Tuesday 6 October 2020

कारोबारी जगत को राहत दिये बिना अर्थव्यवस्था में सुधार असंभव




लॉक डाउन में बैंकों द्वारा कर्ज अदायगी में तो छूट दे दी गई  लेकिन उस दौरान ब्याज पर माफी की मांग भी  उद्योग - व्यापार जगत से उठाई गई जिसके लिये बैंक तैयार नहीं हुए । उसके बाद बात आई कि कम से कम ब्याज पर जो ब्याज लगाया गया उसे ही वापिस ले लिया जावे। वैसे तो सरकार और बैंकों का प्रबन्धन इसके लिए तैयार नहीं था लेकिन सर्वोच्च  न्यायालय ने जब दबाव बनाया तब जाकर सरकार और रिजर्व बैंक ने ब्याज पर ब्याज माफ करने के आश्वासन संबंधी जवाब पेश कर दिया। लेकिन न्यायालय इससे संतुष्ट नहीं हुआ और हलफनामे में वर्णित प्रावधानों को लेकर और स्पष्टता के निर्देश दिए। अदालत ने कामथ समिति की रिपोर्ट भी पेश करने कहा। ये मामला चूँकि देश की सबसे  बड़ी अदालत में है इसलिए अब उसका फैसला भी वहीं से होगा लेकिन बैंकिंग प्रणाली और उसके ग्राहक विशेष रूप से कर्जदारों के बीच के रिश्ते महाजनी परम्परा पर आधारित होते हैं। इसमें दोनों पक्ष एक दूसरे के हितों का संरक्षण करते हैं। लेकिन भारत में  बैंकों ने ग्राहकों का शोषण करने की प्रवृत्ति को अपनी कार्यप्रणाली का हिस्सा बना रखा है। दुनिया में सबसे ऊंची ब्याज दर के अलावा न जाने कहाँ - कहाँ के चार्जेस लगाकर खातेदारों की  जेब काटी जाती है। इस सबके पीछे भी बैंकों में होने वाले घोटाले ही हैं। बैंकों में घुस आये भ्रष्टाचार  नामक वायरस की वजह से जो  करोड़ों रूपये के घोटाले होते हैं उनकी अप्रत्यक्ष वसूली ईमानदार ग्राहकों से करने की तरकीब निकाल  ली गई। निजी क्षेत्र के  बैंक तो छद्म चार्जेस के नाम पर ग्राहकों को चूना लगाने के  लिए वैसे भी कुख्यात हैं। वैसे बैंकों की मुनाफखोरी और शोषण करने की प्रवृत्ति के लिए सरकारें भी  कम जिम्मेदार नहीं  हैं जो अपने वोट बैंक को बनाये रखने के लिए बैंकों का बेजा इस्तेमाल करती हैं। कर्ज माफी जैसी योजनाओं की वजह से बैंकों की वसूली पर भी   बुरा असर पड़ता है। मप्र ,  छतीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सरकार बनते ही 10 दिन में किसानों के  कर्ज माफ़ करने का वायदा किया था। लेकिन बाद में आर्थिक संकट के कारण उसे टाला जाता रहा। उधर किसान बैंकों का कर्ज चुकाने से मना करने लगे । अनेक स्थानों पर वसूली करने गये बैंक कर्मियों को हिंसा का शिकार भी होना पड़ गया। कोरोना काल अर्थव्यवस्था पर अभूतपूर्व संकट लेकर आया। पहली बार ऐसा हुआ जब पूरा देश बंद हो गया। कुछ को छोड़कर सभी औद्योगिक और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में तालाबंदी हो गई। कारोबार ठप्प होने से कर्जदारों के लिए बैंकों की देनदारी चुकाने की समस्या पैदा हो गई। इसके अलावा निजी क्षेत्र में भी बड़ी  संख्या में नौकरियां जाने से  मध्यमवर्गीय तबके की ऋण अदायगी  की क्षमता पर बुरा असर पड़ा। यद्यपि लॉक डाउन  होते ही सरकार के निर्देश पर बैंकों ने ऋण की किश्तें चुकाने की समय सीमा अनेक बार बढ़ाई। लेकिन लॉक डाउन समाप्त होने के बाद जब ये लगा कि आर्थिक गतिविधियां सामान्य हो चली हैं तब कर्ज चुकाने का दबाव बनाया जाने लगा। न सिर्फ बैंकों की देनदारी बल्कि अन्य सरकारी विभागों की  वसूली भी दबाव डालकर की जाने लगी। इस वजह से व्यापार और उद्योग जगत में जबरदस्त गुस्सा व्याप्त है। सरकारी भुगतान नहीं मिलने से भी उद्योग और व्यापार जगत के समक्ष बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है। ऐसे में बैंकों और सरकारी करों के भुगतान हेतु पड़ने वाला दबाव दूबरे में दो आसाढ़ वाली कहावत को चरितार्थ कर रहा है। और जब बात ब्याज पर थोपे गए  ब्याज की आई तब ये भावना  तेजी से फैली कि सरकार और उसके उपक्रम बने बैंक संकट की इस  घड़ी में ईमानदार व्यवसायी के साथ खड़े होने की बजाय उसका गला काटने से बाज नहीं आ रहे। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का रुख बहुत ही न्यायोचित है। बैंकों के बढ़ते मुनाफे को देखते हुए ऐसा करना बड़ी बात नहीं होगी। बेहतर होगा सरकार और रिजर्व बैंक ब्याज पर  ब्याज न लगाने संबंधी स्पष्ट नीति न्यायालय के सामने पेश करे। वैसे  तो सरकार को ये मामला सर्वोच्च न्यायलय में जाने से पहले ही व्यापार - उद्योग जगत की उचित अपेक्षाओं को पूरा करना  चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्यवश वह ऐसा नहीं कर सकी। बैंकों ने वसूली  के नोटिस भेजना शुरू कर दिए हैं। सरकार और रिजर्व बैंक के पास अभी भी  समय है परिस्थितिजन्य ऐसा फैसला करने का जो संतुलित हो। बैंक व्यावसायिक संस्था होने से घाटे  में नहीं चलाए जा सकते लेकिन समय का तकाजा है कि वे अपने मुनाफे को कम से कम एक वर्ष के लिए थोड़ा कम करें जिससे कि उद्योग और व्यापार जगत की उखड़ी हुई  सांसें वापिस लौट सकें। अर्थव्यवस्था को सबल बनाने के लिए कारोबारी जगत को भी शक्तिवर्धक दवा देना जरूरी है।

- रवीन्द्र वाजपेयी


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