Friday 9 October 2020

समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता और सम्मान दोनों ढलान पर




बीते कुछ दिनों में कतिपय टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित की जा रही सामग्री को लेकर न्यायपालिका ने कुछ प्रतिबंधात्मक कदम उठाये। इसके अलावा कुछ चर्चित मामलों में समाचार चैनलों की भूमिका को लेकर भी सोशल मीडिया सहित अन्य मंचों पर बहस चल पड़ी है। ख़ास तौर पर एंकरों की चीख पुकार तो मजाक का विषय बन चुकी है। बीते दिनों समाचार माध्यमों पर आयोजित एक वेबिनार में वरिष्ठ पत्रकार एन.के सिंह ने किसी अभिनेत्री के घर से जाँच एजेंसी जाने और लौटने तक उसकी कार के सीधे प्रसारण को हास्यास्पद बताते हुए कहा कि समाचार चैनलों की प्रतिस्पर्धा फूहड़पन के चरमोत्कर्ष तक जा पहुंची है। गत दिवस मुम्बई पुलिस ने तीन टीवी समाचार चैनलों के विरुद्ध पैसे देकर टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने की शिकायत पर प्रकरण दर्ज कर लिया। आज इसमें एक और राष्ट्रीय चैनल का नाम भी आ गया। जाँच की दिशा दर्शक संख्या के फर्जी आंकड़े जुटाकर 30 हजार करोड़ के विज्ञापन कबाड़ने की तरफ  घूम गई है। हालांकि इसके पीछे शिवसेना और एक समाचार चैनल के बीच चल रही जंग बताई जा रही है लेकिन ये बात बिना संकोच के कही जा सकती है कि समाचार माध्यमों के प्रति विश्वसनीयता और सम्मान में जो कमी आई है उसके लिए समाचार चैनल काफी हद तक जिम्मेदार हैं जिन्होंने पत्रकारिता की स्थापित मान्यताओं और परम्पराओं को पूरी तरह किनारे करते हुए बॉक्स आफिस पर हिट होने के लिए बनाई जाने वाली फार्मूला फिल्मों वाली शैली समाचार संकलन और प्रस्तुतीकरण में भी अपना ली है। इस वजह से पत्रकार एंकर बन गये और एंकर पत्रकार, लेकिन इस सब में पत्रकरिता तिरोहित होती जा रही है। सम सामयिक ज्वलंत मुद्दों पर आयोजित की जाने वाली टीवी चर्चाओं में विचारों के आदान-प्रदान के साथ सार्थक बहस की जगह डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की प्रायोजित कुश्ती जैसे नज़ारे देखने मिलते हैं। 24 घंटे और सातों दिन समाचार प्रसारित करने की प्रतिस्पर्धा में कचरे के ढेर लगाने का चलन चल पड़ा है। एक ही समाचार इतनी बार दिखाया जाता है कि ऊब होने लगती है। ऐसा नहीं है कि अखबारी जगत पूरी तरह से दूध का धुला हुआ हो लेकिन बीते दो दशक में टीवी समाचार चैनलों की जो भीड़ उभरकर आ गई है उसने समाचार माध्यम के प्रतीक चिन्ह बदल डाले और बदल डाली पत्रकारिता की स्थापित मान्यताएं और परम्पराएं। लेकिन इसके लिए केवल टीवी चैनलों से जुड़े पत्रकारों और मालिकों को दोषी ठहराना न्यायोचित नहीं होगा। राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं ने भी समाचार चैनलों के दिमाग खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक दौर ऐसा था जब नेता या सरकारी अफसरान अंगरेजी अखबार के संपादक या संवाददाता को देखकर उसके प्रति कुछ ज्यादा ही सौजन्यता व्यक्त करना नहीं भूलते थे। लेकिन जबसे इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यम मैदान में आये तबसे उनको जरूरत से ज्यादा महत्व दिया जाने लगा। किसी अखबार द्वारा आयोजित आयोजन में जाने के लिए नेताओं को फुर्सत नहीं रहती जबकि समाचार चैनलों के आमन्त्रण पर सत्ताधारी और विपक्षी नेतागण नंगे पाँव दौड़कर जाने में नहीं हिचकते। इसकी वजह किसी से छिपी नहीं है। समाचार पत्र-पत्रिकाओं को जिन्हें अब प्रिंट मीडिया कहा जाने लगा है के मालिक और संपादक वगैरह का नाम सार्वजनिक होता है। वहीं समाचार चैनलों के एंकर भले दिखाई दे जाते हों लेकिन असली मालिकों के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव होता है। इस वजह से वे दबाव समूह के तौर पर आसानी से काम करने लगते हैं। जब दबाव ज्यादा बढ़ता है तब चैनलों को कोसा जाने लगता है वरना उनके कैमरे देखकर नेताओं के चेहरे पर मुस्कुराहट तैरने लगती है। मौजूदा स्थिति में बिना लागलपेट के कहा जा सकता है कि समाचार चैनलों में से कुछ को छोड़कर अधिकतर किसी न किसी विचारधारा अथवा राजनीतिक दल के या तो अंधभक्त हैं या फिर घोर आलोचक। समाचार प्रस्तुतीकरण से ही उनके झुकाव का पता चल जाता है। कुल मिलाकर पानी सिर से ऊपर आने की स्थिति बनने के बाद बात न्यापालिका और पुलिस थाने तक जा पहुँची है। लेकिन ये मसला किसी एक चैनल तक सीमित नहीं है और उसे व्यापक दृष्टिकोण के साथ देखना होगा। पूंजी आधारित समाचार माध्यमों के इस दौर में व्यवसायिकता आवश्यक बुराई के रूप में विद्यमान है। हालांकि प्रतिस्पर्धा भी बुरी नहीं है यदि उसका परिणाम स्तरीय पत्रकारिता के तौर पर सामने आये लेकिन वह एंकरों के चीखने-चिल्लाने पर केन्द्रित हो तो फिर उसे बेहूदगी ही कहा जायेगा। समाचार माध्यमों द्वारा स्व-अनुशासन का पालन करने की अपेक्षा की जाती रही है। भारतीय प्रेस परिषद के दायरे को बढ़ाकर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों माध्यमों को उसके अंतर्गत लाने की मांग भी उठती रही है। टीवी चैनलों में आचार संहिता के पालन हेतु भी एक संस्था है लेकिन जिस तरह की अराजक और कीचड़ उछाल प्रतिस्पर्धा वर्तमान में चल रही है वह बहुत ही शर्मनाक है। श्रेष्ठता के भाव से आत्ममुग्ध इलेक्ट्रानिक मीडिया के कारण अखबार जगत में भी चारित्रिक बदलाव देखने मिल रहा है। पूंजी के खेल में मुनाफा ही धर्म बन जाता है। दुर्भाग्य से अधिकतर समाचार माध्यम अब उसी के मकडज़ाल में फंसकर अपनी मौलिकता और पवित्रता खोते जा रहे हैं। यदि यही हालात आगे भी जारी रहे तो बड़ी बात नहीं चौथे स्तम्भ का जो सम्मान उन्हें मिला हुआ है उससे उन्हें वंचित होना पड़े।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment