Thursday 18 November 2021

न्यायपालिका भी तो अपनी सुविधा के मुताबिक संज्ञान लेती है



सर्वोच्च न्यायालय कानून की किताबों से बाहर निकलकर भी आये दिन ऐसी टिप्पणियां करता है जो जनता की आवाज प्रतीत होती हैं। दिल्ली में प्रदूषण की समस्या पर केजरीवाल सरकार और केंद्र दोनों को जिस तरह से फटकार लग रही है उससे आम जनता खुश है। दरअसल इन दिनों दिल्ली वासियों का साँस लेना दूभर हो रहा है। दीपावली पर चली आतिशबाजी के बाद पड़ोसी पंजाब और हरियाणा राज्यों के किसानों द्वारा खेतों में पराली जलाए जाने से निकले धुंए ने हर साल की तरह इस साल भी दिल्ली का रुख किया जिससे वहां के आसमान में धुंआ छा गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में दिल्ली और केंद्र सरकार के हलफनामे पर सवाल उठाते हुआ कहा कि पराली से होने वाला प्रदूषण वाहनों के धुंए की तुलना में बहुत कम है जिसे रोकने में वे दोनों असफल रहे हैं। और साल भर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के बाद सर्दियां आते ही किसानों को दोषी बताकर अपनी गलतियाँ छिपाते हैं। न्यायालय ने नौकरशाही की अकर्मण्यता पर भी तंज़ कसते हुए कहा कि वह पूरी तरह निष्क्रिय बनी रहकर अदालत से आदेश मिलने का इन्तजार करती रहती है। न्यायालय ने कानपुर आईआईटी द्वारा पराली प्रदूषण पर दिए गए सुझाव पर नाराजगी जताते हुए कहा कि उसके निष्कर्ष भरोसे लायक नहीं हैं और पांच सितारा होटलों में बैठकर किसानों को दोषी ठहराना आसान है। अदालत ने दिल्ली सरकार को लताड़ते हुए ये भी कहा कि वह विज्ञापनों पर तो भारी-भरकम राशि लुटाती है परन्तु प्रदूषण रोकने की बजाय बलि के बकरे खोजा करती है। लेकिन न्यायालय की ये टिप्पणी सबसे तीखी रही कि टीवी पर होने वाली बहस सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं क्योंकि उसमें शामिल लोगों को मुद्दे की समझ नहीं होने पर वे कुछ भी बोल जाते हैं जिससे वातावारण खराब होता है। सर्वोच्च न्यायालय तकरीबन हर रोज किसी न किसी मामले में इसी तरह की व्यंग्यात्मक और कड़वी लगने वाली बातें किया करता है। नौकरशाहों को फटकारने में भी वह संकोच नहीं करता। आजकल उसकी ये धमकीनुमा टिप्पणी भी अक्सर सुनाई दे जाती है कि शासन और प्रशासन की तरफ से जल्द कोई कदम न उठाया गया तब वह खुद होकर आदेश पारित कर देगा। यद्यपि इसके पीछे सरकारी मशीनरी को तेजी से काम करने के लिए बाध्य करना होता है किन्तु अनेक ऐसे मामले हैं जिनमें न्यायपालिका ही अनिर्णय बनाये रखते हुए इस बात की प्रतीक्षा करती है कि सरकार और नौकरशाह ऐसा कुछ कर दें जिससे वह निर्णय देने से बच जावे। इसके दो ज्वलंत उदाहरण हैं , दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में मुस्लिम समाज द्वारा लम्बे समय तक सड़क रोककर बैठ जाना और उसके बाद कृषि कानूनों के विरुद्ध दिल्ली की सीमाओं पर किसानों द्वारा सड़कों पर किया गया कब्जा। इन दोनों मामलों में सम्बंधित राज्य और केंद्र की सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या कानून व्यवस्था बनाये रखने की थी। शाहीन बाग़ के आन्दोलन को समूचे विपक्ष का समर्थन था। यदि केंद्र सरकार धरना स्थल को बलपूर्वक खाली करवाती तो अल्पसंख्यकों पर अत्याचार का हल्ला मचाकर सहिष्णुता और ऐसे ही अन्य मुद्दे उछाले जाते। इसी तरह किसान आन्दोलन के जरिये घेरी गईं सड़कें जिन राज्यों के क्षेत्राधिकार में आती हैं यदि वे आम नागरिकों को हो रही परेशानी दूर करने के लिए धरने को पुलिस की मदद से खत्म करवातीं तो उन पर किसान विरोधी होने का दोष थोप दिया जाता। ये बात किसी से छिपी नहीं है कि शाहीन बाग़ और किसान आन्दोलन में सड़क पर कब्जा किये जाने से दिल्ली के नागरिकों