Saturday 31 October 2020

मुनाफा गलत नहीं लेकिन शोषण बंद करें तेल कम्पनियां



अनेक महत्वपूर्ण खबरें अमूमन अखबारों के व्यापार पृष्ठ में छुपकर रह जाती हैं। ऐसी ही एक खबर आज पढ़ने मिली जिसका प्रत्यक्ष संबंध भले ही कम्पनी के घाटे और मुनाफे से हो लेकिन आम भारतीय नागरिक की जेब से उसका सीधा रिश्ता है। इसलिए उसको प्रमुख समाचारों का हिस्सा होना चाहिए था। कोरोना संकट के कारण निजी और सार्वजानिक क्षेत्र के अनेक उद्यम या तो घाटे में चल रहे हैं या फिर उनका मुनाफा घट गया। लेकिन भारत सरकार के स्वामित्व वाली प्रमुख तेल कम्पनी इंडियन ऑयल ने इस वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में गत वर्ष की तुलना में 10 गुना से ज्यादा मुनाफा कमाकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली। जो जानकारी आई है उसके अनुसार गत वित्तीय वर्ष में जून से सितम्बर की तिमाही में इस कम्पनी ने 563 करोड़ का लाभ अर्जित किया था जबकि इस वर्ष की दूसरी तिमाही में इसका लाभ बढ़कर 6000 करोड़ से भी ज्यादा हो गया। इस बारे में चौंकाने वाली बात ये भी है कि गत वर्ष की तुलना में इस तिमाही में बिक्री का आंकड़ा 12 फीसदी घट गया। इसी तरह इंडियन ऑयल ने संदर्भित अवधि में गत वर्ष से 175 लाख टन कम तेल का परिशोधन किया। गत वर्ष की दूसरी तिमाही की अपेक्षा इस साल जून से सितंबर के बीच कम्पनी के बिक्री और परिशोधन दोनों के आंकड़े घटने के बावजूद उसने यदि 10 गुना से भी ज्यादा मुनाफा कमाया जो कि प्रबन्धन के साथ ही सरकार के लिए भी खुशी और संतोष का विषय होगा। किन्तु इस बारे में जो बात निकलकर आ रही है उसके अनुसार लम्बे समय से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम लगातार घटते गये। कोरोना के प्रकोप ने जब दुनिया भर को जकड़ा तब डीजल और पेट्रोल की मांग में भी अप्रत्याशित रूप से कमी आ गई। ऐसे में तेल कम्पनियों ने जमकर खरीदी करते हुए सस्ते कच्चे तेल का आयात करते हुए भण्डारण कर लिया। व्यापारिक दृष्टि से ये एक अच्छा कदम था लेकिन इसका लाभ भारतीय उपभोक्ता तक नहीं पहुंचने से जनता के मन में नाराजगी है। एक ज़माना था जब दाम घटने के बाद भी सरकार ऑयल पूल के पिछले घाटे की भरपाई का बहाना बनाते हुए दाम यथावत रखने का औचित्य साबित किया करती थी। लेकिन फिर एक ऐसा दौर भी आया जब कच्चा तेल लगातार औंधे मुंह गिरता रहा। लेकिन भारत सरकार की तेल कम्पनियों के अलावा केन्द्र और राज्य सरकारों ने ज्यादा से ज्यादा टैक्स वसूलने के नाम पर दाम घटने नहीं दिये। अनेक अवसरों पर देखा गया कि तेल कम्पनियों ने तो कीमतें गिराईं लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों ने अविलम्ब एक्साइज और वैट बढ़ाकर आम जनता को मिलने वाली राहत में भांजी मार दी। हालाँकि इस नीति के पीछे तेल कम्पनियों और सरकार के अपने तर्क हैं जिनमें कुछ को नकारा भी नहीं जा सकता किन्तु इस बारे में विचारणीय बात ये भी है कि जब पेट्रोल और डीजल के दामों पर से सरकार ने अपना नियन्त्रण खत्म करते हुए उन्हें बाजार के जिम्मे कर दिया तब फिर उनकी कीमतों में कमी का लाभ उपभोक्ता को सीधे क्यों नहीं मिले, इस प्रश्न का समुचित उत्तर सरकार को देना चाहिए। वैसे आयात और निर्यात में संतुलन बनाये रखने की दृष्टि से कच्चे तेल का आयात कम होना फायदेमंद है किन्तु वैश्विक स्तर पर देखें तो भारत में अपने उन पड़ोसी देशों तक की तुलना में डीजल और पेट्रोल की कीमतें अपेक्षाकृत ज्यादा रहती हैं जिनकी अर्थव्यवस्था हमसे बहुत छोटी है। दरअसल हमारे सरकारी तंत्र का आर्थिक प्रबंधन केवल टैक्स बढ़ाकर खजाना भरने में ही यकीन करता है। जबकि उपभोक्ता को राहत देकर अप्रत्यक्ष रूप से उतने ही कर संग्रह को बेहतर विकल्प माना जाता है। कच्चे तेल के आयात को घटाना निश्चित रूप से एक राष्ट्रीय आवश्यकता है। लेकिन वह सरकारी मुनाफाखोरी का जरिया न बने ये भी उतना ही जरूरी है। इंडियन ऑयल सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी है इसलिए उसे होने वाली कमाई अंतत: सरकार के खजाने को भरने के काम ही आएगी लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में जिस तरह की फिजूलखर्ची होने लगी है उसे रोकना भी एक उपाय है। कोरोना काल ने आम जनता के साथ ही निजी क्षेत्र को भी कम खर्च में काम करने का जो सबक सिखाया है उसे सार्वजनिक क्षेत्र को भी अपनाना चाहिए। केवल तेल कम्पनियां ही नहीं बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भी ग्राहकों का शोषण कर अपनी बैलेंस शीट सुधारने में लगे हुए हैं। कोरोना काल में जब आम आदमी के सामने चौतरफा संकट है और उसकी आय के स्रोत निरंतर सिकुड़ते जा रहे हैं तब शासकीय विभाग और उपक्रम जिस तरह से उगाही के नए-नए रास्ते ढूंढ रहे हैं उनसे ये लगता है कि उनमें तनिक भी व्यवहारिकता नहीं रह गई। एक तरफ तो सरकार बाजार को सहारा देने के लिए अरबों रूपये कर्मचारियों की जेब में डालकर अर्थव्यवस्था को रफ्तार देना चाह रही है वहीं दूसरी तरफ  तेल कम्पनियां पेट्रोल डीजल पर अनाप शनाप मुनाफा बटोरकर जनता की जेब काटने के खेल में लिप्त हैं। ये विरोधाभासी नीति समझ से परे है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम खूब कमाएं और देश के विकास में सहभागी बनें इसमें किसी को आपत्ति नहीं होना चाहिए। लेकिन उनकी कमाई जनता के शोषण का रूप न ले ये भी ध्यान रखने वाली बात है। उम्मीद है इंडियन ऑयल और उस जैसी बाकी सरकारी तेल कम्पनियां बजाय मुनाफे का रिकॉर्ड बनाने के राहत देने का कीर्तिमान भी स्थापित करेंगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 30 October 2020

फ्रांस की घटना से उठा सवाल : ऐसे में कौन इन्हें शरण देगा




फ्रांस कोरोना की दूसरी जबर्दस्त लहर से भयाक्रांत है जिस कारण वहां बड़े पैमाने पर तालाबंदी करने की स्थिति आ गई। वहीं दूसरी तरफ इस्लामी आतंकवाद ने उसकी नाक में दम कर रखा है। बीते कुछ ही दिनों में इस्लाम के नाम पर जिस तरह से गला रेतकर हत्याएं की गईं उसके बाद यूरोप का यह शक्तिशाली देश मुसीबत में फंस गया है। हाल ही के कुछ सालों में वहां इस्लामी आतंकवाद का जिस तरह फैलाव हुआ वह पूरे यूरोप के लिए चिंता का विषय है। बीते पांच साल में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा लगभग 250 लोगों का मारा जाना इस बात का प्रमाण है कि इस देश की शांति व्यवस्था को भंग करने की एक सुनियोजित साजिश चल पड़ी है। मध्य एशिया में उत्पन्न संकट के कारण जब लाखों लोग वहां से पलायन कर यूरोप के अनेक देशों में शरण हेतु पहुंचे तब वहां की सरकारों के सामने धर्मसंकट पैदा हो गया। मानवीय दृष्टिकोण के कारण आखिरकार न सिर्फ  फ्रांस बल्कि ब्रिटेन, स्वीडन, और जर्मनी आदि ने भी मध्य एशिया से आये उन शरणार्थियों को अपने यहाँ रहने की जगह दी। कुछ समय तो वे नियन्त्रण में रहे लेकिन धीरे-धीरे इस्लाम की आड़ में हिंसात्मक गतिविधियाँ देखने में आने लगीं। फ्रांस में तो लगातार इस्लामी आतंकवादी हत्याएं करते आ रहे हैं। बीते कुछ दिनों के हालात ये बताते हैं कि मजहब के नाम पर बेरहमी से कत्ल करना आम हो गया है। किसी भी धर्म और उसके महापुरुषों के अपमान का कोई भी समझदार इन्सान समर्थन नहीं करेगा। लेकिन जो भी इस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करता है उसे सजा देना कानून का काम होना चाहिए न कि किसी कट्टरपंथी का। फ्रांस की घटनाओं पर मलेशिया और ईरान के शासकों ने जो प्रतिक्रिया दी वह भी बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। किसी भी धर्म के प्रवर्तक के बारे में कोई भी आपत्तिजनक अभिव्यक्ति चाहे वह ज़ुबानी , लिखित या चित्र के रूप में ही क्यों न हो , किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकती। और फ्रांस तो शिष्टाचार के मामले में एक आदर्श माना जाता है। ईसाई बहुल होने के बावजूद उसने मध्य एशिया से आये शरणार्थियों को मानवीय संवेदनाओं के आधार पर अपने यहाँ शरण दी। लेकिन जिस तरह का व्यवहार शरणार्थियों के एक वर्ग द्वारा किया जा रहा है वह अतिथि धर्म का अपमान है। ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले ये भूल जाते हैं कि उनके वहशीपन का बुरा असर दुनिया भर में फैले इस्लाम के अनुयायियों पर होता है। इसके साथ ही शरण देने वाले देशों को भी अपने फैसले पर अफसोस होता है। फ्रांस के अलावा अन्य यूरोपीय देशों में भी इस्लामी आतंक जिस तरह से सामने आता रहा है उसके बाद भविष्य में मध्य एशिया के इस्लामी देशों से पलायन करने वालों को कोई पनाह देने से पहले सौ बार सोचेगा। इस बारे में विचारणीय बात ये भी है कि फ्रांस सहित अनेक यूरोपीय देशों में जनता के एक वर्ग द्वारा सीरिया सहित अन्य मध्य एशियाई देशों से आये शरणार्थियों का जबरदस्त विरोध किया गया था। बावजूद उसके वहां की सरकारों ने मानवीय आधार पर उन्हें अपने यहाँ रहने और बसने की सुविधा दी। लेकिन बजाय शांति के साथ समय काटने के उनमें से आतंकवादी निकलकर यहाँ-वहां खूनी नज़ारे पेश करने लगे। ऐसे लोगों की वजह से ही इस्लाम पूरी दुनिया में संदेह के घेरे में आ गया है। इस बारे में चौंकाने वाली बात ये है कि मध्य एशिया के अलावा भी अन्य इस्लामी देशों से निकलने वाले शरणार्थी गैर इस्लामिक देशों में शरण लेते समय तो दयनीय बने रहते हैं लेकिन एक बार ठिकाना मिलते ही वे हावी होने की कोशिश करने लगते हैं। भारत भी इसका भुक्तभोगी है। बांग्लादेशियों के साथ ही रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थी भी एक लाइलाज मर्ज बनकर रह गये हैं। बांग्लादेश अपने ही नागरिकों को लेने के लिए तैयार नहीं है। देखने वाली बात ये भी है कि दुनिया भर में इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए बड़ी मात्रा में धन भेजने वाले सऊदी अरब और सम्पन्नता के प्रतीक बन चुके संयुक्त अरब अमीरात ने भी सीरिया आदि से जान बचाकर निकले शरणार्थियों को अपने यहाँ बसाने में कोई रूचि नहीं ली। फ्रांस की ताजा घटनाएँ ये साबित करती हैं कि शरणार्थियों की शक्ल में ऐसे उग्रवादी भी विदेशों में शरण ले लेते हैं जिनका उद्देश्य खून बहाना मात्र है और ऐसे लोगों को इस्लाम का अनुयायी नहीं कहा जा सकता। जिन इस्लामी देशों के शासनाध्य्क्ष इस तरह की हिंसात्मक वारदातों के औचित्य को साबित करने के लिए कुतर्क देते हैं उनसे भी विश्व बिरादरी को सवाल पूछने चाहिए क्योंकि इस तरह की सोच के चलते जो शरणार्थी दुनिया भर में फैले हैं उनके सामने दोबारा विस्थापन का खतरा पैदा हो जाये तो आश्चर्य नहीं होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 29 October 2020

मतदाताओं के बड़े वर्ग को आकर्षित नहीं कर पा रहे चुनाव




बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में गत दिवस 71 सीटों के लिए लगभग 54 प्रतिशत मतदान हुआ। कोरोना के बावजूद आधे से अधिक मतदाताओं के घर से निकलने पर चुनाव  आयोग  गदगद है। राजनीतिक दल भी कमोबेश संतुष्ट हैं। इस चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंदी एनडीए (भाजपा - जनता दल यू ) तथा महागठबंधन (राजद -   कांग्रेस ) हैं । इनके अतिरिक्त जीतनराम मांझी की हम , उपेन्द्र कुशवाहा की आरएलएसपी , मुकेश साहनी की वीआईपी पार्टी  और  वामपंथी दल  अपनी पसंद के अनुसार उक्त दोनों गठबन्धनों के साथ लड़ रहे हैं। लेकिन दिल्ली में एनडीए का हिस्सा होने पर भी चिराग पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी  अलग मोर्चा खोलकर बैठी है। इसे लेकर चर्चा है कि चिराग के एकला  चलो रवैये के पीछे भाजपा की दूरगामी रणनीति है। नीतीश कुमार के बारे में ये चर्चा आम है कि उनके प्रति मतदाता उदासीन है और इस वजह से जद ( यू ) की विधायक संख्या में काफी कमी आ सकती है। वहीं भाजपा की कोशिश है कि किसी भी कीमत पर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे जिससे भविष्य में वह बड़े भाई की भूमिका में आ सके। लेकिन जबरदस्त  राजनीतिक हलचल के बाद भी बिहार जैसे राजनीतिक तौर पर जागरूक कहे जाने वाले राज्य में मतदान के प्रति इतनी उदासीनता विचारणीय है। वैसे पिछले अनेक विधानसभा और  2019  के लोकसभा चुनाव में भी इतने मतदाता ही मतदान केन्द्रों तक पहुंचे थे। इसका अर्थ यही है कि बिहार में राजनीति की चर्चा तो खूब होती है लेकिन निर्णय लेने के समय मतदाता अपेक्षित  उत्साह नहीं  दिखाते। रही बात कोरोना की तो उसका भय चूँकि बिहार के शहरों और ग्रामीण इलाकों में कहीं दिख ही नहीं रहा इसलिए उस आधार पर मतदान के प्रतिशत को संतोषजनक मान लेना उचित नहीं लगता । बीते अनेक चुनावों से बिहार का मतदान प्रतिशत इसी आंकड़े के आसपास घूमता रहा है। 2015 के  विधानसभा चुनाव में भी राजनीतिक सरगर्मी अपने चरम पर थी। लालू और नीतीश बरसों बाद एक साथ आये और बाजी मार ले गए । लेकिन तब भी मतदान का प्रतिशत 50 और 55 फीसदी के बीच ही रहा। उसके बाद लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे चर्चा में रहे । नीतीश वापिस भाजपा के खेमे में आ गये थे जिसकी वजह से एनडीए ने 40 में से 39 सीटें जीतकर अपना परचम लहरा दिया। लेकिन मतदाताओं का उत्साह इक्का - दुक्का सीटों को छोड़कर 54 - 55 फीसदी के इर्द - गिर्द ही सिमटा रहा। चूँकि विधानसभा चुनाव में मतों का बंटवारा विभिन्न पार्टियों के साथ निर्दलीयों में भी होता है इसलिए जिसकी भी सरकार बनेगी वह बमुश्किल 25 - 30 फीसदी मतदाताओं  की पसंद होगी। हालाँकि हमारे  देश की चुनाव प्रणाली में मतदान के प्रतिशत के कम या ज्यादा रहने से कोई फर्क नहीं  पड़ता , लेकिन बिहार में जिस तरह का राजनीतिक माहौल सदैव बना रहता है उसे देखते हुए वहां 75 फीसदी  मतदान तो अपेक्षित है ही। चुनाव आयोग घर - घर मतपर्चियां बांटकर पूरे देश में मतदाताओं को मतदान केंद्र तक जाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करता  है। इसके सुखद परिणाम मतदान का प्रतिशत बढ़ने के तौर पर दिखाई भी दिए किन्तु लोकसभा  चुनाव में नागपुर में 52 - 53  फीसदी मतदान हुआ। जबकि नितिन गडकरी जैसे सक्रिय और कर्मठ केन्द्रीय मंत्री वहां मैदान में थे। इसी तरह विधानसभा चुनाव में मुम्बई के मतदाताओं ने जिस तरह की उदासीनता दिखाई वह देश की  आर्थिक राजधानी के लिए शर्मनाक रही। उस दृष्टि से बिहार में गत दिवस तकरीबन 54 फीसदी मतदान को कम माने जाने पर आपत्ति की जा सकती है लेकिन ऐसा लगता है जाति और कुनबे में बंट चुके  मतदाताओं से इतर जो भी तबका है ,  उसे मतदान में कोई रूचि नहीं है। इसका एक कारण राजनीति और राजनेताओं के प्रति बढ़ती वितृष्णा  भी है। बिहार को ही लें तो जितने भी चुनाव पूर्व सर्वे वहां के आये सभी में ये बात सामने आई कि मतदाताओं का 20 से 25 फीसदी वर्ग  कोऊ नृप होय , हमें का हानि , वाली मानसिकता से प्रभावित था। हो सकता है यही वर्ग मतदान के दिन घर बैठा रहा। एनडीए और महागठबंधन दोनों के पास अपना - अपना वोट बैंक है। छोटी पार्टियों के अलावा वोट  कटवा उम्मीदवार भी 5 से 10 फीसदी मत बटोर  ले जाते हैं। लेकिन इनके अलावा मतदाताओं  का एक ऐसा वर्ग है जो राजनीतिक और जातिगत प्रतिबद्धता से पूरी तरह पृथक होने से चुनावी वायदों में अपने लिए कुछ भी नहीं पाता। उसे नीतीश कुमार के 15 साला राज से  निराशा तो है लेकिन वह लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी और उनके भाई तेजप्रताप को राज्य की बागडोर देने के प्रति भी अनिच्छुक हैं और तीसरे किसी विकल्प के अभाव में वह उदासीनता ओढ़कर घर बैठा रहा । ये कहानी चुनाव - दर - चुनाव दोहराई जाती है। इसका कारण राजनीतिक दलों का वोटबैंक के इर्द  - गिर्द ही मंडराना है। तेजस्वी ने 10 लाख नौकरियां देने का वायदा किया तो बाकी बातें गौण होकर रह गईं। उनके युवा समर्थक ये कहते सुने जा सकते हैं कि 10 न सही 5 तो देगा। वैसे तो  अन्य वायदे भी हैं लेकिन शपथ लेते ही 10 लाख  नौकरी देने का आदेश जारी करने जैसी बात बेरोजगारों को भले ही लुभा रही हो लेकिन दलीय अथवा जातीय झुकाव से परे मतदाता को  लगता है कि उसका केवल उपयोग होता है और इसी कुंठा के कारण वह लोकतंत्र के इस पर्व से दूरी बनाकर रखता है। बिहार में अभी मतदान के दो चरण और होने वाले हैं। अगर उनमें भी मतदान का आँकड़ा  इतना ही रहा तब ये मानना  गलत न होगा कि करोड़ों - अरबों फूंककर इतना हाईटेक प्रचार होने के बावजूद 45 मतदाता मतदान के प्रति इसलिए  अरुचि दिखाते हैं क्योंकि सत्ता और विपक्ष के पास उनमें उत्साह पैदा करने के लिए कुछ नहीं होता। वैसे ये स्थिति केवल बिहार की हो ऐसा नहीं है। देश के प्रधानमंत्री तक के साथ कुल मतदाताओं के 50 फीसदी से ऊपर का समर्थन नहीं होता। लोकतंत्र बहुमत के आधार पर चलता है लेकिन बहुमत भी जब अल्पमत का प्रतिनिधित्व करता हो तब उसे पूरे समाज की आवाज नहीं कहा जा सकता। हमारे देश में सरकारें चूँकि एक तिहाई मतदाताओं के बलबूते बनाई जा सकती हैं इसलिए शासक वर्ग बाकी को ठेंगे पर रखने का दुस्साहस कर  बैठता है। बिहार सदृश  राजनीतिक जाग्रति वाला राज्य यदि पिछड़ेपन का प्रतीकचिन्ह बनकर रह गया तो उसके लिए जितने वहां के राजनेता उत्तरदायी हैं उतने ही  मतदाता भी , जो चुनाव चर्चा में तो बढ़ - चढ़कर हिस्सा लेते हैं लेकिन मतदान के दिन लम्बी तानकर सो जाते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 28 October 2020

