Monday 29 November 2021

संसद का शीतकालीन सत्र : नए समीकरणों की शुरुआत हो सकती है



आज से संसद का  शीतकालीन सत्र शुरू हो रहा है | बजट के पहले  वाले इस सत्र पर किसान आन्दोलन की छाया स्पष्ट है | तीन कृषि कानून वापिस होने के साथ ही देश की नजर इस बात पर भी रहेगी कि अन्य मांगों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुख क्या होता है और क्या सरकार की तरफ से उनके बारे में कोई नीतिगत घोषणा जावेगी या वह केवल तीन कानून वापिस लेकर चुप बैठ जायेगी | इस सत्र के बाद उ.प्र , उत्तराखंड , पंजाब , मणिपुर और गोवा में विधानसभा  चुनाव का बिगुल बजने से सरकार के सामने ये चुनौती रहेगी कि वह इन राज्यों के मतदाताओं को किस तरह से भाजपा की और मोड़ती है | उल्लेखनीय है पंजाब के अलावा बाकी चारों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं |  कृषि क़ानून वापिस लेने के पहले दीपावली पर पेट्रोल – डीजल की कीमतों में बड़ी कटौती कर सरकार ने ये संकेत दिया था कि उसे  जनता की नाराजगी का आभास हो चला था | उसके पश्चात उसने किसानों की नाराजगी दूर करने का दांव चला लेकिन किसान संगठनों द्वारा अभी तक जो तेवर दिखाए जा रहे हैं उनसे तो लगता है जैसे वे सरकार की कमजोर नस को जान गये हैं | और कोई समय होता तब शायद प्रधानमंत्री द्वारा तीन कानून वापिस लेने की घोषणा के बाद आन्दोलन वापिस ले लिया जाता तथा शेष मांगों पर विचार हेतु गठित की जाने वाले समिति की रिपोर्ट का इंतजार किया जाता किन्तु किसान नेताओं को ये बात समझ में आ चुकी है कि उ.प्र भाजपा के लिए जीवन मरण का सवाल है और वह किसी भी कीमत पर उसे खोना नहीं चाहेगी | और तो और उसे 2017 में जीती सीटों में कमी भी मंजूर नहीं होगी क्योंकि उसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़ने के पहले ही राष्ट्रपति के चुनाव में दिख जायेगा जिसे जीतना भाजपा के लिए नितांत जरूरी है  | चूँकि विपक्षी दल भी एक  स्वर से किसानों की मांगों का  समर्थन करते आ रहे हैं इसलिए भी सरकार के सामने सदन में काफी दबाव होगा | उनकी दो मांगों मसलन बिजली संबंधी विधेयक और पराली जलाने वालों को कड़े दंड और जुर्माने पर तो सरकार की तरफ से आश्वासन मिल चुका है | आन्दोलन के दौरान दर्ज मुक़दमे भी वापिस लेना बड़ी बात नहीं होगी किन्त्तु न्यूनतम समर्थन मूल्य का पेंच फंसा रह सकता है | दरअसल सरकार भी एक बात समझ गई है कि इस  माँग को मान लेने के बाद भी कतिपय किसान नेता और उनके संगठन बजाय सरकार को धन्यवाद देने के आगामी  लोकसभा चुनाव के मद्देनजर नए सिरे से दबाव बनाना शुरू कर देंगे | इसका एक कारण ये भी है कि अधिकांश किसान नेता भाजपा विरोधी हैं और उनमें से  कुछ के मन में राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ हिलोरें मारने लगी हैं | इसका प्रमाण उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव में देखने मिल सकता है | लेकिन भाजपा और केंद्र सरकार के लिए कुछ राहत की बातें भी हैं | जैसे भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों का चुनावों की दृष्टि से गठबंधन न कर पाना | पंजाब में तो कांग्रेस के भीतर जबरदस्त घमासान है | अमरिंदर सिंह अलग पार्टी बनाकर भाजपा के करीब हैं | आम आदमी पार्टी  सत्ता की प्रबल दावेदार बनकार उभर रही है जबकि अकालियों ने बसपा के साथ गठजोड़ कर लिया | उ.