सहित बाहर से आने वालों को कितना हलाकान होना पड़ा। होना तो ये चाहिए था कि सर्वोच्च न्यायालय खुद होकर संज्ञान लेते हुए सड़कों को खाली करवाने का आदेश पारित करता किन्तु वह ऐसा करने से बचता रहा जिसका कारण तो वही जानता होगा। लेकिन जब उनके विरोध में याचिकाएं पेश हुईं तब भी न्यायालय की तरफ से उपदेशात्मक बातें तो खूब की गईं लेकिन आदेशात्मक कुछ भी नहीं। शाहीन बाग़ का धरना पूरी तरह गैरकानूनी था। लेकिन न्यायपालिका ने बजाय उसे हटवाने के बजाय धरना देने वालों से बात करने के लिए एक टीम बनाई जो खाली हाथ लौटी। यदि कोरोना न आया होता तो बड़ी बात नहीं शाहीन बाग़ वाली सड़क पर आज भी धरना दिए मुस्लिम महिलाओं और बच्चों को बैठाये रखा जाता। इसी तरह किसान आंदोलन के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने विवादित कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी किन्तु उसके बाद भी किसानों ने धरना खत्म नहीं किया तो बजाय उनको हटाने का आदेश देने के उसने आन्दोलन के अधिकार को मान्यता देते हुए किसान संगठनों से केवल ये पूछा कि कानूनों पर रोक के बाद भी वे जनता के लिए परेशानी का कारण क्यों बने हुए हैं ? जनअपेक्षा यही थी कि सर्वोच्च न्यायालय उक्त दोनों धरनों के बारे में दायर याचिकाओं पर बजाय लम्बी सुनवाई के सबसे पहले सड़क खाली करने का आदेश देता किन्तु कानून व्यवस्था राज्य की जिम्मेदारी होने के नाम पर वह इससे बचता रहा। ये कहना कतई गलत न होगा कि यदि सर्वोच्च न्यायालय स्वत: संज्ञान लेते हुए शाहीन बाग के धरने को गैरकानूनी बताते हुए सड़क खाली करवाने का आदेश दे देता तब शायद किसान संगठनों द्वारा भी राजधानी को जाने वाली सड़कें घेरने का दुस्साहस नहीं किया जाता। सही बात ये है कि दिल्ली में दीपावली की रात चले पटाकों से न्यायपालिका भन्नाई हुई है। सर्वोच्च न्यायालय के कड़े और स्पष्ट आदेश के बाद भी उसकी नजर के सामने ही दिल्लीवासियों ने उसके आदेश को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। हालांकि उस आदेश की मंशा असंदिग्ध रूप से जनहित में ही थी। ये देखते हुए न्यायपालिका को भी अपनी कार्यप्रणाली की समीक्षा करनी चाहिए। किस मामले में वह स्वत: संज्ञान लेगी और किसमें ऐसा करने से बचेगी,इस बारे में स्पष्टता होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की जागरूकता और जनहितैषी सोच निश्चित तौर पर प्रशंसनीय है। शासन और प्रशासन के कान खींचने के उसके प्रयासों को जनता भी पसंद करती है किन्तु न्यायपालिका के बारे में ये अवधारणा भी आम जनता के मन में गहराई तक घर करती जा रही है कि वह अनेक गम्भीर मामलों को अपनी सुविधा के अनुसार निपटाती है। दिल्ली में प्रदूषण की मौजूदा स्थिति पर केंद्र और केजरीवाल सरकार पर उसकी नाराजगी पूरी तरह जायज है। नौकरशाही के निकम्मेपन और टीवी चैनलों पर होने वाली बेसिर पैर की बहस पर रोषपूर्ण और व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ भी लोगों को अच्छी लग रही हैं। लेकिन ये बात भी सच है कि न्यायपालिका की सक्रियता जब विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करती दिखाई देती है तब अहं का जो टकराव पैदा होता है वह अनेक समस्याओं का कारण बनता है। प्रदूषण सहित ऐसे ही अनेक विषयों पर न्यायालयों की चिंता स्वागतयोग्य है किन्तु जब शाहीन बाग़ और किसान संगठनों द्वारा सड़क पर गैर कानूनी कब्जे के विरुद्ध वह सख्त कदम उठाने से खुद को बचाता है तब उसके आदेशों की गम्भीरता वैसे ही नष्ट हो जाती है जैसा दीपावली की रात हर साल देखने मिलता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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