पड़ता है | श्री खुर्शीद को संदर्भित पुस्तक से  क्या लाभ होगा ये तो अभी कह  पाना कठिन है लेकिन उसकी सामग्री और उस बारे में  कतिपय नेताओं की उलजलूल बयानबाजी ने कांग्रेस का बड़ा नुकसान कर दिया | अतीत में भी ऐसा होता रहा है जिसके लिए  मणिशंकर को तो निलम्बित तक किया गया था । लेकिन उसके बाद भी गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी रुकने का नाम नहीं ले रही | पार्टी को अपने नेताओं को हिन्दू और हिन्दुत्व जैसे विषयों के बारे में प्रशिक्षण देकर ये समझाना चाहिए कि बहुसंख्यक समुदाय की उपेक्षा करने के दिन बीत चुके हैं | और ढुलमुल नीतियों के कारण ही  कांग्रेस का परम्परागत दलित , आदिवासी और यहाँ तक कि मुस्लिम मतदाता समूह भी उससे दूर होता जा रहा है |  उ.प्र इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जो आजादी के बाद से ही नेहरु और फिर गांधी परिवार की कर्मभूमि रही है लेकिन आज आलम ये है कि राहुल गांधी अमेठी गँवा चुके हैं और सपा – बसपा अपना प्रत्याशी खड़ा कर देते  तो सोनिया गांधी भी रायबरेली में हार जातीं | बीते कुछ सालों से प्रियंका इस राज्य में कांग्रेस का चेहरा बनी हुई हैं लेकिन वे भी चुनाव लड़ने से डरती हैं | इसका मुख्य कारण हिन्दू और हिंदुत्व जैसे मुद्दे पर  कुछ नेताओं की  बयानबाजी ही है | कांग्रेस का प्रचारतंत्र भाजपा को चाहे जितना कोसे लेकिन उसकी वर्तमान दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण  नीतिगत अनिश्चितता है | पार्टी को ये स्पष्ट करना चाहिए कि राहुल गांधी का सारस्वत गोत्र और जनेऊ उसे पसंद है या सलमान खुर्शीद द्वारा हिंदुत्व की तुलना आईएस और बोकोहरम से करने जैसी बेवकूफी | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 15 November 2021

आदिवासी अंचलों में राष्ट्रवादी सोच का प्रसार अच्छा संकेत



 
किसी राजनीतिक दल द्वारा किये जाने वाले हर कार्य के पीछे अगला चुनाव होता है | उस दृष्टि से म.प्र सरकार द्वारा आज आदिवासी समुदाय के प्रेरणा पुरुष अमर  शहीद बिरसा मुंडा की जयन्ती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाये जाने को भी भाजपा की राजनीतिक योजना कहना गलत नहीं होगा | प्रदेश कांग्रेस के नेता कमलनाथ और दिग्विजय सिंह इस कार्यक्रम की जोरदार आलोचना करते हुए कह रहे हैं कि भाजपा को जनजातीय गौरव दिवस मनाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि उसने इस वर्ग के लिए कुछ नहीं किया | लेकिन राजनीतिक विश्लेषक भाजपा की इस व्यूहरचना को समझ रहे हैं | कुछ समय पूर्व जबलपुर में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी आदिवासी सम्मलेन में आये थे | हाल ही में इस समुदाय के प्रभाव वाली जोबट विधानसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा की जीत से उसका उत्साह बढ़ा है | बिरसा मुंडा वैसे तो झारखण्ड में आदिवासियों के महानायक माने जाते हैं लेकिन बिहार , उड़ीसा , छत्तीसगढ़ , म.प्र और महाराष्ट्र  के बहुत बड़े जनजातीय इलाके में उनके प्रति श्रद्धा है | ये समूचा इलाका ईसाई मिशनारियों के साथ ही नक्सली गतिविधियों का केंद्र बना हुआ है | भाजपा के वैचारिक अभिभावक रास्वसंघ ने लंबे  समय से आदिवासी क्षेत्रों में जिस तरह सक्रियता बढ़ाई उसके कारण वहां मुख्य धारा की सोच को जगह मिली है | धर्मांतरण के अभियान को भी इससे धक्का पहुंचा वहीं नक्सली आतंक के विरुद्ध भी लोग सामने आने लगे हैं | दरअसल जनजातीय समुदाय को हिन्दू धर्म से अलग करने का विदेशी षडयंत्र आजादी के बाद लगातार सफल होता गया | इसी के चलते पूर्वोत्तर राज्यों में अलगाववादी संगठन खड़े हुए | म.