कश्मीर में भू स्वामित्व : काश ये निर्णय पहले हो पाता



वैसे तो नागालैंड और हिमाचल प्रदेश में भी किसी अन्य राज्य का नागरिक जमीन-जायजाद नहीं खरीद सकता लेकिन जम्मू कश्मीर की स्थिति कुछ अलग है। गत दिवस केंद्र सरकार ने वहाँ के भू स्वामित्व अधिनियम में बदलाव करते हुए जो नए प्रावधान किये उनके अनुसार अब वहां मकान, उद्योग, दुकान अदि के लिए भारत का कोई भी नागरिक भूमि खरीद सकेगा। लेकिन अभी भी खेती हेतु जमीनें खरीदने पर रोक रहेगी। गत वर्ष केंद्र शासित राज्य का दर्जा मिलने के बाद से इस राज्य की विशेष स्थिति को बदलने की दिशा में अनेक कदम उठाये जा चुके हैं। लेकिन इस संशोधन से जम्मू कश्मीर और शेष भारत का सम्बन्ध सही मायनों में मजबूत होगा। केंद्र सरकार इस राज्य के विकास के लिए जो ढांचा खड़ा करना चाहती है उसके लिए इस तरह के प्रावधान आवश्यक हैं अन्यथा भूस्वामित्व के बिना कोई भी वहां निवेश करने से हिचकिचायेगा। कोरोना के कारण वैश्विक निवेशक सम्मेलन नहीं हो सका, वरना अब तक वहां विकास के नये प्रकल्प शुरू हो चुके होते। सबसे बड़ी बात ये है कि शासकीय सेवा या किसी और कारण से जि़न्दगी का बड़ा हिस्सा इस राज्य में व्यतीत करने वाले दूसरे राज्यों के हजारों लोग वहां घर बनाकर रहने के अधिकार से वंचित थे। आजादी के बाद पंजाब से वाल्मीकि समाज के हजारों लोगों को इस राज्य में सरकारी नौकरी दी गई। लेकिन आज तक उन्हें न वहां की नागरिकता मिल सकी थी और न ही संपत्ति का अधिकार। गत वर्ष अनुच्छेद 370 और 35 ए हटने के बाद वे इस राज्य के नागरिक बनाए गए और मतदान करने का अधिकार भी उन्हें दिया जा रहा है। इस रोक की वजह से जम्मू कश्मीर में अलगाववाद की भावना को विकसित करने में मदद मिली। यहाँ तक कि इस सीमावर्ती राज्य की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले किसी अन्य राज्य के सैनिक के परिवारजन तक यहां बसने के लिए अपात्र थे। जहाँ तक बात हिमाचल सहित कुछ पूर्वोत्तर राज्यों की है तो वहां के हालात जम्मू-कश्मीर से सर्वथा भिन्न हैं और फिर वहां भूमि की उपलब्धता भी कम है। वैसे भी नागालैंड आदि मुख्यधारा में पूरी तरह से शामिल हो चुके हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के पहले से ही देश विरोधी भावनाओं का बीजारोपण शेख अब्दुल्ला द्वारा कर दिया गया था। दुर्भाग्य से पंडित नेहरु उनके मोहपाश में जकड़े रहे जिसका खामियाजा सात दशक तक देश को भुगतना पड़ा। बहरहाल, गत वर्ष हुए बदलाव के बाद अब जम्मू-कश्मीर को व्यवहारिक रूप से भारत के साथ जोड़ने की प्रक्रिया के अंतर्गत भूस्वामित्व अधिनियम में किया गया ताजा संशोधन एक नए युग का सूत्रपात करेगा। बहुत सारे सेवानिवृत्त फौजी भी इस राज्य में बसना चाहते हैं। केंद्र सरकार को चाहिये उनके लिए विशेष आवासीय व्यवस्था करे क्योंकि उनके वहां रहने से राष्ट्रवादी लोगों को मानसिक संबल मिलेगा। जहाँ तक बात कश्मीरी पंडितों की वापिसी की है तो वह तभी सम्भव हो सकेगी जब दूसरे समुदाय के लोग भी उनके साथ वहां बसाए जाएं। अन्यथा उनकी स्थिति पहले जैसी ही दांतों के बीच में जीभ की तरह होकर रह जायेगी। उस दृष्टि से केंद्र सरकार का संदर्भित निर्णय बहुत ही दूरगामी प्रभाव डालने वाला है और 370 तथा 35 ए हटाने का असली लाभ इसके लागू होने के बाद ही देखने मिलेगा। हालांकि ये काम उतना आसान नहीं है जितना ऊपर से लग रहा है। अलगाववादी ताकतें लोगों को बरगलाने की कोशिशें बंद कर देंगी ये सोचना तो जल्दबाजी होगी। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की प्रतिक्रिया इसका संकेत है। कुछ लोगों को ये आशंका भी है कि नये संशोधनों से वहां भूमाफिया और बड़े उद्योगपति जमीन कब्जाने का काम करने लग जायेंगे। लेकिन दूसरा पहलू ये भी है कि इस राज्य का औद्योगिक विकास अब तक इसीलिये रुका रहा क्योंकि भूस्वामित्व के अभाव में देश के बड़े उद्योगपतियों ने यहाँ निवेश में रूचि नहीं ली। दरअसल अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार चाहते भी नहीं थे कि राज्य, विशेष रूप से घाटी में औद्यगिक ढांचा खड़ा हो सके। ले देकर कश्मीर घाटी में पर्यटन ही एकमात्र पालक उद्योग है और वह भी आतंकवाद की वजह से काफी प्रभावित हुआ। इस संशोधन से अब जम्मू अंचल सहित घाटी में विकास का सूर्योदय हो सकेगा। सबसे बड़ी बात ये है कि वहां का जनसंख्या असन्तुलन भी इसके कारण दूर होगा जो कि रणनीतिक तौर पर बेहद जरूरी है। कुल मिलाकर केंद्र सरकार का ये फैसला बहुप्रतीक्षित और बहुउद्देशीय है। खेती के लिए जमीन खरीदने को इससे मुक्त रखना समझदारी भरा कदम है वहीं स्कूल , अस्पताल आदि के लिए कृषि भूमि के उपयोग परिवर्तन की सुविधा भी स्वागतयोग्य है। कोरोना संकट के बाद यहाँ निवेश की प्रचुर संभावनाएं हैं। भूस्वामित्व अधिनियम में बदलाव इस राज्य को समस्याग्रस्त से सम्भावनायुक्त बनाने में निर्णायक साबित होगा, ये उम्मीद करना बेमानी नहीं है। इसके सफलतापूर्वक लागू होने के बाद हिमाचल और नागालैंड आदि में भी ऐसे ही बदलाव किये जाने का रास्ता खुल जायेगा। काश, ऐसा फैसला यदि पहले किया जा सकता तब कश्मीर में अलगाव और आतंकवाद की जड़ें इतनी गहराई तक नहीं फ़ैल पातीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 27 October 2020

दीपावली की खरीददारी में स्थानीय छोटे व्यापारी को प्राथमिकता दें




विजयादशमी  सम्पन्न  होते ही भारत में दीपावली का माहौल बनने लगता है। इस साल कोरोना के कारण दुर्गा पूजा के दौरान पहले जैसी  रौनक नहीं रही। बंगाल जहां शारदेय नवरात्रि सबसे बड़ा लोक महोत्सव होता है , वहां भी इस वर्ष एक चौथाई भव्यता  ही रही। इसी तरह उत्तर भारत में इस दौरान होने वाली अधिकतर रामलीलाएं भी  आयोजित नहीं की जा सकी। इस सबका असर बाजार पर भी पड़ा। हालाँकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कोरोना संक्रमण बीते एक महीने से लगातार कमजोर होता जा रहा है लेकिन इसके बाद भी उसका भय देवी मंदिरों में भक्तों की कम भीड़ से प्रमाणित हो गया। भले ही कोरोना को लेकर पूर्ववत डर लोगों में नहीं रहा हो और बाजारों सहित सार्वजनिक स्थानों पर खूब चहल पहल भी  दिखाई देने लगी है लेकिन एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो कोरोना को लेकर व्यक्त की जा रही आशंकाओं के प्रति पूरी तरह से गंभीर भी है और चिन्त्तित भी। उसकी  चिंता हर दृष्टि से वाजिब  भी है क्योंकि कोरोना का चरित्र देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि एक संक्रमित व्यक्ति हजारों को ग्रसित कर सकता है। तमाम चिकित्सा विशेषज्ञ इस बात के प्रति आगाह कर चुके हैं कि आगामी वर्ष फरवरी तक कोरोना का प्रकोप भारत में रहेगा ही रहेगा  और जनवरी तक वैक्सीन आ जाने के बावजूद सभी का टीकाकरण करने में  कम से कम छह महीने लग जायेंगे। ये चेतावनी भी अधिकारिक  तौर पर दी जा रही है कि सर्दियां शुरू होते ही कोरोना के दोबारा फैलाव के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित हो जायेंगी। विशेष तौर पर अस्थमा जैसी बीमारी से ग्रसित बुजुर्ग उसकी चपेट में आ सकते हैं। इसलिये एक महीने से आ रहे  संतोषजनक आंकड़ों को कोरोना की इतिश्री मान लेना मूर्खता होगी। बेहतर यही होगा कि जीवन को पहले जैसा सामान्य बनाने के साथ ही कोरोना से बचाव के समस्त सुझाये  हुए तरीके अपनाते हुए त्यौहार मनाया  जाए जिससे कि हम खुद भी सुरक्षित रहें और दूसरों के लिये भी समस्या पैदा न करें। एक और बात जो इस मौके के लिए जरूरी है वह ये कि ज्यादा से ज्यादा खरीदी स्थानीय व्यापारी से की जाए। रोजमर्रे के काम में आने वाली  वस्तुएं मसलन किराना  वगैरह की खरीदी तो अपने निवास के  निकटतम स्थित छोटे अथवा मध्यम व्यापारी से ही किया जाना समयोचित होगा । आजकल  ऑन लाइन व्यापार तेजी से पैर पसार रहा है। मध्यम , उच्च मध्यम और उच्च वर्ग में इसकी पहुंच काफी गहराई तक जा पहुँची है। बाजार से कम दाम और घर बैठे  आपूर्ति की व्यवस्था  सामान्य उपभोक्ता के नजरिये से   देखने पर तो  फायदे  का सौदा है।  ख्ररीदी हुई वस्तु को लौटाने  की सुविधा ने भी ऑन लाइन व्यापार की प्रगति में उल्लेखनीय योगदान दिया। यद्यपि आधुनिकता के साथ व्यापार के पारम्परिक तौर - तरीके भी बदलने स्वाभाविक  हैं और उपभोक्ता अपने अधिकार और सुविधाओं के प्रति काफी सजग भी हुआ है।  लेकिन ऑन लाइन शॉपिंग को बढ़ावा देने के साथ ही हमें उस छोटे स्थानीय व्यापारी की रोजी - रोटी की चिंता भी करनी चाहिए जो हर परिस्थिति में हमारी छोटी - छोटी जरूरतें पूरी करने के लिए तैयार रहता है। कोरोना क़ाल में लॉक डाउन के दौरान जब सब कुछ बंद हो गया तब गली - मोहल्ले के छोटे - छोटे व्यापारी हमारी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहे। हालाँकि इससे उनकी आजीविका भी जुड़ी हुई थी लेकिन  जान को खतरा भी कम नहीं था। बेहतर होगा उस प्रतिबद्धता के आभार स्वरूप  इस दीपावली पर ज्यादा से ज्यादा  खरीद छोटे व्यापारी से की जाए। ऑन लाइन व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से खरीददारी करने के पहले हमें एक बार छोटे स्थानीय व्यापारी का ध्यान करना  चाहिए जो हमारी सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है। ये दीपावली भारतीय समाज के हर हिस्से के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। लगभग सात महीने के ठहराव के बाद किसी तरह देश पटरी पर लौट रहा है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि अर्थव्यवस्था के मूल आधार के प्रति समाज सम्वेदनशीलता का परिचय दे। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा वोकल फॉर लोकल का जो सूत्र दिया वह केवल स्थानीय उत्पादों को प्रोत्साहित करने तक ही सीमित न रहकर स्थानीय व्यापारी के  लिए भी है । कोरोना रूपी संकट का जिस तरह पूरे समाज ने एकजुट और अनुशासित होकर मुकाबला किया वैसा ही अब अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए भी हो और ऐसा करते समय छोटे कारोबारी का ध्यान उसी तरह  रखा जाना चाहिए जिस तरह मिट्टी से बने  दिये खरीदते समय हम उन्हें बनाने और बेचने वाले की मदद करने के भाव से प्रेरित होते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 24 October 2020

