Tuesday 23 November 2021

आ गये चुनाव बनने लगे दबाव : पुरानी व्यवस्था की वापसी जरूरी



प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीनों कृषि कानून वापिस लेने के बाद भी संयुक्त किसान मोर्चा आन्दोलन  वापिस लेने राजी नहीं है | प्रारम्भिक संकेतों के अनुसार इस बात की सम्भावना थी कि संसद में कानून रद्द करने संबंधी प्रस्ताव पारित होते ही आन्दोलन स्थगित कर  दिया जावेगा किन्तु गत दिवस लखनऊ में आयोजित किसान महापंचायत के बाद ये साफ़ हो गया कि किसान संगठन इस अवसर को पूरी तरह से भुनाना चाहते हैं और इसीलिए उनकी तरफ से प्रधानमन्त्री को पत्र  भेजकर दो टूक कह दिया गया कि शेष मांगों को भी मंजूर किया जावे | 26 नवम्बर को धरने की वर्षगांठ पर भी किसान संगठन बड़ा जमावड़ा करने जा रहे हैं | कुल मिलाकर अब दबाव की रणनीति पर काम हो रहा है | किसानों की देखा - सीखी गत दिवस साधु – संतों को भी जोश आ गया और उन्होंने  दिल्ली में एक बैठक करने के बाद सरकार को धमकी दे डाली कि मंदिरों और मठों को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त नहीं किये जाने पर वे भी आन्दोलन करने बाध्य होंगे और शस्त्र उठाने तक में संकोच नहीं करेंगे | एक साधु ने तो यहाँ तक कह डाला कि जब मुट्ठी  भर किसान सरकार को झुका सकते हैं तब देश भर के संत क्यों नहीं ? संतों का कहना है कि अगले  चुनाव से पहले ही ये आन्दोलन खड़ा हो जाएगा जिसका लक्ष्य नई सरकार बनने के पहले ही मंदिर और मठों को सरकारी नियंत्रण से आजाद करवाना होगा | अभी तक केंद्र सरकार की तरफ से न तो किसानों की मांगों  पर किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया आई और न ही संतों की धमकी के बारे में कुछ सुनने मिला | हो सकता है आने वाले दिनों में कुछ और दबाव समूह  इसी तरह की मांगें लेकर सरकार पर हावी होने का प्रयास करने लगें क्योंकि पंजाब , उ.प्र  और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव आगामी फरवरी में होने जा रहे हैं | यद्यपि चुनाव तो मणिपुर  और गोवा में भी होंगे  लेकिन राष्ट्रीय  राजनीति में उनका ज्यादा असर नहीं है |  लेकिन पहले तीन राज्यों में पंजाब को एकबारगी छोड़ भी दें क्योंकि वहां भाजपा अभी तक अकाली दल पर निर्भर रही किन्तु उ.प्र  और उत्तराखंड उसके लिए जीवन - मरण का सवाल बन गये हैं |  इनमें होने वाली  जीत – हार की छाया 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़े बिना नहीं रहेगी | 2014 और 2019 के  लोकसभा चुनाव में उक्त दोनों राज्यों ने भाजपा की  झोली वोटों से भर दी थी | 2017 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों राज्य भगवा लहर में समाहित हो गये | उ.प्र में तो भाजपा ने ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया |  कोरोना न आया होता तब भाजपा इस बार भी पुरानी जीत को दोहराने के प्रति  आश्वस्त होती | 2017 का विधानसभा चुनाव तो उसने नोटबंदी के बाद  जीता था | पिछले लोकसभा चुनाव में भी मोदी लहर के कहर में विपक्ष साफ़ हो गया | लेकिन कोरोना और उसके बाद किसान आन्दोलन के कारण भाजपा ऊपरी तौर पर भले ही आत्मविश्वास में नजर आती हो लेकिन मन ही मन वह सहमी या यूँ कहें कि सतर्क है | उसे पता है कि इस चुनाव में यदि उसके खाते में हार आई या बहुमत कम हुआ तो उसका असर भावी मुकाबलों पर पड़ना तय है | यही वजह है कि लगभग एक वर्ष तक कृषि कानून रद्द करने से इंकार करते रहने के बाद अचानक प्रधानमन्त्री ने उनको वापिस लेने की घोषणा कर दी |  इस अप्रत्याशित फैसले के पीछे भाजपा नेता और सरकार कुछ भी कहती फिरे किन्तु मूल रूप से ये आंशिक तौर पर पंजाब और पूरी तरह उ.प्र को ध्यान में रखते हुए लिए गए ।हालाँकि उत्तराखंड के तराई इलाके में भी बड़े सिख किसान  हैं परन्तु  उ.