प्र सरकार ने भोपाल के नव विकसित हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर रानी कमलापति करने का जो दांव चला वह हर किसी को चौंका गया | प्रदेश की राजधानी पर कभी आदिवासी राजपरिवार के शासन की जानकारी तो अच्छे – अच्छों को नहीं होगी | और फिर बड़ी मुस्लिम आबादी और नवाबी विरासत के  कारण भोपाल के प्रमुख स्टेशन का मुस्लिम नाम बदलकर आदिवासी रानी का नाम देना साहस भरा काम भी है | रानी कमलापति के इतिहास पर पड़ी धूल को एक झटके में साफ़ कर देना वाकई राजनीतिक सूझ - बूझ का उदाहरण है | इस अवसर पर प्रधानमन्त्री का आगमन और आदिवासियों का विशाल सम्मलेन भी भाजपाई रणनीतिकारों की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है | भले ऐसे आयोजनों का तुरंत असर न दिखाई देता हो लेकिन भाजपा , जिसे अब तक शहरी मध्यम वर्ग और व्यापारियों की पार्टी माना जाता रहा , जिस सुनियोजित ढंग से जनजातीय क्षेत्रों में पकड़ बनाती जा रही है उसका परिणम मणिपुर सहित  अन्य  पूर्वोत्तर राज्यों में देखा जा सकता है | बिरसा मुंडा तो खैर जनजातीय समुदाय में महानायक के तौर पर पूजित हैं लेकिन रानी कमलापति को अचानक विस्मृति और उपेक्षा से निकालकर राष्ट्रव्यापी प्रसिद्धि दिलवाना बहुत बड़ी बात है | हबीबगंज स्टेशन को  स्व. अटलबिहारी वाजपेयी के नाम करने की मांग कतिपय भाजपा नेताओं द्वारा  उठाई जा रही थी और ऐसी उम्मीद थी कि वह मंजूर भी  कर  ली जावेगी किन्तु सबको चौंकाते हुए रानी कमलापति के नाम का चयन किया गया | इसके पूर्व भाजपा ने गत वर्ष म.प्र से आदिवासी कार्यकर्ता  डा. सुमेर सोलंकी को राज्यसभा में भेजकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था | प्रदेश में अगला विधानसभा चुनाव 2023 में होगा | भाजपा के चुनाव प्रबंधक इस बात को भूले नहीं हैं कि अति आत्मविश्वास के चलते 2018 में पार्टी के हाथ से सत्ता खिसक गई थी | हालाँकि महज 15 माह बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया की अतृप्त महत्वाकांक्षाओं की वजह से भाजपा को सत्ता दोबारा  हासिल हो गई लेकिन पार्टी इस बात से भी आशंकित रहती है कि कांग्रेस से आये विधायक भले ही शिवराज सरकार में भी मंत्री बने हुए हैं लेकिन अगले चुनाव के पहले उनमें से कुछ वापिस लौट जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा | इसीलिये पार्टी ने आदिवासी वर्ग के बीच पैठ बनाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है | भोपाल में आज हो रहा आदिवासियों का जमावड़ा और उसमें प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी का हिस्सा लेना महज सरकारी जलसा न होकर भाजपा और संघ परिवार की उस कार्य योजना का हिस्सा है जिसके अंतर्गत आदिवासियों को हिन्दू धर्म से दूर करते हुए मुख्य धारा से काट देने के षडयंत्र को विफल करना है | आदिवासी इलाकों में नक्सली गतिविधियाँ भी इसी कारण बढ़ीं क्योंकि विकास के नाम पर आया अनाप – शनाप धन नेता और नौकरशाहों की जेबों में जाता रहा जिसके कारण आदिवासी इलाके विकास की रोशनी से वंचित रह गये | यदि  ईमानदारी होती तो बीते सात दशक में आदिवासी इलाके और उनमें  रहने वाले धर्मांतरण करने वाली ताकतों के अलावा नक्सली जाल में न फंसे होते |  भाजपा की जहाँ – जहाँ सरकारें हैं वहां रामराज आ गया हो ऐसा तो नहीं है लेकिन ये बात सही है कि 2014 के बाद से रास्वसंघ ने उन अनछुए क्षेत्रों में अपनी गतिविधियाँ सफलतापूर्वक तेज कीं जिन्हें मुख्यधारा से काटकर देशविरोधी ताकतें अपने प्रभाव में लेने में कामयाब हो रही थीं  | आदिवासी समुदाय सांस्कृतिक तौर पर हिन्दुत्व का हिस्सा रहा है लेकिन उसके मन में हिन्दू विरोधी ज़हर बोने का काम बड़े पैमाने पर किया जाता रहा जिसके लिए विदेशी पैसे का उपयोग किसी से छिपा नहीं है | वैसे इस विषय पर राजनीति से ऊपर उठकर सोचना चाहिए क्योंकि  आदिवासी समुदाय केवल वोट बैंक नहीं वरन इस देश की 135 करोड़ से अधिक जनसंख्या का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं | अशिक्षा और शहरी सभ्यता से दूर रहने के बावजूद देश की आजादी के लिए उसने भी  बलिदान दिए | जिनमें साधारण व्यक्ति से लेकर राजवंशीय विभूतियाँ भी थीं | आजादी के बाद उनके उत्थान के लिए कहने को तो बहुत कुछ किया गया लेकिन उन कोशिशों का समुचित लाभ नहीं होने के कारण  देश विरोधी शक्तियों को उनके मन में जहर भरने का अवसर मिल गया | ये अच्छा संकेत है कि आदिवासी वर्ग के बीच मुख्यधारा की राष्ट्रवादी राजनीति पूरे जोर से प्रवेश करने को तैयार है | चुनावी जीत हार से अलग हटकर देखें तो ये मानना ही होगा कि आरक्षण भी अपना असर खोता जा रहा है क्योंकि निजीकरण के चलते सरकारी नौकरियां सिमटने लगी हैं | ऐसे में आदिवासी अंचलों में यदि विकास की रोशनी नहीं पहुंचती तब वहाँ विघटनकारी ताकतों की पकड़ और मजबूत होती जायेगी जो किसी भी दृष्टि से देश हित में नहीं होगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 12 November 2021

