Thursday 29 October 2020

मतदाताओं के बड़े वर्ग को आकर्षित नहीं कर पा रहे चुनाव




बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में गत दिवस 71 सीटों के लिए लगभग 54 प्रतिशत मतदान हुआ। कोरोना के बावजूद आधे से अधिक मतदाताओं के घर से निकलने पर चुनाव  आयोग  गदगद है। राजनीतिक दल भी कमोबेश संतुष्ट हैं। इस चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंदी एनडीए (भाजपा - जनता दल यू ) तथा महागठबंधन (राजद -   कांग्रेस ) हैं । इनके अतिरिक्त जीतनराम मांझी की हम , उपेन्द्र कुशवाहा की आरएलएसपी , मुकेश साहनी की वीआईपी पार्टी  और  वामपंथी दल  अपनी पसंद के अनुसार उक्त दोनों गठबन्धनों के साथ लड़ रहे हैं। लेकिन दिल्ली में एनडीए का हिस्सा होने पर भी चिराग पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी  अलग मोर्चा खोलकर बैठी है। इसे लेकर चर्चा है कि चिराग के एकला  चलो रवैये के पीछे भाजपा की दूरगामी रणनीति है। नीतीश कुमार के बारे में ये चर्चा आम है कि उनके प्रति मतदाता उदासीन है और इस वजह से जद ( यू ) की विधायक संख्या में काफी कमी आ सकती है। वहीं भाजपा की कोशिश है कि किसी भी कीमत पर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे जिससे भविष्य में वह बड़े भाई की भूमिका में आ सके। लेकिन जबरदस्त  राजनीतिक हलचल के बाद भी बिहार जैसे राजनीतिक तौर पर जागरूक कहे जाने वाले राज्य में मतदान के प्रति इतनी उदासीनता विचारणीय है। वैसे पिछले अनेक विधानसभा और  2019  के लोकसभा चुनाव में भी इतने मतदाता ही मतदान केन्द्रों तक पहुंचे थे। इसका अर्थ यही है कि बिहार में राजनीति की चर्चा तो खूब होती है लेकिन निर्णय लेने के समय मतदाता अपेक्षित  उत्साह नहीं  दिखाते। रही बात कोरोना की तो उसका भय चूँकि बिहार के शहरों और ग्रामीण इलाकों में कहीं दिख ही नहीं रहा इसलिए उस आधार पर मतदान के प्रतिशत को संतोषजनक मान लेना उचित नहीं लगता । बीते अनेक चुनावों से बिहार का मतदान प्रतिशत इसी आंकड़े के आसपास घूमता रहा है। 2015 के  विधानसभा चुनाव में भी राजनीतिक सरगर्मी अपने चरम पर थी। लालू और नीतीश बरसों बाद एक साथ आये और बाजी मार ले गए । लेकिन तब भी मतदान का प्रतिशत 50 और 55 फीसदी के बीच ही रहा। उसके बाद लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे चर्चा में रहे । नीतीश वापिस भाजपा के खेमे में आ गये थे जिसकी वजह से एनडीए ने 40 में से 39 सीटें जीतकर अपना परचम लहरा दिया। लेकिन मतदाताओं का उत्साह इक्का - दुक्का सीटों को छोड़कर 54 - 55 फीसदी के इर्द - गिर्द ही सिमटा रहा। चूँकि विधानसभा चुनाव में मतों का बंटवारा विभिन्न पार्टियों के साथ निर्दलीयों में भी होता है इसलिए जिसकी भी सरकार बनेगी वह बमुश्किल 25 - 30 फीसदी मतदाताओं  की पसंद होगी। हालाँकि हमारे  देश की चुनाव प्रणाली में मतदान के प्रतिशत के कम या ज्यादा रहने से कोई फर्क नहीं  पड़ता , लेकिन बिहार में जिस तरह का राजनीतिक माहौल सदैव बना रहता है उसे देखते हुए वहां 75 फीसदी  मतदान तो अपेक्षित है ही। चुनाव आयोग घर - घर मतपर्चियां बांटकर पूरे देश में मतदाताओं को मतदान केंद्र तक जाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करता  है। इसके सुखद परिणाम मतदान का प्रतिशत बढ़ने के तौर पर दिखाई भी दिए किन्तु लोकसभा  चुनाव में नागपुर में 