प्र को लेकर भाजपा का शिखर नेतृत्व किसी प्रकार का खतरा मोल लेने से बच रहा है | और फिर यहाँ श्री मोदी का निर्वाचन क्षेत्र भी है | भाजपा की इसी चिंता का लाभ उठाकर पहले किसान संगठन और अब साधु – संत आन्दोलन के नाम पर केंद्र सरकार पर दबाव बनाने को आगे आ रहे हैं | कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि हमारे देश में चुनाव के समय जो मांगोगे  वही मिलेगा वाली उक्ति चरितार्थ होती है | संतों का ये कहना  पूरी तरह सही  है कि मुट्ठी भर किसान यदि श्री मोदी  समान मजबूत प्रधानमंत्री को घुटनाटेक करवा सकते हैं तब लाखों साधु – संत अगर सड़कों पर उतर गए तब सरकार को झुकाना कठिन न होगा |  इन दोनों समूहों की मांगों का समय चुनाव के नजदीक होने से ये बात सामने आई है कि देश में बारहों महीने चुनावी मौसम रहने से प्रदेश और केंद्र सरकार को दबाव समूहों के सामने झुकना पड़ता है जो  विकास और सुधार  कार्यक्रमों के लिए नुकसानदेह है | उदाहरण के तौर पर तीनों कृषि कानूनों के रद्द होने पर शेयर बाजार में ये  सोचकर गिरावट देखी गई कि चुनावी हार के डर से मोदी  सरकार आर्थिक क्षेत्र में कड़े सुधारवादी फैसले लेने से पीछे हटेगी | भाजपा विरोधी जो तमाम स्तंभ लेखक कानून वापिसी को प्रधानमन्त्री की पराजय बताने में आगे – आगे हैं उनमें से भी ज्यादातर इस बात को  स्वीकार कर रहे हैं कि इस फैसले से आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को धक्का पहुंचा है | साधु – संत भी यदि अपनी मांगों के लिए धरना देकर बैठ गए तब उ.प्र में उसका असर होने की चिंता भाजपा को सताने लगेगी | कहने का आशय ये है कि चुनावों का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला  शासन व्यवस्था के लिए बड़ी समस्या बनता जा रहा है। जिसकी वजह से नीति बनाने और उसको लागू करने में सरकारों के सामने वोटों के नुकसान की आशंका आकर खड़ी हो जाती है | इस बारे में प्रधानमन्त्री सहित अनेक मंचों से एक देश , एक चुनाव की वह व्यवस्था पुनः अपनाने की सलाह दी जा चुकी है जो 1952 से 1967 तक जारी रही | तब पांच साल में लोकसभा और  सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ  होते थे | लेकिन बाद में ये व्यवस्था छिन्न – भिन्न होने से चुनावी कैलेंडर गडबडा गया जिसकी वजह से हर समय देश में कहीं न कहीं चुनाव की हलचल बनी रहती है | इसके कारण देश में  नीतिगत अस्थिरता , राजनीतिक ब्लैकमेलिंग , जातिगत वैमनस्य और  चन्दा उद्योग की शक्ल में फलने – फूलने वाला भ्रष्टाचार जन्म लेता है | बीते दो – तीन दशक में   चुनाव सुधार की जो बयार बही उसने बहुत कुछ ठीक किया लेकिन चुनाव में धन की बर्बादी रोकने में सफलता नहीं मिली | आज इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि देश को हर समय चुनावी चक्रव्यूह में फंसे रहने की समस्या से कैसे निकाला जाए | राजनीति से इतर देश में जो कथित सिविल सोसायटी है वह इस मुहिम को आगे बढाए तो कुछ समय बाद ये मुद्दा देशव्यापी बहस का हिस्सा बन सकता है |  इस बारे में चुनाव आयोग भी एक समिति बनाकर निश्चित समय सीमा में उसके  निष्कर्ष देश के सामने रखे और फिर संसद में उस पर विचार होने के उपरांत  लागू किया जावे | कोरोना  संक्रमण के दौरान भी  देश के अनेक हिस्सों में चुनाव करवाना जनहित के विरुद्ध था | लेकिन राजनेताओं को केवल वोट की चिंता रहती है | बेहतर हो समाचार माध्यम इस मुद्दे को जनता के बीच ले जाएं | अन्यथा कभी न रुकने वाला चुनाव चक्र देश में अस्थिरता और अराजकता को बढ़ावा देने का जरिया बना रहेगा | आज देश जिन समस्याओं से गुजर रहा है उनमें से अधिकांश हर समय चुनाव के कारण हैं | इसे जितनी जल्दी समझ लिया जावे उतना अच्छा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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