Saturday 27 November 2021

तो क्या 15 अगस्त और 26 जनवरी का भी बहिष्कार होगा



संविधान किसी एक राजनीतिक दल या व्यक्ति का न होकर  देश के हर व्यक्ति के लिए बना वह पवित्र दस्तावेज है जिसके अनुसार शासन और प्रशासन चला करता है | उस दृष्टि से संविधान दिवस की भी वही महत्ता है जो स्वाधीनता और गणतंत्र दिवस की है | इसीलिये जिस तरह 15 अगस्त और 26 जनवरी के आयोजनों में सभी राजनीतिक दल तमाम मतभेद भूलकर शामिल होते हैं उसी तरह 26 नवम्बर को संविधान दिवस का जश्न भी राष्ट्रीय पर्व से कम नहीं होना चाहिए | लेकिन गत दिवस संसद के केन्द्रीय कक्ष में आयोजित संविधान दिवस के जलसे का  कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने जिस तरह बहिष्कार किया उसका  राजनीतिक तौर पर भले ही औचित्य साबित किया जाए लेकिन राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखने पर वह बेहद गैर जिम्मेदाराना कदम था | कांग्रेस प्रवक्ता ने इस पर अपनी सफाई में कहा कि चूँकि भाजपा सरकार संवैधानिक व्यवस्थाओं और संसदीय गरिमा को नष्ट कर रही है इसलिए विपक्ष ने उक्त कार्यक्रम का बहिष्कार किया | पार्टी प्रवक्ता आनंद शर्मा ने ये आरोप भी लगाया कि सरकारी आयोजनों में विपक्ष को पर्याप्त सम्मान और महत्व नहीं मिलता | विपक्ष की गैर मौजूदगी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खाली मैदान दे दिया  जिसका लाभ उठाते हुए उन्होंने वंशवादी राजनीति पर कड़े प्रहार करते हुए उसे लोकतंत्र के लिए खतरा बताया | स्मरणीय है कि जो आनंद शर्मा सरकार पर संवैधानिक गरिमा को नष्ट करने का आरोप लगाने सामने आये वे कांग्रेस नेताओं के उस जी – 23 समूह के प्रमुख सदस्य हैं जो कांग्रेस में गांधी परिवार द्वारा पार्टी संविधान की अवहेलना करते हुए संगठन के चुनाव को टालते रहने का आरोप लगाया करता है | व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण से  देखें और सोचें तो संसद के केन्द्रीय कक्ष में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की मौजूदगी में आयोजित संविधान दिवस का आयोजन दलगत   राजनीति से परे  होना चाहिए था | कांग्रेस तो वह पार्टी है जिसका संविधान सभा में वर्चस्व था | डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे ऋषि तुल्य और परम विद्वान राजनेता उसके अध्यक्ष थे और संविधान का प्रारूप भीमराव आम्बेडकर जैसे प्रख्यात विधिवेत्ता द्वारा तैयार किया गया | इन दोनों महान हस्तियों का प्रधानमंत्री ने अपने उद्बोधन में सम्मानपूर्वक उल्लेख किया | निश्चित तौर पर ऐसे अवसरों पर देश की एकता  का प्रगटीकरण होता है | लेकिन दुर्भाग्यवश अब राष्ट्रीय दिवस भी राजनीतिक वैमनस्यता और रागद्वेष के शिकार होने लगे हैं | कांग्रेस द्वारा सरकार पर संवैधानिक व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने का आरोप लगाते हुए संविधान दिवस का तो बहिष्कार कर दिया गया और उसकी देखीसीखी अन्य  विपक्षी दल भी उस जलसे से दूर रहे लेकिन  सरकार के साथ अपने मतभेदों के चलते क्या कांग्रेस और शेष विपक्ष भविष्य में स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र की वर्षगाँठ पर आयोजित कार्यक्रमोंका भी बहिष्कार करेगा ? ये बात बिलकुल सही है कि इस तरह की सोच के पीछे कांग्रेस साहित उन विपक्षी पार्टियों  पर हावी सामन्तवादी मानसिकता  ही है जिसके प्रभावस्वरूप वे सत्ता पर अपना एकाधिकार समझते हैं और उससे बाहर आते ही उनको संविधान और लोकतंत्र खतरे में नजर आने लगता है |  यदि कल के आयोजन में विपक्ष भी मौजूद रहता तब शायद श्री मोदी के भाषण की विषयवस्तु भी अलग होती | लेकिन उन्होंने बिना किसी दल का नाम लिए वंशवादी राजनीति पर जो प्रहार किया वह लोकतंत्र के  व्यापक हितों के मद्देनजर विचारणीय है | निश्चित रूप से कांग्रेस इसके लिए प्राथमिक तौर पर दोषी मानी जायेगी जिसने आजादी के बाद से ही एक परिवार के खूंटे से खुद को बांधे रखा | बीच – बीच में उसे इससे आजाद होने का अवसर मिला भी किन्तु घूम - फिरकर वह उसी परिवार की निजी जागीर बनकर रह गयी | इससे प्रोत्साहित होकर अन्य पार्टियों ने भी  परिवारवाद को अपनाया और देखते – देखते अनेक क्षेत्रीय दल पारिवारिक उत्तराधिकार की परम्परा अपनाते हुए मैदान में आ गये | कांग्रेस को ये बात समझनी  चाहिए कि उससे प्रेरित होकर वंशवाद अपनाने वाले इन क्षेत्रीय दलों ने सबसे ज्यादा उसे ही नुकसान पहुँचाया | आज स्थिति ये आ गयी कि देश की  सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस को लालू यादव और ठाकरे परिवार की  शिवसेना में बतौर कनिष्ट भागीदार गठबंधन करना पड़ा | 2017 में उ.