मामला केवल मलिक और फड़नवीस के मान – सम्मान तक सीमित नहीं रह गया



महाराष्ट्र की राजनीति में इन दिनों आरोप – प्रत्यारोप का रोचक मुकाबला देखने मिल रहा है | यूँ तो राजनीतिक क्षेत्र से जुड़ी हस्तियाँ नित्य प्रति इस तरह के खेल में हिस्सेदार होती हैं लेकिन मुम्बई में जिसे देश की आर्थिक राजधानी भी कहा जाता है , नशीले पदार्थों के कारोबार को लेकर जिस तरह की रस्सा खींच देखने मिल रही है उससे डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ नामक कुश्ती याद आती है जिसे देखने वालों को भी ये पता होता है कि रिंग  में होने वाली कुश्ती महज नाटकबाजी है किन्तु फिर भी वे उस स्टंटबाजी का आनंद उठाने महंगी टिकिट खरीदकर जाते हैं या टीवी पर उसका प्रसारण देखते हैं | हमारे देश में सियासत के सौदागर भी उसी शैली की कुश्ती लड़ा करते हैं जो  जीत हार का फैसला हुए बिना ही कब खत्म हो जाये , ये पता ही नहीं  चलता | इसे  कव्वाली का मुकाबला भी कह सकते हैं जिसमें आमने सामने बैठे कव्वालों द्वारा जवाबी शेर दागकर श्रोताओं का मनोरंजन किया जाता है | पिछले महीने फिल्म उद्योग के बड़े सितारे कहलाने वाले शाहरुख़ खान के बेटे आर्यन को उसके कुछ साथियों सहित गोवा जाने वाले एक क्रूज पर हो रही पार्टी में नशीली चीजों के उपयोग की शिकायत पर एनसीबी ने पकड़ा |  शाहरुख़ और उनके बेटे ने तो चुप्पी साधे रखी लेकिन महाराष्ट्र सरकार के एक मंत्री नवाब मलिक ने उक्त छापे का नेतृत्व करने वाले एनसीबी अधिकारी  समीर वानखेड़े पर आरोपों  की बौछार लगा दी | समीर से उनकी खुन्नस जनहित के किसी मुद्दे पर न होकर उनके दामाद की नशीली चीजों के कारोबार से जुड़े होने के आरोप में की गई गिरफ्तारी है , जिसे कुछ समय पहले ही जमानत मिली थी | श्री मलिक ने आर्यन की गिरफ्तारी के बहाने श्री  वानखेड़े के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए ये साबित करने का प्रयास किया कि वे घूसखोर और धोखेबाज हैं | उनकी शादी , धर्म और जाति को लेकर भी उन्होंने सनसनीखेज जानकारी उजागर की जिस पर  एनसीबी ने उनके विरुद्ध विभागीय जांच भी शुरू कर दी | लेकिन इसी दौरान महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने समीर का बचाव करते हुए श्री मलिक के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया | वानखेड़े परिवार भी मंत्री महोदय के खिलाफ अदालत में चला गया | लेकिन श्री फड़नवीस के मैदान में कूदते ही मुकाबला उनके और श्री मलिक के बीच सिमट गया | दोनों और से रोजाना बयानों के तीर चलने लगे |  रोचक बात ये है कि सभी आरोप पुराने हैं  जिन्हें गड़े मुर्दे उखाड़ने का प्रयास भी कहा जा सकता है | उसके बाद शुरू हुआ  मानहानि के नोटिस जारी करने का सिलसिला | वानखेड़े परिवार के साथ ही श्री मलिक और श्री फड़नवीस के बीच भी मानहानि के दावों का मुकाबला चल पड़ा | इस बारे में उल्लेखनीय है कि श्री वानखेड़े के परिजनों द्वारा श्री मलिक के विरुद्ध प्रस्तुत शिकायत पर अदालत ने मंत्री जी से कहा है कि वे अपने आरोपों को पुष्ट करने विषयक हलफनामा पेश करें | ऐसी ही बात उनके और पूर्व मुख्यमंत्री के बीच चल रही बयानों की जंग के बारे में कही जा रही हैं  | लेकिन इस पूरे प्रकरण में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि श्री मलिक को यदि श्री वानखेड़े के भ्रष्टाचार की इतनी बारीक जानकारी थी तो वे अब तक खामोश क्यों रहे ? इसी तरह श्री फड़नवीस के कथित कारनामों का पर्दाफाश करने की पहल  आर्यन मामले के बाद ही क्यों की गई ? सवालों के घेरे में तो पूर्व मुख्यमंत्री भी आते हैं | केंद्र में उनकी पार्टी की सरकार  होने से वे चाहते तो श्री मलिक के विरुद्ध जो आरोप वे अभी लगा रहे हैं , उनकी जांच करवा सकते थे | लेकिन न तो श्री मलिक ने श्री वानखेड़े के विरुद्ध पहले कोई आरोप लगाये और न ही श्री फड़नवीस ने इस विवाद के पहले कभी श्री मलिक की बखिया उधेड़ने के लिए इतना जोर लगाया | इससे साबित होता है कि राजनेता एक दूसरे के काले - कारनामों के  बारे में सब कुछ जानते हुए भी तब तक चुप रहते हैं जब तक उनको कोई व्यक्तिगत नुकसान न हो रहा हो | यदि श्री मलिक के दामाद गिरफ़्तार न होते तब