फिलहाल कश्मीर विधानसभा को भंग रखना ही बेहतर रहेगा



जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने गत दिवस कहा कि जब तक राज्य का पुराना झंडा दोबारा उन्हें नहीं मिलेगा तब तक वे तिरंगा भी नहीं थामेगीं और चुनाव भी नहीं लड़ेंगी। उन्होंने अनुच्छेद 370 की बहाली का मुद्दा भी उठाया। स्मरणीय है जम्मू कश्मीर राज्य का अलग संविधान और झंडा हुआ करता था। गत वर्ष किये गये बदलाव के बाद वह विशेष स्थिति खत्म हो गई और अलग संविधान तथा झंडा इतिहास बन गया। नई व्यवस्था के अनुसार उसे दो केंद्र शासित राज्यों में बाँट दिया गया। जम्मू और कश्मीर जहाँ एक साथ रखे गए वहीं लद्दाख को अलग कर दिया गया। मोदी सरकार के उस दांव से इस राज्य में एक नये युग की शुरुवात हो गई। हालाँकि उसके राजनीतिक परिणाम आना बाकी हैं क्योंकि विधानसभा अब तक भंग है और महबूबा, फारुख अब्दुल्ला, उमर तथा उनके अलावा लगभग सभी अलगाववाद समर्थक नेता बीते सवा साल में अधिकतर समय बंद रखे गये। महबूबा भी हाल ही में रिहा की गईं थी। उसके बाद पीडीपी के अलावा नेशनल कांफ्रेंस औए कुछ छोटे दलों ने मिलकर 370 की वापिसी के लिए संघर्ष का ऐलान किया। महबूबा ने गत दिवस जो कुछ भी कहा वह उसी की शुरुवात लगती है। लेकिन पुराने झंडे की वापिसी तक तिरंगा भी नहीं फहराए जाने की बात से साबित होता है कि वे अपनी बनाई दुनिया से बाहर नहीं निकल पा रहीं। कश्मीर में अलगावावाद की भावना पूरी तरह खत्म हो गई ये कहना सच्चाई को झुठलाना है लेकिन ये सही है कि बीते लगभग 15 महीने में वहां की जनता ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे लगता कि वह नेताओं की नजरबंदी के विरुद्ध हो। इस दौरान दर्जनों आतंकवादी मार गिराए गए लेकिन मुठभेड़ के दौरान उनके बचाव के लिए सुरक्षा बलों पर पथराव करने जैसी घटनाएँ पूरी तरह से रुक गईं। जनाजे में उमड़ने वाला जनसैलाब भी नजर नहीं आया। इसकी वजह ये रही कि केंद्र शासित हो जाने से राज्य की पुलिस और प्रशासन दोनों दिल्ली के नियन्त्रण में आ गये। फारुख , बात तो फांसी पर चढ़ जाने तक की करते हैं लेकिन बीते मार्च में पुत्र सहित रिहा होने के बाद भी 370 की बहाली के लिए किसी बड़े आन्दोलन की जमीन तैयार नहीं कर सके। महबूबा की रिहाई होने पर नेशनल कांफ्रेंस के साथ कुछ दलों की जो बैठक हुई उससे भी कोई ठोस बात सामने नहीं आई। उस बैठक में कांग्रेस की गैर मौजूदगी से ये संकेत मिला था कि वह इन पार्टियों के साथ खड़े होने से बच रही है। इसका प्रमाण गत दिवस कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष द्वारा महबूबा के तिरंगे संबंधी बयान का विरोध किये जाने से मिला। तिरंगा नहीं थामने के अलावा चुनाव नहीं लड़ने के उनके बयान पर फारुख और उमर की कोई प्रतिक्रिया नहीं आने से ये साबित होता है कि राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियां एकमत नहीं हैं। महबूबा ने पहले भी धमकी दी थी कि 370 हटाने पर घाटी के भीतर तिरंगा उठाने वाला नहीं मिलेगा। दरअसल पीडीपी के अनेक बड़े नेता पार्टी छोड़ चुके हैं और महबूबा भाजपा के साथ सरकार चलाकर अपनी धाक गंवा चुकी हैं। इसलिए चुनाव नहीं लड़ने का उनका ऐलान उंगली कटाकर शहीद होने का प्रयास लगता है। लेकिन उनका तिरंगा सम्बन्धी बयान हर दृष्टि से निंदनीय है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष ने उसकी आलोचना कर प्रशंसा योग्य कार्य किया है। बेहतर हो बाकी पार्टियाँ भी उसके विरोध में खड़ी हों। इस बारे में वामपंथी दलों की भूमिका पर भी सबकी नजर रहेगी। महबूबा की रिहाई के बाद जिन दलों की संयुक्त बैठक में 370 की बहाली के लिए संघर्ष का निर्णय हुआ था उसमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। ऐसे में उसे ये साफ़  करना चाहिए कि क्या वह महबूबा के बयान से सहमत है? वैसे भी ये पार्टी चीन समर्थक मानी जाती है जो 370 हटाये जाने के विरुद्ध संरासंघ तक में भारत विरोधी मुहिम चला चुका है। कुल मिलाकर महबूबा ने एक ऐसा मुद्दा छेड़ दिया जिसका समर्थन करने में जम्मू कश्मीर की अन्य पार्टियाँ भी दस बार सोचेंगी। राज्य का अलग झन्डा होने की बात तो अब्दुल्ला एन्ड कम्पनी भी करेगी किन्तु चुनाव नहीं लड़ने जैसा फैसला नेशनल कांफ्रेंस शायद ही करे। ये भी कह सकते हैं कि महबूबा ने 370 समर्थक पार्टियों को चुनाव प्रक्रिया से दूर रखने के लिए ये दांव चला हो। बहरहाल इतना तो है कि नेशनल कांफ्रेंस ,  पीडीपी और हुर्रियत के पास अब पहले जैसा जनसमर्थन नहीं रहा। बीते एक साल में जनता को ये लग गया है कि अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार ने सत्ता के लिए सिद्धांतविहीन समझौते करने के साथ ही भ्रष्टाचार से अकूत दौलत कमाई और केंद्र से आया हुआ अरबों-खरबों रुपया खुर्द- बुर्द कर दिया गया। वैसे बेहतर यही होगा कि जम्मू कश्मीर विधानसभा भंग ही रहने दी जाए तथा विकास के कामों में तेजी लाकर जनता को ये एहसास करवाया जाए कि अलगवावाद की बात करने वाले कश्मीर की तरक्की में सबसे बड़ा रोड़ा हैं। कुछ दिन पहले फारुख ने चीन का समर्थन लेने की बात कही थी और अब महबूबा ने तिरंगे और चुनाव के बहिष्कार का ऐलान करते हुए साबित कर दिया कि उनकी सोच कुत्ते की पूंछ समान है। कश्मीर के आम लोगों विशेष रूप से युवाओं को धीरे-धीरे ये समझाया जाना चाहिए कि 370 हटने से यदि किसी को नुकसान हुआ तो वह अब्दुल्ला और मुफ्ती खानदान के अलावा हुर्रियत के नेताओं का जिन्हें अलगाववाद की भावना बनाये रखने के लिए पाकिस्तान से समर्थन और संसाधन मिला करते थे। रही बात आम जनता की तो बीते एक साल में वह जितने शांतिपूर्ण माहौल में रही वह उसके लिए सुखद अनुभव है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 23 October 2020

मुफ्त वैक्सीन ही क्यों, मुफ्त चिकित्सा क्यों नहीं



भाजपा ने बिहार चुनाव में कोरोना वैक्सीन मुफ्त में लगाने का वायदा किया तो तमिलनाडु और मप्र भी पीछे-पीछे चल पड़े। पहले गरीबों और फिर सभी को मुफ्त में कोरोना का टीका लगाने का वायदा सुनाई देने लगा। बड़ी बात नहीं जल्द ही चारों तरफ से मुफ्त-मुफ्त की आवाजें सुनाई देने लगें। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए वैक्सीन संबंधी आश्वासन में कहा था कि वह शीघ्र ही उपलब्ध होगी और सरकार उसे लगाने की कार्यप्रणाली प्राथमिकता के आधार पर तय कर रही है। प्राप्त जानकारी के अनुसार जनवरी से भारत में कोरोना वैक्सीन उपलब्ध होने लगेगी। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन के अनुसार पूरे देश को वैक्सीन लगने में कम से कम छह महीने लग जायेंगे। सरकारी अनुमान के अनुसार अगर दीपावली के बाद दूसरी लहर नहीं आई तब आगामी वर्ष के फरवरी महीने तक कोरोना भारत से विदा हो जाएगा। और उस स्थिति में वैक्सीन को लेकर व्याप्त उत्सुकता शायद उतनी नहीं रहेगी। बहरहाल भाजपा ने इसे लेकर जो राजनीतिक पैंतरा चला उसका कितना लाभ उसे बिहार चुनाव में होगा ये तो परिणाम ही बताएँगे लेकिन इस बहाने स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर बहस की गुंजाइश तो बन ही गई। अर्थात चुनावी आश्वासनों एवं वायदों में अब वैक्सीन नामक एक नई चीज और जुड़ गई। अमेरिका जैसे विकसित देश में तो स्वास्थ्य सेवाएँ चुनावों का मुद्दा बन जाती हैं लेकिन हमारे यहाँ चुनावी वायदे और आश्वासन तात्कालिक लाभ के नजरिये से किये जाते हैं क्योंकि सरकार में आने के बाद उन्हें पूरा करने संबंधी कोई वैधानिक या नैतिक जिम्मेदारी नहीं होती। चुनाव आयोग और यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय तक राजनीतिक दलों द्वारा किये जाने वाले अव्यवहारिक चुनावी वायदों पर टीका-टिप्पणी कर चुके हैं लेकिन उनमें और बढ़ोतरी होती जा रही है। तमिलनाडु में तो टीवी, मिक्सी और यहाँ तक कि मंगलसूत्र जैसे वायदे चुनाव में हो चुके हैं। बिहार में भी अतीत में सायकिल के जवाब में मोटर सायकिल जैसे लालच मतदाताओं को दिए गए। मुफ्त बिजली और कर्ज माफी तो बतौर रामबाण चुनाव में चलाये ही जाते हैं। बेरोजगारों को नौकरी का लॉलीपाप भी चिर-परिचित पहिचान बन गया है। बिहार में तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरियाँ देने का दांव चला तो उसका मजाक उड़ाने वाली भाजपा ने उससे दोगुना आंकड़ा परोस दिया। विकास कार्यों के सपने तो जागती आँखों को दिखाए जाने में नेतागण यूँ भी सिद्धहस्त होते हैं। बहरहाल भाजपा द्वारा बिहार में सभी को कोरोना वैक्सीन बतौर मुफ्त उपहार दिए जाने के चुनावी वायदे के साथ ही पूरे देश से ये आवाज उठने लगी कि क्या बाकी राज्यों के लोगों को उसकी जरूरत नहीं है? सवाल है भी वाजिब क्योंकि कोरोना का कहर कुछ को छोड़कर सभी राज्यों पर टूटा । ऐसे में केवल चुनाव वाले राज्य में एक राष्ट्रीय पार्टी द्वारा मुफ्त वैक्सीन का वायदा स्वागतयोग्य होने के बाद भी अटपटा है। यद्यपि भाजपा के पास ये तर्क है कि प्रधानमंत्री ने देश भर के गरीबों को 5 लाख तक के मुफ्त इलाज की सुविधा तो पहले से ही दे रखी है जो उनके व्यापक दृष्टिकोण का परिचायक है । लेकिन बिहार चुनाव में मुफ्त कोरोना वैक्सीन के वायदे से तो ये एहसास निकलकर सामने आया कि अन्यथा वैक्सीन  के लिए लोगों को शुल्क देना पड़ता। अब चूँकि तमिलनाडु और मप्र की सरकार ने भी तत्संबंधी ऐलान कर दिया है इसलिए ये मान लेना गलत न होगा कि बाकी राज्य भी ऐसा ही करने को मजबूर हो जाएंगे और इसमें गलत कुछ भी नहीं है। लेकिन अब समय आ गया है जब चुनाव में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर चर्चा होना चाहिए। कोरोना काल में एक बात खुलकर सामने आ गई कि सरकारी चिकित्सा सेवा इतनी बड़ी आबादी के लिहाज से बहुत ही कम है और जितनी है भी , वह साधनहीनता का शिकार है। यही कारण रहा कि निजी क्षेत्र के चिकित्सा उद्योग को इस दौरान दोनों हाथों से लूटने का अवसर मिल गया और उसका अमानवीय चेहरा एक बार फिर उजागर हो गया। ये देखने के बाद आपदा में अवसर तलाशने की जो समझाइश श्री मोदी ने दी उस पर सबसे पहले सरकार को ही अमल करते हुए स्वस्थ भारत के नारे को वास्तविकता में बदलने का अभियान शुरू करना चाहिए। आज भी देश की बड़ी आबादी तक प्राथमिक चिकित्सा  सुविधा नहीं पहुँच सकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में जो सरकारी चिकित्सा केंद्र हैं उनकी दशा किसी से छिपी नहीं है। इस दिशा में दिल्ली की केजरीवाल सरकार द्वारा शुरू की गई मोहल्ला क्लीनिक नामक व्यवस्था एक आदर्श के रूप में अपनाई जा सकती है लेकिन दिल्ली चूँकि एक महानगर है इसलिए उस जैसा इंतजाम सुदूर इलाकों में शायद संभव न हो सके । लेकिन 21 वीं सदी के भारत में अब स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में एक महत्वाकांक्षी कार्ययोजना शुरू करने का समय आ गया है। बीमारी से लड़ने में असमर्थ देश कभी विकसित की श्रेणी में नहीं आ सकता। इस बारे में उल्लेखनीय बात ये है कि कोरोना वायरस की अधिकांश वैक्सीन भारत में ही बन रही हैं क्योंकि वैक्सीन बनाने में भारत पहले से ही दुनिया का अग्रणी देश है। लेकिन चिकित्सा सुविधाओं के मामले में ये गौरव हासिल करना अभी बाकी है। बिहार चुनाव से मुफ्त वैक्सीन का जो मुद्दा शुरू हुआ वह मुफ्त इलाज के लक्ष्य तक जब तक नहीं पहुंचता तब तक भारत कल्याणकारी राज्य की कल्पना को साकार नहीं कर सकेगा। जिस तरह घर-घर बिजली और पानी पहुंचाना सरकार की प्राथमिकताओं में है ठीक उसी तरह से अब चिकित्सा भी सभी के लिए सुलभ होनी चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे देश में शिक्षा और चिकित्सा जैसे दो सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र सरकारी उपेक्षा के कारण निजी क्षेत्र के लिए लूट खसोट का साधन बन गये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 22 October 2020

बड़े साहबों और सांसद - विधायकों के पद खाली क्यों नहीं रहते



अच्छा हुआ केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ही ये स्वीकार कर लिया कि हमारे देश में प्रति एक लाख पर मात्र 198 पुलिस कर्मी हैं जो वैश्विक अनुपात से बहुत कम हैं। इसी संदर्भ में ये जानकारी भी उजागर हो गयी कि देश भर में पुलिस के कुल स्वीकृत पद तकरीबन 26 लाख हैं जिनमें से 5 लाख से ज्यादा यानि 20 प्रतिशत खाली पड़े हैं। गृह मंत्री ने पुलिस स्मृति दिवस पर इस बात का आश्वासन दिया कि जनसँख्या के अनुपात में पुलिस बल की तैनाती शीघ्र की जायेगी। बढ़ती आबादी और शहरों के बेतरतीब विकास की वजह से नए पुलिस थानों की व्यवस्था तदनुसार नहीं हो सकी जिसका दुष्परिणाम अपराधियों के हौसले बुलंद होने के तौर पर सामने आया है। वैसे श्री शाह ने कोई नई बात नहीं कही। अपर्याप्त पुलिस बल का मुद्दा सदैव उठता रहा है। लेकिन पद स्वीकृत होने के बाद भी भर्ती नहीं किये जाने की संस्कृति के कारण सब कुछ जानते हुए भी सुधार की तरफ ध्यान नहीं दिया जाना अक्षम्य उदासीनता है। लेकिन केवल पुलिस महकमे में ही ये समस्या नहीं है। सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायधीशों के कुल मिलाकर सैकड़ों पद रिक्त पड़े होने से न्याय प्रक्रिया विलंबित होती है। उसके अलावा विवि में आचार्यों के पद बड़ी संख्या में रिक्त हैं। शालेय स्तर पर तो देश भर में लाखों शिक्षकों की भर्ती रुकी हुई है। यही हाल कार्यालयीन कर्मचारियों का है। सेना, रक्षा उत्पादन, रेलवे आदि में भी पदों की स्वीकृति के बावजूद लाखों भर्तियाँ ठन्डे बस्ते में डालकर रख दी गई हैं। लेकिन कुछ पद ऐसे हैं जिनको खाली नहीं रखा जाता। उनमें एक तो भारतीय प्रशासनिक सेवा के विभिन्न क्षेत्र मसलन आईएएस, आईपीएस, आईआरएस और इसी तरह के ऊँचे ओहदे वाले पद हैं। इनकी भर्ती केन्द्रीय लोकसेवा आयोग के माध्यम से प्रतिवर्ष बेनागा होती है तथा परिणाम भी समय पर घोषित कर प्रशिक्षण और नियुक्तियाँ भी तय समय पर की जाती हैं। लेकिन राज्यों के लोकसेवा आयोग इस मामले में फिसड्डी हैं जो आवेदन आने के बाद परीक्षा लेने में दो-तीन साल तक लगा देते हैं। फिर परिणाम और उसके बाद साक्षात्कार की प्रक्रिया भी कछुआ गति से बढ़ती है। इस कारण हजारों युवक-युवतियां दूसरे अवसरों से वंचित हो जाते है और कई तो आयु सीमा पार करने की वजह से सरकारी नौकरी के लिए अपात्र साबित होकर बेरोजगारी का दंश भोगने बाध्य होते हैं। एक और क्षेत्र ऐसा है जिसमें खालीपन नहीं रहता और वह है संसद और विधानसभा के सदस्यों के रिक्त स्थान। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार किसी सांसद या विधायक की मृत्यु या त्यागपत्र की स्थिति में छह महीने के भीतर उपचुनाव करवा लिया जाता है। मप्र में विधानसभा की 28 सीटों के चुनाव कोरोना के कारण उक्त अवधि में नहीं करवाए जा सके लेकिन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी अंतत: नवंबर तक उन्हें भर लिया जावेगा। सवाल ये है कि सरकारी पदों के लिए आवेदन भरवाए जाने के बाद चयन प्रक्रिया पूरी होने की कोई निश्चित समय सीमा क्यों नहीं है? और यदि नहीं है तब आईएएस और आईपीएस के पदों को नियमित क्यों भरा जाता है और सांसद-विधायकों के रिक्त पद भरने के लिए कोरोना जैसे संकट तक को नजरंदाज क्यों कर दिया जाता है? श्री शाह ने पुलिस और जनसँख्या का असंतुलन दूर करने की बात तो कह दी लेकिन बतौर गृह मंत्री उन्हें सभी शासकीय पदों के खालीपन को दूर करने की बात करनी चाहिए। उदारीकरण के बाद सरकारी नौकरियों में निरंतर कमी आती जा रही है। अनेक विभागों में संविदा नियुक्ति से काम चलाया जाने लगा है। शिक्षा विभाग में अतिथि शिक्षक नामक नया चलन देखने मिल रहा है। विभिन्न सरकारी उपक्रमों का विनिवेश होने से भी सरकारी नौकरियां घटती जा रही हैं। ऐसे में केवल पुलिस महकमे के खाली पद भरे जाने की बजाय समग्र चिंतन जरूरी है। शासन और प्रशासन में चुस्ती लाने के लिए जरूरी है कि रिक्त पद चाहे न्यायाधीश का हो या भृत्य का उसे भरा जाना चाहिये। इस बारे में किसी भी तरह का भेदभाव या वर्गभेद उचित नहीं है। दुर्भाग्य से अभी भी भारतीय शासन प्रणाली ब्रिटिश राज की मानसिकता से मुक्त नहीं सकी और इसीलिये केवल साहब बहादुरों और नव सामंतों की गद्दी खाली नहीं रखी जाती जबकि बाकी पदों को भरने के प्रति उपेक्षाभाव बना रहता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 21 October 2020

