Saturday 20 November 2021

कृषि क़ानून : विरोधी गदगद , समर्थक हतप्रभ



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी राष्ट्र के नाम सन्देश देने वाले होते हैं तब उत्सुकता से ज्यादा भय व्याप्त हो जाता है | नोट बंदी और लॉक डाउन सदृश आशंका परेशान करने लगती है | गत दिवस जब पता चला  कि वे सुबह – सुबह देश को संबोधित करने वाले हैं तब आम तौर पर ये माना गया कि वे गुरुनानक जयन्ती पर शुभकामना संदेश देंगे | पंजाब के  सिख मतदाताओं को लुभाने इसे नितांत स्वाभाविक माना जाता लेकिन उन्होंने एक बार फिर सभी को चौंकाते हुए तीन कृषि कानूनों को वापिस लेने का ऐलान कर दिया | उनको किसानों के हित में बताने के बाद उन्होंने  कहा कि चूंकि सरकार इनके फायदों से कुछ  किसानों को समझाने में असफल रही इसलिए उनको वापिस ले लिया जावेगा | प्रधानमंत्री ने ये भी बताया कि इनके जरिये देश के 80 फीसदी लघु और सीमान्त किसानों को लाभान्वित करने का उद्देश्य था | स्मरणीय है गत वर्ष 26 नवम्बर से किसान  संगठन दिल्ली  की सीमा पर कानून रद्द करने की मांग के साथ  धरने पर बैठे थे |  उनकी अन्य मांगों में  विशेष रूप से न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहिनाना है | श्री मोदी ने कानून वापिस लेने के साथ ही इस बारे में एक समिति बनाने की बात भी कही | उनके इस कदम से आन्दोलन कर रहे किसान संगठन और उनके समर्थन में खड़ी विपक्षी पार्टियों में तो विजयोल्लास छा  गया लेकिन उनकी अपनी पार्टी और प्रशंसक वर्ग में मायूसी छा गयी | विपक्ष ने थूककर चाटने , अहंकार की पराजय , चुनावी हार  के भय से देर से लिया गया सही फैसला जैसी टिप्पणियाँ कीं वहीं समर्थकों को समझ में नहीं आया कि वे जिन कानूनों की  बीते एक साल से  वकालत करते आ रहे थे उनको वापिस लिए जाने पर क्या कहें ?  लेकिन थोड़ी देर में ही  कोई इसे मास्टर स्ट्रोक कहने लगा तो किसी ने कहा कि  किसान संगठनों के साथ ही विपक्ष के हाथ से मुद्दा छिन गया | परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाओं के बीच  इस कदम के निहितार्थ तलाशे जाने लगे | किसान संगठन भी चौंक गए क्योंकि  उन्हें लगता था कि सरकार उनसे बातचीत करते हुए समझौते की शक्ल में निर्णय लेगी | लेकिन प्रधानमंत्री ने किसी को भनक तक नहीं लगने दी और वह घोषणा कर दी जिसकी उम्मीद  किसी को भी नहीं थी | ऐलान के बाद से ही उसके राजनीतिक परिणाम का आकलन शुरू हो गया | विरोधियों ने इसे प्रधानमन्त्री और सरकार की हार तो बताया लेकिन वे इस बात को स्पष्ट नहीं कर सके कि इसका राजनीतिक लाभ कौन उठाएगा ?  ये कहना पूरी तरह सही है कि श्री मोदी ने ये कदम राजनीतिक दांव के तौर पर ही उठाया है | यदि उत्तर भारत के तीन राज्यों क्रमशः  उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा करीब न होते तब शायद वे  ये दांव न चलते | भले ही पंजाब छोड़कर शेष दोनों राज्यों के जो सर्वे आये हैं उनमें सीटें कम होने के बावजूद भाजपा सत्ता में लौटती दिख रही है लेकिन प्रधानमन्त्री के मन में 2024 का लोकसभा चुनाव है जिसके लिए उ.प्र में वर्चस्व बनाये रखना निहायत जरूरी है | इसके अलावा पंजाब में सूपड़ा साफ होने से बचाने के  लिए सिख समुदाय की नाराजगी दूर करना भी जरूरी था | ये भी कहा  जा रहा है कि  किसान आन्दोलन के बहाने पंजाब में खालिस्तानी गतिविधियाँ फिर शुरू होने लगी थीं | केंद्र सरकार को सिख विरोधी बताकर हिन्दुओं और सिखों  के बीच का सौहार्द्र खत्म करने के  संकेत भी आ रहे  थे | राजनीतिक चर्चाओं के अनुसार कैप्टेन अमरिंदर सिंह द्वारा  गृह मंत्री अमित शाह से की गई मुलाकातों में भी पंजाब में आतंकवाद के नये बीज  अंकुरित होने संबंधी जानकारी दी गयी | उन्होंने भाजपा के सामने ये शर्त भी रखी कि  कृषि कानून वापिस  लिए जावें तो वे उसके साथ अपनी नवगठित पार्टी का  गठबंधन करने तैयार हैं | इसी तरह पश्चिमी उ.