Tuesday 20 October 2020

20-10-62 को याद कर चीन संबंधी स्थायी नीति बने



कहने को तो 20 अक्टूबर तारीख मात्र है लेकिन स्वाधीन भारत में 58 साल पहले का 20 अक्टूबर अविस्मरणीय दिन बन गया क्योंकि उसी दिन चीन ने धोखा देते हुए लद्दाख से अरुणाचल तक की लम्बी सीमा पर हमला बोल दिया था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. नेहरु के साथ ही पूरा देश हतप्रभ रह गया। हमारी तैयारी ऐसी नहीं थी कि हम उसका सामना कर पाते। परिणामस्वरूप हमारी सेना को अकल्पनीय मुसीबतें झेलनी पड़ीं। लेकिन उसने जिस शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया वह शर्मनाक पराजय के बावजूद एक गौरवगाथा बन गई। एक महीने बाद चीन ने युद्धविराम तो कर दिया लेकिन तब तक हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि उसके कब्जे में जा चुकी थी जिसे वापिस लेने के लिए संसद में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करने के अलावा कोई प्रयास हुआ हो ऐसा कहीं से नहीं लगा। उलटे चीन कभी लद्दाख, कभी अरुणाचल तो कभी सिक्किम और भूटान से सटे इलाके को अपना बताकर दबाव बनाया करता है। अरुणाचल को तो दक्षिणी तिब्बत नाम देकर वह अपने नक्शे में दर्शाने से भी बाज नहीं आता। 1962 के बाद चीन के साथ दोबारा सीधे युद्ध की नौबत नहीं आई। लगातार शरारतपूर्ण रवैये के बावजूद चीन ने सैन्य दृष्टि से ऐसा कुछ नहीं किया जिसे युद्ध कहा जा सके। छुटपुट झड़पें तो होती रहीं लेकिन आपसी समझौते के अंतर्गत शस्त्रों के उपयोग से दोनों देश बचते रहे। बीती गर्मियों में गलवान घाटी में हुई मुठभेड़ में दोनों ओर से बड़ी संख्या में सैनिकों के हताहत होने के बावजूद एक भी गोली चलने की बात सामने नहीं आई। मार्च से ही लद्दाख अंचल में चीन ने वास्तविक नियन्त्रण रेखा की स्थिति को बदलने का दुस्साहस किया लेकिन भारत ने सैनिक और कूटनीतिक दोनों मोर्चों पर जबरदस्त चुनौती पेश करते हुए पहली बार चीन को दबाव में लाकर खड़ा कर दिया। अग्रिम सीमा तक सड़क , पुल और हवाई पट्टी के निर्माण किये जाने से भारत उन दुर्गम इलाकों में चीन को चुनौती देने में सक्षम है। हालांकि तनाव चरम तक पहुंचने के बाद भी अब तक युद्ध की नौबत नहीं आई किन्तु भारत द्वारा सियाचिन की तरह से ही लद्दाख सहित चीन से लगी समूची सीमा पर सेना के साथ ही मिसाइलें, तोपें, टैंक, लड़ाकू विमान आदि तैनात करने के अलावा उच्च क्षमतावान राडार प्रणाली भी स्थापित कर दी गई। यदि ये सब न किया जाता तब चीन 1962 जैसे हालात बनाने में कामयाब हो जाता। लेकिन 58 साल बाद चूंकि पहली बार युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हुई है इसलिए आज के दिन हमें इस बात पर आत्मावलोकन करना चाहिए कि इतने वर्षों में चीन के साथ सीमा विवाद का हल ढूढ़ने में सफलता क्यों नहीं मिली? आज भले चीन विश्व की बड़ी आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बन गया हो लेकिन दो-ढाई दशक पहले तक हम उससे अच्छी स्थिति में हुआ करते थे। परमाणु शक्ति संपन्न होने के बावजूद चीन के सामने भारत खुद