उनको श्री वानखेड़े से कोई शिकायत न रहती | इसी तरह उनके और श्री फडड़नवीस के बीच शुरू हुई बयानों की जंग पहले शुरू क्यों नहीं हुई इसका जवाब भी मिलना चाहिए | इस बारे में ये बात भी  गौरतलब है कि आरोपों की जबरदस्त बौछार करने वाले योद्धागण अब तक पुलिस या किसी अन्य सक्षम एजेंसी के पास अपनी बात को प्रमाणित करने वाले सबूतों के साथ नहीं गये जिससे  ये लगता है कि पूरी कवायद केवल सामने वाले पर दबाव बनाने के लिए की जा रही है | समीर वानखेड़े तो सरकारी अधिकारी हैं इसलिए उनकी कुछ सीमायें हैं लेकिन नवाब मलिक और देवेन्द्र फड़नवीस तो ताकतवर लोग हैं जो उनके पास उपलब्ध जानकारी जाँच एजेंसियों को देकर अपनी बात को साबित कर सकते हैं | इससे भी  बड़ी बात ये है कि  किसी व्यक्ति की गैर कानूनी गतिविधियों की जानकारी होने पर उसे पुलिस को न बताना भी एक तरह का अपराध ही है | साधारण इंसान तो ऐसे मामलों में झंझट लेने से बचता है लेकिन वर्तमान मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के साथ तो इस तरह का कोई डर नहीं होने से उनको तो पहले ही ये मामले सामने लाना चाहिए थे | कुल मिलाकर मुम्बई में आरोप – प्रत्यारोप के दैनिक मुकाबले के बाद अब मानहानि के दावों की जो बोलियाँ बढ़ – चढ़कर लग रही हैं उनसे राजनीतिक नेताओं का असली चरित्र उजागर हो रहा है | नशे के कारोबार से किसी का भी जुड़ाव गम्भीर मामला है | राजनेता और नौकरशाह मिलकर अपराधिक गतिविधियों को संरक्षण देते हैं ये  बात भी लोगों के मन में बैठती जा  रही है | इस प्रकरण में  नवाब मलिक और देवेन्द्र फड़नवीस ने जो कुछ भी कहा वह जगजाहिर है | दोनों ने एक दूसरे पर जो आरोप लगाये वे हवा में उड़ाने लायक नहीं हैं क्योंकि उनमें नशे के कारोबारियों के साथ विदेश से जुड़े तारों का  भी उल्लेख है | इसलिए दोनों तरफ से लगाये गये आरोपों की जाँच होनी चाहिए |  जो भी दोषी हो उसे समुचित दंड देना जरूरी है | अब ये मामला श्री मलिक और श्री फड़नवीस के मान – सम्मान तक सीमित न रहकर देश की सुरक्षा तक जा पहुंचा है |  यदि आरोप असत्य निकलते हैं तब भी दोनों नेताओं पर देश को गुमराह करने के लिए कारवाई होनी चाहिए |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 11 November 2021

दिग्विजय : भाजपा के घोषित विरोधी लेकिन अघोषित मददगार



अक्सर ये सुनने मिलता है कि कांग्रेस के वरिष्ट नेता और म.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भाजपा के अघोषित मित्र हैं जो अपने बयानों से उसकी मदद  करते हैं | इस बात में कितनी सच्चाई है ये तो श्री सिंह और भाजपा ही जानें क्योंकि आज की राजनीति में कौन कब किसके साथ और विरोध में है ये जान लेना बहुत कठिन है | विशेष तौर पर राजनेताओं की  वैचारिक अनुवांशिकता का  परीक्षण करना तो असंभव हो गया है | इसकी एक वजह राजनीति का विचारकों  की बजाय स्टार प्रचारकों पर निर्भर होते जाना है | नवजोत सिद्धू के पुराने और नए बयानों के वीडियो देखने से ही कविवर नीरज की ये पंक्ति याद आ जाती है कि लोग  ईमान बदलते हैं कैलेंडर की तरह | गत दिवस कांग्रेस के एक और वरिष्ट नेता तथा पूर्व केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद की पुस्तक सनराइज ओवर अयोध्या के विमोचन में उपस्थित श्री सिंह ने एक बार फिर इतिहास को आधार बनाकर विवाद खड़ा करने की कोशिश की जिसका लाभ भाजपा यदि उठाये तो आश्चर्य नहीं होगा | अपनी  आदतानुसार उन्होंने हिन्दू और हिन्दुत्व का मुद्दा उठाते हुए कहा कि हिदुत्व का हिन्दू धर्म और सनातन परम्पराओं से कोई सम्बन्ध नहीं है | ज़ाहिर है ऐसा कहकर वे भाजपा और संघ परिवार द्वारा प्रचारित हिन्दुत्व शब्द पर आपत्ति व्यक्त करना चाह रहे थे लेकिन निराधार बातें करने के आदी हो चुके इस वरिष्ट नेता ने इसके साथ ये कहकर अपने मानसिक संतुलन को सवालों  के घेरे में खड़ा कर दिया कि भारत में इस्लाम आने के पहले भी दूसरे धर्मों के मंदिर तोड़े जाते रहे | दरअसल इस बयान का उद्देश्य इतिहास के पन्नों को पलटना नहीं अपितु मुगलों के शासनकाल  में हिन्दू धर्मस्थलों को तोड़े जाने का बचाव करना था | उनकी इस टिप्पणी पर सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने ये जानकारी दी है कि जब देश रियासतों में बंटा था तब राजाओं