Wednesday 24 November 2021

राजनेता ही एक दूसरे को कचरा कहने लगे तो और प्रमाणपत्र की क्या जरूरत



हालांकि इसे अंगूर खट्टे हैं वाली कहावत से भी जोड़कर देखा जा सकता है लेकिन आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल की ये टिप्पणी वर्तमान भारतीय राजनीति पर बहुत बड़ा कटाक्ष है कि कांग्रेस के 2 सांसद और 25 विधायक तो उनकी पार्टी में आने को तैयार हैं किन्तु हम उनका कचरा नहीं लेना चाहते। दरअसल पंजाब में आम आदमी पार्टी के दो विधायक हाल ही में कांग्रेस में चले गए। पत्रकारों द्वारा इस बारे में पूछे जाने पर श्री केजरीवाल ने टिकिट नहीं मिलने पर नेताओं के दलबदल करने को गंदी राजनीति बताते हुए कहा कि उनकी पार्टी इसे पसंद नहीं करती। हालाँकि आम आदमी पार्टी में दूसरी पार्टियों से आये लोगों को भी जगह दी गई है। 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में नवजोत सिंह सिद्धू जब राजनीतिक पुनर्वास के लिए भटक रहे थे तब उनके आम आदमी पार्टी में जाने की बात भी चली किन्तु मुख्यमंत्री का चेहरा न बनाये जाने के कारण अंतत: वे कांग्रेस की गोद में जा बैठे। लेकिन श्री केजरीवाल का तंज केवल पंजाब तक सीमित न होकर राष्ट्रीय राजनीतिक में व्याप्त सिद्धांत विहीनता पर साधा गया निशाना है। संयोगवश इसी के साथ ही ये खबर भी आ गई कि भाजपा से कांग्रेस में गये कीर्ति आजाद, हरियाणा के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर और जनता दल (यू) के पूर्व महासचिव पवन वर्मा ने ममता बैनर्जी की शान में कसीदे पढ़ते हुए तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता ले ली। उल्लेखनीय है सुश्री बनर्जी इन दिनों अपनी पार्टी को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने के लिए दूसरे दलों के नेताओं को धड़ाधड़ अपनी पार्टी में खींच रही हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पुत्र अभिजीत भी कांग्रेस छोड़ तृणमूल में जा चुके हैं। कांग्रेस के अन्य नेता भी इन दिनों ममता के साथ जाते देखे जा रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि प. बंगाल के हालिया विधानसभा चुनाव के पहले जब तृणमूल के विधायक और नेता भाजपा में घुसकर टिकिट प्राप्त कर रहे थे तब सुश्री बैनर्जी उनको कचरा बताकर अपनी पार्टी के साफ़ होने की बात कह रही थीं किन्तु चुनाव के बाद वे उसी कचरे को दोबारा अपने घर में लाने बेताब हैं। भाजपा टिकिट पर चुनाव जीते और हारे अनेक ऐसे पुराने तृणमूल नेता घर वापिसी में लगे हैं जिनको ममता और उनके करीबी कचरा कहकर अपमानित किया करते थे। भाजपा के दिग्गज नेता यशवंत सिन्हा भी तृणमूल में जा चुके हैं। हाल ही में गोवा के एक बड़े कांग्रेसी नेता ममता की पार्टी में आ गये। लेकिन सवाल ये है कि कीर्ति आजाद जैसे लोगों को अपनी पार्टी में शामिल करने का लाभ या औचित्य क्या है? कांग्रेसी पृष्ठभूमि से होने के बाद वे भाजपाई बनकर सांसद भी बने किन्तु पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से लड़कर बुरी तरह हारे। उनका अपना कोई जनाधार तो है नहीं जो वे तृणमूल को मजबूती देंगे। तकरीबन यही स्थिति यश्वंत सिन्हा की है। लेकिन जो गलती भाजपा ने बंगाल में तृणमूल और कांग्रेस के लोगों को बिना सोचे समझे खींचकर की थी वही ममता भी दोहरा रही हैं। भाजपा तो इन दिनों दूसरी पार्टी के नेताओं को आयात करने में सबसे आगे है। म.प्र और कर्नाटक में उसकी सरकार कांग्रेस से आये दलबदलुओं के बल पर ही बन सकी। उ.