को दबा-दबा क्यों महसूस करता रहा ये भी बड़ा सवाल है। पाक अधिकृत कश्मीर दोबारा हासिल करने के बारे में तो खूब बातें होती हैं लेकिन चीन के आधिपत्य में चली गई भूमि की लेकर किसी भी वैश्विक मंच पर भारत ने आज तक आवाज नहीं उठाई। बीते एक दशक में चीन से भारत में होने वाला आयात पूरी तरह से इकतरफा हो गया जिसके कारण उसको तो अनाप शनाप फायदा हुआ लेकिन भारत के लघु और मध्यम उद्योग तबाह हो गये। हालिया तनाव के बाद केंद्र सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर प्रतिबंधात्मक कदम उठाकर चीन को चुनौती देने का जो साहस दिखाया गया वैसा पहली बार सत्ता में आते ही क्यों नहीं किया ये भी विचारणीय है। आज का दिन इस बारे में ये सोचने का है कि चीन ने साम्यवादी शासन आते ही विस्तारवाद की जो दूरगामी नीति बनाई वह आज भी जारी है। लेकिन तिब्बत पर उसके बलात कब्जे को मान्यता देने जैसी गलती का खामियाजा भुगतने के बाद भी उसको लेकर हमारी कोई स्थायी सोच नहीं बन सकी और तात्कालिक आधारों पर ही कूटनीतिक रिश्ते नर्म-गर्म होते रहे। इस बारे में एक बात ध्यान रखने योग्य है कि चीन को भविष्य की महाशक्ति मानकर पं. नेहरु ने तुष्टीकरण करने के लिए पहले तो तिब्बत पर उसके कब्जे को मान्य किया और फिर वहां के धार्मिक शासक दलाई लामा को न केवल शरण दी अपितु तिब्बत की निर्वासित सरकार चलाने की छूट देकर उसे नाराज कर दिया। तिब्बत को कब्जाने के साथ ही चीन ने एक तरफ  तो नेहरु जी के संग पंचशील नामक समझौता कर हिन्दी-चीनी भाई भाई का नारा लगाया और दूसरी तरफ  सीमा संबंधी विवाद को हवा देने की शुरुवात करते हुए अंग्रेजों के ज़माने से चले आ रहे तमाम समझौतों को नकारते हुए कहना शुरू कर दिया कि भारत के साथ उसकी सीमाओं का कभी निर्धारण हुआ ही नहीं। वह तो उसी बात पर अड़ा है लेकिन भारत की तरफ  से आज तक चीन को कड़े शब्दों में ये कहने की हिम्मत नहीं हुई कि किसी भी तरह के सम्बन्ध रखने के पहले 20 अक्टूबर 1962 की स्थिति वापिस लाई जाए। चीन को ये बताने की जरूरत है कि यदि सीमा विषयक ऐतिहासिक समझौते और व्यवस्थाएं बेमानी हैं तब तिब्बत पर उसका कब्जा भी अमान्य करने योग्य है। हालिया घटनाक्रम से एक बात तो साफ हो गई कि चीन को उसी की शैली में जवाब दिया जाए तो उसकी धौंस कम हो जाती है अन्यथा वह डराने और धमकाने की चिर-परिचित नीति पर चलता रहता है। इस साल 20 अक्टूबर पर भले ही युद्ध न हो रहा हो लेकिन सीमा पर जो हालात हैं उनमें कब क्या हो जाए कहना कठिन है। और इसीलिये यही माकूल समय है जब चीन को लेकर भारत को अपनी ऐसी दूरगामी नीति बना लेनी चाहिए जिसमें शर्तें निर्धारित करने का अधिकार हमारे पास रहे। कूटनीति में एक तरफ  तो दिल मिलें न मिलें, हाथ मिलाते रहिये वाली उक्ति काफी प्रचलित है वहीं ये भी कि दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए। चीन ने बीते साठ साल में दूसरी उक्ति का भरपूर उपयोग किया, अब हमारी बारी है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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