प्र में भी विपक्ष बंटा हुआ है | सपा , बसपा और कांग्रेस का दूर रहना भाजपा के लिए सुकून का विषय है | वहीं  असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम मतदाताओं को इस बात के लिए प्रेरित कर रहे हैं कि वे बजाय किसी पार्टी के पिछलग्गू बनने के अपना अलग अस्तित्व प्रदर्शित करें | यदि वे कामयाब हो सके तो भाजपा की राह आसान हो जायेगी | सबसे बुरी स्थिति कांग्रेस की है जिसे दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करने की प्रियंका वाड्रा की कोशिशें बेअसर साबित हो रही हैं | इसका असर संसद के भीतर भी  नजर आयेगा | बीते सप्ताह अपने दिल्ली दौरे में ममता बैनर्जी ने  तृणमूल कांग्रेस को असली कांग्रेस साबित करने  के अपने अभियान के अंतर्गत जो तोड़फोड़ मचाई उससे ये लगने लगा कि बंगाल जीतने के बाद अब वे  स्वयं को सोनिया गांधी से बड़ा नेता मानने लगी हैं | तभी वे हर बार की तरह इस दिल्ली यात्रा में श्रीमती गांधी से मिलने नहीं गईं | और तो और कांग्रेस दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे द्वारा सत्र के दौरान संयुक्त रणनीति बनाने हेतु विपक्षी दलों की जो बैठक बुलाई गयी  उसमें भाग  लेने से भी साफ़ मना कर  दिया  | संसद के भीतर भी  कांग्रेस के साथ किसी तरह के तालमेल से तृणमूल का इंकार इस बात की तरफ इशारा है कि ममता 2024 के लोकसभा चुनाव को मोदी विरुद्ध   राहुल गांधी की बजाय मोदी विरुद्ध ममता बनाना चाहती हैं | और ऐसा करने के लिए उनको कांग्रेस और गांधी परिवार का लिहाज तोड़ना जरूरी है | इस प्रकार इस शीतकालीन सत्र में किसान आन्दोलन के अलावा बाकी मुद्दों पर विपक्ष के सुर अलग – अलग हों तो आश्चर्य न होगा | उ.प्र के चुनाव को देखते हुए कांग्रेस , सपा  और बसपा भाजपा के विरोधी होते हुए आपस में एकजुट नहीं होंगे | ममता के तेवरों से लगता है कि तृणमूल कांग्रेस  संसद में सरकार से टकराने वाली मुख्य पार्टी की  भूमिका में होगी और ऐसा करने के पीछे उसकी रणनीति ममता के उस दावे को सच ठहराने की ही होगी कि भाजपा और श्री मोदी का मुकाबला करने की क्षमता कांग्रेस और राहुल में नहीं बची और तृणमूल ही इसका बीड़ा उठायेगी | ये देखते हुए संसद में विपक्ष की एकता पर भी पांच राज्यों के चुनाव का असर नजर आयेगा | ममता की रणनीति यदि कारगर रही तो फिर कांग्रेस पूरी तरह अलग – थलग पड़ सकती है जो  नए राजनीतिक समीकरणों की शुरुवात होगी | जहाँ तक सरकार का सवाल है तो उसकी पहली प्राथमिकता सदन को चलाते हुए जो भी लंबित विधेयक हैं उनको पारित करवाना होगा | इसके अलावा आगामी चुनावी मुकाबलों को देखते हुए वह ऐसी नीतिगत घोषणाएं भी कर सकती है जिनसे महंगाई को लेकर जनता की नाराजगी दूर की जा सके | हो सकता है न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी प्रधानमन्त्री कोई ऐलान संसद के भीतर कर दें जिसका समर्थन करने विपक्ष भी बाध्य हो और किसान आन्दोलन से वोटों के नुकसान की आशंका भी समाप्त हो जाये | वैसे इस सत्र में ऐसा कोई मुद्दा नजर नहीं आ रहा जिसकी वजह से विपक्ष सदन को पहले की तरह ठप्प कर सके | सरकार ने कृषि कानून के साथ बिजली और पराली संबंधी मांगों को मानकर सदन में शांति बनाये रखने की जो  पहल की उसी का परिणाम है कि कृषि कानून वापिस होने तक संसद को जाने वाले ट्रैक्टर मार्च को किसान संगठनों द्वारा रद्द कर दिया गया | राजनीतिक विश्लेषकों का ये मानना है  कि इस सत्र के दौरान प्रधानमन्त्री किसान आन्दोलन के  दबाव से निकलने के लिए ऐसा कोई कदम उठा सकते हैं जिसे क्रिकेट की भाषा में मैच जिताऊ शाट कहा जाता है | लेकिन  पंजाब औए बंगाल में सीमा सुरक्षा बल का अधिकार क्षेत्र बढ़ाये जाने , मुम्बई में नारकोटिक्स नियंत्रण ब्यूरो के छापे  जैसे मुद्दों पर सदन का माहौल गरमाए बिना नहीं रहेगा | विपक्ष के लिए भी ये अच्छा अवसर है संसद के से  संचालन को लेकर बनी अपनी नकारात्मक छवि को सुधारने का | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

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