प्र विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव और राहुल गांधी के बीच गठबंधन हुआ था जिसे राष्ट्रीय राजनीति की दिशा बदलने वाला बताया गया | लेकिन चुनाव परिणाम ने दोनों को फिर दूर कर दिया और आज हालत ये है कि उ.प्र में सपा - बसपा तो दूर छोटी – छोटी पार्टियाँ तक कांग्रेस के करीब आने में कतरा रही हैं | हाल ही में बिहार में हुए उपचुनावों के दौरान लालू के बेटों ने भी कांग्रेस को खूब अपमानित किया | इस सबका कारण  पार्टी की वैचारिक पहिचान पर पारिवारिक मिल्कियत का ठप्पा लग जाना है | ये बात बिलकुल सही है कि परिवार के शिकंजे में फंसा राजनीतिक दल आंतरिक लोकतंत्र सहन नहीं कर सकता | कांग्रेस तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ही लेकिन राजद , सपा , बसपा , शिवसेना , टीआरएस , द्रमुक , अकाली , रालोद  , इनेलो , नेशनल कांफ्रेंस , पीडीपी और ऐसे ही अन्य छोटे दल एक परिवार की निजी संपत्ति बनकर रह गये हैं | इसीलिये इनके लिए लोकतंत्र तभी तक सुरक्षित और सार्थक है जब तक सत्ता इनके हाथ में है वरना उस पर खतरा मंडराने का ढोल पीटा जाने लगता है | ममता बैनर्जी ने भी राजनीतिक तौर पर ताकतवर होते ही तृणमूल कांग्रेस में अपने भतीजे अभिषेक को उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित कर दिया | यही स्थिति बसपा में मायावती के भतीजे आनंद कुमार की है | हालाँकि श्री मोदी की अपनी पार्टी भाजपा में भी परिवारवाद की विषबेल फैलने लगी है लेकिन पार्टी के वैचारिक अभिभावक के रूप में रास्वसंघ के कारण शीर्ष नेतृत्व पर परिवारवाद के लिए जगह नहीं है | वामपंथी दल जरूर इस बुराई से मुक्त हैं और अभी तक आम आदमी पार्टी भी किन्तु वह एक व्यक्ति के करिश्मे की बंधक बनकर रह गई है जिनको चुनौती देने वाले को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है | ऐसे में संविधान दिवस पर श्री मोदी द्वारा वंशवाद में जकड़ी राजनीतिक पार्टियों पर किया गया कटाक्ष गलत नहीं था | आज देश जिस माहौल से गुजर रहा है वह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है | देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर भी दलीय हितों को महत्व दिया जाना खतरनाक संकेत है | सीमा पर मंडराते संकट के बीच विपक्ष का प्रमुख नेता शत्रु देश के दूतावास में किसलिए गया ये प्रश्न आज तक अनुत्तरित है | एक और नेता दूसरे दुश्मन देश के प्रधानमंत्री से याराना निभाने में फक्र महसूस कर रहा है | राष्ट्रहित के मूद्दों पर  राजनीतिक सहमति बननी ही चाहिए लेकिन जब विपक्ष संविधान दिवस पर संसद में आयोजित समारोह का बहिष्कार करने जैसा आचरण करने लगे तब उससे और क्या अपेक्षा की जा सकती है | संसद के भीतर सत्ता और विपक्ष के बीच टकराहट कोई नई बात नहीं है | पं. नेहरु के जमाने से ऐसा होता आ रहा है | लेकिन राष्ट्रीय सम्मान से जुड़े किसी भी विषय पर राजनीतिक मतभेदों को ताक पर रखने की स्वर्णिम परम्परा भी  रही है | उसका स्मरण करने पर गत दिवस विपक्ष विशेष रूप से कांग्रेस द्वारा संविधान दिवस समारोह  का बहिष्कार लोकतंत्र और स्वस्थ राजनीति के  लिए अच्छा संकेत नहीं है | विपक्ष उस समारोह  में शामिल होने का बाद अपना पृथक आयोजन रखकर सरकार की घोर आलोचना कर सकता था किन्तु राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार करने जैसी गलती पुनः दोहराई गई | ये देखते हुए तो ऐसा लगता है भविष्य में सरकार से नाराज विपक्ष कहीं संसद में जाने से ही परहेज न करने लगे | लोकतंत्र वैचारिक मतभेदों के बावजूद  सौजन्यता , सामंजस्य और समन्वय के मौलिक सिद्धांतों पर आधारित होता है | इसके लिए सत्ता और विपक्ष दोनों को दायित्वबोध का परिचय देना होता है | सत्ता पक्ष को जहां बड़ा दिल दिखाना चाहिए वहीं विपक्ष को भी जनादेश का सम्मान करने की आदत डालनी होगी  क्योंकि जनता किसी एक दल ,  नेता या परिवार  के मोहपाश से मुक्त होकर निर्णय लेना सीख चुकी है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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