राहुल की आलोचना पर नाथ का जवाब नये समीकरणों का संकेत



मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ कांग्रेस के वरिष्ट नेताओं में हैं। 1980 में जब वे छिंदवाडा से लोकसभा चुनाव लड़ने आये तब उन्हें वहाँ कोई नहीं जानता था। लेकिन स्वयं इंदिरा जी ने चुनावी सभा में उनको अपना तीसरा बेटा कहकर समर्थन की अपील की जिसका जादुई असर भी हुआ। सांसद बनने के बाद श्री नाथ ने छिंदवाड़ा से अपने रिश्ते इतने प्रगाढ़ कर लिए कि लोगों को ये याद ही नहीं रहा कि वे कभी बाहरी भी थे। गांधी परिवार से निकटता का लाभ लेते हुए वे मप्र की राजनीति में एक छत्रप बनकर स्थापित हो गये। इंदिरा जी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी सत्ता में आये तब कमलनाथ की गिनती उनके ख़ासमखस में होने लगी। अपनी कार्यकुशलता और संपर्कों के बल पर वे कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में भी अपनी जगह बनाने में कामयाब हुए। केन्द्रीय मंत्री के तौर पर भी उनका काम  सराहा गया , वहीं पार्टी संगठन में उन्हें महत्वपूर्ण जवाबदारी मिलती रही। लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी मप्र का मुख्यमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा अधूरी ही थी। अंतत: 2018 में जाकर वह पूरी हुई जब कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद सपा - बसपा और निर्दलीयों का समर्थन लेकर श्री नाथ ने प्रदेश की सत्ता हासिल कर ही ली। चूँकि उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस 15 साल बाद बहुमत की देहलीज तक पहुंच सकी इसलिए सत्ता उनके हाथ चली गई जिसमें उनके करीबी दिग्विजय सिंह का भी हाथ था जिनका उद्देश्य किसी भी तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया की ताजपोशी को रोकना था। उल्लेखनीय है श्री सिंधिया कांग्रेस के चुनाव संचालक थे और भाजपा ने उन्हीं को प्रतिद्वन्दी मानकर पूरा प्रचार अभियान माफ़ करो महाराज , हमारा नेता शिवराज के नारे पर केन्द्रित रखा। ज्योतिरादित्य को भी लगता था कि राहुल गांधी से उनकी नजदीकी मददगार बनेगी किन्तु उनकी सोच गलत साबित हुई। इधर प्रदेश की सत्ता में दिग्विजय सिंह समानांतर मुख्यमंत्री की तरह से काम करने लगे। लोकसभा चुनाव में हालाँकि भोपाल सीट से उनको जबरदस्त पराजय मिली लेकिन उससे भी बड़ा चमत्कार हुआ गुना में श्री सिंधिया के हारने का और वह भी अपने पुराने सहयोगी के हाथों। इसके बाद से प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में कमलनाथ सर्वेसर्वा बनकर उभरने लगे। श्री सिंधिया को उम्मीद थी कि पार्टी हाईकमान उनको कम से कम प्रदेश अध्यक्ष का पद तो दिलवा ही देगा किन्तु श्री नाथ की मोर्चेबंदी की वजह से उनके अरमान पूरे नहीं हो सके और अंतत: वे बगावत की राह पर आगे बढ़े और मार्च खत्म होते तक कमलनाथ सरकार धराशायी हो गई। इसके लिए दिग्विजय सिंह को ज्यादा जिम्मेदार माना जाता है किन्त्तु सही बात तो ये है कि कमलनाथ की पदलिप्सा की वजह से ही कांग्रेस के हाथ आई सत्ता खिसक गई। वे यदि अध्यक्ष पद पर श्री सिंधिया को बिठाए जाने का समर्थन कर देते तब शायद उनकी सरकार बची रहती। लेकिन उसके बाद भी वे प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष पद कब्जाये हुए हैं और प्रदेश में हो रहे मिनी आम चुनाव की पूरी कमान अपने नियन्त्रण में ले रखी है। यहाँ तक कि उनके बेहद निकट कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह भी किनारे लगा दिए गए। अजय सिंह राहुल , अरुण यादव और सुरेश पचौरी जैसों का तो अता - पता ही नहीं है। श्री नाथ को उम्मीद है कि उपचुनाव के नतीजे उन्हें दोबारा सत्ता में ले आयेंगे। लेकिन बीते दिनों भाजपा प्रत्याशी इमरती देवी के बारे में की गई अशोभनीय टिप्पणी को कांग्रेसजनों ने भी पसंद नहीं किया। यहाँ तक कहा जाने लगा कि श्री नाथ ने भाजपा को बैठे बिठाये एक मुद्दा दे दिया। चुनाव आयोग ने भी उसे गम्भीरता से लिया। उल्लेखनीय है इमरती देवी कमलनाथ सरकार में भी मंत्री रहीं। उनके बारे में कही गयी बात का संज्ञान लेते हुए कांग्रेस के पूर्व और भावी अध्यक्ष राहुल गांधी ने नाराजगी व्यक्त करते हुए साफ़ - साफ़  कहा कि वे इस तरह की भाषा का समर्थन नहीं करते और जो श्री नाथ ने कहा वह दुर्भाग्यपूर्ण था। उपचुनावों के दौरान राहुल का ऐसा कहना श्री नाथ के लिए किसी तमाचे से कम न था। कांग्रेस में गांधी परिवार के किसी सदस्य द्वारा कही गयी बात को बिना प्रातिवाद के मान लेने का चलन रहा है। लेकिन हाल के कुछ घटनाक्रमों से ये महसूस किया जा सकता है कि वह परम्परा खंडित होने लगी है। कांग्रेस में  पूर्णकालिक अध्यक्ष के लिए चुनाव करवाए जाने की मांग करने वाली चिट्ठी पर तमाम वरिष्ठ नेताओं के हस्ताक्षर किये जाने से ये बात साबित हो गई कि गांधी परिवार का लिहाज टूटने लगा है। जो नेता सोनिया गांधी का नेतृत्व बेहिचक स्वीकार करते रहे वे राहुल के झंडे तले खड़े होने में असहज महसूस करने लगे हैं। इसका ताजा प्रमाण है श्री गांधी की आलोचनात्मक टिप्पणी पर कमलनाथ का माफी मांगने से साफ इंकार करते हुए ये कहना कि ये उनकी राय है। वैसे कमलनाथ सोनिया जी के काफी निकट माने जाते हैं। उनको मुख्यमंत्री बनाये जाने में प्रियंका वाड्रा की भूमिका भी थी लेकिन गत दिवस राहुल द्वारा की गई आलोचना पर उनकी उपेक्षापूर्ण प्रतिक्रिया कांग्रेस के भावी भीतरी समीकरणों का संकेत दे रही है। मप्र के उपचुनाव श्री नाथ ही नहीं बल्कि प्रदेश में कांग्रेस का भविष्य भी तय करने वाले होंगे। जैसी कि सम्भावना व्यक्त की जा रही है उसके अनुसार ले देकर शिवराज सिंह अपनी सरकार बचा ले जायेंगे और तब कांग्रेस में नये सिरे से भगदड़ मचने की आशंका मजबूत हो जायेगी। उससे भी बड़ी बात ये होगी कि सत्ता में वापिस नहीं आई तब श्री नाथ के लिए प्रदेश अध्यक्ष तो दूर नेता प्रतिपक्ष बने रहना भी कठिन हो जाएगा। कांग्रेस की समस्या ये है कि दिग्विजय और कमलनाथ दोनों उम्रदराज हो चुके हैं और ज्योतिरादित्य ने भाजपा का दामन थाम लिया है। इनके अलावा जो वरिष्ठ और युवा नेता हैं उनकी छवि और क्षमता पार्टी को दोबारा खड़ा करने लायक नहीं लगती। ऐसे में राहुल गांधी द्वारा की गई आलोचना के जवाब में कमलनाथ की प्रतिक्रिया पार्टी के भीतर आने वाले तूफान का पूर्व संकेत हो सकती है। ये राहुल जी की राय है लेकिन मैं माफी नहीं मागूंगा जैसा जवाब देकर श्री नाथ ने कौन सा सियासी दांव चला है ये देखने वाली बात होगी। लेकिन मप्र के कांग्रेसजन इस बात को लेकर परेशान होंगे कि इमरती देवी प्रकरण पर वे राहुल की अलोचना का समर्थन कर्रें या उस पर कमलनाथ के जवाब का।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 20 October 2020

20-10-62 को याद कर चीन संबंधी स्थायी नीति बने



कहने को तो 20 अक्टूबर तारीख मात्र है लेकिन स्वाधीन भारत में 58 साल पहले का 20 अक्टूबर अविस्मरणीय दिन बन गया क्योंकि उसी दिन चीन ने धोखा देते हुए लद्दाख से अरुणाचल तक की लम्बी सीमा पर हमला बोल दिया था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. नेहरु के साथ ही पूरा देश हतप्रभ रह गया। हमारी तैयारी ऐसी नहीं थी कि हम उसका सामना कर पाते। परिणामस्वरूप हमारी सेना को अकल्पनीय मुसीबतें झेलनी पड़ीं। लेकिन उसने जिस शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया वह शर्मनाक पराजय के बावजूद एक गौरवगाथा बन गई। एक महीने बाद चीन ने युद्धविराम तो कर दिया लेकिन तब तक हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि उसके कब्जे में जा चुकी थी जिसे वापिस लेने के लिए संसद में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करने के अलावा कोई प्रयास हुआ हो ऐसा कहीं से नहीं लगा। उलटे चीन कभी लद्दाख, कभी अरुणाचल तो कभी सिक्किम और भूटान से सटे इलाके को अपना बताकर दबाव बनाया करता है। अरुणाचल को तो दक्षिणी तिब्बत नाम देकर वह अपने नक्शे में दर्शाने से भी बाज नहीं आता। 1962 के बाद चीन के साथ दोबारा सीधे युद्ध की नौबत नहीं आई। लगातार शरारतपूर्ण रवैये के बावजूद चीन ने सैन्य दृष्टि से ऐसा कुछ नहीं किया जिसे युद्ध कहा जा सके। छुटपुट झड़पें तो होती रहीं लेकिन आपसी समझौते के अंतर्गत शस्त्रों के उपयोग से दोनों देश बचते रहे। बीती गर्मियों में गलवान घाटी में हुई मुठभेड़ में दोनों ओर से बड़ी संख्या में सैनिकों के हताहत होने के बावजूद एक भी गोली चलने की बात सामने नहीं आई। मार्च से ही लद्दाख अंचल में चीन ने वास्तविक नियन्त्रण रेखा की स्थिति को बदलने का दुस्साहस किया लेकिन भारत ने सैनिक और कूटनीतिक दोनों मोर्चों पर जबरदस्त चुनौती पेश करते हुए पहली बार चीन को दबाव में लाकर खड़ा कर दिया। अग्रिम सीमा तक सड़क , पुल और हवाई पट्टी के निर्माण किये जाने से भारत उन दुर्गम इलाकों में चीन को चुनौती देने में सक्षम है। हालांकि तनाव चरम तक पहुंचने के बाद भी अब तक युद्ध की नौबत नहीं आई किन्तु भारत द्वारा सियाचिन की तरह से ही लद्दाख सहित चीन से लगी समूची सीमा पर सेना के साथ ही मिसाइलें, तोपें, टैंक, लड़ाकू विमान आदि तैनात करने के अलावा उच्च क्षमतावान राडार प्रणाली भी स्थापित कर दी गई। यदि ये सब न किया जाता तब चीन 1962 जैसे हालात बनाने में कामयाब हो जाता। लेकिन 58 साल बाद चूंकि पहली बार युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हुई है इसलिए आज के दिन हमें इस बात पर आत्मावलोकन करना चाहिए कि इतने वर्षों में चीन के साथ सीमा विवाद का हल ढूढ़ने में सफलता क्यों नहीं मिली? आज भले चीन विश्व की बड़ी आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बन गया हो लेकिन दो-ढाई दशक पहले तक हम उससे अच्छी स्थिति में हुआ करते थे। परमाणु शक्ति संपन्न होने के बावजूद चीन के सामने भारत खुद को दबा-दबा क्यों महसूस करता रहा ये भी बड़ा सवाल है। पाक अधिकृत कश्मीर दोबारा हासिल करने के बारे में तो खूब बातें होती हैं लेकिन चीन के आधिपत्य में चली गई भूमि की लेकर किसी भी वैश्विक मंच पर भारत ने आज तक आवाज नहीं उठाई। बीते एक दशक में चीन से भारत में होने वाला आयात पूरी तरह से इकतरफा हो गया जिसके कारण उसको तो अनाप शनाप फायदा हुआ लेकिन भारत के लघु और मध्यम उद्योग तबाह हो गये। हालिया तनाव के बाद केंद्र सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर प्रतिबंधात्मक कदम उठाकर चीन को चुनौती देने का जो साहस दिखाया गया वैसा पहली बार सत्ता में आते ही क्यों नहीं किया ये भी विचारणीय है। आज का दिन इस बारे में ये सोचने का है कि चीन ने साम्यवादी शासन आते ही विस्तारवाद की जो दूरगामी नीति बनाई वह आज भी जारी है। लेकिन तिब्बत पर उसके बलात कब्जे को मान्यता देने जैसी गलती का खामियाजा भुगतने के बाद भी उसको लेकर हमारी कोई स्थायी सोच नहीं बन सकी और तात्कालिक आधारों पर ही कूटनीतिक रिश्ते नर्म-गर्म होते रहे। इस बारे में एक बात ध्यान रखने योग्य है कि चीन को भविष्य की महाशक्ति मानकर पं. नेहरु ने तुष्टीकरण करने के लिए पहले तो तिब्बत पर उसके कब्जे को मान्य किया और फिर वहां के धार्मिक शासक दलाई लामा को न केवल शरण दी अपितु तिब्बत की निर्वासित सरकार चलाने की छूट देकर उसे नाराज कर दिया। तिब्बत को कब्जाने के साथ ही चीन ने एक तरफ  तो नेहरु जी के संग पंचशील नामक समझौता कर हिन्दी-चीनी भाई भाई का नारा लगाया और दूसरी तरफ  सीमा संबंधी विवाद को हवा देने की शुरुवात करते हुए अंग्रेजों के ज़माने से चले आ रहे तमाम समझौतों को नकारते हुए कहना शुरू कर दिया कि भारत के साथ उसकी सीमाओं का कभी निर्धारण हुआ ही नहीं। वह तो उसी बात पर अड़ा है लेकिन भारत की तरफ  से आज तक चीन को कड़े शब्दों में ये कहने की हिम्मत नहीं हुई कि किसी भी तरह के सम्बन्ध रखने के पहले 20 अक्टूबर 1962 की स्थिति वापिस लाई जाए। चीन को ये बताने की जरूरत है कि यदि सीमा विषयक ऐतिहासिक समझौते और व्यवस्थाएं बेमानी हैं तब तिब्बत पर उसका कब्जा भी अमान्य करने योग्य है। हालिया घटनाक्रम से एक बात तो साफ हो गई कि चीन को उसी की शैली में जवाब दिया जाए तो उसकी धौंस कम हो जाती है अन्यथा वह डराने और धमकाने की चिर-परिचित नीति पर चलता रहता है। इस साल 20 अक्टूबर पर भले ही युद्ध न हो रहा हो लेकिन सीमा पर जो हालात हैं उनमें कब क्या हो जाए कहना कठिन है। और इसीलिये यही माकूल समय है जब चीन को लेकर भारत को अपनी ऐसी दूरगामी नीति बना लेनी चाहिए जिसमें शर्तें निर्धारित करने का अधिकार हमारे पास रहे। कूटनीति में एक तरफ  तो दिल मिलें न मिलें, हाथ मिलाते रहिये वाली उक्ति काफी प्रचलित है वहीं ये भी कि दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए। चीन ने बीते साठ साल में दूसरी उक्ति का भरपूर उपयोग किया, अब हमारी बारी है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 19 October 2020

थरूर में साहस था तो बलूचिस्तान और सिंध जैसे मुद्दे उठाते



कांग्रेस सांसद शशि थरूर की शैक्षणिक योग्यता और राजनयिक अनुभव पर कोई संदेह नहीं कर सकता। अच्छे लेखक और वक्ता के रूप में भी वे प्रतिष्ठित हैं। केरल की तिरुवनंतपुरम लोकसभा सीट से लगातार तीन चुनाव जीतने के बाद वरिष्ठ सांसदों में उनकी गिनती होती है । लेकिन पूर्व केन्द्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर की तरह वे भी अक्सर ऐसा कुछ कह जाते हैं जिससे उनकी फजीहत तो होती ही है लेकिन कांग्रेस पार्टी को भी मुंह छिपाना पड़ता है। ताजा वाकया श्री थरूर द्वारा लाहौर लिटरेचर फेस्टिवल में वीडियो कांफ्रेंसिंग  के जरिये दिया भाषण है जिसमें उन्होंने कोरोना प्रबंधन के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को असफल बताते हुए ये आरोप भी लगाया कि उनकी सरकार ने कोरोना के लिए तबलीगी जमात को जिम्मेदार ठहराकर धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा दिया। पूर्वोतर भारत के लोगों की शक्ल के आधार पर उनके साथ भेदभाव का सवाल भी श्री थरूर ने उठाया लेकिन उनके बयान में कोरोना की रोकथाम में भारत की तुलना में पाकिस्तान को सफल बताये जाने पर भाजपा ने जोरदार हमला बोलते हुए कांग्रेस को इस बात के लिए कठघरे में खड़ा किया कि उसके नेता विदेशी मंचों पर भी देश की छवि खराब कर रहे हैं। पार्टी प्रवक्ता संबित पात्रा ने पूर्व गृह मंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा दो दिन पूर्व जम्मू कश्मीर में धारा 370 को पुन: लागू किये जाने संबंधी बयान का भी उल्लेख करते हुए कहा कि ऐसा कहकर उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की मांग को एक तरह से समर्थन दे दिया। भाजपा प्रवक्ता द्वारा श्री थरूर के भाषण की आलोचना में राजनीति देखी जा सकती है लेकिन निष्पक्ष तौर पर देखें तो एक शत्रु देश के मंच पर देश विरोधी बात कहना श्री थरूर जैसे वैश्विक अनुभव संपन्न नेता से तो कम से कम अपेक्षित नहीं था। लाहौर लिटरेचर फेस्टिवल जयपुर की तर्ज पर आयोजित होता है। श्री थरूर बतौर लेखक उसमें शिरकत करते हुए अपनी पुस्तक या वैसे ही किसी विषय पर बात करते तो किसी को आपत्ति न हुई होती। अगर उन्होंने भारत और पाकिस्तान की साझा साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत का उल्लेख करते हुए उसे आगे बढ़ाने की बात कही होती तब उनका स्वागत हुआ होता। यहाँ तक कि अतिथि धर्म का पालन करते हुए कोरोना प्रबंधन के लिए पाकिस्तान सरकार की तारीफ  कर देते तब उसे शिष्टाचार का रूप देते हुए नजरअंदाज किया जा सकता था लेकिन उन्होंने राजनीतिक लाभ की लालसा में अपने ही देश और सरकार की आलोचना करते हुए जो मुद्दे छेड़े वे घोर आपत्तिजनक हैं। कोरोना से लड़ने में भारत सरकार का प्रदर्शन कैसा रहा ये किसी साहित्यिक समागम की विषय सूची का हिस्सा नहीं है। इसी तरह तबलीगी जमात से जुड़े विवाद और पूर्वोत्तर के लोगों के साथ भेदभाव जैसे विषय उठाने का औचित्य और आवश्यकता भी गले नहीं उतरती। श्री थरूर यदि बलूचिस्तान, सिंध और पाक अधिकृत काश्मीर में पाकिस्तान सरकार और सेना द्वारा किये जा रहे अत्याचारों का उल्लेख करते हुए मानवाधिकारों के हनन का सवाल उठा देते तो पूरा देश उनकी शान में कसीदे पढ़ रहा होता। वे इमरान सरकार द्वारा आतंकवाद को प्रश्रय दिए जाने का जिक्र करते  तब लगता कि वे भारत के सही प्रतिनिधि हैं लेकिन ऐसा करने के बजाय उन्होंने लाहौर लिटरेचर फेस्टिवल में जो कुछ कहा वह अप्रासंगिक, अनावश्यक, औचित्यहीन और राष्ट्रीय हितों के सर्वथा विरुद्ध था। उनके वक्तव्य का पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उपयोग भारत विरोधी प्रचार में करे तब श्री थरूर उसका प्रतिवाद किस मुंह से करेंगे इसका जवाब भी उनसे मांगा जाना चाहिए। बेहतर होता कांग्रेस पार्टी खुद होकर श्री थरूर के बयान की आलोचना करते हुए उनसे सवाल करती। देश की सुरक्षा और विदेश नीति के मामले में घरेलू स्तर पर चाहे जितने मतभेद हों लेकिन विदेशी मंचों पर और कम से कम चीन और पाकिस्तान से जुड़े विवादों के बारे में सभी दलों नेताओं को एक स्वर में बोलना चाहिए। उस दृष्टि से श्री थरूर ने राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध जो बयान लाहौर लिटरेचर फेस्टीवल में वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये दिया वह न केवल निंदनीय वरन आपतिजनक भी है। कहावत है होशियार कौआ भी कभी-कभार गलत जगह बैठ जाता है। श्री थरूर ने इसे चरितार्थ कर दिखाया। अक्ल का गरूर भी कभी-कभी महंगा साबित होता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 17 October 2020