प्र में आज भाजपा के तमाम सांसद और विधायक ऐसे हैं जो चाल ,  चरित्र और चेहरे से भाजपाई नहीं होने के बाद भी उसमें घुसे बैठे हैं। हाल ही में विधान परिषद के दो सपा सदस्यों ने भाजपा की सदस्यता ले ली। ये देखते हुए इस बात का अंदाजा लगाना कठिन हो गया है कि कौन किस पार्टी में कब तक रहेगा? दरअसल सिद्धांत और आदर्श की बजाय पद और व्यक्तिगत अहं की संतुष्टि ही राजनीतिक निष्ठा का पर्याय बन गई है। नवजोत सिंह सिद्धू राजनीतिक कचरे के सबसे बड़े उदाहरण हैं। बीते पांच साल से वे कांग्रेस में हैं जरूर लेकिन उनकी गैर जिम्मेदाराना हरकतों के कारण पार्टी परेशान है। अमरिंदर सिंह को हटवाने के बाद जो नये मुख्यमंत्री बने उनके खिलाफ भी वे जिस तरह की बयानबाजी करते हैं वह देखकर कांग्रेस आलाकमान की लाचारी पर तरस आता है। भाजपा में रहते हुए नवजोत ने गांधी परिवार और डा. मनमोहन सिंह का जितना उपहास किया वह किसी से छिपा नहीं है। प. बंगाल में मुकुल रॉय ममता के दाहिने हाथ माने जाते थे किन्तु नाराज होकर भाजपा में आकर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्यसभा सांसद बन गये। प. बंगाल में भाजपा की जड़ें ज़माने में उनका योगदान सबसे ज्यादा था किन्तु विधानसभा चुनाव में भाजपा को अपेक्षित सफलता न मिलने पर वे फिर तृणमूल में लौट आये। ऐसे उदाहरण भारतीय राजनीति में आजकल ढेरों मिल जाएंगे। प. बंगाल में जिन लोगों ने तृणमूल छोड़ भाजपा की टिकिट हासिल की थी उनको ममता और उनके सहयोगी मीर जाफर कहकर अपमानित करने से बाज नहीं आते थे परन्तु अब उन्हीं को वापिस लेने में उन्हें न संकोच है और न ही शर्म। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि आज की राजनीति पूरी तरह व्यापार हो गई है जिसमें नीति और सिद्धांतों पर निजी स्वार्थ और महत्वाकांक्षाएं हावी हो गई हैं। ममता हों या भाजपा, ये सब सत्ता हासिल करने के लिए ही राजनीति कर रहे हैं। भाजपा के अनेक नेता ये कहते सुने भी गए हैं कि चूंकि सत्ता में रहते हुए ही अपनी नीतियों को लागू किया जा सकता है इसलिए जैसे भी हो उसे प्राप्त करना होगा। वैसे बात गलत भी नहीं क्योंकि अब किसी नेता की पहिचान और राजनीतिक ताकत चुनाव जिताकर पार्टी को सत्ता में लाने पर निर्भर है। ममता ने तीसरी बार जीत हासिल कर ली तो वे बड़ी नेता मानी जाने लगीं। लेकिन कभी प्रधानमंत्री बनने की सोचने वाले लालू यादव आज चर्चाओं से बाहर होते जा रहे हैं। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी एक समय सबसे ताकतवर और सम्माननीय हुआ करते थे लेकिन उनके नेतृत्व में 2009 का लोकसभा चुनाव हारते ही उनका रुतबा घटने लगा। हालांकि दलबदल कोई नई चीज नहीं है और न ही इसे अपराध कहा जा सकता है। परन्तु नीतिगत मतभेद के कारण पार्टी बदलना तो समझ में आता है किन्तु सिर्फ निजी स्वार्थ पूरे न होने पर पाला बदल लेना अवसरवाद नहीं तो और क्या है? श्री केजरीवाल ने जो साफगोई दिखाई वह उनके दो विधायकों के कांग्रेस में घुस जाने से उपजी खीज कही जा सकती है लेकिन दूसरी पार्टी से आने वालों को कचरा कहने का उनका अंदाज उन लोगों के लिए संकेत है जो पार्टी बदलने में तनिक भी संकोच नहीं करते। म.प्र में भी जब दो दर्जन कांग्रेस विधायक भाजपा में गये तब उनका भी कचरा कहकर उपहास किया गया था। आयाराम-गयाराम, दलबदलू, गद्दार और मीर जाफर के बाद अब पार्टी बदलने वालों को कचरा कहा जाने लगा है। लेकिन अभी तक तो पार्टी से जाने वाले ही कचरा कहलाते थे परन्तु श्री केजरीवाल ने आने वालों को भी कचरा कहकर दलबदल करने वालों के लिए एक नये विशेषण का प्रयोग किया है। लोकतंत्र को मजाक बनने से रोकना है तो इस कचरे को साफ़ करने के लिए भी राजनीतिक स्वच्छता मिशन जैसा कोई प्रयास होना चाहिए क्योंकि जब राजनेता ही एक दूसरे को कचरा कहने लगे तो किसी और के प्रमाणपत्र की जरूरत ही क्या है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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