Wednesday 3 November 2021

प. बंगाल, राजस्थान और हिमाचल के नतीजों से भाजपा को सतर्क हो जाना चाहिए



हालाँकि राज्यों में होने वाले उपचुनावों को आगामी आमचुनाव का संकेत मान लेना पूरी तरह सही नहीं होता लेकिन उनसे जनता के रुझान का कुछ तो पता चलता ही है। उस दृष्टि से एक दर्जन से ज्यादा राज्यों में हुए उपचुनावों के जो नतीजे गत दिवस आये उनसे ये बात साफ हुई कि जो पार्टी जिस राज्य में सत्तासीन है उसे वहां सफलता मिली। मेघालय और मिजोरम को छोड़ दें तो म.प्र, राजस्थान, बिहार, प. बंगाल, असम, कर्नाटक आदि में मतदाताओं ने राज्य सरकार के पक्ष में ही अपना समर्थन दिया। म.प्र में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा ने चार में से तीन मुकाबले जीतकर मजबूती दिखाई, वहीं राजस्थान में कांग्रेस के दोनों उपचुनाव जीतने से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की स्थिति सुदृढ़ हो गई। बिहार में यही काम नीतिश कुमार ने कर दिखाया। असम में भी भाजपा की अगुआई में एनडीए ने बाजी मारी तो प. बंगाल में ममता बैनर्जी ने साबित कर दिया कि वे चुनौती विहीन हो चुकी हैं। अन्य कुछ राज्यों में जहां एक-दो उपचुनाव हुए वहाँ भी कमोबेश सत्ताधारी दल या गठबंधन को लाभ हुआ। लेकिन हिमाचल प्रदेश इस मामले में अपवाद साबित हुआ जहां तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा का सफाया हो गया और कांग्रेस को कामयाबी हासिल हुई। इसी तरह प.बंगाल में भाजपा के लिए चिंता के कारण पैदा हो गये हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जीती अपनी दोनों सीटों पर वह बुरी तरह हारी। तृणमूल कांग्रेस को ज्यादातर सीटों पर तीन चौथाई मत मिलना भाजपा के लिए शर्मनाक है। विधानसभा चुनाव में प्रदर्शित आक्रामकता के विपरीत वह इन उपचुनावों में भीगी बिल्ली की तरह नजर आई। कुछ जगह तो उसकी जमानत जप्त हो गई। चार में से दो सीटों पर उसके विधायक तृणमूल में चले गये थे किन्तु उनमें भी वह औंधे मुंह गिरी जिससे साबित हो गया कि पार्टी का मनोबल पूरी तरह टूटा हुआ है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में अभूतपूर्व सफलता हासिल करने वाली भाजपा के लिए इस राज्य से खतरे के संकेत आ रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये देखने में आई कि विधानसभा चुनाव में अपेक्षित सफलता नहीं मिलने के बाद भाजपा के स्थानीय संगठन में ही अंतर्विरोध सामने आने लगे। उस वजह से जो आयातित नेता थे वे भी वापिस लौट रहे हैं। दूसरी तरफ ममता ने चुनाव जीतने के बाद से ही भाजपा के विरुद्ध जबरदस्त मोर्चा खोल दिया। यदि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व इस राज्य के लिए कोई कारगर रणनीति नहीं बनाता तो आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी को उम्मीदवार मिलना तक मुश्किल हो जाएगा। उसके लिए दूसरा बड़ा गड्ढा बना हिमाचल जहां तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट वह हार गई। मुख्यमंत्री ने इसका कारण महंगाई को बताकर अपनी गर्दन बचाने की कोशिश की है लेकिन उनके नेतृत्व की कमजोरी को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। आखिर महंगाई तो म.