मप्र उपचुनाव : सत्ता की चाहत में संस्कारों को तिलांजलि



मप्र में दो दर्जन से भी ज्यादा विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव होने जा रहे हैं। इनमें से अधिकतर कांग्रेस विधायकों के थोक में हुए दलबदल के कारण करवाने पड़ रहे हैं जबकि कुछ विधायकों के निधन के कारण। उपचुनाव होना संसदीय प्रजातंत्र में सामान्य बात है लेकिन मप्र की मौजूदा राजनीतिक स्थितियों में ये आम चुनाव जैसा रूप ले चुके हैं। बीते मार्च महीने में नाटकीय घटनाक्रम के बाद तकरीबन दो दर्जन कांग्रेस विधायकों ने बगावत कर भाजपा का दामन थाम लिया जिससे कमलनाथ सरकार गिर गई। उसके अनेक मंत्री बाद में शिवराज सरकार में मंत्री पद पा गये। समूचे घटनाक्रम के केंद्र बिंदु  पूर्व केन्द्रीय मंत्री ज्योत्तिरादित्य सिंधिया रहे जो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जुगलबंदी से कांग्रेस में मनमाफिक महत्त्व नहीं मिलने से नाराज चल रहे थे। 2019 में अपनी पारिवारिक गुना लोकसभा सीट से हारने के बाद वे अपने पुनर्स्थापन के लिए बेचैन थे। राज्यसभा में उनके जाने में भी जिस तरह दिग्विजय सिंह द्वारा टांग फंसाई जा रही थी उसके बाद से वे अपने को असुरक्षित अनुभव करने लगे और आखिर में भाजपा के साथ आ गये जो उनकी स्वर्गीया दादी राजमाता सिंधिया द्वारा पोषित पार्टी है। उनके पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया की राजनीतिक यात्रा भी भाजपा के पूर्ववर्ती जनसंघ से प्रारंभ हुई थी। ज्योतिरादित्य की बुआ वसुंधरा राजे राजस्थान में  भाजपा सरकार की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं वहीं दूसरी बुआ यशोधरा राजे मप्र की भाजपा सरकार का हिस्सा हैं। ज्योतिरादित्य अपने साथ उन 22 विधायकों को तोड़ लाये जो कांग्रेस की बजाय उनके प्रति निष्ठा रखते थे। इस प्रकार ये उपचुनाव केवल विधानसभा की खाली सीटों को भरने से ज्यादा शिवराज सरकार को बचाने और कमलनाथ सरकार को दोबारा लाने पर आकर टिक गया है। हालांकि भाजपा को सरकार बचाए रखने के लिए 10 सीटें मिल जाना भी काफी होगा लेकिन मुख्यमंत्री श्री चौहान को अपनी वजनदारी साबित करने के लिए कम से कम 20 सीटों पर विजय हासिल करनी होगी। यदि वे 8 -10 सीटें जीतकर सरकार बचाए रखने में सफल हो गये तब उनका भविष्य असुरक्षित हो जाएगा क्योंकि पार्टी हाईकमान को ये लगने लगेगा कि उनका आकर्षण पहले जैसा नहीं रहा और भविष्य में बड़ी लडाइयां जीतने के मद्देनजर प्रदेश भाजपा को किसी नए ऊर्जावान चेहरे की जरूरत होगी। यद्यपि शिवराज चुनावी राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी हैं लेकिन ये भी सही है कि 2018 में भाजपा बहुमत की दहलीज पर आकर जिस तरह रुक गयी उससे उनकी चमक कुछ फीकी पड़ी है। फिर भी दबाव कमलनाथ पर ज्यादा है क्योंकि दोबारा मुख्यमंत्री बनने के लिए कांग्रेस को कम से कम 23-24 सीटें जीतनी ही होंगी जो आसान नहीं है। हालाँकि वे जिस तरह से मेहनत कर रहे हैं उससे कांग्रेस कार्यकार्ताओं का मनोबल बहुत ऊंचा है। 15 साल बाद मिली प्रदेश की सत्ता के सस्ते में चले जाने का जो दर्द उनके मन में है उसकी वजह से वे पूरे जोश के साथ मैदान में हैं। यही वजह है कि चुनावी पंडित भाजपा की बढ़त के बारे में आश्वस्त होने के बाद भी किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी करने से बच रहे हैं। लेकिन इन उपचुनावों में प्रचार का स्तर बहुत ही घटिया होने से चिंता के कारण बन गये हैं। मप्र की राजनीति सदैव मर्यादाओं से बंधी रही और राजनीतिक मतभिन्नता के बावजूद नेताओं के बीच सौजन्यता का एहसास होता रहा। लेकिन इन उपचुनावों में जिस तरह की स्तरहीन और अवांछनीय टिप्पणियाँ सुनने में आ रही हैं उनसे लगता है कि सत्ता की लालसा अब वासना बन गई है जिसकी पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने की बेशर्मी अब सहज-सरल बन गई है। चुनावों के दौरान विपक्षी उम्मीदवार या पार्टी के बारे में आंय-बांय बकने वालों को तब कितनी शर्मिदगी झेलनी पड़ती है जब वही विरोधी उनकी पार्टी में आ जाता है। पिछले चुनाव में शिवराज सिंह , सिंधिया को अंग्रेजों का मित्र बताकर ज्योतिरादित्य को गद्दार की श्रेणी में रखने का दुस्साहस करते थे किन्तु वही उनकी सरकार बनवाने में मददगार बने। दूसरी तरफ  अब कांग्रेस इस बात को कहने में जऱा भी नहीं शर्मा रही कि गद्दारी तो सिंधिया खानदान की रगों में है। कोई शिवराज को भूखा-नंगा बता रहा है  तो कोई कमलनाथ को चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ। किसी के चेहरे को रावण जैसा बताया जा रहा है तो किसी के बारे में दूसरे अपशब्द कहे जा रहे हैं। इस प्रकार ये उपचुनाव अब तक के सबसे गंदे प्रचार का नजारा पेश कर रहे हैं जिसे  चुनाव आयोग चुपचाप देख रहा है। चुनावी राजनीति में अच्छे लोगों के न आने का उलाहना तो सभी देते हैं लेकिन जिस तरह का माहौल चुनाव के दौरान बनने लगा है वह अच्छे लोगों को किसी भी स्थिति में रास नहीं आता। मप्र की राजनीतिक छवि उप्र और बिहार की तुलना में बहुत अच्छी मानी जाती रही है लेकिन अब लगने लगा है कि इस प्रदेश में भी सता की चाहत ने संस्कारों का अन्त्तिम संस्कार कर दिया है। सिद्धांत तो पहले ही कबाड़खाने में जा चुके हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 16 October 2020

दशहरा - दीपावली में बेहद सतर्क रहना होगा



कल से नवरात्रि प्रारम्भ हो रही है | इसी के साथ भारत में त्यौहारी मौसम की शुरुवात हो जायेगी | खरीफ  फसल भी आने लगी है |  बरसात के बाद घरों की साफ़ - सफाई का काम भी रफ्तार पकड़ने लगा है | महीनों से सूने  पड़े देवी मंदिरों पर भक्तों की मौजूदगी नजर आयेगी | दीपावली महोत्सव की शुरुवात भी इसी समय से हो जाती है | दुर्गा पूजा और  दशहरा के कारण सर्वत्र चहल पहल होना स्वाभाविक है | बीते लगभग सात महीने से कोरोना के कारण भय का जो महौल बना हुआ था उसमें  कुछ हफ्तों से  कमी आई है | इसका कारण संक्रमण में गिरावट  आना है | जिस तेजी से सक्रिय मरीजों की  संख्या घट  रही है वह इसी योजना का हिस्सा है या वास्तविकता ये तो स्पष्ट नहीं है लेकिन उस कारण देश में दशहरा - दीपावली को लेकर उत्साह बढ़ा है | सरकारी तौर पर भी सार्वजनिक दुर्गा पूजा को कतिपय प्रतिबंधों  के साथ आयोजित किये जाने की अनुमति दे दी गई है | बाजारों में ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए विज्ञापनों का दौर  चल पड़ा है | केंद्र सरकार द्वारा अपने कर्मचारियों में एक लाख करोड़ रूपये बांटकर उन्हें खरीदी करने के लिए प्रेरित किया जा रहा  है  ताकि उद्योग और व्यापार दोनों को सहारा मिले और उसको राजस्व  | लेकिन कोरोना का प्रभाव कम भले हो रहा है फिर भी  ये  मान लेना भयंकर भूल होगी कि उसकी विदाई का समय आ चुका है | ऐसा कहने के पीछे न तो लोगों का मनोबल तोड़ने का उद्देश्य है और न ही त्यौहारों की खुशी में खलल डालने का , मगर ध्यान देने वाली बात ये है कि लॉक डाउन के जरिये भारत में कोरोना के फैलाव को रोकने में जो  सफलता  मिली उससे सरकार और जनता दोनों अति उत्साह में आ गये और लॉक  डाउन में ढील दे दी गई | जब पहली बार शराब की दुकानें खोली गईं तो पीने के शौकीनों ने सारे नियंत्रणों को धता बाते हुए व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दीं | वह एक तरह का संकेत था लोगों  के स्वभाव और व्यवहार का | लेकिन अर्थव्यवस्था के दबाव के कारण सरकार को भी मजबूर हो जाना पड़ा | बहरहाल जिस दिन से लॉक डाउन हटा उसी के बाद से कोरोना का संक्रमण सुरसा के मुंह की तरह फैलता चला गया और सितम्बर का आखिरी  हफ्ता आते - आते तक एक लाख से ज्यादा नए कोरोना  मरीज  प्रतिदिन की  औसत से निकलने लगे | इसकी वजह से शासकीय चिकित्सा  व्यवस्था चरमरा गई | जिसका लाभ उठाते हुए निजी अस्पतालों ने मरीजों का जमकर शोषण किया | बहरहाल बीते तीन सप्ताह से संक्रमण पर काफी नियन्त्रण होता दिखाई दिया है और जो आंकड़े आ रहे हैं उनके अनुसार रोजाना  स्वस्थ होने वाले मरीज नये संक्रमितों की तुलना में ज्यादा होने से ऐसा माना  जाने लगा है कि भारत में अब कोरोना का ढलान शुरू हो गया है और  बड़ी बात नहीं यदि नवंबर खत्म होते तक वह पूरी तरह से खत्म हो जाए | सरकारी  दावों के अनुसार जनवरी 2021 से कोरोना की वैक्सीन भारत में उपलब्ध हो जायेगी | लेकिन यूरोप के दो अति विकसित देश फ़्रांस और जर्मनी के ताजा हालात भारत के लिए चेतावनी हैं | इन दोनों ने कोरोना  पर काफ़ी हद तक काबू  पा लिया था जिसके बाद वहां  जनजीवन पूरी तरह सामान्य होने लगा | सीमित जनसंख्या के अलावा इन देशों की स्वास्थ्य सेवाएं भी उच्चस्तरीय हैं और हर व्यक्ति के पास चिकित्सा बीमा जैसी सुविधा भी होती है | उस दृष्टि से भारत काफी पीछे है | हालांकि कोरोना काल में हमारे यहाँ  भी चिकित्सा सुविधाओं का काफी विकास होने के साथ ही  जांच का काम भी तेज हुआ लेकिन फ़्रांस और जर्मनी से तुलना करने पर हमारी कमियां खुलकर सामने आ जायेंगी | चिकित्सा बीमा सुविधा से भी आबादी का बड़ा वर्ग वंचित ही है | उक्त  दोनों देशों में अचानक कोरोना ने दोबारा हमला किया और देखते ही देखते स्थिति कर्फ्यू लगाने तक आ पहुँची | फ़्रांस और जर्मनी दोनों इसकी  वजह से सकते में हैं | जबकि वहां कोरोना से सम्बन्धित सावधानियों का पालन करने के प्रति लोगों में काफी जागरूकता है और सार्वजनिक आचरण  भी काफी  अनुशासित होता है | इसके विपरीत भारत में हालात काफी उलट  हैं | घनी आबादी , बेतरतीब बसाहट , सर्वत्र भीड़ , धक्का - मुक्की और नियमों के पालन के प्रति लापरवाही युक्त हेकड़ी हमारी पहिचान है | ऐसे में नवरात्रि से प्रारम्भ हो रहे त्यौहारी मौसम में कोरोना से बचाव के प्रति थोड़ी  सी भी असावधानी  संक्रमण को महामारी में बदल सकती है जिससे  सौभाग्यवश अभी तक भारत बचा रहा | अनेक चिकित्सा विशेषज्ञ भी इसे लेकर सतर्क कर रहे हैं | दुर्गा पूजा के दौरान बंगाल सहित समूचे पूर्वी  भारत में जबर्दस्त उत्साह रहता है | इसीलिये इस बात का भय जताया जा रहा है  कि नवरात्रि के बाद बंगाल में कोरोना सुनामी बनकर कहर ढा सकता है | ऐसी ही आशंका देश के अन्य हिस्सों में भी बनी हुई है | अर्थव्यवस्था और सरकार की अपनी - अपनी मजबूरियां हैं, लेकिन आम जनता को  भी अपनी और अपनों की जान की हिफाजत के लिए पूरी तरह सावधान रहना होगा | त्यौहार मनाते  समय अपनी खुशी और जोश को नियन्त्रण में रखना समय की मांग है | दुर्गा पूजा से लक्ष्मी पूजा तक का समय इस दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील रहेगा | इस दौरान बरती गयी जरा सी लापरवाही रंग में भंग न कर दे ये देखना हर जिम्मेदार नागरिक का दायित्व है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 15 October 2020

