Monday 22 November 2021

न्यूनतम समर्थन मूल्य : सरकार और बाजार के बीच समन्वय मुश्किल



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गत सप्ताह तीनों कृषि कानून वापिस लेने की जो घोषणा की गई थी उसके बाद लगता था कि किसान आन्दोलन समाप्त हो जाएगा। लेकिन संयुक्त किसान मोर्च सोच रहा है कि उ.प्र. और पंजाब के विधानसभा चुनाव को देखते हुए दबाव बनाकर अन्य मांगें भी पूरी करवाई जा सकती हैं। इसका संकेत प्रधानमंत्री को प्रेषित पत्र से मिला जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी शक्ल देने के साथ ही बिजली और पराली संबंधी कानून बदलने के अलावा आन्दोलन के दौरान मारे गये किसानों के परिवारों को मुआवजा और पुनर्वास की मांग भी है। आज लखनऊ में होने वाली महापंचायत के बाद भावी रूपरेखा भी स्पष्ट हो जायेगी। अनेक किसान नेताओं का कहना है कि संसद में कृषि कानून रद्द होने तक तो आन्दोलन चलेगा ही। वैसे आज शाम तक स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। हालाँकि ये खबर भी है कि मोर्चे में शामिल अनेक नेताओं को राजनीति में भाग्य आजमाने की जल्दी होने से वे भी दिल्ली की सीमा से हटने के पक्षधर हैं। गुरनाम चढूनी और लश्कर सिंह ने तो बाकायदा पंजाब चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारने का ऐलान भी कर दिया है। वहीं राकेश टिकैत ने उ.प्र में भाजपा को घेरने की बात कहकर अपनी महत्वाकांक्षा जाहिर कर दी है। अतीत में भी वे दो मर्तबा चुनाव हार चुके हैं। और भी कुछ ऐसे नेता हैं जो किसानों के कंधों पर चढ़कर सियासत में घुसना चाहते हैं। हालाँकि अभी तक मोर्चे ने राजनीतिक दलों और नेताओं को मंच से दूर रखा परन्तु हमारे देश में हर आन्दोलन की परिणिति अंतत: चुनाव ही होती है। इसलिए ये कहना गलत न होगा कि किसान आन्दोलन से जुड़े रहे अनेक नेतागण निकट भविष्य में राजनीति का दामन थामेंगे। रही बात उनकी मांगों की तो उनमें सबसे प्रमुख है न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी शक्ल देने की। ये वह मुद्दा है जिसका सतही तौर पर तो सभी दल समर्थन करते हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद इससे कन्नी काट लेते हैं। इससे पहले भी जो सरकारें केंद्र में रहीं उनमें कृषि से जुड़े अनेक नेता थे। उनमें से शरद पवार तो कृषि मंत्री भी रहे । एचडी देवगौड़ा भी प्रधानमन्त्री बनने के बाद खुद को विनम्र किसान कहते थे लेकिन उन्होंने भी इस बारे में कुछ नहीं किया। किसान नेताओं का ये आरोप गलत नहीं है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए श्री मोदी ने भी न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बना देने की पैरवी की थी। किसानों की आमदनी बढ़ाने के पक्षधर अनेक अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी के लिए सरकार और व्यापारियों को कानूनी तौर पर बाध्य किये जाने से अनेक समस्याएँ जन्म लेंगी। वर्तमान में सरकार समर्थन मूल्य घोषित कर उस पर खरीदी करती है। लेकिन किसान चाहते हैं कि व्यापारी को भी उसी मूल्य पर अनाज खरीदने कानूनी तौर पर बाध्य किए जावे। सुनने में तो ये मांग बहुत ही वाजिब लगती है लेकिन भारत के आर्थिक ढांचे में इसे समाहित कर पाना संभव नहीं लगता क्योंकि 80 फीसदी किसान लघु और मध्यम श्रेणी के होने से बाजार तक पहुंच नहीं पाते और व्यापारी उनसे सीधे खरीदी कर लेते हैं। उनकी आर्थिक स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं होती कि वे जरा सा भी इंतजार या मोलभाव कर सकें। इसी तरह सरकार भी अपनी जरूरत की खरीदी ही करेगी जिसके बाद किसान को खुले बाजार में विक्रय करने पर सरकार द्वारा तय की गई कीमत का मिलना व्यवहारिक तौर पर संभव नहीं होगा। साल दर साल अन्न का उत्पादन बढ़ते जाने के पीछे सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य का ही आकर्षण है। लेकिन ज्यादा अनाज खुले बाजार में आने के बाद उसके दाम मांग और पूर्ति के सिद्धांत के अनुरूप ही तय होंगे। उस स्थिति में व्यापारी यदि किसान से खरीदी न करे तब उसे मजबूरन कम दाम पर विक्रय करना होगा। इसी तरह सभी कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करने की मांग पूरी होने के बाद भी लागू नहीं हो पायेगी। अनेक कृषि विशेषज्ञों ने इस बारे में कहा है कि किसान को फसल का अर्थशास्त्र समझना होगा। तकनीक आधारित उन्नत खेती का चलन शुरू होते ही अधिकतर किसान एक ही अनाज का अधिकतम उत्पादन करने