द्वारा अपने कुलदेवताओं और पूर्वजों के मंदिर बनवाये जाते थे | दूसरे राजा द्वारा आक्रमण किये जाने पर वह उन स्मारकों को तोड़कर अपना आधिपत्य साबित करता था किन्तु जिस दौर की बात दिग्विजय सिंह कर रहे हैं उसमें भारत में जिन तीन धार्मिक धाराओं की जानकारी मिलती है वे सनातन धर्म जिसे प्रचलित भाषा में हिन्दू कहा जाता है के अलावा जैन और बौद्ध ही थे | इनके बीच वैचारिक मतभेद भले रहे लेकिन एक दूसरे के धर्मस्थल ध्वस्त करने की बात शायद ही कहीं उल्लिखित हो | आजादी के बाद वोट बैंक की राजनीति ने  अल्पसंख्यक की श्रेणी में जैन ,  बौद्ध और सिख  भी जोड़ दिए वरना उसके पूर्व इनको एक ही माना जाता था जो  सांस्कृतिक पहिचान पर आधारित था | बहरहाल श्री सिंह का ये कहना कि हिन्दुत्व का हिन्दू धर्म और सनातन परम्पराओं से कोई सम्बन्ध नहीं है , सिवाय भटकाव  पैदा करने के और कुछ भी नहीं है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय सहित अनेक धर्माचार्य तक ये कह चुके हैं कि हिन्दुत्व जीवन शैली है जिसे कोई भी अपना सकता है | जहाँ तक बात हिन्दू की है तो खुद को हिन्दू बताने वाले दिग्विजय सिंह को ये मालूम होना चाहिए कि हिन्दू धर्म न होकर राष्ट्रीयता को संबोधित करने वाला शब्द है और धर्म के लिए सनातन शब्द का उपयोग इसलिए होता है क्योंकि इसकी उत्पत्ति का समय कोई नहीं जानता | जिस वैदिक ज्ञान पर हिन्दुत्व आधारित है उसमें भी हिन्दू शब्द कहीं नहीं है | सनातन धर्मी हिन्दुओं के मन में  मानव रूप में अवतरित हुए  भगवान राम और श्रीकृष्ण  के प्रति अगाध श्रृद्धा है लेकिन उनके किसी भी कथन में हिन्दू शब्द नहीं है | गीता और रामायण  में भी हिन्दू धर्म जैसा कुछ भी पढ़ने नहीं मिलता | ये देखते हुए श्री सिंह द्वारा हिन्दू धर्म जैसी बात कहना उनके अज्ञान न सही किन्तु अल्पज्ञान को अवश्य दर्शाता है | लेकिन ये कहना कि इस्लाम के आने के पहले भी  दूसरे धर्म के मंदिर तोड़े जाते थे ,  उस राजनीतिक सोच का ताजा प्रमाण है जो हताशा और कुंठा से उपजी है | कुछ लोगों का ये मानना है कि दिग्विजय सिंह को चूँकि साध्वी उमा भारती के हाथों पराजित होने से म.प्र की सत्ता गंवानी पड़ी  इसलिए वे हिन्दू और हिंदुत्व को लेकर आलोचनात्मक  टिप्पणियाँ करने लगे | रही – सही कसर पूरी कर दी 2019 के लोकसभा चुनाव ने जब भोपाल सीट पर वे एक और साध्वी प्रज्ञा से बुरी तरह हारे | हालाँकि हिन्दू , हिन्दुत्व और आतंकवाद के बारे में उनकी बातों से कांग्रेस भी पल्ला झाड़ती रही है | वैसे 2003 में म.प्र की सत्ता छिन  जाने के बाद श्री सिंह के अनुज लक्ष्मण सिंह  सोनिया गांधी के विदेशी मूल का विवाद खड़ा करते हुए भाजपा में घुस आये थे और राजगढ़ से लोकसभा चुनाव भी जीते | बाद में फिर कांग्रेस में आकर वर्तमान में विधायक बने हुए हैं | लेकिन श्री सिंह ने कभी भी  छोटे भाई की  भाजपा में जाने पर आलोचना नहीं की जिससे लगता है हिन्दू और  हिन्दुत्व को लेकर की जाने वाली उनकी बयानबाजी चर्चाओं में बने रहने का प्रयास मात्र है  और ऐसा करते हुए वे अप्रत्यक्ष तौर पर रास्वसंघ तथा भाजपा की मदद ही करते हैं | इस्लाम के आगमन के पहले भी भारत में दूसरे धर्मों के मंदिर तोड़े जाने की बात कहने के पीछे उनका उद्देश्य अतीत में हिन्दुओं के धर्मस्थानों को खंडित करने के आरोप से मुग़ल शासकों  को बरी करना भले रहा हो लेकिन सलमान खुर्शीद की पुस्तक के विमोचन के अवसर पर अनावश्यक और  अप्रासंगिक बात कहकर उन्होंने एक बार फिर ये सिद्ध कर   दिया है कि उम्र का असर कुछ लोगों के शरीर के साथ ही दिमाग पर भी हो जाता है | हालांकि ये भी कह सकते हैं कि श्री सिंह ने सलमान खुर्शीद को खुश करने की कोशिश की हो जिन्होंने अपनी  संदर्भित पुस्तक में इस बात पर अफ़सोस जताया है कि कांग्रेस में एक तबका पार्टी की अल्पसंख्यक समर्थक छवि बन जाने से चिंतित होकर नेतृत्व की जनेउधारी ( राहुल गांधी ) पहिचान की वकालत करता है | दिग्विजय सिंह के ताजा विवादित बयान से न सिर्फ उनमें अपितु कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर आ रही विचारशून्यता उजागर हो रही है | ऐसे समय जब उ.प्र जैसे राज्य में जहाँ राम जन्मभूमि के बाद मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि के अलावा वाराणसी  के विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा गरमाया हुआ हो तब श्री सिंह द्वारा इस्लाम के आने के पहले भी मंदिरों को ध्वस्त किये जैसा बयान देकर पार्टी के लिये मुसीबतें खडी करना उनके भाजपा के मददगार होने की बात को बल प्रदान करता है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 10 November 2021

