Friday 26 November 2021

एक साल बाद भी किसान जहां का तहां :आन्दोलन भी राष्ट्रव्यापी नहीं बन सका



दिल्ली की देहलीज पर संयुक्त किसान मोर्चे के धरने को आज एक वर्ष बीत गया | इससे क्या हासिल हुआ इस प्रश्न के जवाब में केवल ये  कहा जा सकता है कि प्रधानमन्त्री  ने उन तीन कृषि कानूनों को वापिस लेने की घोषणा कर दी जिन्हें लागू किये जाने पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पहले ही रोक लगा दी गई थी | दर्जन भर वार्ताओं का दौर चलने के बाद भी समझौते  की गुंजाईश नहीं बनी जिसकी वजह किसान नेताओं और सरकार का  अपनी – अपनी बात पर अड़े रहना था | संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की जिद रही कि पहले तीनों कानून वापिस लिए जावें तब ही बात आगे बढ़ेगी किन्तु सरकार कहती रही  कि जिन बिन्दुओं पर सहमति बन सकती है उन पर बात करते हुए वार्ता जारी रखी जावे | आख़िरी बातचीत तकरीबन 10 महीने पहले हुई थी | उसके बाद किसान नेताओं को महसूस हुआ  कि दिल्ली की सीमाओं पर  बैठे रहने से कुछ हासिल नहीं होने वाला तब वे देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों को आन्दोलन के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करने निकल पड़े | लेकिन उनको अपेक्षित सफलता नहीं मिली | यही वजह रही कि जबरदस्त प्रचार और समूचे विपक्ष के समर्थन के बाद  भी आन्दोलन पंजाब  , हरियाणा और प. उ.प्र के अलावा राजस्थान के छोटे से हिस्से तक सिमटकर रह गया |  इस वजह से उस पर सिखों और जाटों का आन्दोलन होने का ठप्पा लग गया | पंजाब में गुरुद्वारों का सहयोग और बाकी जगह जाटों की पंचायतें किसान आन्दोलन की पहिचान बन गईं | और यहीं से आन्दोलन पर क्षेत्रीयता हावी होने लगी | जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है तो वे केवल बहती गंगा में हाथ धोने के लिए धरना स्थल पर अपना समर्थन व्यक्त करने की औपचारिकता निभाते रहे | यद्यपि ये बात भी पूरी तरह सच है कि संयुक्त किसान मोर्चे ने राजनेताओं को मंच नहीं दिया लेकिन केंद्र सरकार का विरोध करते – करते वे आख़िरकार भाजपा विरोधी मोर्चा खोल बैठे | बीते एक वर्ष में आन्दोलन से जुड़ी ऐसी अनेक घटनाएँ हुईं जिनके कारण उसकी गम्भीरता और प्रभाव कम हुआ | जिनमें सबसे बड़ा वाकया बीती 26 जनवरी का था जब गणतंत्र दिवस के दिन किसानों की ट्रैक्टर रैली अनियंत्रित होकर हिंसा पर उतारू हो गई | लालाकिले पर चढ़कर तलवार लहराने और राष्ट्रध्वज के अपमान के दुस्साहस ने किसान आन्दोलन के चेहरे को दागदार कर दिया | इसी तरह लम्बे समय से दिल्ली जाने वाले रास्ते को घेरकर बैठे रहने से आवाजाही करने वालों के साथ ही क्षेत्रीय व्यापारियों  को जो परेशानी हुई उसके कारण भी आन्दोलन जनता की सहानुभूति अर्जित नहीं कर सका , जबकि हमारे देश में किसानों के प्रति फ़ौजी जवानों जैसे  ही सम्मान का भाव है | हाल ही में प्रधानमन्त्री ने कृषि  कानून वापिस लेने का ऐलान किया उसके बाद  भी किसान आन्दोलन के अधिकतर नेताओं की जो प्रतिक्रिया आई उसमें भी बजाय सौजन्यता के अकड़ दिखाई दी  | इसका संकेत धरना जारी रखने और संसद तक ट्रैक्टर ले जाने जैसी घोषणाओं से मिला | संयुक्त किसान मोर्चा का कहना है कि बिजली और  पराली के मुद्दों के अलावा  न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनाये बिना आन्दोलन समाप्त नहीं होगा | राकेश टिकैत सरकार से  वार्ता शुरू करने के लिए भी कह रहे हैं | लेकिन इस बात का कोई आश्वासन नहीं दिया जा रहा कि वार्ता में इकतरफा जिद कायम रहेगी या एक – एक सीढ़ी चढ़ते हुए समाधान तक पहुँचने का तरीका अपनाया जावेगा | ये देखते हुए कहा जा सकता है कि किसान नेताओं का अपना अहं किसानों की समस्याओं के हल में बाधक बन रहा है | पहले वे कृषि कानून रद्द किये जाने का हठ करते रहे और अब न्यूनतम समर्थन मूल्य की जिद है,  जिसकी अव्यवहारिकता से वे भी  अपरिचित नहीं हैं | लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों को ये सोचना चाहिए कि एक साल के भीतर भी वे इस आन्दोलन को राष्ट्रीय स्वरूप क्यों नहीं दे सके ? उनके रवैये को देखते हुए  कहना गलत न होगा कि वे आगे भी सीमित दायरे में ही बने रहेंगे | आन्दोलन के भीतर  पंजाब और उ.प्र के विधानसभा चुनावों को लेकर जो अंतर्विरोध है वह उसमें बिखराव का कारण बन सकता है | इन दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम यदि किसान नेताओं के मनमाफिक न निकले तब आन्दोलन की दशा और दिशा क्या होगी ये कोई  नहीं बता सकता | सही  बात तो ये है कि आन्दोलन को इतना लम्बा खींचने के कारण उसकी गंभीरता नष्ट हो चुकी है | प्रधानमन्त्री द्वारा कृषि कानून वापिस लिए जाने के कदम को भले ही किसानों की जीत के तौर पर प्रचारित किया जा रहा हो लेकिन ये केवल आभासी ही कही जायेगी क्योंकि वे लागू ही नहीं हो सके थे | और जैसी सम्भावना बन रही थी केंद्र सरकार भी उनको ठन्डे बस्ते में डालकर रखने के मूड में थी | एक वर्ष बाद भी किसान आन्दोलन जहां का तहां खड़ा है तो उसके लिए वे नेता कसूरवार हैं जो किसानों के कन्धों पर चढ़कर अपनी नेतागिरी चमकाने  में लग गए | पिछले अनुभवों  से उन्होंने कुछ सीखा हो तो वे आन्दोलन को दिल्ली के दरवाजे से उठाकर पूरे देश में फैलाने की योजना बनाएं | लेकिन इसके लिए उनको राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होना पड़ेगा | किसान नेताओं को ये नहीं भूलना चाहिये कि  वामपंथी दलों के नियंत्रण वाली कर्मचारी यूनियनों के सदस्य अपना वेतन बढ़वाने तो लाल झंडे के नीचे एकत्र हो जाते हैं परन्तु  चुनाव में वे साम्यवादी पार्टियों के उम्मीदवारों की बजाय अन्य पार्टियों के पक्ष में मतदान करते हैं | यही वजह है कि वामपंथी पार्टियों का जनाधार लगातार छोटा होता जा रहा है | कहने का आशय ये है कि पंजाब के सभी सिख और प.उ.प्र के जाट किसान क्या आन्दोलन के नेताओं के कहने से किसी का समर्थन अथवा विरोध करेंगे ? और जब दो किसान नेता पंजाब में अपनी पार्टी बनाकर चुनाव में उतरने वाले हैं तब क्या होगा ये आसानी से समझा जा सकता है | उचित तो यही होगा कि बजाय विजयोल्लास मनाने के किसान नेता आत्ममंथन करते हुए उन कमियों को दूर करने का उपाय तलाशें जिनकी वजह से अब तक वे पूरे देश के किसानों का मन नहीं जीत सके |

-रवीन्द्र वाजपेयी

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