लगे। खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता हो जाने के बाद अतिरिक्त उत्पादन का निर्यात ही एकमात्र रास्ता बच रहता है लेकिन तब गुणवत्ता और ग्रेडिंग की जरूरत पड़ती है। और फिर सारे के सारे कृषि उत्पादन सरकार खरीदे ये नामुमकिन है क्योंकि वह सार्वजानिक वितरण प्रणाली के साथ ही आपातकालीन भण्डारण हेतु ही खरीदी करती है। ऐसे में किसान को सरकार पर पूरी तरह निर्भर न रहते हुए अपनी क्षमता का सही उपयोग करना होगा। आन्दोलन के दबाव में हो सकता है सरकार उनकी मांगें स्वीकार कर भी लेकिन उनको अमल में लाना आसान नहीं है। जिन इलाकों में गन्ना ज्यादा होता है वहां के किसान चीनी मिलों से समय पर भुगतान नहीं मिलने के कारण परेशान रहते हैं। अब गन्ने से एथनाल बनाकर उसका वैकल्पिक उपयोग प्रारम्भ किया जा रहा है जिसके बाद किसानों की समस्या काफी हद तक सुलझ जायगी किन्तु गेंहू, धान, चना, दलहन और तिलहन को सरकार किस सीमा तक खरीद सकेगी ये बड़ा सवाल है। किसानों की आय बढ़े ये सभी चाहते हैं लेकिन केवल उनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हों तो बाकी उत्पादक भी आज न सही भविष्य में इस हेतु दबाव बन सकते हैं। वैसे भी मुक्त अर्थव्यवस्था और उदारवाद के दौर में बाजार को नियंत्रित करना सरकारों के बस में नहीं रह गया है। कृषि को उद्योग का दर्जा देने की मांग भी लगातार उठती है लेकिन क्या बड़े किसान आयकर के दायरे में आने को तैयार होंगे? बिजली सहित कृषि उपकरणों एवं अन्य चीजों पर मिलने वाली सब्सिडी के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी सुरक्षा तभी सम्भव है जब कृषि उत्पादन और जरूरत के बीच समन्वय हो सके और निर्यात की ठोस योजना हो। खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने में किसानों के योगदान को भुलाना एहसान फऱामोशी होगी। लेकिन असली किसान और फार्म हाउस वाले उन किसानों के बीच अंतर तो करना पड़ेगा जो अपने काले धन को सफेद करते हैं और वह भी बिना आयकर चुकाए। संसद के भी अनेक ऐसे सदस्य किसान होने का दावा करते हैं जो कभी खेत में घुसे तक नहीं होंगे। प्रधानमन्त्री द्वारा तीन कानून वापिस लिए जाने के ऐलान के बावजूद किसान संगठन यदि आन्दोलन खत्म करने राजी नहीं हैं तो उसके पीछे उनका सोचना ये है कि अगर इस बार चूके तो फिर उनकी मांगों के विरोध में दूसरी दबाव समूह भी सामने आने लगेंगे। इस बारे में एक बात किसानों को समझ लेनी चाहिए कि इस आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले राजनीतिक दल भी सत्ता में रहते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू करने से बचते रहे। यहाँ तक कि देवगौड़ा और गुजराल सरकार में कृषि मंत्री बने सीपीआई नेता चतुरानन मिश्र तक ये दुस्साहस नहीं कर सके। 2004 से 2009 तक मनमोहन सिंह सरकार को वाममोर्चे का बाहर से समर्थन था। सीपीएम महासचिव हरिकिशन सुरजीत उस बेमेल गठबंधन के शिल्पकार थे। लेकिन वाम मोर्चे ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनाने की मांग नहीं उठाई। उस सरकार में लालू प्रसाद यादव जैसे लोग भी मंत्री बने लेकिन उन्होंने भी कुछ नहीं किया क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य को वैधानिक बनाना व्यवहारिकता के धरातल पर अनेक समस्याओं का कारण बन जायेगा। किसान आन्दोलन फिलहाल जिस स्थिति में है उसे अनंतकाल के लिए जारी रखना आसान नहीं होगा। इस हेतु समिति बनाने के घोषणा श्री मोदी कर चुके हैं लेकिन उसकी रिपोर्ट कब तक आयेगी और क्या वह किसानों को स्वीकार्य होगी, ये सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। वैसे भी तीन कृषि कानून वापिस लेकर प्रधानमंत्री ने जो कदम उठाया उससे किसानों के हाथ कुछ नहीं आया क्योंकि वे लागू ही नहीं हुए थे। किसान संगठन अब जिन मांगों के लिए अड़े हैं उनमें से बहुत सी तो विगत वार्ताओं में ही सरकार ने मान ली थीं। हो सकता है आगामी लोकसभा चुनाव के पहले किसानों को खुश करने के लिए केंद्र सरकार वैसा कर भी दे लेकिन उस पर अमल हो पाना संभव नहीं होगा। किसान आन्दोलन की वर्तमान राजनीति पंजाब और उ.प्र के चुनाव के मद्देनजर केंद्र सरकार को घुटनाटेक करवाना है लेकिन प्रधानमंत्री के मन में भी कुछ न कुछ चल रहा होगा। इसलिए ये मुकाबला कब और कहाँ जाकर खत्म होगा ये कह पाना फिलहाल तो संभव नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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