आग लगने के बाद याद आया कि फायर ऑडिट भी कोई चीज है



म.प्र की राजधानी भोपाल में एम्स की शाखा खुलने से पहले हमीदिया मेडिकल कालेज का अस्पताल ही सबसे बड़ा और अच्छा माना जाता था | आजकल तो मंत्री  से लेकर संतरी तक निजी अस्पतालों में इलाज करवाने लगे हैं | लेकिन पहले  आम और ख़ास सभी हमीदिया की शरण में ही जाते थे | भोपाल से लगे जिलों के मरीजों के लिए भी ये चिकित्सालय ही मददगार हुआ करता था | यहाँ कार्यरत चिकित्सकों की निजी प्रैक्टिस भी हमीदिया का नाम जुड़ा होने से खूब चला करती थी | लेकिन धीरे – धीरे इस अस्पताल की प्रतिष्ठा पर अव्यवस्था और बदनामी की गर्द जमने लगी और गाहे – बगाहे होने वाले हादसे नियमित होने लगे | अस्पताल का भवन , उस पर होने वाला खर्च , कर्मचारियों और चिकित्सकों का वेतन तथा उपकरणों आदि के मामले में ये  अभी भी काफी अच्छा है लेकिन अन्य उपक्रमों की तरह यहाँ भी वही सब होने लगा जिसके लिए शासकीय व्यवस्था कुख्यात है | बीते सोमवार की रात इस अस्पताल के शिशु रोग विभाग के 8 साल पुराने वेंटीलेटर में लगी आग पूरे वार्ड में फ़ैल गई जिसमें अनेक बच्चे जलकर जान गँवा बैठे | मौतों का वास्तविक वास्तविक आँकड़ा 12 तक पहुंच चुका है लेकिन सरकारी सूत्र अभी भी 4 पर ही अटके हुए हैं | आग लगने के जो कारण बताये जा रहे हैं वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्रदेश की राजधानी का वीआईपी सरकारी अस्पताल भी किस तरह अव्यवस्था का शिकार है | वेंटीलेटर को सामान्य एक्स्टेंशन से जोड़कर चलाये जाने की वजह से ये हादसा होना बताया जा रहा है जबकि इसके लिए पहले से आगाह किया जा चुका था | वेंटीलेटर का उपयोग असामान्य स्थिति में किया जाता है | उसके लिए हर बिस्तर के पीछे पृथक विद्युत बोर्ड होते हैं | लेकिन राजधानी के इस सबसे बड़े अस्पताल में बेहद संवेदनशील जीवन रक्षक उपकरण के लिए विद्युत आपूर्ति की व्यवस्था बेहद घटिया और कामचलाऊ होना इस बात का परिचायक है कि शासकीय महकमों में किस  हद तक लापरवाही है | मृतकों की संख्या यदि एक होती तब भी अपराध उतना ही संगीन माना जाता | मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस घटना के बाद प्रदेश भर के सरकारी और निजी अस्पतालों का फायर ऑडिट करवाने के निर्देश दिए हैं | जिस पर वरिष्ठ अधिकारियों ने सरकारी अस्पतालों की  अग्नि शमन व्यवस्था का निरीक्षण भी शुरू कर दिया है | निजी अस्पतालों में भी जांच आदि का कर्मकांड होगा | रिपोर्ट बनेगी , दो चार निपटेंगे और कुछ समय बाद जैसे थे की स्थिति लौट आयेगी | प्रदेश के चिकित्सा मंत्री भोपाल के ही निवासी हैं | उन्होंने भी मौके पर जाकर मुआयना करने के उपरान्त वही घिसे - पिटे आश्वासन दे डाले | लेकिन अब तक किसी अधिकारी और मंत्री ने जिम्मेदारी लेने  या पश्चताप करने का कष्ट नहीं उठाया जिससे ये स्पष्ट है कि वे कितने भावनाशून्य  हैं | हमारे देश में इस तरह के हादसों को महज अग्निकांड मानकर चला जाता है | दिल्ली  के उपहार सिनेमा गृह में 1997 के मई माह में हुए अग्निकांड में 59 लोग मारे गये थे |  उसके दो संचालकों को कुछ  रोज पहले ही सात – सात साल की सजा सुनाई गयी है | इसमें देखने वाली बात ये है कि ये फैसला दिल्ली की अदालत का है जिसके विरुद्ध अपील की जा सकती है | 24 साल में दंड प्रक्रिया का  इस पड़ाव तक पहुँच पाना अपने आप में काफी कुछ कहता है | ये भी तब हुआ जब  हादसे में मारे गये लोगों के परिजनों ने संगठित होकर लम्बी लड़ाई लड़ी | देश की राजधानी  होने के कारण उक्त कांड को काफी प्रचार मिला वरना वह दबकर रह जाता | म.