52 - 53  फीसदी मतदान हुआ। जबकि नितिन गडकरी जैसे सक्रिय और कर्मठ केन्द्रीय मंत्री वहां मैदान में थे। इसी तरह विधानसभा चुनाव में मुम्बई के मतदाताओं ने जिस तरह की उदासीनता दिखाई वह देश की  आर्थिक राजधानी के लिए शर्मनाक रही। उस दृष्टि से बिहार में गत दिवस तकरीबन 54 फीसदी मतदान को कम माने जाने पर आपत्ति की जा सकती है लेकिन ऐसा लगता है जाति और कुनबे में बंट चुके  मतदाताओं से इतर जो भी तबका है ,  उसे मतदान में कोई रूचि नहीं है। इसका एक कारण राजनीति और राजनेताओं के प्रति बढ़ती वितृष्णा  भी है। बिहार को ही लें तो जितने भी चुनाव पूर्व सर्वे वहां के आये सभी में ये बात सामने आई कि मतदाताओं का 20 से 25 फीसदी वर्ग  कोऊ नृप होय , हमें का हानि , वाली मानसिकता से प्रभावित था। हो सकता है यही वर्ग मतदान के दिन घर बैठा रहा। एनडीए और महागठबंधन दोनों के पास अपना - अपना वोट बैंक है। छोटी पार्टियों के अलावा वोट  कटवा उम्मीदवार भी 5 से 10 फीसदी मत बटोर  ले जाते हैं। लेकिन इनके अलावा मतदाताओं  का एक ऐसा वर्ग है जो राजनीतिक और जातिगत प्रतिबद्धता से पूरी तरह पृथक होने से चुनावी वायदों में अपने लिए कुछ भी नहीं पाता। उसे नीतीश कुमार के 15 साला राज से  निराशा तो है लेकिन वह लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी और उनके भाई तेजप्रताप को राज्य की बागडोर देने के प्रति भी अनिच्छुक हैं और तीसरे किसी विकल्प के अभाव में वह उदासीनता ओढ़कर घर बैठा रहा । ये कहानी चुनाव - दर - चुनाव दोहराई जाती है। इसका कारण राजनीतिक दलों का वोटबैंक के इर्द  - गिर्द ही मंडराना है। तेजस्वी ने 10 लाख नौकरियां देने का वायदा किया तो बाकी बातें गौण होकर रह गईं। उनके युवा समर्थक ये कहते सुने जा सकते हैं कि 10 न सही 5 तो देगा। वैसे तो  अन्य वायदे भी हैं लेकिन शपथ लेते ही 10 लाख  नौकरी देने का आदेश जारी करने जैसी बात बेरोजगारों को भले ही लुभा रही हो लेकिन दलीय अथवा जातीय झुकाव से परे मतदाता को  लगता है कि उसका केवल उपयोग होता है और इसी कुंठा के कारण वह लोकतंत्र के इस पर्व से दूरी बनाकर रखता है। बिहार में अभी मतदान के दो चरण और होने वाले हैं। अगर उनमें भी मतदान का आँकड़ा  इतना ही रहा तब ये मानना  गलत न होगा कि करोड़ों - अरबों फूंककर इतना हाईटेक प्रचार होने के बावजूद 45 मतदाता मतदान के प्रति इसलिए  अरुचि दिखाते हैं क्योंकि सत्ता और विपक्ष के पास उनमें उत्साह पैदा करने के लिए कुछ नहीं होता। वैसे ये स्थिति केवल बिहार की हो ऐसा नहीं है। देश के प्रधानमंत्री तक के साथ कुल मतदाताओं के 50 फीसदी से ऊपर का समर्थन नहीं होता। लोकतंत्र बहुमत के आधार पर चलता है लेकिन बहुमत भी जब अल्पमत का प्रतिनिधित्व करता हो तब उसे पूरे समाज की आवाज नहीं कहा जा सकता। हमारे देश में सरकारें चूँकि एक तिहाई मतदाताओं के बलबूते बनाई जा सकती हैं इसलिए शासक वर्ग बाकी को ठेंगे पर रखने का दुस्साहस कर  बैठता है। बिहार सदृश  राजनीतिक जाग्रति वाला राज्य यदि पिछड़ेपन का प्रतीकचिन्ह बनकर रह गया तो उसके लिए जितने वहां के राजनेता उत्तरदायी हैं उतने ही  मतदाता भी , जो चुनाव चर्चा में तो बढ़ - चढ़कर हिस्सा लेते हैं लेकिन मतदान के दिन लम्बी तानकर सो जाते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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