कश्मीर : अब्दुल्ला और मुफ़्ती मिलकर भी मनमानी नहीं कर सकेंगे



जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला द्वारा हाल ही में अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाने के लिए चीन का समर्थन लेने संबंधी बयान की गूँज कम हुई नहीं थी कि कल पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को एक वर्ष से ज्यादा की नजरबंदी के बाद रिहा कर दिया गया।  फारुख और उनके बेटे उमर को पहले ही रिहाई दी जा चुकी थी। महबूबा के रिहा होते ही अब्दुल्ला पिता-पुत्र उनकी मिजाजपुर्सी करने पहुंचे और उसके बाद आये बयान के अनुसार नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के अलावा राज्य की उन तीन पार्टियों के साथ संयुक्त रणनीति बनाने हेतु आज बैठक की जा रही है जिन्होंने गत वर्ष जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाये जाने के विरुद्ध मैदानी संघर्ष करने के लिए एकजुट होने के समझौते पर हस्ताक्षर किये थे।  इनमें माकपा , जम्मू कश्मीर पीपुल्स कांफ्रेंस और जम्मू कश्मीर अवामी नेशनल कांफ्रेंस शामिल हैं।  लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि बैठक में कांग्रेस को बुलाने संबंधी कोई जानकारी नहीं है जो कि 370 और 35 ए हटाये जाने की विरोधी है।  इसकी वजह गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस हाईकमान से रिश्ते बिगड़ जाना भी हो सकता है। अलगाववाद समर्थक हुर्रियत कांफ्रेंस चूँकि चुनावी प्रक्रिया से दूर ही रहती है इसलिए वह भी इस जमावड़े से अलग रहेगी। लेकिन सबसे बड़ा पेंच है नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के गठबंधन में स्थायित्व का क्योंकि अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के बीच सांप और नेवले जैसी शत्रुता रही है। आगामी विधानसभा चुनाव के समय सीटों के बंटवारे तक क्या दोनों साथ रह सकेंगे ये बड़ा सवाल है। वैसे सीमित प्रभाव के बावजूद कश्मीर घाटी में कांग्रेस ही राष्ट्रीय दल के तौर पर उपस्थिति दर्ज करवाने लायक है। भाजपा वहां हाथ-पाँव मार जरुर रही है परन्तु अब तक उसे खास सफलता नहीं मिल सकी है। ग्राम पंचायतों को सीधे पैसा देकर पंच-सरपंचों को खुश करने की रणनीति भी बहुत कारगर नहीं रही। उस दृष्टि से ये देखने वाली बात होगी कि राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने से भाजपा को क्या हासिल होगा? हालाँकि जम्मू अंचल में वह पहले से मजबूत हुई है लेकिन अभी भी विधानसभा के शक्ति संतुलन में घाटी का पलड़ा भारी है। भाजपा की परेशानी ये भी है कि घाटी की कोई भी बड़ी पार्टी उससे गठबंधन नहीं करेगी।  महबूबा तो भाजपा से मिले झटके को शायद ही कभी भूल सकेंगी।  अब्दुल्ला परिवार के साथ भाजपा की नजदीकियां बढ़ने की अटकलें तब जरूर तेज हुई थीं जब बीते मार्च में फारुख और उमर दोनों को रिहा किया गया लेकिन भाजपा उनसे हाथ मिलाने के बारे में सोचेगी तो वह उसके लिए आत्मघाती होगा।  स्मरणीय है 2014 में जम्मू कश्मीर में भाजपा ने पीडीपी के साथ सरकार बनाई तब वह फैसला उसके अपने समर्थकों के गले ही नहीं उतरा था।  बाद में जरूर भाजपा ने उस रणनीति के दूरगामी प्रभाव से देश को परिचित करवाया लेकिन 370 और 35 ए नहीं हटाये जाते तब वह मुंह दिखाने लायक भी नहीं बचती। आज वह जम्मू के बल पर एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरने की स्थिति में है लेकिन घाटी में जब तक उसे अपने लिए कोई सहयोगी नहीं मिलता तब तक राज्य में सरकार बनाने की उसकी महत्वाकांक्षा पूरी होने में संदेह है।  मनोज सिन्हा को वहां का उपराज्यपाल बनाये जाते ही ये तय हो गया था कि केंद्र चुनी हुई विधानसभा के लिए रास्ता साफ़ करने की सोच रहा है।  महबूबा की रिहाई भी उसी का परिणाम है।  देखना ये है कि कांग्रेस की आगामी भूमिका क्या होगी क्योंकि वह जम्मू क्षेत्र में भी कुछ प्रभाव रखती है।  लेकिन 370 और 35 ए की वापिसी जैसी मांग उसके लिए हानिकारक हो सकती है। हालांकि अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में उमर अब्दुल्ला राज्यमंत्री भी रहे किन्तु उसके बाद नेशनल कांफ्रेंस के साथ भाजपा की दूरी बढ़ती गई और पीडीपी के साथ सरकार बनाने के बाद तो और भी ज्यादा। लेकिन भाजपा की उस चाल से पीडीपी की जड़ें घाटी में कमजोर हो गईं।  पिछले चुनाव तक मुफ्ती मोहम्मद सईद जि़ंदा थे । लेकिन उनके न रहने के बाद महबूबा बहुत कमजोर हो गईं। वैसे तो अब्दुल्ला परिवार भी पहले जैसी साख और धाक नहीं रखता लेकिन अभी भी घाटी में मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति के पाँव जम नहीं सके और यही मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। उस दृष्टि से नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी द्वारा कुछ और दलों के साथ की जा रही मोर्चेबंदी पर सभी की निगाहें रहेंगी और इस पर भी कि वे कांग्रेस को कितनी जगह देती हैं। वैसे अब्दुल्ला और मुफ्ती का एक साथ चलना आसान नहीं होगा क्योंकि दोनों ही कश्मीर की सियासत के सबसे बड़े ठेकेदार बने रहने बेताब हैं।  फारुख उम्रदराज हो चले हैं और उनकी हसरत अपने बेटे उमर को मजबूती से स्थापित करने की है। वहीं महबूबा अकेली पड़ चुकी हैं और पीडीपी के अनेक नेता पार्टी छोड़ चुके है। बीते सवा साल में केंद्र सरकार ने घाटी के भीतर आतंकवाद की जड़ें खोदने की दिशा में सराहनीय काम किया है। अलगाववादियों को भी सख्ती से ये समझा दिया गया है कि उन्हें पहले जैसी स्वछंदता नहीं मिलेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि फारुख और महबूबा सहित घाटी का हर शख्स जान चुका है कि 370 और 35 ए की वापिसी अब असंभव है। केंद्र शासित होने से जम्मू कश्मीर की विधानसभा दिल्ली की तरह केंद्र सरकार के मातहत रहेगी और ऐसे में अब्दुल्ला और महबूबा मिलकर सत्ता हासिल कर लेते हैं तब भी वे स्वेच्छाचारी नहीं हो सकेंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 13 October 2020

ऐसी ही मेहरबानी उद्योग - व्यापार पर भी हो जाये तो बात बन जाए



कोई कुछ दे तो उसके प्रति आभार व्यक्त करना सौजन्यता का तकाजा है | लेकिन गत दिवस  वितमंत्री निर्मला सीतारमण ने केन्द्रीय कर्मचारियों  के लिए जो राहत पैकेज घोषित किया उससे किसे राहत मिलेगी ये विश्लेषण का विषय है | इसमें लीव ट्रेवल कन्सेशन की राशि के अलावा त्यौहारी अग्रिम की राशि भी शामिल है | इनमें पहली तो कर्मचारी को एक तरह से उपहार में दी गई है जबकि दूसरी किश्त्तों में  लौटाना होगी | इसमें भी रोचक बात ये है कि लीव ट्रेवल कन्सेशन की जो रकम दी जायेगी उससे कर्मचारी को 31 मार्च 2021 के पूर्व  ऐसी वस्तुएं खरीदकर उनकी रसीद पेश करनी होगी जिन पर 12 फीसदी से ज्यादा जीएसटी दिया गया हो | इसी तरह 10 हजार का त्यौहारी अग्रिम रुपे कार्ड में दिया जायेगा जिसे लौटाना तो 10 मासिक किश्तों में होगा लेकिन उस राशि  को भी आगामी वर्ष 31 मार्च तक खरीदी के तौर इस्तेमाल करना पड़ेगा | केंद्र सरकार का मानना है कि इससे एक तरफ तो कर्मचारी वर्ग खुश होगा क्योंकि दीपावली पर उसके हाथ में खर्च करने के लिए पैसा आयेगा और दूसरी तरफ बाजार में मांग बढ़ने  से उद्योग व्यापार में जान आने के साथ ही सरकार के खाते में जीएसटी के रूप में राजस्व आयेगा | सतही तौर पर देखने पर तो सरकार का फैसला समयानुकूल लगता है | निश्चित रूप से इसकी वजह से जैसा अनुमान है  लगभग 1 लाख करोड़ की राशि बाजार में आने से कारोबारी जगत को कुछ सहारा मिलेगा | कर्मचारी के पास त्यौहार में खुशियाँ मनाने के लिए नगद  रकम होगी और अन्ततः सरकारी खजाने में भी आवक होगी | लेकिन इसमें बिना ब्याज वाले त्यौहारी अग्रिम  को लेकर तो कोई परेशानी नहीं है क्योंकि ये पहले भी दिया जाता रहा किन्तु लीव ट्रेवल कंसेशन का नगदीकरण करते हुए उस राशि से अगले साल  मार्च तक अनिवार्य रूप से खरीदी करने का जो प्रावधान किया गया उसकी बजाय सरकार उतनी मेहरबानी  उद्योग  - व्यापार जगत पर  बतौर राहत कर दे तो उसका दूरगामी लाभ देश और अर्थव्यवस्था को मिलेगा | मसलन लॉक डाउन के दौरान बिजली बिलों के भुगतान में अब तक किसी भी प्रकार की राहत नहीं दी गयी | लघु और मध्यम श्रेणी के व्यापारी और उद्योगपति को कोरोना काल में जो आर्थिक क्षति हुई उसकी भरपाई नहीं होने से अब तक उद्योग और व्यवसाय पटरी पर नहीं लौट सका | इसके कारण सरकार को मिलने वाला कर तो घटा ही लेकिन रोजगार में वृद्धि के अवसर भी उत्पन्न नहीं हो पा रहे हैं | उल्लेखनीय है केंद्र और राज्य सरकारें कर्मचारियों और किसानों के लिए तो काफी कुछ कर रही हैं  लेकिन उद्योग और व्यापार के लिए जितने भी पैकेज घोषित हुए उनमें सीधी राहत नहीं दिए जाने से अब तक उसके अपेक्षित परिणाम नहीं आये हैं | खरीददार के हाथ में नगदी होने से वह बाजार में आकर उसे खर्च करता है जिससे अर्थव्यवस्था गतिशील होने से एक तरफ जहां सरकार को राजस्व मिलता है वहीं श्रम शक्ति को भी रोजगार के रूप में आजीविका का साधन मिल जाता है | मौजूदा स्थिति में छोटी और मध्यम  श्रेणी की  लाखों औद्योगिक और व्यापारिक इकाइयां पूंजी के अभाव में घुटनों के बल चलने की स्थिति में हैं | उनके लिए सरकार ने  ऋण की व्यवस्था तो की है लेकिन पहले से कर्ज में डूबे तबके पर नए कर्ज का बोझ समझ से परे हैं | उस दृष्टि से केंद्र सरकार द्वारा गत दिवस घोषित राहत पैकेज कर्मचारियों को भले ही प्रसन्न कर  दे जिसका लाभ बिहार सहित देश में अनेक राज्यों में  होने जा रहे उपचुनावों में भाजपा  को हो जाये लेकिन इससे अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने का उद्देश्य अधूरा रहेगा | बेहतर हो केंद्र सरकार दीपावली के त्यौहारी सीजन के पहले उद्योग व्यापार जगत के लिए भी ऐसी  राहत का ऐलान  करे जिससे कि वे उधार नामक  बैसाखी के बिना अपने पैरों पर खड़े हो सकें |  सरकार को ये बात अच्छी तरह से समझनी चाहिए कि अर्थव्यवस्था तब तक पूरी तरह गतिशील नहीं हो सकेगी जब तक उसे मौजूदा संकट से निकालने के लिए सरकार उदारता नहीं दिखाती | यूँ भी मोदी सरकार पर ये आरोप लगा करता है कि वह उद्योग व्यापार को जितना देती उससे ज्यादा वसूल लेती है | यदि उसका ये नजरिया नहीं बदला तो सकल घरेलू उत्पादन की गिरावट रिजर्व बैंक के अनुमानों से भी ज्यादा हो जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 12 October 2020

बाजार और त्यौहार में फंसे आँकड़े : आशावाद से बचें



कोरोना को लेकर पिछले दो सप्ताह से आशाजनक खबरें आ रही हैं। नये संक्रमण घट रहे हैं और ठीक होने वालों की संख्या  निरंतर बढ़ती जा रही है। इस कारण मनोवैज्ञानिक तौर पर भी राहत दिख रही है। अगले सप्ताह से भारत में त्यौहारी मौसम की शुरुवात हो जायेगी जिसका सीधा सम्बन्ध अर्थव्यवस्था से है। बीते छह महीने में जनजीवन के साथ ही उद्योग-व्यापार भी अस्त व्यस्त होकर रह गये। दो महीने तो पूरी तरह लॉक डाउन रहा किन्तु उसके बाद जब ढिलाई दी गई तब कोरोना संक्रमण जिस तेजी से बढ़ा उससे सब कुछ खुला होने और बाजारों में भीड़ के बाद भी वह उत्साह नजर नहीं आया जो अपेक्षित और आवश्यक था। यद्यपि लगातार सुधार के संकेत मिल रहे हैं लेकिन जमीनी सच्चाई ये है कि न सिर्फ  मध्यम अपितु उच्च आय वर्ग में भी एक अदृश्य भय सा समा गया जिसके कारण वह अपने खर्चों में कमी करने को बाध्य हुआ। हालाँकि कुछ व्यवसायों में मांग आश्चर्यजनक तौर पर बढ़ी किन्तु समग्र तौर पर देखने पर ये महसूस हुआ कि अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान से उबरने में लम्बा समय लगेगा। दो दिन पूर्व रिजर्व बैंक ने भी माना कि कारोबारी हालात लगातार सकारात्मक संकेत दे रहे हैं फिर भी वर्तमान  वित्तीय वर्ष में सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में 9 प्रतिशत से भी ज्यादा कमी आयेगी। इसका अर्थ ये हुआ कि दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था कम से कम पांच साल पीछे चली गयी। लेकिन ये विश्वव्यापी परिदृश्य है। माना जा रहा है कि केवल चीन को छोड़कर बाकी सभी देशों की अर्थव्यवस्था में गिरावट परिलक्षित होगी। उस दृष्टि से भारत का प्रदर्शन बहुत बुरा नहीं कहा जा सकता। यदि अभी तक भारत में कोरोना से होने वाली मौतें वैश्विक स्तर से काफी कम हैं तो उसका कारण लॉक डाउन की शुरुवाती सख्ती भी थी जिसके लिए केंद्र सरकार को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा। लेकिन बीते कुछ दिनों से आ रहे सुखद संकेतों से बेफिक्र होना आत्मघाती होगा क्योंकि जांच की संख्या को लेकर संदेहास्पद स्थिति बनी हुई है। ये भी कहा जाने लगा है कि अगस्त और सितम्बर में कोरोना संक्रमण में जिस तरह उछाल आया उसकी वजह से सरकारी अस्पतालों की क्षमता जवाब देने लगी और  निजी अस्पताल वालों को लूटमार का अवसर मिल गया। जिसके पास नगद रहित चिकित्सा बीमा जैसी सुरक्षा थी उससे भी निजी अस्पतालों ने जबरन अग्रिम राशि जमा करवाई। इस वजह से डर और घबराहट फैली। लेकिन बीते दो  हफ्ते इस लिहाज से काफी राहत भरे रहे। सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की उपलब्धता के कारण निजी क्षेत्र के अस्पताल अपनी दरें घटाने मजबूर हो गये। लेकिन कुछ ऐसी बातें भी सुनने में आई हैं जिनके कारण कान खड़े हो जाते हैं। पहली तो ये कि त्यौहारी मौसम उद्योग-व्यापार जगत के लिए मददगार रहे इसलिए सुनियोजित तरीके से कोरोना संक्रमण के आंकड़ों में कमी प्रचारित की जा रही है। इसके लिए जांच में कमी किये जाने के  दावे भी कतिपय सूत्र कर रहे हैं। हालांकि ये भी सुनने में आ रहा है कि शीघ्र ही सस्ती जांच किट सरकार के पास आ जायेगी जिसके बाद जाँच कार्य फिर से तेज किया जावेगा। इसी बीच दो विरोधाभासी आकलन भी सामने आये हैं। जिनमें एक के मुताबिक तो नवंबर महीने में देश हर्ड इम्युनिटी की स्थिति में आ जायेगा। अर्थात आधे से ज्यादा लोगों में कोरोना की एंटीबॉडी विकसित होने से यह संक्रमण शिथिल पड़ता जाएगा। लेकिन दूसरी तरफ  ये आशंका भी  है कि नवम्बर में सर्दियां शुरू होते ही कोरोना दोबारा हमला करेगा। ऐसा कहने वाले उन देशों का उदाहरण दे रहे हैं जिनमें कोरोना को खत्म मानकर लोग निश्चिन्त हो गये थे। लेकिन कुछ समय बाद कोरोना दोगुनी ताकत से लौटा तब जाकर उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। ऐसे में भारत में इस संक्रमण को लेकर जिस तरह का आशावाद बीते कुछ दिनों से फैलाया जा रहा है उसके कारण यदि सावधानी न रखी गई तो वह प्राणलेवा हो सकती है। भारतीय परिस्थितियों में हर्ड इम्युनिटी को लेकर कोई अधिकृत दावा किया जाना खतरे से खाली नहीं होगा। दिल्ली उसका खामियाजा भुगत चुकी है। ऐसे में आने वाला समय बहुत ही नाजुक होगा। बाजार, त्यौहार और सरकार इन तीनों के बीच फंसी आंकड़ेबाजी अपनी जगह है लेकिन अपनी जान की रक्षा करना हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है और उसके लिए अपुष्ट दावों और अनधिकृत बातों के प्रति अतिरिक्त सावधानी रखनी चाहिए। दीपावली के पहले देश भर में साफ़ -सफाई का दौर चलने से करोड़ों टन कूड़ा-कचरा घरों से निकलता है और मौसम भी बदलता है। वहीं दीपवली के अवसर पर सर्वोच्च न्यायालय के सख्त निर्देशों के बाद भी जमकर आतिशबाजी होने से वायु प्रदूषण चरम पर जा पहुंचता है जिससे साँस के मरीजों को खतरा बढ़ जाता है। शायद इसी आधार पर नवंबर में कोरोना के फिर जोर पकड़ने का अंदेशा बताया जा रहा है। इसलिए उससे बचाव के समस्त तौर-तरीके बिना किसी गफलत में पड़े अमल में लाये जाने चाहिए क्योंकि अब तक के अधिकांश आशावादी अनुमान झमेले में पड़ चुके हैं। वैक्सीन के आने की तारीखें आगे खिसकते जाना इसका सबसे अच्छा प्रमाण है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 10 October 2020