प्र के मुख्यमंत्री ने अस्पतालों का फायर ऑडिट करवाने की जो बात कही वह भी  मूलभूत आवश्यकता है | यदि हमीदिया सहित प्रदेश के सरकारी और निजी अस्पतालों में उसका पालन नहीं हो रहा था तब उसके लिए जिम्मेदार कौन सा विभाग और अधिकारी हैं इसका खुलासा भी लगे हाथ हो जाना चाहिए | चिकित्सा अब सेवा नहीं रही और सरकारी नियन्त्रण से निकलकर  विशुद्ध व्यवसाय बन गई है | निजी क्षेत्र के आने से तो वह उद्योग की शक्ल ले चुकी  है | ऐसे में प्रदेश की राजधानी के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के शिशु रोग विभाग में पुराना वेंटीलेटर चलाने के लिए विद्युत आपूर्ति का काम चलाऊ इन्तजाम आपराधिक उदासीनता नहीं तो और क्या थी ? वहां तैनात स्टाफ के अतिरिक्त जो चिकित्सक मरीजों को देखने आते रहे उनमें से किसी को वह अव्यवस्था  दिखी  नहीं अथवा देखकर भी अनदेखी कर दी गयी इस सवाल का जवाब शायद ही कभी मिल सकेगा |  ऐसे हादसों के लिए बलि के बकरे तलाशने की परिपाटी त्यागकर व्यवस्था को सुधारने पर ध्यान दिया जाना जरूरी है | मुख्यमंत्री के निर्देश पर अग्नि शमन व्यवस्था की जांच को लेकर दिखाई जाने वाली  सक्रियता कितने दिन रहेगी ये कहना कठिन है क्योंकि सरकारी अमला यदि अपने दायित्व के प्रति सतर्क होता तो ये घटना होती ही नहीं | ये समस्या केवल अस्पतालों की ही नहीं अपितु बहुमंजिला आवासीय टावर्स , बड़े होटल  और शापिंग मॉल्स से भी सम्बंधित है , जिनमें लगे अग्नि शमन उपकरणों की समय – समय पर जाँच के बारे में जबरदस्त लापरवाही बरती जाती है | कुछ समय पहले भोपाल स्थित सचिवालय में मुख्यमंत्री की लिफ्ट फंस जाने के बाद बिना देर लगाये जिम्मेदार लोगों पर गाज गिरी थी | लेकिन हमीदिया हादसे में अब तक कुछ भी स्पष्ट नहीं हुआ | जाँच के बाद सच्चाई सामने आने की जो उम्मीद की जाती है वह अधिकतर  पूरी नहीं होती | और फिर उसके लम्बे चलने से अपराधी अपने बचाव का इंतजाम कर ले जाते हैं | राजनीति और सत्ता प्रतिष्ठान भी अपने कृपा पात्र दोषियों को बचाने में कोई संकोच नहीं करते | लेकिन असल सवाल गलतियों से सबक लेकर अव्यवस्था को दूर  करना है जिसकी ओर ध्यान  नहीं दिए जाने से इस तरह की दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है | ऐसी घटनाओं पर दुःख व्यक्त करना आम बात है लेकिन पूरी सरकार को इसके लिए सार्वजनिक क्षमा याचना करना चाहिए | जिम्मेदार मंत्री में  यदि रत्ती भर भी नैतिकता है तब उनको घटना के बाद इस्तीफ़ा देना चाहिए था क्योंकि जब किसी उपलब्धि पर श्रेय लेने की बारी आती है तब ये तबका आगे – आगे होता है लेकिन विफलता का दोष किसी और पर डालकर दूर बैठ जाता  है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 9 November 2021

ऐतिहासिक घटना चक्र का गवाह बना 32 साल का सफर



आज से 32 साल पहले मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस का पहला अंक आपके हाथ आया था | महाकौशल की चेतनास्थली कहे जाने वाले जबलपुर में पत्रकारिता की गौरवशाली परम्परा हमारी प्रेरणा का स्रोत थी | सांध्यकालीन अख़बारों को अपेक्षाकृत उतना महत्व नहीं मिलता लेकिन संस्कारधानी में हमसे पहले भी अनेक सांध्यकालीन समाचार पत्र प्रकाशित होते रहे और सभी ने अपने दौर में पत्रकारिता की मशाल को रोशन रखा | 1989 में मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस का प्रकाशन जब प्रारम्भ हुआ तब देश अभूतपूर्व राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की ओर बढ़ रहा था | भारी उथलपुथल के बीच नए समीकरण जन्म ले रहे थे | कई स्थापित प्रतिमाएं खंडित हो रही थीं और उनकी जगह लेने के लिए नये चेहरे सामने आ रहे थे | जाति और धर्म अचानक राजनीतिक विमर्श पर हावी होने लगे | कुछ वर्ष भारी उहापोह और अनिश्चितता में व्यतीत होने के बाद राजनीतिक स्थायित्व आया तो आर्थिक जगत में ऐतिहासिक परिवर्तन शुरु हुए जिनकी  वजह से समाजवाद के साथ राजनीति का रोमांस खत्म होने लगा | ये कहना गलत न होगा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ने की उस पहल ने आम भारतीय की सोच को अंतर्राष्ट्रीय बनाने में मदद की जिससे  दुनिया उसे छोटी लगने लगी | उसके अच्छे या बुरे परिणाम बड़ी बहस का विषय हैं किन्तु  बाद में आईं सभी सरकारों को भी चाहे – अनचाहे उन्हीं आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाना पड़ा | इसी के साथ ही देश ने गठबंधन राजनीति को स्वीकार  करने का साहस भी दिखाया |  1989 से 2014 में मोदी सरकार बनने तक केंद्र में किसी एक दल को लोकसभा में बहुमत नहीं हासिल होने से विभिन्न