प्र में भी थी लेकिन मुख्यमंत्री श्री चौहान ने विपरीत हालातों में भी सफलता प्राप्त की। इसी तरह असम के मुख्यमंत्री हिमन्ता बिस्वा सरमा ने भी अपना असर दिखा दिया। बिहार में राजनीतिक प्रेक्षक ये कयास लगा रहे थे कि जेल से निकलने के बाद लालू प्रसाद यादव अपन जादू बिखेरने में कामयाब हो जायेंगे लेकिन नीतीश कुमार ने ये दिखा दिया कि फि़लहाल उनकी पकड़ बनी हुई है। इन चुनावों में चर्चा का केंद्र भाजपा के अलावा कांग्रेस भी रही। हिमाचल और राजस्थान के परिणाम उसके लिए उत्साहवर्धक रहे लेकिन बाकी राज्यों में उसकी स्थिति भविष्य की दृष्टि से इसलिए अच्छी नहीं कही जा सकती क्योंकि संगठन की हालत अच्छी नहीं है। हिमाचल की सफलता में स्थानीय कारण ज्यादा असरकारक रहे वहीं राजस्थान में भी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की नाराजगी भाजपा को भारी पड़ गई। कल ही पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिन्दर सिंह ने कांग्रेस को अलविदा कहकर उसके लिए गड्ढा खोदने की शुरुवात कर दी। बिहार में राजद के साथ उसका गठबंधन टूटता नजर आ रहा है। प. बंगाल में तो वह राजनीतिक तस्वीर से ही बाहर हो गई है और तेलंगाना तथा आंध्र में भी घुटनों के बल पर है। तेलंगाना के उपचुनाव में भाजपा की जीत से कांग्रेस विपक्ष  की हैसियत भी गंवा रही है। वैसे भाजपा के लिए भी ये उपचुनाव संतोषजनक नहीं रहे। म.प्र में उसे निश्चित तौर पर अच्छी जीत मिली जिसने दमोह उपचुनाव की शर्मिंदगी को धो डाला लेकिन जोबट और पृथ्वीपुर से जो प्रत्याशी जीतकर आये हैं वे क्रमश: कांग्रेस और सपा से हाल ही में भाजपा में आये थे। पार्टी को प. बंगाल, राजस्थान और हिमाचल के चुनाव परिणामों का ईमानदारी और गंभीरता से विश्लेषण करना चाहिए क्योंकि उसके अपने प्रतिबद्ध मतदाता भी उससे छिटकने लगे हैं। पेट्रोल और डीजल की कीमतों का सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जाना पार्टी के लिए खाई में गिरने का कारण बन सकता है क्योंकि मोदी मैजिक की भी अपनी सीमा है। विपक्षी वोटों के बिखराव की खुशफहमी में मदमस्त हो जाना आत्मघाती हो सकता है। राजनीति के जानकार ये भविष्यवाणी करने लगे हैं कि उ.प्र में भाजपा की सरकार तो लौटेगी किन्तु पिछली बार जैसी धमाकेदार जीत उसे नसीब नहीं होगी। म.प्र की रेगांव सीट पर कांग्रेस को तीन दशक बाद जीत मिलना भाजपा के लिए शोचनीय है। प. बंगाल में भाजपा का ग्राफ जिस तेजी से उठा था उससे ज्यादा गति से उसके नीचे आने को हवा में उड़ाने से पार्टी को बड़ा नुकसान होगा। इन उपचुनावों का सतही विश्लेषण करने पर ये समझ आता है कि भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के लिए क्षेत्रीय पार्टियां मुश्किलें खड़ी कर रही हैं। लेकिन जो सबसे बड़ी बात सामने आई है वह ये कि कांग्रेस यदि अपना घर ठीक कर ले तो वह भाजपा को टक्कर देना ही नहीं अपितु पराजित भी कर सकती है। राजस्थान और हिमाचल में ये साबित हुआ है। ऐसे में भाजपा को अपने पाँव जमीन पर टिकाने होंगे , वरना 2024 आते-आते उसकी सांसें फूलने लगें तो आश्चर्य नहीं होगा। उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता तक पहुँचने के लिए उसने जिन प्रवासी पक्षियों को अपनी मुंडेर पर बिठा रखा है, वे कब फुर्र हो जाएँ ये अंदाजा लगाना कठिन है। प. बंगाल इसका सबसे अच्छा और ताजा-तरीन उदाहरण है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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