अपराध में जाति ढूंढ़ना भी तो अपराध है



हाथरस में दलित युवती के साथ सवर्ण जाति के लोगों द्वारा दुष्कर्म और ह्त्या का बवाल अभी थमा नही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा का पीड़िता के गाँव जाकर उससे मिलना बड़ी राजनीतिक घटना बन गई जिसे उप्र में कांग्रेस के पुनरोदय के तौर पर देखा जाने लगा वहीं भाजपा इस प्रकरण को लेकर रक्षात्मक होने मजबूर हुई। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर सवर्णों विशेष रूप से अपने सजातीय ठाकुरों को संरक्षण देने जैसे आरोप भी लगे। वारदात के हफ्तों बाद भी संबंधित गाँव में तनाव है और जातिगत वैमनस्य की भावना खुलकर सामने आई है। लेकिन गत दिवस राजस्थान में एक ऐसी घटना हो गई जिसमें दलित समुदाय में आने वाली मीणा जाति के व्यक्ति ने मंदिर की जमीन कब्जाने के लिए ब्राह्मण पुजारी की हत्या कर दी। इसके बाद भाजपा को अवसर मिल गया कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार से इस्तीफा मांगने और राहुल-प्रियंका पर तंज कसने का। हो सकता है वे दोनों राजस्थान आकर पुजारी के परिवार से मिलकर सांत्वना दें तथा मुख्यमंत्री श्री गहलोत पर उसके परिवार को मदद देने का दबाव डालें लेकिन इसके बाद भी भाजपा के साथ सवर्ण जातियों को भी हमलावर होने का अवसर मिल गया। राजस्थान के मुख्यमंत्री चूंकि पिछड़े वर्ग से आते हैं इसलिए उन्हें इस प्रकरण में बेहद सावधानी बरतनी होगी। लेकिन सवाल ये है कि क्या हाथरस की घटना को लेकर दलित वर्ग के उत्पीड़न पर राजनेताओं द्वारा व्यक्त किया गया गुस्सा राजस्थान के एक ब्राह्मण पुजारी की नृशंस हत्या के विरोध में भी सामने आएगा? लेकिन उससे भी बड़ा सवाल ये है कि आजादी के 73 साल बाद भी समाज को जाति के नाम पर बांटने का खेल रुक क्यों नहीं रहा? जब छुआछूत को कानूनी रूप से खत्म कर दिया गया और सामाजिक समरसता के प्रति सभी राजनीतिक पार्टियाँ समान रूप से प्रतिबद्ध हैं तब किसी अप्रिय घटना या अपराध को जातिगत आधार पर देखने का नजरिया क्या जाति के नाम पर समाज को टुकड़े-टुकड़े करने जैसा अपराध नहीं है ? अपराध चाहे उप्र में हो या राजस्थान अथवा किसी अन्य राज्य में और अपराधी किसी भी जाति का क्यों न हो उसके प्रति राजनीतिक बिरादरी की सोच एक समान होनी चाहिए। संवैधानिक व्यवस्था में किसी को भी जातिगत आधार पर किसी भी तरह का विशेषाधिकार नहीं है। दंड प्रक्रिया भी अपराधी को दण्डित करते समय उसकी जाति नहीं देखती। एक सवर्ण को भी किसी जुर्म के लिए दी जाने वाली सजा वैसे ही कृत्य के लिए एक दलित या पिछड़े वर्ग के अपराधी को मिलने वाले दंड से कम नहीं होती। लेकिन राजनेता इस सबसे अलग हटकर केवल और केवल वोटों की फसल काटने की फिराक में रहा करते हैं। और इसीलिये जो राहुल और प्रियंका ने उप्र जाकर किया वही वसुंधरा राजे और उनके साथी राजस्थान में करेंगे। उप्र में दलितों को असुरक्षित बताने वाली कांग्रेस क्या राजस्थान में सवर्णों की सुरक्षा को खतरे में मानकर वैसा ही बवाल मचाएगी? लेकिन सभी जानते हैं कि ऐसी प्रत्येक घटना के प्रति राजनेताओं की संवेदनशीलता अगली बड़ी वारदात तक ही कायम रहती है। मसलन बुलंदशहर में कांग्रेस आक्रामक थी वहीं राजस्थन के करौली में पुजारी की हत्या के बाद अब भाजपा जवाबी हमला कर रही है। वसुन्धरा राजे सहित अन्य नेतागण वारदात वाले इलाके में लाव-लश्कर के साथ पहुंचेगे और राज्य सरकार उन पर माहौल खराब करने का आरोप लगाते हुए प्रतिबंधात्मक कदम उठायेगी। कहने का आशय यही है कि जब और जहां भी हत्या और बलात्कार जैसे अपराध होते हैं वहां राजनीति के सौदागर अपनी दूकान खोलकर बैठ जाते हैं और शुरू हो जाता है जाति के नाम पर जहर फैलाने का चिर परिचित खेल। जाति तोड़ो का नारा तो न जाने कब का अर्थहीन होकर रह गया और बीते कुछ दशकों में भारतीय राजनीति ही नहीं प्रशासनिक ढांचे के साथ ही न्यायपालिका में भी जाति के वायरस देखे जा सकते हैं। चुनाव में कहने को सभी पार्टियाँ विकास पर केन्द्रित घोषणा या संकल्प पत्र प्रस्तुत करती हैं लेकिन प्रत्याशी चयन से लेकर समूचा चुनाव अभियान अंतत: जातिगत मुद्दों पर आकर सिमट जाया करता है। और यही वजह है कि अपराध होने के बाद बजाय अपराधी को पकड़कर दण्डित करने के जाति नामक बिसात बिछाकर सियासत के शकुनि अपने पांसे चलने लगते हैं। इसी कारण अपराध कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं। उप्र के बुलंदशहर में हुई वारदात में आरोपी की पीड़िता और उसके भाई के साथ फोन पर बातचीत होते रहने के प्रमाण सामने आये हैं। लेकिन घटना के बाद गाँव में जातिगत दीवारें और ऊँची हो गईं। अब ऐसा ही कुछ राजस्थान में हुई घटना के बाद दोहराया जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। ये देश का दुर्भाग्य है कि विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने के बाद खुद को आधुनिकता का प्रतीक चिन्ह मानने वाले नेतागण भी जाति के आधार पर समाज को बाँटने के काम में हाथ बंटाते हैं। ये सिलसिला कब रुकेगा इसे कोई नहीं बता सकता क्योंकि जिनके पास आग बुझाने का जिम्मा है जब वही उसमें पेट्रोल डालने जैसी शरारत करें तो फिर कहने को रह ही क्या जाता है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 9 October 2020

समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता और सम्मान दोनों ढलान पर




बीते कुछ दिनों में कतिपय टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित की जा रही सामग्री को लेकर न्यायपालिका ने कुछ प्रतिबंधात्मक कदम उठाये। इसके अलावा कुछ चर्चित मामलों में समाचार चैनलों की भूमिका को लेकर भी सोशल मीडिया सहित अन्य मंचों पर बहस चल पड़ी है। ख़ास तौर पर एंकरों की चीख पुकार तो मजाक का विषय बन चुकी है। बीते दिनों समाचार माध्यमों पर आयोजित एक वेबिनार में वरिष्ठ पत्रकार एन.के सिंह ने किसी अभिनेत्री के घर से जाँच एजेंसी जाने और लौटने तक उसकी कार के सीधे प्रसारण को हास्यास्पद बताते हुए कहा कि समाचार चैनलों की प्रतिस्पर्धा फूहड़पन के चरमोत्कर्ष तक जा पहुंची है। गत दिवस मुम्बई पुलिस ने तीन टीवी समाचार चैनलों के विरुद्ध पैसे देकर टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने की शिकायत पर प्रकरण दर्ज कर लिया। आज इसमें एक और राष्ट्रीय चैनल का नाम भी आ गया। जाँच की दिशा दर्शक संख्या के फर्जी आंकड़े जुटाकर 30 हजार करोड़ के विज्ञापन कबाड़ने की तरफ  घूम गई है। हालांकि इसके पीछे शिवसेना और एक समाचार चैनल के बीच चल रही जंग बताई जा रही है लेकिन ये बात बिना संकोच के कही जा सकती है कि समाचार माध्यमों के प्रति विश्वसनीयता और सम्मान में जो कमी आई है उसके लिए समाचार चैनल काफी हद तक जिम्मेदार हैं जिन्होंने पत्रकारिता की स्थापित मान्यताओं और परम्पराओं को पूरी तरह किनारे करते हुए बॉक्स आफिस पर हिट होने के लिए बनाई जाने वाली फार्मूला फिल्मों वाली शैली समाचार संकलन और प्रस्तुतीकरण में भी अपना ली है। इस वजह से पत्रकार एंकर बन गये और एंकर पत्रकार, लेकिन इस सब में पत्रकरिता तिरोहित होती जा रही है। सम सामयिक ज्वलंत मुद्दों पर आयोजित की जाने वाली टीवी चर्चाओं में विचारों के आदान-प्रदान के साथ सार्थक बहस की जगह डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की प्रायोजित कुश्ती जैसे नज़ारे देखने मिलते हैं। 24 घंटे और सातों दिन समाचार प्रसारित करने की प्रतिस्पर्धा में कचरे के ढेर लगाने का चलन चल पड़ा है। एक ही समाचार इतनी बार दिखाया जाता है कि ऊब होने लगती है। ऐसा नहीं है कि अखबारी जगत पूरी तरह से दूध का धुला हुआ हो लेकिन बीते दो दशक में टीवी समाचार चैनलों की जो भीड़ उभरकर आ गई है उसने समाचार माध्यम के प्रतीक चिन्ह बदल डाले और बदल डाली पत्रकारिता की स्थापित मान्यताएं और परम्पराएं। लेकिन इसके लिए केवल टीवी चैनलों से जुड़े पत्रकारों और मालिकों को दोषी ठहराना न्यायोचित नहीं होगा। राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं ने भी समाचार चैनलों के दिमाग खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक दौर ऐसा था जब नेता या सरकारी अफसरान अंगरेजी अखबार के संपादक या संवाददाता को देखकर उसके प्रति कुछ ज्यादा ही सौजन्यता व्यक्त करना नहीं भूलते थे। लेकिन जबसे इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यम मैदान में आये तबसे उनको जरूरत से ज्यादा महत्व दिया जाने लगा। किसी अखबार द्वारा आयोजित आयोजन में जाने के लिए नेताओं को फुर्सत नहीं रहती जबकि समाचार चैनलों के आमन्त्रण पर सत्ताधारी और विपक्षी नेतागण नंगे पाँव दौड़कर जाने में नहीं हिचकते। इसकी वजह किसी से छिपी नहीं है। समाचार पत्र-पत्रिकाओं को जिन्हें अब प्रिंट मीडिया कहा जाने लगा है के मालिक और संपादक वगैरह का नाम सार्वजनिक होता है। वहीं समाचार चैनलों के एंकर भले दिखाई दे जाते हों लेकिन असली मालिकों के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव होता है। इस वजह से वे दबाव समूह के तौर पर आसानी से काम करने लगते हैं। जब दबाव ज्यादा बढ़ता है तब चैनलों को कोसा जाने लगता है वरना उनके कैमरे देखकर नेताओं के चेहरे पर मुस्कुराहट तैरने लगती है। मौजूदा स्थिति में बिना लागलपेट के कहा जा सकता है कि समाचार चैनलों में से कुछ को छोड़कर अधिकतर किसी न किसी विचारधारा अथवा राजनीतिक दल के या तो अंधभक्त हैं या फिर घोर आलोचक। समाचार प्रस्तुतीकरण से ही उनके झुकाव का पता चल जाता है। कुल मिलाकर पानी सिर से ऊपर आने की स्थिति बनने के बाद बात न्यापालिका और पुलिस थाने तक जा पहुँची है। लेकिन ये मसला किसी एक चैनल तक सीमित नहीं है और उसे व्यापक दृष्टिकोण के साथ देखना होगा। पूंजी आधारित समाचार माध्यमों के इस दौर में व्यवसायिकता आवश्यक बुराई के रूप में विद्यमान है। हालांकि प्रतिस्पर्धा भी बुरी नहीं है यदि उसका परिणाम स्तरीय पत्रकारिता के तौर पर सामने आये लेकिन वह एंकरों के चीखने-चिल्लाने पर केन्द्रित हो तो फिर उसे बेहूदगी ही कहा जायेगा। समाचार माध्यमों द्वारा स्व-अनुशासन का पालन करने की अपेक्षा की जाती रही है। भारतीय प्रेस परिषद के दायरे को बढ़ाकर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों माध्यमों को उसके अंतर्गत लाने की मांग भी उठती रही है। टीवी चैनलों में आचार संहिता के पालन हेतु भी एक संस्था है लेकिन जिस तरह की अराजक और कीचड़ उछाल प्रतिस्पर्धा वर्तमान में चल रही है वह बहुत ही शर्मनाक है। श्रेष्ठता के भाव से आत्ममुग्ध इलेक्ट्रानिक मीडिया के कारण अखबार जगत में भी चारित्रिक बदलाव देखने मिल रहा है। पूंजी के खेल में मुनाफा ही धर्म बन जाता है। दुर्भाग्य से अधिकतर समाचार माध्यम अब उसी के मकडज़ाल में फंसकर अपनी मौलिकता और पवित्रता खोते जा रहे हैं। यदि यही हालात आगे भी जारी रहे तो बड़ी बात नहीं चौथे स्तम्भ का जो सम्मान उन्हें मिला हुआ है उससे उन्हें वंचित होना पड़े।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 8 October 2020

रिया को जमानत से नई परिभाषाएं गढ़ी जा सकती हैं



अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद सबसे ज्यादा चर्चित हुईं उनकी महिला मित्र मॉडल से अभिनेत्री बनी रिया चक्रवर्ती को नारकोटिक्स नियंत्रण ब्यूरो ने पूछताछ के बाद गिरफ्तार कर लिया था। बीते अनेक हफ्तों से वे जेल में थीं। निचली अदालत द्वारा नामंजूर किये जाने के बाद गत दिवस बॉम्बे उच्च न्यायालय ने तमाम शर्तों के साथ जमानत देते हुए उनकी रिहाई का रास्ता साफ़ कर दिया। ब्यूरो ने जमानत अर्जी का ये कहते हुए विरोध किया था कि रिया गवाहों को प्रभावित और सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर सकती हैं तथा उनके बाहर आने से प्रक्ररण की जांच पर प्रभाव पड़ेगा। रिया का भाई अभी भी जेल में है। ऐसे मामलों में गिरफ्तारी और जमानत सामान्य कानूनी प्रक्रिया होती है लेकिन संदर्भित प्रकरण चूँकि फिल्मी हस्तियों से जुड़ा हुआ है इसलिए इसे समाचारों में कुछ ज्यादा ही महत्व दिया गया। जाँच के दौरान ये जानकारी सामने आई कि सुशांत सिंह ड्रग्स का आदी था और रिया तथा उसका भाई उसके लिए नशीली चीजों की व्यवस्था उसी के पैसों से करते थे। उसके बाद मुम्बई में फिल्मी हस्तियों को ड्रग्स की आपूर्ति करने वाले अनेक लोग जांच एजेंसियों के हत्थे चढ़े तथा ये खुलासा भी हुआ कि मुम्बई की फिल्मी बिरादरी में नशे का शिष्टाचार शराब से बढ़कर ड्रग्स तक आ पहुंचा है। रिया और ड्रग्स की आपूर्ति करने वाले लोगों के फोन और व्हाट्स एप से प्राप्त जानकारी के आधार पर अनेक अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के नाम गैर कानूनी नशीली चीजों का सेवन करने के लिए सामने आये। कुछ से नारकोटिक्स नियंत्रण ब्यूरो ने पूछताछ भी की। कुछ बड़े नाम अभी भी संदेह के घेरे में हैं। इस मामले में अब तक जो बात पक्के तौर पर स्थापित हो चुकी है उसके मुताबिक रिया और उसका भाई ड्रग्स विक्रेताओं के सम्पर्क में थे। वे सुशांत के लिए ही ड्रग मंगवाते थे या किसी और के लिए भी, ये अभी भी जांच के घेरे में है । लेकिन ड्रग  के कारोबारियों से संपर्क  तो उन्होंने खुद स्वीकार किया है। ऐसे में रिया को जमानत देते हुए माननीय उच्च न्यायालय की ये  टिप्पणी चौंकाने वाली है कि उसका सुशांत के लिए ड्रग मंगवाना ये साबित नहीं करता कि वह ड्रग डीलर्स के नेटवर्क का हिस्सा है। बचाव पक्ष के अधिवक्ता की दलीलों के सामने ब्यूरो के तर्क न्यायालय को अपर्याप्त लगे। लेकिन किसी व्यक्ति का ड्रग विक्रेताओं से सीधा संपर्क क्या साधारण बात है और वह भी एक अभिनेत्री का। एक अन्य अभिनेत्री दीपिका पादुकोण से हुई पूछताछ में भी ड्रग विक्रेता से उसकी बातचीत के प्रमाण मिले। जैसी कि खबरें हैं उनके मुताबिक ब्यूरो के पास बालीवुड में ड्रग के चलन की पुख्ता जानकारी आ चुकी है परन्तु वह जल्दबाजी में कोई एकदम नहीं उठाना चाह रहा। बहरहाल रिया की रिहाई जिस कारण से की गई यदि वह अंतिम फैसले का आधार भी बना तो फिर उसका अपराध ही क्या है? यदि किसी के लिए प्रतिबंधित नशीली चीज किसी अवैध कारोबारी से मंगवाना साधारण बात है तब तो ऐसे धंधों को लेकर कुछ नई परिभाषाएं गढ़ ली जायेंगीं। हमारा कोई निकटस्थ व्यक्ति यदि ड्रग का सेवन करता है और हम उससे वाकिफ हैं तब हमारा फर्ज बनता है कि उसे इस बुरी आदत से मुक्त करवाने का प्रयास करें। लेकिन सुशांत के मामले में रिया जिसकी उसके साथ शादी होने वाली थी, यदि वही उसे ड्रग खरीदकर देती रही तो उसका आचरण पूरी तरह अनुचित, अवैध और संदिग्ध माना जाएगा। जिन दो अभिनेत्रियों ने ब्यूरो को बताया कि सुशांत ड्रग का आदी था, उन्होंने अब तक ये बात क्यों छुपाकर रखी यह बड़ा सवाल है। रिया और उसका भाई दोनों सुशांत के साथ ही रहते थे। ऐसे में उसे ड्रग मंगवाकर देने में उनकी बतौर सहायक जो भूमिका थी वह किसी सुलझे हुए व्यक्ति के गले नहीं उतरती। कोई इंसान भले ड्रग का सेवन न करे लेकिन यदि वह ड्रग विक्रेताओं से सम्बन्ध रखते हुए किसी और के लिए उसका प्रबन्ध नियमित रूप से करे और भुगतान भी उसी के जरिये हो तो सीधे तौर पर न सही लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से तो वह उस कारोबार का हिस्सा माना ही जाना चाहिए। जिस आधार पर रिया को जमानत मिली, उसी आधार पर पकड़े गए ड्रग पैडलर भी जेल से बाहर आने की अर्जी लगा सकते हैं। उनके पास  अपने बचाव का ये आधार होगा कि वे इस अवैध कारोबार का हिस्सा नहीं है। गत दिवस ज्योंही बॉम्बे उच्च न्यायालय ने रिया को जमानत दी त्योंहीं उस फैसले पर टीका-टिप्पणी होने लगी। न्यायाधीश चूँकि कानून के दायरे से बंधे होते हैं इसलिए वे उसी के अनुरूप आदेश या निर्णय पारित करते हैं किन्तु ऐसे प्रकरणों में औचित्य का निर्धारण करते समय व्यवहारिक पहलू भी देखा जाना चाहिए क्योंकि एक छोटा सा फैसला अपराध जगत के संरक्षकों के लिए रक्षा कवच न बन जाए ये चिंता भी की जानी चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 6 October 2020

कारोबारी जगत को राहत दिये बिना अर्थव्यवस्था में सुधार असंभव




लॉक डाउन में बैंकों द्वारा कर्ज अदायगी में तो छूट दे दी गई  लेकिन उस दौरान ब्याज पर माफी की मांग भी  उद्योग - व्यापार जगत से उठाई गई जिसके लिये बैंक तैयार नहीं हुए । उसके बाद बात आई कि कम से कम ब्याज पर जो ब्याज लगाया गया उसे ही वापिस ले लिया जावे। वैसे तो सरकार और बैंकों का प्रबन्धन इसके लिए तैयार नहीं था लेकिन सर्वोच्च  न्यायालय ने जब दबाव बनाया तब जाकर सरकार और रिजर्व बैंक ने ब्याज पर ब्याज माफ करने के आश्वासन संबंधी जवाब पेश कर दिया। लेकिन न्यायालय इससे संतुष्ट नहीं हुआ और हलफनामे में वर्णित प्रावधानों को लेकर और स्पष्टता के निर्देश दिए। अदालत ने कामथ समिति की रिपोर्ट भी पेश करने कहा। ये मामला चूँकि देश की सबसे  बड़ी अदालत में है इसलिए अब उसका फैसला भी वहीं से होगा लेकिन बैंकिंग प्रणाली और उसके ग्राहक विशेष रूप से कर्जदारों के बीच के रिश्ते महाजनी परम्परा पर आधारित होते हैं। इसमें दोनों पक्ष एक दूसरे के हितों का संरक्षण करते हैं। लेकिन भारत में  बैंकों ने ग्राहकों का शोषण करने की प्रवृत्ति को अपनी कार्यप्रणाली का हिस्सा बना रखा है। दुनिया में सबसे ऊंची ब्याज दर के अलावा न जाने कहाँ - कहाँ के चार्जेस लगाकर खातेदारों की  जेब काटी जाती है। इस सबके पीछे भी बैंकों में होने वाले घोटाले ही हैं। बैंकों में घुस आये भ्रष्टाचार  नामक वायरस की वजह से जो  करोड़ों रूपये के घोटाले होते हैं उनकी अप्रत्यक्ष वसूली ईमानदार ग्राहकों से करने की तरकीब निकाल  ली गई। निजी क्षेत्र के  बैंक तो छद्म चार्जेस के नाम पर ग्राहकों को चूना लगाने के  लिए वैसे भी कुख्यात हैं। वैसे बैंकों की मुनाफखोरी और शोषण करने की प्रवृत्ति के लिए सरकारें भी  कम जिम्मेदार नहीं  हैं जो अपने वोट बैंक को बनाये रखने के लिए बैंकों का बेजा इस्तेमाल करती हैं। कर्ज माफी जैसी योजनाओं की वजह से बैंकों की वसूली पर भी   बुरा असर पड़ता है। मप्र ,  छतीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सरकार बनते ही 10 दिन में किसानों के  कर्ज माफ़ करने का वायदा किया था। लेकिन बाद में आर्थिक संकट के कारण उसे टाला जाता रहा। उधर किसान बैंकों का कर्ज चुकाने से मना करने लगे । अनेक स्थानों पर वसूली करने गये बैंक कर्मियों को हिंसा का शिकार भी होना पड़ गया। कोरोना काल अर्थव्यवस्था पर अभूतपूर्व संकट लेकर आया। पहली बार ऐसा हुआ जब पूरा देश बंद हो गया। कुछ को छोड़कर सभी औद्योगिक और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में तालाबंदी हो गई। कारोबार ठप्प होने से कर्जदारों के लिए बैंकों की देनदारी चुकाने की समस्या पैदा हो गई। इसके अलावा निजी क्षेत्र में भी बड़ी  संख्या में नौकरियां जाने से  मध्यमवर्गीय तबके की ऋण अदायगी  की क्षमता पर बुरा असर पड़ा। यद्यपि लॉक डाउन  होते ही सरकार के निर्देश पर बैंकों ने ऋण की किश्तें चुकाने की समय सीमा अनेक बार बढ़ाई। लेकिन लॉक डाउन समाप्त होने के बाद जब ये लगा कि आर्थिक गतिविधियां सामान्य हो चली हैं तब कर्ज चुकाने का दबाव बनाया जाने लगा। न सिर्फ बैंकों की देनदारी बल्कि अन्य सरकारी विभागों की  वसूली भी दबाव डालकर की जाने लगी। इस वजह से व्यापार और उद्योग जगत में जबरदस्त गुस्सा व्याप्त है। सरकारी भुगतान नहीं मिलने से भी उद्योग और व्यापार जगत के समक्ष बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है। ऐसे में बैंकों और सरकारी करों के भुगतान हेतु पड़ने वाला दबाव दूबरे में दो आसाढ़ वाली कहावत को चरितार्थ कर रहा है। और जब बात ब्याज पर थोपे गए  ब्याज की आई तब ये भावना  तेजी से फैली कि सरकार और उसके उपक्रम बने बैंक संकट की इस  घड़ी में ईमानदार व्यवसायी के साथ खड़े होने की बजाय उसका गला काटने से बाज नहीं आ रहे। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का रुख बहुत ही न्यायोचित है। बैंकों के बढ़ते मुनाफे को देखते हुए ऐसा करना बड़ी बात नहीं होगी। बेहतर होगा सरकार और रिजर्व बैंक ब्याज पर  ब्याज न लगाने संबंधी स्पष्ट नीति न्यायालय के सामने पेश करे। वैसे  तो सरकार को ये मामला सर्वोच्च न्यायलय में जाने से पहले ही व्यापार - उद्योग जगत की उचित अपेक्षाओं को पूरा करना  चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्यवश वह ऐसा नहीं कर सकी। बैंकों ने वसूली  के नोटिस भेजना शुरू कर दिए हैं। सरकार और रिजर्व बैंक के पास अभी भी  समय है परिस्थितिजन्य ऐसा फैसला करने का जो संतुलित हो। बैंक व्यावसायिक संस्था होने से घाटे  में नहीं चलाए जा सकते लेकिन समय का तकाजा है कि वे अपने मुनाफे को कम से कम एक वर्ष के लिए थोड़ा कम करें जिससे कि उद्योग और व्यापार जगत की उखड़ी हुई  सांसें वापिस लौट सकें। अर्थव्यवस्था को सबल बनाने के लिए कारोबारी जगत को भी शक्तिवर्धक दवा देना जरूरी है।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 3 October 2020

न ज्यादा उत्साहित हों न ही डरें लेकिन सतर्कता जरूरी



कोरोना संबंधी जो जानकारी कुछ दिनों से आ रही है उसके अनुसार देश भर में नये संक्रमणों की दैनिक संख्या एक लाख से घटते हुए अब 90 हजार से भी कम होने लगी है। इसी के साथ स्वस्थ होने वाले मरीज किसी-किसी दिन नए संक्रमितों से ज्यादा भी निकलने लगे हैं। निश्चित रूप से ये उत्साहजनक है। चिकित्सा जगत से अधिकृत तौर पर तो कुछ संकेत नहीं है लेकिन अनेक जानकार सूत्र ये बता रहे हैं कि भारत में कोरोना का चरम आ चुका है। उसके अनुसार अब लगातार नए मामले कम होते जायेंगे वहीं स्वस्थ होने वालों का प्रतिशत निरंतर बढ़ता जायेगा। जैसा कि देखने में आया है उसके अनुसार देश में कोरोना पर जीत हासिल करने वाले मरीजों का अनुपात वैश्विक स्तर से बहुत अच्छा है। कोरोना से मौत के गाल में समाने वालों की संख्या भले ही एक लाख पार कर चुकी हो लेकिन भारत की विशाल जनसँख्या, घनी और बेतरतीब बसाहट, बीमार स्वास्थ्य सेवाएं और संक्रामक बीमारियों के फैलाव के अनुकूल परिस्थितियाँ देखते हुए ये आशंका थी कि कोरोना भारत में विकराल रूप धारण कर लेगा और इसके सामुदायिक फैलाव की स्थिति सामने आयेगी। लेकिन अभी तक के अनुभव बताते हैं कि तमाम अव्यवस्थाओं के बावजूद भारत ने कोरोना के विरुद्ध जमकर लड़ाई लड़ी। इलाज और जांच की अपर्याप्त सुविधाएं, अस्पतालों में आईसीयू के अलावा साधारण बिस्तरों की भारी कमी, वैन्टीलेटर, मास्क और सैनिटाईजर जैसे साधनों का अभाव देखते हुए डर का माहौल था। इसीलिये केंद्र सरकार को लॉक डाउन लगाना पड़ा। जिसकी वजह से पूरा कारोबार चौपट होकर रह गया। हालाँकि दो माह बाद सब कुछ खुल गया और धीरे-धीरे ही सही अर्थव्यवस्था के साथ ही जनजीवन सामान्य होने लगा लेकिन ये स्थिति बड़ी ही नाजुक है और इसीलिये चिकित्सक और सरकार दोनों लोगों को आगाह कर रहे हैं कि भले ही आंकड़े उम्मीदें जगा रहे हों लेकिन कोरोना कब छापामार शैली में दोबारा जोरदार हमला कर दे ये कहना कठिन है। एक बात ये भी जो सुनने में आ रही है कि निजी अस्पतालों द्वारा कोरोना की जांच और मृतकों के आंकड़ों को छिपाया जा रहा है। पहले तो केवल सरकारी लैबों में ही कोरोना की जांच होती थी। लेकिन बाद में जबसे निजी लैबों को जाँच हेतु अनुमति मिली तबसे हेराफेरी होने की शिकायतें भी बढ़ चली हैं। ये भी कहा जा रहा है कि सरकारी अमला निजी जांच एजेंसियों को उपकृत करने के एवज में मोटा कमीशन खा रहा है। निजी अस्पताल वाले इन एजेंसियों से मिलकर फर्जी पॉजिटिव मामले निकलवाने का षडयंत्र रच रहे हैं। इस वजह से आंकड़ों को लेकर विश्वास का संकट बना हुआ है। हालाँकि इसके दो पक्ष हैं। एक का कहना है कि मरने वालों की संख्या ज्यादा है जिसे सरकार कम बताती है। दूसरी तरफ  एक आकलन ये भी है कि कतिपय निजी अस्पताल और जाँच एजेंसियां मिलकर निगेटिव को भी पॉजिटिव बनाने जैसा अमानवीय कृत्य करते हुए अपनी तिजोरी भरने में जुटी हुई हैं। और ऐसा इसलिये संभव हो सका क्योंकि सरकारी तंत्र भी इस धंधे में भागीदार है। किसी-किसी मरीज को जबरन निजी अस्पताल वाले बिना जरूरत के भर्ती किये रहते हैं जिससे उनका बिल बढ़ता रहे वहीं दूसरी और जब उन्हें लगता है कि और ज्यादा पैसा देने वाला आ गया तब वे पूरी तरह से ठीक नहीं हुए मरीज को भी घर भेजने की जल्दबाजी करते हैं। ये सब देखते हुए आम जनता को कोरोना संबंधी सभी सावधानियों का पालन गम्भीरता के साथ करना चाहिए। कोरोना का चरम आ चुका या नहीं ये अधिकृत तौर पर स्पष्ट नहीं है और जिस बड़ी संख्या में नए संक्रमण सामने आ रहे हैं उन्हें देखते हुए किसी भी प्रकार का आशावाद घातक हो सकता है। अनेक राजनेता तथा अन्य विशिष्ट जन अपनी लापरवाही के कारण कोरोना ग्रसित हुए। दिल्ली में भी स्थिति पूरी तरह से नियंत्रित हो जाने के बाद वहां की सरकार और जनता दोनों बेफिक्र हो चले थे जिसका दुष्परिणाम कोरोना की दूसरी लहर के तौर पर सामने आया जो पहले की अपेक्षा ज्यादा तेज थी। यही हाल मुम्बई की धारावी झोपड़ बस्ती में हुआ। वहां कोरोना को नियंत्रित किये जाने की खबर ने दुनिया भर का ध्यान खींचा और विश्व स्वास्थ्य संगठन तक ने उसकी प्रशंसा करते हुए उसे एक मॉडल के रूप में स्वीकार किया। लेकिन कुछ समय बाद वहां दोबारा संक्रमण फैलने की शुरुवात हो गई। इसलिये एक तरफ तो सरकार द्वारा दिए जा रहे आंकड़ों से उम्मीद बांधी जा सकती है लेकिन जब ये पता चलता है कि कोरोना कहीं धूप तो कहीं छाँव का खेल रच रहा है तब डर भी लगता है। इसलिए आम जन के लिए बेहतर यही होगा कि परस्पर विरोधी खबरों से न तो ज्यादा उत्साहित हों और न ही हतोत्साहित। कोरोना को लेकर जो भी सावधानियां अपेक्षित और आवश्यक हैं उनका पालन करना ही उससे बचाव का तरीका है। उस दृष्टि से ये समय बहुत ही महत्वपूर्ण है। जिन राज्यों या शहरों में कोरोना का प्रकोप कम हुआ है वहां भी पूरी तरह सतर्क रहना जरूरी है। तमाम सर्वेक्षणों से ये बात सामने आई है कि कोरोना के जो मामले अब आ रहे हैं उनके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जो मास्क जैसी छोटी सी चीज के इस्तेमाल में अपनी तौहीन समझते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 1 October 2020

तो अशिक्षा, दकियानूसीपन और पिछड़ापन क्या बुरे थे?




उप्र के हाथरस में सामूहिक दुष्कर्म के बाद ह्त्या की वीभत्स घटना ने हर संवेदनशील इन्सान को झकझोर कर रख दिया। वारदात का विवरण दरिंदगी का चरमोत्कर्ष है। इस कांड में पुलिस और प्रशासन की भूमिका भी चौंकाने वाली है। पीड़िता का अंतिम संस्कार रात के अँधेरे में किये जाने पर भी सजातीय वाल्मीकि समाज आंदोलित है। उप्र सरकार ने परिजनों को 25 लाख का मुआवजा देने के साथ ही जांच हेतु एसआईटी गठित कर दी है। ये मामला अभी गर्म ही था कि गत दिवस बलरामपुर में एक और घटना हो गई। इनके कारण राज्य की योगी सरकार पर चौतरफा हमले होने लगे। विपक्ष तो पहले ही राज्य में कानून व्यवस्था को लेकर आक्रामक था। आज राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा हाथरस जा रहे हैं। हो सकता है उन्हें प्रशासन पहले ही रोक ले। हालाँकि उनके इस कदम का कोई औचित्य भी नहीं है। दरअसल दुष्कर्म के बाद नृशंस तरीके से हत्या कर देने की प्रवृत्ति कानून व्यवस्था से ज्यादा समाज के बदलते स्वभाव का परिचायक है। दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद कानून को सख्त किये जाने के साथ ही अदालतों द्वारा त्वरित न्याय किये जाने का चलन भी शुरू हुआ। भोपाल में तो बलात्कार के एक मामले में एक महीने से भी कम समय में न्यायालय ने आरोपी को सजा सुना दी। निर्भया काण्ड ने पूरे देश को मानसिक तौर पर आंदोलित किया था। मोमबत्ती जलाने, मौन जुलूस, पोस्टर सहित धरना आदि का सैलाब आ गया। देश की महिला शक्ति ने उस कांड पर संगठित विरोध का जो प्रदर्शन किया उससे उनका गुस्सा प्रकट हुआ। लेकिन लम्बी अदालती जंग के बाद जब अपराधियों को सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रपति ने भी क्षमा करने से इंकार कर दिया और फांसी की तिथि तय हो गई तब भी उन्हें बचाने का एक और कानूनी प्रयास आधी रात को हुआ। अपराधियों के वकील द्वारा लगाई गई अर्जी पर विचार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय आधी रात के बाद खुला और सुनवाई की गई। यद्यपि फांसी नहीं टली और कुछ घंटों के बाद ही निर्भया को अमानुषिक यातना देकर मौत के घाट उतारने वाले लाश में तब्दील हो गये। लेकिन देश के सबसे ज्यादा चर्चित उस काण्ड के अपराधियों को मिले मृत्युदंड को क्रियान्वित किये जाने में जितना समय लगा उसको लेकर समूची न्याय प्रणाली आलोचना का शिकार हुई। विशेष रूप से फांसी के कुछ घंटे पहले देर रात सर्वोच्च न्यायालय खोला जाना किसी को रास नहीं आया। उल्लेखनीय है आतंकवादी याकूब मेनन की फांसी के पहले भी इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय ने देर रात बैठकर सुनवाई की थी। जब किसी की जान का सवाल हो तब न्यायालय यदि इस तरह की संवेदनशीलता दिखाए तब उसकी मंशा पर शक नहीं करना चाहिए किन्तु एक आतंकवादी और बलात्कारी के प्रति इस तरह की सौजन्यता अपराधियों के हौसले मजबूत करने का आधार बन जाती है। और उन अधिवक्ताओं को क्या कहें जो ऐसे नराधमों को बाइज्जत बरी करवाने के लिए अपने विधिक ज्ञान का दुरूपयोग करते हैं। हाथरस और बलरामपुर दोनों की घटनाओं में पीड़िता की अस्मत लूटने के साथ ही उसे जिस बेरहमी से मारा गया वह इस बात का प्रमाण है कि अपराधी केवल दुष्कर्मी ही नहीं अपितु राक्षसी मानसिकता से ग्रसित भी थे। इस तरह की घटनाएँ केवल उप्र तक ही सीमित न होकर देशव्यापी बीमारी के रूप में सामने आने लगी हैं। संचार क्रांति के इस दौर में किसी भी घटना की जानकारी सर्वत्र फ़ैल जाती है। सोशल मीडिया भी अपनी शैली में सक्रिय हो उठता है और टीवी चैनलों को दो-चार दिन के लिए सामग्री मिल जाती है। लेकिन विचारणीय विषय ये है कि कठोरतम कानून और समाज की रोषपूर्ण प्रतिक्रिया के बावजूद यदि बलात्कार और उसके बाद बहशियाना तरीके से की जाने वाली हत्या की घटनाएँ रुकने का नाम नहीं ले रहीं तो चिंता और भी बढ़ जाती है। अदालतें बेशक बलात्कारियों के प्रति किसी भी प्रकार की नरमी नहीं दिखातीं और कड़े से कड़ा दंड भी देती हैं। लेकिन उस सबका कोई असर होता नहीं दीखता। और यही समाजशास्त्रियों के लिए अध्ययन और विश्लेषण का विषय होना चाहिए। बढ़ते यौन अपराध और उनके साथ हत्या जैसी वारदातें केवल कानून व्यवस्था की नहीं वरन सामाजिक चिंता का विषय भी होना चाहिए। इसके लिए साहित्य, फिल्में, टेलीविजन और इंटरनेट सभी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। इसलिए समस्या का वस्तुपरक विश्लेषण होना चाहिए। इस तरह की घटनाओं को पूरे समाज के चरित्र का पैमाना नहीं माना जा सकता लेकिन इतना तो कहना ही पड़ेगा कि परवरिश और संस्कारों के हस्तांतरण में कहीं न कहीं लापरवाही तो हो रही है। गाँव-मोहल्ले की लड़की को अपनी बेटी और बहिन मानने वाले समाज में इस तरह के नरपिशाचों का लगातार बढ़ते जाना चिंता से ज्यादा गम्भीर चिन्तन का भी विषय है। यदि यही शिक्षा, आधुनिकता और विकास का प्रतिफल है तो फिर अशिक्षा, दकियानूसीपन और पिछड़ापन क्या बुरे थे?

- रवीन्द्र वाजपेयी