प्र के जाट मतदाताओं की नाराजगी दूर करने के लिए कुछ करना जरूरी था | सतही विश्लेषण कर्रें तो यही लगता है  कि उक्त सभी कारण  अपनी जगह सही हैं जिनके कारण प्रधानमन्त्री को पराजय स्वीकार करनी पड़ी | जिससे कठोर निर्णय  पर कायम रहने वाली उनकी  छवि को धक्का पहुंचा है | बीते एक साल में समाज के बड़े वर्ग के साथ ही किसानों के बीच भी  कृषि कानूनों के पक्ष में वातावरण बनने से  दिल्ली में चल रहे धरने की रंगत भी फीकी पड़ने लगी थी | राकेश टिकैत सहित किसान संगठनों के अन्य नेता विभिन्न प्रदेशों में दौरा करने के बाद भी आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी नहीं बना सके | और फिर आम जनता को इस विवाद में  किसी भी प्रकार की रूचि नहीं थी | गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में हुए उपद्रव और हाल ही में निहंगों द्वारा  दिल्ली में धरनास्थल के पास की गयी हत्या के बाद आन्दोलन नैतिक दृष्टि से  कमजोर हो चला था | दिल्ली और पड़ोसी राज्यों की जनता और व्यापारी वर्ग भी  आन्दोलन के विरोध  में मुखर था | वैसे भी  सर्वोच्च न्यायालय की  रोक से क़ानून लागू नहीं हो सके थे | ऐसे में  प्रधानमंत्री द्वारा अचानक  किये गये  ऐलान से उनकी छवि रणछोड़ दास की बन गयी | उल्लेखनीय है 2016 में नोट बंदी के बाद भी पूरे देश में  जबरदस्त नाराजगी  थी |  कृषि कानूनों से तो  किसान ही प्रभावित हो रहे थे किन्तु नोट बंदी ने तो पूरे समाज को हलाकान कर डाला था |  2017 में इन्हीं राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले थे | लेकिन वे अपने फैसले पर अडिग रहे और तमाम आशंकाओं  के बावजूद उ.प्र और उत्तराखंड में भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली | कल के पहले तक ये लग रहा था कि प्रधानमन्त्री किसान आन्दोलन से भयभीत हुए बिना चुनाव का सामना करेंगे किन्तु इस बार उनके चौंकाने का  अंदाज कदम पीछे खींचने के रूप में सामने आया | कृषि कानूनों को लेकर उनको एक बड़े वर्ग का समर्थन भी मिला जिसने इसे आर्थिक सुधारों की दिशा में सराहनीय कदम बताया था | इस फैसले के बाद भी किसान संगठनों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए दबाव बनाने के संकेत से लगता है श्री मोदी द्वारा दिखाई गयी दरियादिली से दूसरा पक्ष ज़रा भी नहीं पसीजा , उलटे उसे ये लगने लगा है कि सड़क घेरकर बैठने से संसद के फैसले भी बदलवाए जा सकते हैं | इस तरह  प्रधानमन्त्री के कदम पीछे खींचने के इस निर्णय ने दबाव की राजनीति के लिए भी रास्ता साफ कर दिया है | यदि आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा को अपेक्षित सफलता मिली तब  तो  इस दांव की सार्थकता साबित हो जायेगी | लेकिन  किसानों की नाराजगी अब भी बनी रही तब प्रधानमंत्री की निर्णय क्षमता और राजनीतिक आकलन पर सवाल उठे बिना नहीं रहेंगे |  राजनीति के जानकार पंजाब में भाजपा को पाँव ज़माने की जगह मिलने के साथ ही पश्चिमी उ.प्र में रालोद नेता जयंत चौधरी के साथ उसके संभावित गठबंधन की जो बात सोच रहे हैं वह उतनी आसान नहीं लगती क्योंकि  अमरिंदर और  जयंत दोनों ये  भांप गये हैं कि फिलहाल भाजपा को उनकी जरूरत है | अकाली दल ने तो दोबारा  जुड़ने से साफ़ इंकार कर दिया है | इसलिए इस कदम के नतीजों के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा |  लगता है  हालिया उपचुनावों में हिमाचल और राजस्थान के नतीजों ने प्रधानमन्त्री को चिंतित किया है | उनको ये समझ में आने लगा है कि  भावनात्मक  मुद्दे भी एक सीमा के बाद काम नहीं आते किन्तु उनके समर्थकों को अब भी  ये भरोसा है कि प्रधानमन्त्री मोर्चा जरूर हारे हैं लेकिन जंग नहीं  | और फिलहाल तो उन्होंने किसान  आन्दोलन सहित विपक्षी हमले की धार कमजोर कर दी है |  आने वाले कुछ दिनों में खुलासा हो जायेगा कि  इस फैसले से किसे और कितना फायदा या नुकसान होगा ? वैसे आन्दोलन चलाने वालों को भी इस बात की समीक्षा करनी चाहिए कि एक साल तक लड़ने और सैकड़ों मौतों  के बाद किसानों को आखिर मिला क्या ? क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात समिति के पाले में चली जाने से फिलहाल उस पर किसी निर्णय की उम्मीद नहीं है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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