दलों की मिली जुली सरकार बनती बिगड़ती रहीं | उसी दौर में देश ने अटल बिहारी वाजपेयी के रूप में पहला विशुद्ध गैर कांग्रेसी प्रधानमन्त्री भी देखा | आर्थिक क्षेत्र के समानांतर जो सबसे बड़ा बदलाव उस दौर में हुआ वह था सोशल इन्जीनियरिंग के नाम पर जाति आधारित राजनीति का प्रादुर्भाव , जिसने सियासत की चाल , चरित्र और चेहरे को सिर से पाँव तक बदल डाला | बीते तीन दशक में तमाम विसंगतियों और विरोधाभासों के बावजूद भारत आगे बढ़ा है और वैश्विक स्तर पर उसकी उपस्थिति  उभरती हुई महाशक्ति के तौर पर होने लगी है | एक उपभोक्ता देश से आगे निकलकर उत्पादक और आयात करने वाले से निर्यातक बनने तक का सफर  प्रारब्ध का नहीं अपितु  सामूहिक राष्ट्रीय पौरुष का ज्वलंत प्रमाण है | बीते लगभग दो वर्ष में भारत ने कोरोना नामक महामारी के  अप्रत्याशित हमले का जिस सफलता से सामना किया उससे हमारा आत्मविश्वास द्विगुणित हुआ है | आज पूरी दुनिया ये मानने लगी है कि 21 वीं सदी में भारत विश्व के अग्रणी और शक्तिशाली देशों में होगा | तीन दशकों के समूचे घटनाचक्र पर  मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस ने सतर्कता के साथ नजर रखकर  पाठकों को हर छोटी – बड़ी बात से अवगत करवाते हुए उनके  सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को सामने रखा | समाचार पत्र का काम खबरों के अलावा वैचारिक स्तर पर पाठकों को जागरूक रखना भी होता है | और उस कार्य को भी हमने पूरी ईमानदारी से किया | यद्यपि सभी हमसे सहमत हों ये आवश्यक नहीं होता किन्तु असहमति और आलोचना के प्रति हमारा रवैया सदैव सौजन्यतापूर्ण रहा है | यही वजह है कि मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस को हर वर्ग और विचारधारा के पाठकों का स्नेहयुक्त संरक्षण और सहयोग प्राप्त हुआ |  सीमित पृष्ठ संख्या और श्वेत – श्याम होने के बावजूद इसकी चमक और धमक निरंतर बनी रही तो उसकी विशेष वजह हमारा गैर व्यवसायिक दृष्टिकोण ही है | प्रतिस्पर्धा और व्यवसयिकता के दौर में जब जमीन पर पड़े पैसे को मुंह से उठाने में शर्म नहीं की जाती और पत्रकारिता  को धनोपार्जन का पर्याय माना जाने लगा है तब सीमित साधनों में एक भाषायी अखबार का 32 साल तक चलते रहना मामूली बात नहीं है | लेकिन इसके लिए हम उन असंख्य पाठकों के प्रति कृतज्ञ हैं जिन्होंने मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस को विषम से विषम हालातों में भी साथ दिया | विज्ञापनदाताओं से मिले सहयोग के प्रति भी हम आभारी हैं जिनके मन में इस समाचार पत्र के प्रति पालक का भाव है | 32 वर्ष का ये सफर निश्चित रूप से अनेकानेक खट्टे – मीठे अनुभवों से भरा रहा | न जाने कितने उतार और चढ़ाव इस दौरान देखने मिले किन्तु हमारी नीति और नीयत चूँकि पत्रकारिता की गरिमा को सुरक्षित रखने की थी इसलिए विफलताओं में निराश होने और सफलता पर इतराने से मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस बचा रहा | वर्तमान परिस्थितियों में लघु और मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों के सामने अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है | बाजारवादी शक्तियों के बढ़ते वर्चस्व और सरकारों के उपेक्षा भाव ने समाचार पत्रों को कार्पोरेट संस्कृति का हिस्सा बना दिया जिसकी वजह से कतिपय पत्रकार भी मालिकों के लिए पैसा उगाही के औजार  बनते जा रहे हैं | ऐसे में मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस ने अपने को उन बुराइयों से बचाकर रखा है जो पत्रकारिता को कलंकित करने का कारण बन रही हैं  | आगे आने  वाला समय और भी चुनौतीपूर्ण  है | पत्रकारिता  के सामने विश्वसनीयता का संकट दिन ब दिन गंभीर होता जा रहा है | बिकाऊ पत्रकारों की जमात ने इस पेशे की पवित्रता और प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिलाने का पाप किया है | लेकिन अंधेरी कोठरी में रोशनदान के तौर पर मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस अपनी भूमिका का ईमानदारी से निर्वहन करता आ रहा है और पाठकों के अमूल्य सहयोग , संरक्षण और संबल के बलबूते आगे भी निर्भीक पत्रकारिता की परम्परा को जीवित रखेगा , इस संकल्प को हम आज फिर दोहरा रहे हैं | 
विनम्र आभार सहित ,

रवीन्द्र वाजपेयी