Thursday 22 October 2020

बड़े साहबों और सांसद - विधायकों के पद खाली क्यों नहीं रहते



अच्छा हुआ केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ही ये स्वीकार कर लिया कि हमारे देश में प्रति एक लाख पर मात्र 198 पुलिस कर्मी हैं जो वैश्विक अनुपात से बहुत कम हैं। इसी संदर्भ में ये जानकारी भी उजागर हो गयी कि देश भर में पुलिस के कुल स्वीकृत पद तकरीबन 26 लाख हैं जिनमें से 5 लाख से ज्यादा यानि 20 प्रतिशत खाली पड़े हैं। गृह मंत्री ने पुलिस स्मृति दिवस पर इस बात का आश्वासन दिया कि जनसँख्या के अनुपात में पुलिस बल की तैनाती शीघ्र की जायेगी। बढ़ती आबादी और शहरों के बेतरतीब विकास की वजह से नए पुलिस थानों की व्यवस्था तदनुसार नहीं हो सकी जिसका दुष्परिणाम अपराधियों के हौसले बुलंद होने के तौर पर सामने आया है। वैसे श्री शाह ने कोई नई बात नहीं कही। अपर्याप्त पुलिस बल का मुद्दा सदैव उठता रहा है। लेकिन पद स्वीकृत होने के बाद भी भर्ती नहीं किये जाने की संस्कृति के कारण सब कुछ जानते हुए भी सुधार की तरफ ध्यान नहीं दिया जाना अक्षम्य उदासीनता है। लेकिन केवल पुलिस महकमे में ही ये समस्या नहीं है। सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायधीशों के कुल मिलाकर सैकड़ों पद रिक्त पड़े होने से न्याय प्रक्रिया विलंबित होती है। उसके अलावा विवि में आचार्यों के पद बड़ी संख्या में रिक्त हैं। शालेय स्तर पर तो देश भर में लाखों शिक्षकों की भर्ती रुकी हुई है। यही हाल कार्यालयीन कर्मचारियों का है। सेना, रक्षा उत्पादन, रेलवे आदि में भी पदों की स्वीकृति के बावजूद लाखों भर्तियाँ ठन्डे बस्ते में डालकर रख दी गई हैं। लेकिन कुछ पद ऐसे हैं जिनको खाली नहीं रखा जाता। उनमें एक तो भारतीय प्रशासनिक सेवा के विभिन्न क्षेत्र मसलन आईएएस, आईपीएस, आईआरएस और इसी तरह के ऊँचे ओहदे वाले पद हैं। इनकी भर्ती केन्द्रीय लोकसेवा आयोग के माध्यम से प्रतिवर्ष बेनागा होती है तथा परिणाम भी समय पर घोषित कर प्रशिक्षण और नियुक्तियाँ भी तय समय पर की जाती हैं। लेकिन राज्यों के लोकसेवा आयोग इस मामले में फिसड्डी हैं जो आवेदन आने के बाद परीक्षा लेने में दो-तीन साल तक लगा देते हैं। फिर परिणाम और उसके बाद साक्षात्कार की प्रक्रिया भी कछुआ गति से बढ़ती है। इस कारण हजारों युवक-युवतियां दूसरे अवसरों से वंचित हो जाते है और कई तो आयु सीमा पार करने की वजह से सरकारी नौकरी के लिए अपात्र साबित होकर बेरोजगारी का दंश भोगने बाध्य होते हैं। एक और क्षेत्र ऐसा है जिसमें खालीपन नहीं रहता और वह है संसद और विधानसभा के सदस्यों के रिक्त स्थान। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार किसी सांसद या विधायक की मृत्यु या त्यागपत्र की स्थिति में छह महीने के भीतर उपचुनाव करवा लिया जाता है। मप्र में विधानसभा की 28 सीटों के चुनाव कोरोना के कारण उक्त अवधि में नहीं करवाए जा सके लेकिन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी अंतत: नवंबर तक उन्हें भर लिया जावेगा। सवाल ये है कि सरकारी पदों के लिए आवेदन भरवाए जाने के बाद चयन प्रक्रिया पूरी होने की कोई निश्चित समय सीमा क्यों नहीं है? और यदि नहीं है तब आईएएस और आईपीएस के पदों को नियमित क्यों भरा जाता है और सांसद-विधायकों के रिक्त पद भरने के लिए कोरोना जैसे संकट तक को नजरंदाज क्यों कर दिया जाता है? श्री शाह ने पुलिस और जनसँख्या का असंतुलन दूर करने की बात तो कह दी लेकिन बतौर गृह मंत्री उन्हें सभी शासकीय पदों के खालीपन को दूर करने की बात करनी चाहिए। उदारीकरण के बाद सरकारी नौकरियों में निरंतर कमी आती जा रही है। अनेक विभागों में संविदा नियुक्ति से काम चलाया जाने लगा है। शिक्षा विभाग में अतिथि शिक्षक नामक नया चलन देखने मिल रहा है। विभिन्न सरकारी उपक्रमों का विनिवेश होने से भी सरकारी नौकरियां घटती जा रही हैं। ऐसे में केवल पुलिस महकमे के खाली पद भरे जाने की बजाय समग्र चिंतन जरूरी है। शासन और प्रशासन में चुस्ती लाने के लिए जरूरी है कि रिक्त पद चाहे न्यायाधीश का हो या भृत्य का उसे भरा जाना चाहिये। इस बारे में किसी भी तरह का भेदभाव या वर्गभेद उचित नहीं है। दुर्भाग्य से अभी भी भारतीय शासन प्रणाली ब्रिटिश राज की मानसिकता से मुक्त नहीं सकी और इसीलिये केवल साहब बहादुरों और नव सामंतों की गद्दी खाली नहीं रखी जाती जबकि बाकी पदों को भरने के प्रति उपेक्षाभाव बना रहता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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